29 दिसंबर, 2009

AMNESTY INTERNATIONAL


AI index: ASA 20/023/2009
23 December 2009
India: Chhattisgarh authorities must stop torture and arbitrary
arrests of peace activists and human rights defenders
Amnesty International urges authorities in the central Indian state of Chhattisgarh to
immediately stop the torture and arbitrary arrest of peace activists and human rights defenders
belonging to the Vanvasi Chetna Ashram (VCA) and drop all politically motivated charges
against VCA member Kopa Kunjam, who was arrested on 10 December. The government must
investigate reports of torture immediately, and bring those responsible to justice.
The VCA, a group professing the Gandhian ideology of non-violence, has been campaigning for
the last four years against human rights abuses of Adivasi communities in the ongoing armed
conflict in Chhattisgarh. The VCA also works for the return and resettlement of some 10,000
Adivasis who have been internally displaced by the conflict between the security forces and
the Salwa Judum, a militia widely believed to be supported by the state government, and the
armed opposition group the Communist Party of India (Maoist).
On 10 December, the Chhattisgarh state police arbitrarily arrested Kopa Kunjam and Alban
Toppo, a lawyer working with the New Delhi-based Human Rights Law Network (NRLN) at
Dantewada. They were taken first to the Dantewada police station and then to the Bhairamgarh
police station in the neighbouring Bijapur district.
Alban Toppo reported that the police tortured him and Kopa Kunjam that night at the
Bhairamgarh police station. They were beaten with thick bamboo sticks and rubber canes for
30 minutes. Toppo was forced to sign a letter stating that they had come to Bhairamgarh
police station of their own accord. As a result of the torture, Toppo sustained injuries on his
right elbow, biceps and back, causing severe pain and swelling. He could not move his hands
and back because of the pain. Kopa Kunjam sustained serious injuries on his chest, back and
leg, which left him unable to walk.
Although Toppo was released that night, he remained at the police station, as he had no
means of returning home. Accompanied by police personnel, he was able to return the next
morning. On 12 December, Kopa Kunjam appeared before a local court where he was charged,
under Section 302 of the Indian Penal Code, with the murder of Punem Honga, a local leader
and member of the Salwa Judum, who had been abducted by the Maoists on 2 June 2009.
Amnesty International believes that Kopa Kunjam is being targeted because he exposed
human rights violations by the security forces, including the extrajudicial executions of 15
Adivasis at Singaram on 8 January and three Adivasis in front of the Matwada police station on
18 June 2009.
Amnesty International has received further reports that the Chhattisgarh police disrupted a
peace march organized by the VCA on 14 December at Dantewada. On that day, the Kanker
police prevented a group of 30 activists from proceeding to Dantewada and forced them to
return to the state capital, Raipur, citing security problems. The VCA is now planning to hold
the peace march on 25 December.
The arbitrary detention of the VCA activists clearly violates India's Supreme Court guidelines
issued in the D. K. Basu vs State of West Bengal case and the International Covenant on Civil
and Political Rights (ICCPR), to which India is a state party. Article 9 of the ICCPR
guarantees the right to liberty, which includes freedom from arbitrary detention.
Amnesty International calls upon the Government of Chhattisgarh to:
·

drop all politically-motivated charges against Kopa Kunjam;

·

ensure a prompt, impartial, independent and effective investigation into the
allegations of torture and ill-treatment of Kopa Kunjam and Alban Toppo. Those
suspected of involvement including persons with command responsibility should be
prosecuted, in proceedings which meet international standards of fairness. Also, the
two victims must be awarded full reparation.

·

take all necessary measures to guarantee that human rights defenders are able to carry
out their legitimate human rights activities without fear of torture and harassment.
Public Document
****************************************
For more information please call Amnesty International's press office in London, UK, on +44
20 7413 5566 or email:
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02 दिसंबर, 2009

मुक्तिबोध स्मृति फ़िल्म और कला उत्सव का समापन

मुक्तिबोध के जन्मदिवस पर शुरु हुआ भिलाई में जन संस्कृति मंच का 'मुक्तिबोध स्मृति फ़िल्म और कला उत्सव'( १३-१५, नवम्बर, २००९). प्रथम मुक्तिबोध स्मृति व्याख्यानमाला की शुरुआत की जसम के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रो. मैनेजर पांडेय ने. उन्होंने मुक्तिबोध की प्रतिबंधित पुस्तक, "भारत: इतिहास और संस्कृति' को ही अपने व्याख्यान का विषय बनाते हुए उसकी मार्फ़त अपने समय को जानने समझने की प्रक्रिया को रेखांकित किया. उन्होंने मांग की कि १९६२ में मुक्तिबोध की पुस्तक, "भारत: इतिहास और संस्कृति " पर लगाया गया प्रतिबंध मध्य प्रदेश सरकार वापस ले. ऎसा करते ही अदालत द्वारा प्रतिबंध की अनुशंसा खुद-ब-खुद समाप्त हो जाएगी. बाद में इसे प्रस्ताव के रूप में सदन ने भी पारित किया. इस व्याख्यान से पहले मुक्तिबोध के बड़े बेटे रमेश मुक्तिबोध ने अपने पिता की कुछ यादों को श्रोताओं के सामने रखा जिसे सुनकर कईयों की आंखें छलछला आईं. उन्होंनें खासकर उन दिनों को याद किया जब १९६२ में यह प्रतिबंध लगा था, जब मुक्तिबोध का पक्ष सुनने को कोई तैय्यार न था, जब उनपर हमले हो रहे थे और कांग्रेसी सरकार ने इस पुस्तक पर प्रतिबंध लगाने की जनसंघ (आर.एस.एस.)की मांग को पूरा किया. इस सत्र की अध्यक्षता कर रहे 'समकालीन जनमत' के प्रधान संपादक रामजी राय ने मुक्तिबोध की कविताओं से उद्धरण देते हुए यह स्थापित किया कि मुक्तिबोध आज़ादी के बाद की सत्ता-संरचना के सामंती और साम्राज्यवादी चरित्र को पहचानने वाले और उसकी फ़ासिस्ट परिणतियों को रेखांकित करने वाले हिंदुस्तान के पहले और सबसे ओजस्वी कवि-बुद्धिजीवी थे. रामजी राय ने स्पष्ट कहा कि मुक्तिबोध की ग्यानात्मक-संवेदना उनकी पार्टी की कार्यनीति के ठीक खिलाफ़ यह दिखला रही थी कि नेहरू-युग की चांदनी छलावा थी, कि देश का पूंजीपति वर्ग विदेशी पूंजी पर निर्भर था, कि पूंजीवादी-सामंती राजसत्ता साम्प्रदायिक ताकतों के आगे सदैव घुटने टेकने को शुरू से ही मजबूर थी, जैसा कि मुक्तिबोध की पुस्तक पर प्रतिबंध के संदर्भ में उद्घाटित हुआ और उसके पहले और बाद में भी जिसके असंख्य उदाहरण हमारे सामने हैं. इस सत्र में कवि कमलेश्वर साहू की पुस्तक 'पानी का पता पूछ रही थी मछली' का विमोचन प्रों पांडेय ने किया. सत्र में श्रीमती शांता मुक्तिबोध (ग.मा. मुक्तिबोध की जीवन-संगिनी)व श्री रमेश मुक्तिबोध के लिए सम्मान-स्वरूप स्मृति-चिन्ह श्री रमेश मुक्तिबोध को जन संस्कृति मंच की ओर से प्रो. मैनेजर पांडेय ने प्रदान किया. ग्यातव्य है कि श्रीमती शांता मुक्तिबोध अस्वस्थता के कारण स्मृति समारोह में नहीं आ सकीं. इसके ठीक बाद कवि गोष्ठी मे सर्वश्री मंगलेश डबराल. वीरेन डंगवाल और विनोद कुमार शुक्ल ने अपनी कविताओं का पाठ किया. हमारे समय के तीन शीर्ष कवियों का मुक्तिबोध की स्मृति में यह काव्यपाठ छत्तीसगढ़ के श्रोताओं के लिए यादगार हो गया. इस काव्य-गोष्ठी के ठीक बाद मंच से गुरु घासीदास विश्विद्यालय में पिछले ५ सालों से मुक्तिबोध की कविताओं को दुर्बोध बताते हुए पाठ्यक्रम से हटाए रखने की निंदा की गई और उनकी कविताओं को पाठ्यक्रम में वापस लिए जाने की मांग की गई.
भिलाई -दुर्ग स्थित कला-मंदिर में इस समारोह में भाग लेने वाले तमाम कलाकारों के चित्रों के साथ महान प्रगतिशील चित्रकार चित्तो-प्रसाद के चित्रों की प्रदर्शिनी लगाई गई. सर्वश्री हरिसेन, सुनीता वर्मा, तुषार वाघेला, गिलबर्ट जोज़फ़, एफ़.आर.सिन्हा, डी.एस.विद्यार्थी, रश्मि भल्ला, ब्रजेश तिवारी. अंजलि, पवन देवांगन, रंधावा प्रसाद ,उत्तम सोनी आदि चित्रकारों के चित्र प्रदर्शित किए गए. सर्वश्री धनंजय पाल , कुलेश्वर चक्रधारी, ईशान, विक्रमजीत देव तथा खैरागढ़ से आए विद्यार्थियों की बनाई मूर्तियां भी प्रदर्शित की गईं. सर्वश्री अर्जुन और महेश वर्मा के बनाए खूबसूरत कविता-पोस्टर भी प्रांगण में सजाए गए थे. १३ नवम्बर के दिन की अंतिम प्रस्तुति थी सुश्री साधना रहटगांवकर का सूफ़ी गायन. गायन का यह सत्र प्रख्यात गायिका गंगूबाई हंगल तथा इकबाल बानो की स्मृति को समर्पित था.
१४ ववम्बर के दिन 'मांग के सिंदूर ' नाम के छत्तीसगढ़ी नाट्य-गीत संगठन के खुमान सिंह यादव और साथियों ने नाचा शैली के गीत और नाट्य पेश किए. उसके बाद बच्चों ने जनगीत प्रस्तुत किए.यह सत्र महान रंगकर्मी श्री हबीब तनवीर व नाट्य लेखक श्री प्रेम साइमन की याद को समर्पित था. दोपहर ३ बजे फ़िल्मोत्सव का उदघाटन विख्यात फ़िल्म-निर्देशक एम.एस. सथ्यू के हाथों हुआ. उदघाटन- सत्र की अध्यक्षता श्री राजकुमार नरूला ने की जबकि जन संस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण और फ़िल्मोत्सव के संयोजक संजय जोशी ने विशेष अतिथियों के बतौर समारोह को संबोधित किया. श्री प्रणय कृष्ण ने कहा कि जिस तरह तेल के लिए अमरीका ने ईराक को तबाह किया, उसी तरह अल्यूमिनियम , बाक्साइट आदि खनिजों के लिए हमारे देश की सरकार छत्तीसगढ़, उड़ीसा और पूरे मध्य भारत के जंगलों, पहाड़ों और मैदानों में रहने वाले अपने ही नागरिकों के खिलाफ़ बड़े पूंजीपति घरानों के लाभ के लिए युद्ध छेड़ चुकी है. देश की सभी शासक पार्टियां भूमंडलीकरण पर एकमत हैं , लेकिन हर कहीं बगैर किसी संगठन, पार्टी और विचारधारा के भी गरीब जनता इस कार्पोरेट लूट के खिलाफ़ उठ खड़ी हो रही है, वह कलिंगनगर हो या सिंगूर, नंदीग्राम या लालगढ़. अपनी आजीविका और ज़िंदा रहने के अधिकार से वंचित, विस्थापित लोग अपनी ज़मीनों, जंगलों और पर्यावरण की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं. चंद लोगों के विकास की कीमत बहुसंख्यक आबादी और पर्यावरण का विनाश है. मुक्तिबोध और उनकी कविता इस संघर्षरत आम जन की हमसफ़र है. श्री एम.एस. सथ्यू ने औद्योगिक विकास की रणनीति और माडल पर अपनी दुविधाओं को व्यक्त किया. श्री संजय जोशी ने फ़िल्म समारोहों की जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित श्रृंखलाओं को कारपोरेट, सरकारी और स्वयंसेवी समूहों पर आर्थिक निर्भरता से मुक्त जन-निर्भर संस्कृति- कर्म का उदाहरण बताया. १४ नवंबर के दिन चार्ली चैपलिन की 'माडर्न टाइम्स', गीतांजलि राय की एनिमेशन फ़िल्म 'प्रिंटेड रेनबो', विनोद राजा की डाक्यूमेंटरी 'महुआ मेमोयर्स' तथा डि सिका की क्लासिक 'बायसिकिल थीफ़' को सैकड़ों दर्शकों ने न केवल देखा, बल्कि उन पर चर्चा भी की. १५ नवम्बर के दिन पहला सत्र बच्चों की फ़िल्मों का था. पूरा कला-मंदिर बच्चों से भर उठा. यह सत्र रिषिकेश मुकर्जी और नीलू फुले की स्मृति को समर्पित था. इसमें राजेश चक्रवर्ती की 'हिप हिप हुर्रे', रैंडोल की बाल-फ़िल्म श्रंखला 'ओपन द डोर' और माजिद मजीदी की ईरानी फ़िल्म 'कलर आफ़ पैराडाइज़' दिखाई गईं.
इस दिन फ़िल्मों का दूसरा सत्र छत्तीसगढ़ी नाचा के अप्रतिम कलाकार मदन निषाद और फ़िदाबाई की स्मृति को समर्पित था. इस सत्र में मिशेल डी क्लेरे की 'ब्लड ऐंड आयल', सूर्यशंकर दास की 'नियामराजा का विलाप', अमुधन आ.पी. की 'पी (शिट)', बीजू टोप्पो और मेघनाथ की 'लोहा गरम है', तुषार वाघेला की 'फ़ैंटम आफ़ ए फ़र्टाइल लैंड ' जैसी जन-प्रतिरोध की डाक्य़ूमेंटरी फ़िल्मों का प्रदर्शन किया गया. अंतिम सत्र चित्रकार मंजीत बावा, तैय्यब मेहता एवं आसिफ़ की स्मृति को समर्पित था. इस सत्र में मंजिरा दता की "बाबूलाल भुइयन की कुर्बानी' और एम.एस. सथ्यू की 'गर्म हवा' प्रदर्शित की गईं. चर्चा सत्र में सैकड़ों दर्शकों के साथ फ़िल्म के बारे में एम.एस. सत्थ्यू ने देर रात तक चर्चा की. इसके बाद तीन द्विवसीय 'मुक्तिबोध स्मृति फ़िल्म और कला उत्सव' का समापन -सत्र सम्पन्न हुआ. ---
अर्जुन

21 नवंबर, 2009

अधूरी तमन्नाओं का सफर है बाज़ार

इस बार पढ़िये बाजार फिल्म पर संदीप कुमार पांडेय का आलेख। साथियों बिजूका फिल्म क्लब इंदौर रविवार 22 नवंबर को स्थानीय शहीद भवन पर मशहूर फिल्मकार विटोरिया डिसिक्का की फिल्म बाइसिकिल थीफ दिखाने जा रहा है.अगर आप भी देखना चाहते हैं तो जरूर आयें
-सत्यनारायण पटेल

सागर सरहदी की सन 1982 में आई फिल्म ‘बाजार’ कई मायनों में अपनी समकालीन अथवा उन पूववर्ती फिल्मों से अलग है जो महिलाओं को केंद्र में रखकर बनाई गई हैं। पता नहीं वे कौन सी वजहें थीं जिनके चलते इस फिल्म को अलोचकों तक ने जानबूझकर हाशिए पर रखा, नतीजतन फिल्म के अच्छे या बुरे पहलुओं पर उस तरह से चर्चा नहीं हो पाई जिसकी यह हकदार है।


बाजार के पहले और बाद में बनी फिल्मों में महिला चरित्र एकदम स्टीरियोटाइप रहे हैं, उसपर मुस्लिम महिलाओं के चरित्र तो एकदम प्रिडेक्टिबल कहे जा सकते हैं। पुरुशों के वर्चस्व वाली फिल्मी दुनिया ने उन्हें अम्मी, आपा, खाला और बीवी या माशूका जैसे चार पांच किरदारों में कैद कर दिया। यकीनन बाजार भी कुछ मायनों में इनसे अलग नहीं रही लेकिन फिर भी बाजार के महिला किरदारों में एक अनोखी चारित्रिक मजबूती उभरकर सामने आती है।


फिल्म की कहानी भले ही हैदराबाद के पारंपरिक मुस्लिम परिवारों के इर्दगिर्द घूमती हो लेकिन वास्तव में बाजार तमाम भारतीय उपमहाद्वीप के मुस्लिम समुदाय के घरों के अंदरूनी हालात का जायजा लेती हुई फिल्म है। इसने उन तल्ख हकीकतों को उजागर किया जिनका सामना इन घरों की महिलाओं को करना पड़ता है।


सिनेमा से काफी पहले साहित्य में राही मासूम रजा ने अपने चर्चित उपन्यास ‘आधा गांव’ में मुस्लिम परिवारों की दुविधा, उनकी उस मनोस्थिति को सामने लाया गया जिससे मुस्लिम समाज आजादी के दौर में गुजर रहा था।


मुख्य कहानी से इतर उपन्यास में अनेक कहानियां साथ-साथ चलती हैं जिनमें कई केंद्रीय पात्र ऊंचे खानदान से ताल्लुक रखतें हैं और उनका सारा जोर अपनी बेटियों की शादी में हड्डी की शुद्धता कायम रखने पर ही है चाहे भले ही उन घरों में परदे के पीछे नौकरों तक से संबंध कायम किए जाते हों।
स़़्त्री बाजारवाद अथवा उपभोक्तावाद के आगमन से सदियों पहले से उपभोग और बाजार में बेचे जाने वाली वस्तु की तरह व्यवहार में लाई गई है और इस बात को समझने के लिए किसी रिसर्च के अध्ययन की आवष्यकता नहीं।


बाजार के केंद्रीय चरित्रों में से एक नजमा (स्मिता पाटिल) को अपना घर छोड़कर निकलना पड़ता है क्योंकि उसकी मां नवाबी आन बान और शान को बरकरार रखने के लिए उसे जिस्मफरोशी करने को मजबूर कर रही है। उसकी मां के तर्क देखिए- ‘‘ हमारे खानदान में नौकरां रखते हैं बेटी नौकरी नहीं करते।’’


- ‘‘ मान जाओ बेटी किसी को कानों कान खबर नहीं होगी।’’
- ‘‘ इनों कोई काम भी तो नहीं करते नवाब हैं न इज्जत जाती है।’’
हालांकि उसके पास नजमा की इस बात का कोई जवाब नहीं है कि क्या िजस्म बेचने से इज्जत नहीं जाती़?


नजमा के शायर सलीम (नसीरुद्दीन शाह) के साथ एक तरह के प्लेटोनिक रिलेशन हैं लेकिन अपनी इज्जत का सौदा करने की बजाय वह एक अन्य शख्स अख्तर (भरत कपूर) के साथ निकल जाती है जो उससे शादी करने का अहद करता है।


फिल्म के एक दृष्य में अख्तर के कमरे में घुसते ही नजमा बिना देखे उसे अपने जिस्म का ग्राहक समझ कर चप्पल तान देती है। वह चप्पल दरअसल सिंबल है उसी प्रतिरोध और नफरत का जो किसी स्त्री के मन में अनचाहे पुरुश के प्रति हो सकती है।


यह और बात है कि तमाम दुश्वारियों का हवाला देकर वह नजमा के साथ शादी तो नहीं करता लेकिन शौहर-बीवी जैसे रिश्ते जरूर कायम करता है। एक जगह सलीम नजमा से कहता भी है- ‘‘ तुम इस बाजार में बिकने वाली शै हो। अपने जिस्म को दुकान के शो केस से बचाने के लिए तुमने अख्तर के घर की सजावट बनना पसंद किया। ’’


जिस समय बाजार रिलीज हुई यह वही समय था जब देश में एक महिला प्रधानमंत्री का शासन था जिसे काफी पहले विपक्षी नेता तक ‘दुर्गा’ की उपाधि दे चुके थे। कमोबेश यही वह समय था जब समाचार पत्र समूह ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के पत्रकार अश्विन सरीन ने ‘कमला’ नामक एक आदिवासी लड़की को खरीदकर यह बात दुनिया के सामने ला दी थी कि देश में अब भी स्त्री देह को खरीदने और बेचने का ध्ंाधा जोरों पर है।


इस एक घटना ने समूचे देश केा स्तब्ध कर दिया था। सुप्रसिद्ध नाटककार विजय तेंदुलकर ने इस थीम पर कमला नामक एक चर्चित नाटक भी रचा था जिसमें उन्होंने दिखाया था कि किस तरह अपनी तरक्की को ध्यान में रखकर पत्रकार वर्ग मानवीय संवेदनाओं को ताक पर रख चुका है।


कमला की देह पर चढ़कर सरीन ने भले ही तरक्की की सीढ़ियां चढ़ ली हों लेकिन कमला की सुध कितने लोगों को है? कमला को संभवतः न्यायालय के आदेष के बाद किसी नारी निकेतन भेज दिया गया और उसके बाद वह वहां से कहीं चली गई। इससे अधिक जानकारी उसके बारे में इससे अधिक जानकारी मैं भी नहीं जुटा पाया। तो यही हमारे समाज के तथाकथित स्त्री बोध और स्त्री चिंता की हकीकत है।


बाजार का कथानक भी कमसिन लड़कियों की बिक्री को ही केंद्र में रखकर बुना गया है।
फिल्म के दो अन्य केंद्रीय पात्र हैं शबनम (सुप्रिया पाठक) और सज्जो (फारुख शेख) जो कम उम्र होने के बावजूद एक दूसरे के साथ संजीदा मुहब्बत में मुब्तिला हैं।


जिस समय सज्जो और शबनम का प्यार परवान चढ़ रहा होता है उसी समय नजमा अख्तर के दबाव में आकर उसके आका ‘जाकिर’ के लिए दुल्हन तलाश करने वापस अपने घर हैदराबाद आती हैै। एक समारोह में जाकिर की नजर शबनम पर पड़ती है और वह उससे शादी कराने का दबाव नजमा के ऊपर डालता है।


जैसे ही लोगों को पता चलता है कि नजमा किसी बड़े आदमी के लिए दुल्हन की तलाश में आई है इलाके की तमाम इज्जतदार बीवियां अपनी अपनी बच्चियों के रिश्ते की बात करने उसके सामने हाजिर हो जाती हैं। नजमा के सामने एक तरह से कमसिन लड़कियों का बाजार ही सज जाता है।


गौर करने वाली बात है कि जाकिर उसी रवायत का नुमाइंदा बनकर सामने आता है जिसके लिए एक से अधिक औरतों का हरम तैयार करना स्टेटस सिंबल से अधिक कुछ नहीं है। यह वही सदियों पुरानी रस्म है जिसमें एक आदमी की अयाशी सामने वाले की त्रासदी बनकर उभरती है।


यह हकीकत है कि बुर्जुआ क्लास ने हरसंभव तरीके से महिलाओं का शोशण किया । फिल्म में जाकिर बुर्जुआ का ही प्रतिनिधि है जो औरत को हर हाल में केवल और केवल उपभोग की वस्तु समझता है और उसके सारे जतन अपनी इस पोजीशन को मजबूत बनाए रखने के लिए है। वहीं सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधि सज्जो तमाम प्रयासों के बावजूद अपनी मोहब्बत को हासिल नहीं कर पाता क्योंकि पराजय उसकी नियति है।


फिल्म के एक दृश्य में जब शबनम और सज्जो की आखिरी मुलाकात होती है तो सुप्रिया पाठक की कातर आवाज में बोला गया वह संवाद - ‘‘ हमने तुम्हें बरबाद कर डाला न सज्जो। ’’
इस पर सज्जो का जवाब - ‘‘ तुम मेरी जिंदगी को नए मानी दिए। नही ंतो क्या था इसमें’’
और फिर शबनम का ये कहना कि हम तुम अगर गरीब न होते तो हमें कोई भी जुदा नहीं कर सकता था। यह पूरा संवाद फिल्म की थीम को समझने के लिए पर्याप्त है।



पाॅपुलर हिंदी सिनेमा में जैसा कि मैंने ऊपर जिक्र किया है मुस्लिम किरदार या तो रहीम भाई, रहमान चाचा, अथवा अम्मी, आपा के रूप में दिखते हैं या फिर हाल के दिनों में वे टेररिस्ट बनकर सामने आते हैं।



अपने खुशनुमा पलों में इन किरदारों के हिस्से या तो लखनवी नफासत के साथ तहजीबी उर्दू बोलना आता है या फिर गजलों और मुजरों की महफिलें सजाना। अपने बुरे दौर में ये किरदार गोलियां दागते हैं।



हिंदी सिनेमा के मुस्लिम किरदार इन्हीं दो छोरों के दरमियान झूलते रहे हैं लेकिन बाजार ने इस परंपरा को तोड़ा। एक हद तक पारंपरिक होने के बावजूद इसके किरदारों की मजबूती देखने लायक है।
पहले आई तमाम हिंदी फिल्मों के मुस्लिम किरदार दरअसल अरेबियन नाइट्स के किरदारों का ही एक्सटेेंशन हैं हम उन्हें बड़ी आसानी से शीरीं- फरहाद, लैला मजनूं आदि से रिलेट कर सकते हैं उन फिल्मों में वास्तविक मुस्लिम कल्चर अथवा उसका सोशल कंटेक्स्ट नहीं खोजा जा सकता।



बाजार के विशुद्ध मेलोड्रामा होने के बावजूद उसमें रियलिज्म की झलक मिलती है। ठीक उसी तरह जैसे राजकपूर की प्रेेमरोग तमाम नाटकीयता के बावजूद हिंदू समाज की एक मूल समस्या विधवा विवाह की ओर लोगों का ध्यान खींचने में कामयाब होती है।



बाजार की थीम में महिलांए हैं ये महिलांए गरीब और मुसलमान होने के कारण तिहरी मार झेलती हैं। गरीबी, लाचारी, बेरोजगारी, और झूठे पारिवारिक दंभ के बीच उनका औरत होना उनकी समस्याओं में कई गुना इजाफा कर देता है।



हालांकि बाजार के महिला किरदार चारित्रिक मजबूती का बेहतरीन उदाहरण पेश करते हैं अपनी नियति को समझते हुए भी नजमा का जाकिर से बोला गया संवाद- ‘‘जाकिर भाई, आपके बाजार में सबसे सस्ती अगर कोई चीज है तो वह है औरत।’’



या फिर फिल्म के अंत में शबनम का बोला गया संवाद- ‘‘ हम अगर तुम्हारे न हुए सज्जो तो...। ’’
प्रतिरोध के अंतिम प्रयास में शबनम आत्महत्या को हथियार के रूप में इस्तेमाल करती है और निकाह के बावजूद जाकिर के हाथ लगने से पहले ही खुद को खत्म कर लेती है वहीं नजमा भी अख्तर को छोड़कर चली जाती है अपनी पहचान की तलाश में।



बाजार का डिप्रेसिव टोन भी फिल्म का महत्वपूर्ण पहलू है। अक्सर इसे भी फिल्म की आलोचना का विशय बनाया गया है। यह डिप्रेसिव टोन उसे रियलिस्टिक टच तो प्रदान करता ही है साथ ही उसे कुछ हद तक नकारात्मक भी बनाता है। यह टोन कई दफा दर्शकों को भी अपनी चपेट में ले लेता है।



फिल्म जहां कई बार रुलाती है वहीं ऐसा भी महसूस होता है कि जैसे अब इसे और आगे नहीं देखा जा सकता। यह माध्यम की सफलता तो है लेकिन कई अवसरों पर यह फिल्म की सीमा भी बन जाता है।
नसीरुद्दीन षाह और स्मिता पाटिल जैसे आला अदाकारों की मौजूदगी में बाजार दरअसल फारुख षेख और सुप्रिया पाठक की फिल्म है। बाजार मंे फारुक षेख की अदाकारी के लिए एक ही षब्द है मेरे पास ‘अद्भुत’। उन्हें पहली बार मैंने देखा था दूरदर्षन के धारावाहिक आखिरी दांव में, जिसमें वह और दीप्ति नवल मुख्य भूमिका में थे।



बाजार मंे फारुख ने गरीब, बेरोजगार मुस्लिम युवा की भूमिका में जो जान फूंकी है वह आज की सिनेमाई युवा की छवि से कोसांे दूर होकर भी कितनी अजीज है। याद कीजिए षबनम के मां बाप से सज्जो का संवाद या फिर षबनम के साथ फिल्म के आखिरी दृष्यांे में से एक।



षबनम की भूमिका मंे सुप्रिया पाठक ने एक कम उम्र घरेलू लड़की की भूमिका निभाते हुए भी परिपक्वता की बुलंदियों को छुआ है। बाजार के सभी कलाकारों को उनकी पूर्णता के लिए सलाम।
बाजार के बाद सागर सरहदी की निर्देशित एक और फिल्म हाल ही में आई है ‘चैसर’ । मैं हमेशा सोचता हूं कि बाजार जैसी सशक्त फिल्म बनाने वाले और कभी-कभी, सिलसिला, कहो न प्यार है जैसी फिल्मों की पटकथा लिखने वाले सागर सरहदी ने इतने लंबे अरसे तक कोई फिल्म क्यों नहीं बनाई। शायद उनकी संवेदना को छूती हुई कोई पटकथा नहीं मिली होगी।



चैसर की कहानी साहित्यिक पत्रिका कथा देश के नवलेखन अंक में कुछ वर्श पहले प्रकाशित रामजनम पाठक की कहानी ’बंदूक’ पर आधारित है। सरहदी ने यह कहानी पढ़ी और उन्हें लगा कि शायद उन्हें ऐसी ही किसी कहानी की तलाश थी।



फिल्म की पटकथा लिखने के लिए उन्होंने हिंदी कवि निलय उपाध्याय को चुना जो उस समय कदाचित कारणों से बेरोजगारी के दौर से गुजर रहे थे। सरहदी चाहते तो फिल्म की पटकथा किसी भी स्थापित नाम से लिखवा सकते थे लेकिन उन्होंने इसके लिए निलय को चुना क्यों़? क्योंकि एक कलाकार दूसरे कलाकार के संकट को उसकी भावनाओं को समझता है उन्हें साझा करता है। सरहदी की यही संवेदना बाजार को इतनी संवेदनषील फिल्म बनाती है कि आप उसे देखते हुए भी नहीं देख पाने के भाव से गुजरते हैं। भूूमिकाओ से यह समानुभूति ही फिल्म की जान है।



फिल्म का संगीत उसके सबसे मजबूत पक्षों में से है। मीर तकी मीर और मोहिनुद्दीन मखदूम की शानदाार गजलें ‘दिखायी दिए यूं ...’और ‘फिर छिड़ी रात बात फूलों की...’आज भी सुनने पर गजल और संगीत की उस जादुई दुनिया की सैर पर ले जाती हैं जहां तसव्वुर सीमाविहीन होकर उड़ान भरता है।



मीर के बारे में तो खैर कहना ही क्या। ये वही मीर हैं जिनके बारे में कभी गालिब ने कहा था- ‘‘रेखते का तू ही उस्ताद नहीं है गालिब कहते हैं अगले जमाने में कोई मीर भी था।’’




मखदूम मोहिउद्दीन को उनकी विद्रोही तेवर की नजमों के लिए जाना जाता है। तरक्की पसंद षायरी के अगुया षायरों की जमात के मखदूम की गजल फिर छिड़ी बात रात फूलों की रोमांटिक गजलों को नई ऊंचाई पर ले जाने वाली रचना है।



बाजार के संगीत की खूबी है उसके गीतों में लोक संगीत और बेहतरीन गजलों का खूबसूरत मिश्रण। आपको याद होगा आंचलिकता के रंग में रंगा गीत चले आओ सैंया रंगीले मैं हारी रे।
या फिर भूपिंदर की गायी गजल करोगे याद तो हर बात याद आएगी क्या हर किसी को अतीत की हांट करती यादों में नहीं ले जाती।



जगजीत कौर की आवाज में फिल्म का आखिरी गीत जो सुप्रिया पाठक पर फिल्माया गया है - देख लो आज हमको जी भर के। क्या इस धरती के हर प्यार करने वाले की आत्मा की अंतिम पुकार नहीं लगती।

29 अक्तूबर, 2009

कश्मीर में ईमान भी बहादुरी से कम नहीं : संजय काक

25 अक्‍टूबर को जश्‍न-ए-आज़ादी का बिज़ूका फिल्‍म क्‍लब में प्रदर्शन किया गया था। जश्‍न-ए-आज़ादी संजय काक की मशहूर डॉक्‍युमेंट्री है, जिसमें कश्‍मीर मुद्दे को बहुत ही संवेदनशील तरीके से चित्रित किया गया है। अभी अभी रविवार डॉट कॉम पर संजय काक का इंटरव्‍यू पढ़ा। बिज़ूका के पाठकों और दर्शकों के लिए उस इंटरव्‍यू को यहां साभार दिया जा रहा है : सत्‍यनारायण पटेल


1958 में पुणे में जन्मे संजय काक मूलत कश्मीरी पंडित हैं. अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र के छात्र रहे संजय ने 2003 में नर्मदा घाटी परियोजना के विरुद्ध एक बहुप्रशंसित फिल्म 'वर्ड्‌स ऑन वाटर' बनायी. उन्होंने इसके अलावा 'इन द फॉरेस्ट हैंग्स अ ब्रिज', भारतीय लोकतंत्र पर 'वन वेपन' तथा 'हार्वेस्ट ऑफ रेन' जैसी फिल्में बनायी हैं. हाल ही में उन्होंने कश्मीर समस्या पर 'जश्ने आजादी' नामक डॉक्यूमेंटरी फिल्म बनायी है, जिसका प्रदर्शन देश और दुनिया भर में हो रहा है. इसके लिए संजय को जितनी प्रशंसाएं मिली हैं, उसी पैमाने पर आलोचना भी. ऐसा उनकी फिल्म के नजरिये को लेकर है, जिसमें वे सरकारी दृष्टि के बजाय कश्मीर समस्या को लेकर एक अलग सोच के साथ पेश आते हैं, जो कश्मीर के लोगों के ज्यादा करीब है. फिल्म में दिखाये गये दृश्य अविस्मरणीय हैं-आजादी के नारे, दूर तक फैला सन्नाटा भरा कब्रिस्तान, हत्याएं और फौजी गतिविधियां. कुल मिला कर 'जश्ने आजादी' हमारे सामने कश्मीर की त्रासदी का एक महाआख्यान प्रस्तुत करती है, ऐसा आख्यान जो इससे पहले इस तरह कभी नहीं लिखा-कहा गया. यहां पेश है संजय काक से रेयाज-उल-हक की बातचीत.

• आप खुद कश्मीरी हैं, मगर आपने कश्मीर पर एक फिल्म बनाने के बारे में इतनी देर से कैसे सोचा और इसके लिए यह वक्त क्यों चुना? कोई खास वजह?

पहले इतने कामों में व्यस्त था कि इस पर सोचने का वक्त ही नहीं मिला. लेकिन हिंदुस्तान में क्या हो रहा है, इस पर सोचने का मौका मिला. 'वर्डस ऑन वाटर' जो पहली फिल्म है, उसे बनाने के दौरान बारीकी से देखने का मौका मिला कि जो हमारे इंस्टीट्युशंस हैं, जिनके बल पर यह डेमोक्रेसी चलती है, उनमें क्या हो रहा है. और जो भी देखने को मिला, उससे बहुत हताशा हुई. भारतीय लोकतंत्र खोखला-सा दिखने लगा. संसद पर 2001 में जो हमला हुआ था, उसमें जो प्रो एसएआर गिलानी का मामला चल रहा था. उनके बचाव पक्ष के वकीलों ने मुझसे संपर्क किया कि उनका जो टेलीफोन टेप हुआ था,वह कश्मीरी में है, उसका अनुवाद करना है. वह चाहते थे कि यह अनुवाद कोई कश्मीरी पंडित करे.

मैं नहीं समझा कि डिफेंस क्यों चाहता था कि यह काम कोई कश्मीरी पंडित करे. मैंने कहा कि दिल्ली में बहुत सारे कश्मीरी पंडित हैं, किसी से भी करा लीजिए. वे हंसने लगे. उन्होंने कहा कि कोई तैयार नहीं. मुझे इससे गहरा धक्का लगा. इस पूरे मामले में देखने को मिला कि उग्र राष्ट्रवाद किस तरह पूरे देश को जकड़ लेता है. हर जगह यह था- पुलिस हो या मीडिया. तब मैंने समझा कि कितना कुछ हो रहा है कश्मीर में. फिर हम कश्मीर गये. यह सोच कर नहीं कि फिल्म बनानी है,बल्कि यह सोच कर कि बाहर बहुत दिनों तक रहे, अब कुछ दिन वहां रह कर देखेंगे कि वहां क्या हो रहा है.

वहां जो कुछ देखने को मिला, उससे बहुत धक्का लगा. हालांकि आजकल उतना तनाव नहीं है, जितना 2003 में था. एयरपोर्ट से हमारे घर जाने में आधा-पौन घंटा लगता है. जितनी फौज, जितने सैनिक, जितनी बंदूकें, जितने बंकर देखे-वह सब देख कर हतप्रभ रह गया. ये भी जाहिर हुआ कि कश्मीर में बहुत कम लोग बोलने को तैयार हैं. वे कहते हैं कि क्यों बात की जाये, खास कर हिंदुस्तान के लोग आते हैं तो. क्या फायदा है कहने का. धीरे-धीरे लगने लगा कि यहां फिल्म बनाना मुश्किल तो है, लेकिन जरूरी भी.

• एक डॉक्यूमेंटरी फिल्म बनाना और वह भी ऐसे क्षेत्र को लेकर, सरकार के और सेना के नजरिये के लगभग विरुद्ध जाकर, आपने जिसे दुनिया का सबसे सैन्यीकृत जोन कहा है, आसान तो कतई नहीं था. तो दिक्कतें नहीं आयीं, किस तरह की परेशानियां रहीं?

कोई भी क्रिएटिव काम दिक्कत के बगैर नहीं होता है. खास कर ऐसी फिल्में बनाने में दिक्कतें तो आती ही हैं. ये आपकी समझ पर है कि आप कितनी दिक्कतें पार कर लेते हैं. डॉक्यूमेंटरी फिल्मों का रॉ मेटेरियल आम तौर पर यह होता है कि आप लोगों से बात करेंगे और वे आपको बतायेंगे. चाहे आप उसे फिल्म में इस्तेमाल करें या न करें. लेकिन जहां कि स्थिति इतनी टेंस हो, कोई यह नहीं जानता कि किससे क्या बात करे. अमूमन यह भी होता है कि लोग वही बोलते हैं जो आप सुनना चाहते हैं. क्यों पंगा ले कोई, चाहे गांव का बंदा हो या पत्रकार. लोग सिर्फ उतना ही कहेंगे जितना न्यूनतम जरूरी है. तो मैंने मान लिया कि उस तरीके से फिल्म नहीं बनेगी कि गये और फील्ड में इंटरव्यू लिये और रॉ मटेरियल शूट किया और फिल्म बना ली. इसमें लोग क्या कहते हैं और वास्तव में क्या है, यह आपको गहरे तक देखना होगा. यह बडी दिक्कत है. दूसरी दिक्कत है आवागमन की. मान लीजिए कि हमें कहीं जाना है, कुपवाड़ा जाना है या दूसरी किसी जगह तो कश्मीर में यह भी एक समस्या है. बडी मुश्किल है, कहीं जाया नहीं जा सकता.

हम कॉलेज के लडको से मिले. उनमें से कुछ हमें अपने गांव ले गये. इस तरह शुरु किया. बाहर निकला तब जाना कि इतना मुश्किल भी नहीं है. मतलब बाहर से आने वाले लोगों के भीतर खौफ बना दिया जाता है. इससे होता ये है कि कश्मीर के बारे में लोगों की जो समझ है, वह अच्छी नहीं बनती. जो भी कश्मीर के बारे में लिखता है, अक्सर वह श्रीनगर के बारे में लिखता है. गांव-कस्बे में क्या हुआ, इसके बारे में नहीं. मैं यहां मीडिया को दोषी मानता हूं कि वे लोग सीमित हो जाते हैं. बीच-बीच में कोई बडा एनकाउंटर हुआ, कोई कांड हुआ तो वे जाते हैं, लेकिन वह रूटीन नहीं है.

एक बार हमने बाधा पार कर ली तो उसमें काफी सहूलियत हो गयी. तीसरी बात कि वहां सब कुछ नियंत्रण में है. आपसे कह दिया जाता है शूट करने की परमिशन लेने की जरूरत नहीं. लेकिन अगर कहीं आप रुक कर शूट करना चाहते हैं तो वहां मौजूद आर्मी का आदमी आपको शूट करने नहीं देगा. आप कहेंगे कि इसकी कोई जरूरत ही नहीं है तो वह आपको कहेगा कि वह ऊपर से पूछ कर ही शूट करने देगा. इसमें कई घंटे या फिर दिन भी लग सकते हैं. आप छह घंटे तो इंतजार नहीं कर सकते. आप गांव जाना चाहते हैं तो आपको नहीं जाने दिया जाता है कि वहां मिलेटेंट हैं. एक तरफ तो आपको कहा जाता है कि आप फ्री हैं, लेकिन दूसरी ओर आप कहीं नहीं जा सकते हैं. इसको भी आपको बाइपास करना है, किसी भी तरीके से.

कुल मिल कर ऐसी सिचुएशन है, जिसे समझना है आपको. समझ कर आपको बात कहनी है. हमारी यह जो फिल्म है, यह उन सबसे निपट कर बनी है. तजुरबा और तकनीक जो किसी डॉक्यूमेंटरी फिल्म मेकर का होता है कि आप किसी सिचुएशन में हैं और आपको फिल्म बनानी है तो कैसे बनायें. दरवाजा बंद है तो देखना है कि कौन सी खिडकी खुली है, कौन-सा पिछला दरवाजा खुला है, कहां से भीतर जाया जा सकता है.

ऐसा नहीं कि कोई गोपनीय फिल्म बना रहे हैं. हम तो साधारण-सी फिल्म, लोगों की फिल्म बना रहे हैं. ऐसा नहीं है कि लोग वहां फिल्में नहीं बनाते हैं, मगर एनजीओ टाइप एप्रोच के कारण उन्हें दिक्कत नहीं होती. किसी कॉलेज में जाकर लड़कों से बात करके कुछ बना देना आसान है. मगर सतह के नीचे जाने में दिक्कत तो होगी.

• फिल्म बनाने के दौरान एनजीओ को लेकर आपके जो अनुभव रहे, वह जानना दिलचस्प होगा. कश्मीर में एनजीओ की क्या भूमिका है ?

आज की तारीख में कश्मीर में 14 हजार एनजीओ हैं. मैं समझता हूं कि जिस तरह पूरे देश में आज एनजीओ की आफत फैली हुई है, उससे एक नयी श्रेणी तैयार हो रही है. कश्मीर में बहुत ज्यादा पैसा आता है. बहुत से लोग इन्वॉल्व हो जाते हैं उनमें. और मैं समझता हूं कि कश्मीर में एनजीओ का डिपोलिटिसाइजिंग में बडा रोल है. तीन-चार साल में मैं जो जान पाया हूं, वह यह है कि कई युवा, जो कॉलेज में पढते थे, अच्छी पढाई कर रहे थे, जो बातें बडी अच्छी करते थे-किताबों की बातें और बहुत कुछ, वे अब धीरे-धीरे एनजीओ में नौकरी करने लगे हैं. उन्होंने किसी से उधार लेकर टेलीफोन और मोटरसाइकिल खरीदी है.

कुल मिला कर एनजीओ का किसी भी सोसाइटी में प्रभाव यही होता है कि वे बडे पैमाने पर राजनीति को डाइल्यूट कर देते हैं. हालांकि कुछ अच्छा काम करने वाले एनजीओ भी हैं और कुछ काम अच्छा भी होता है.

• आपने अपनी फिल्म में कश्मीर के लोगों की जो इच्छाओं को सामने लाने की कोशिश की है. क्या है वह इच्छा, क्या आप उसे पूरे तौर पर सामने ला पाये हैं?

लोगों की इच्छा क्या है, यह जानना मुश्किल है. हालात वहां इतने बुरे हैं कि मुझे ही नहीं, लोग आपस में भी उनके बारे में बिल्कुल बात नहीं करते हैं. पब्लिक सिमट कर बैठी हुई है. जो लीडर हैं वहां, वे सब भावनाओं की ही राजनीति करते हैं. भावना के स्तर पर वहां के लोग अव्वल तो भारत की फौज को दूर देखना चाहते हैं. नंबर दो, वे आजादी चाहते हैं. अब आजादी का मतलब उनका क्या है, इस पर हम पाते हैं कि कोई कंसेंसस नहीं है. लेकिन हमें यह कंसेंसस नहीं दिखता, इसका मतलब यह नहीं है कि वह है ही नहीं. बल्कि असल में हम यह नहीं जानते कि वह क्या है. क्योंकि आपको जहां पर किसी भी तरह की आजादी नहीं है, जहां पर कोई सार्वजनिक सभा नहीं कर सकते, जहां आप फिल्म नहीं बना सकते, जहां आप लिख नहीं सकते आजादी के साथ, वहां हम कैसे जान पायेंगे कि लोग वास्तव में क्या चाहते हैं लेकिन इतना जरूर जानते हैं कि जब कोई वारदात होती है, और आप यह इस फिल्म में भी देखेंगे कि कोई मिलिटेंट कमांडर मारा जाता है, तब जो माहौल होता है, उससे आपको कुछ आइडिया हो जायेगा. जिस तरह वहां हजारों की तादाद में लोग आते हैं, जिस तरह नारे लगाये जाते हैं, जिस तरह उस दिन सुरक्षा बल गायब हो जाते हैं, यह सब कुछ आपको बहुत कुछ कह देता है. यह एक अजीब परंपरा है कश्मीर में.

वहां चप्पे-चप्पे पर फौजी हैं. वहां आर्मी को सलाम किये बिना आप आगे नहीं बढ सकते. लेकिन जिस दिन कोई मिलिटेंट कमांडर मारा जाता है और उसका जनाजा उठता है, तो तीन-चार किमी तक कोई फौजी नहीं दिखेगा आपको. क्योंकि उन्हें मालूम होता कि उस दिन उन्होंने कुछ किया तो फिर उन्हें एक-दो आदमियों को नहीं, हजार-दो हजार लोगों को मारना पडेगा. तो ऐसे अननेचुरल सिचुएशन में आपको पता लगता है कि कश्मीर में लोगों की भावनाएं क्या हैं. आप जब फिल्म देखेंगे तो यह समझ जायेंगे कि मैं यह क्या कह रहा हूं.

• आप संसद पर हमले के सिलसिले में कश्मीर समस्या से रू-ब-रू हुए. इस संदर्भ में बाद में आये फैसलों को आप अब इस समस्या के परिप्रेक्ष्य में किस तरह देखते हैं?

जब संसद पर हमला हुआ तो कश्मीरियों की दिलचस्पी इसमें थी. पर जिस तरह अफजल और गिलानी को इसमें लपेटा गया, वह कश्मीरियों के लिए कोई नयी बात नहीं थी. कम से कम सात-आठ सौ लड़के पडे हुए हैं अलग-अलग जेलों में और सड़ रहे हैं. जब गिलानी के बचाव की बातें हो रही थीं तो कश्मीर में लोगों का कहना था कि हां ठीक है, मानते हैं कि गिलानी के साथ नाइंसाफी हुई है, मगर यहां कश्मीर में तो हजारों के साथ नाइंसाफी हो रही है. आपके यहां डीयू का प्रोफेसर है तो उत्तेजित हो रहे हैं, हमारे तो बहुत सारे लड़के फंसे हुए हैं.

अफजल का मामला मुझे लगता है कि वह थोड़ा और इमोशनल हो गया फांसी की सजा की वजह से. कश्मीर में कोई न्यूट्रल इश्यू नहीं है. हजार लड़के फंसे हुए हैं, बेगुनाह हैं या गुनाहगार यह किसी को नहीं मालूम और न होगा. फिर भी उन्हें सात से लेकर चौदह साल हो गये, जेल में. तो उनको तो लगता है कि सिस्टम यही तो करेगा और क्या करेगा ! इसे आप एक किस्म का सिनिसिज्म कह सकते हैं.

• भारत में नक्सलवाद है, पूर्वोत्तर के विद्रोह हैं और कश्मीर है. इनसे जो भारत सरकार का व्यवहार है, क्या हम इससे सरकार के चरित्र को समझ सकते हैं ?

ये सब अलग-अलग विद्रोह हैं मगर आप इनसे सरकारों के चरित्र समझ सकते हैं. आपका सवाल सही है. मणिपुर और कश्मीर में तो कमोबेश 60 सालों से यह हो रहा है. इधर आकर अब नक्सलवाद पर बडी बात हो रही है. हालांकि इन तीनो में फर्क है. कश्मीर में जो चल रहा है, उसे देश विरोधी साबित करना भारत सरकार के लिए आसान रहा कि भई पाकिस्तानी इसमें सपोर्ट करते हैं. वही इसे चलाते हैं.

मणिपुर में अलग तरह की जटिलता आ जाती है क्योंकि वे न तो मुसलमान हैं न पाकिस्तान का फैक्टर काम करता है वहां. इसके अलावा मणिपुर दूर है, वहां जो भी हो रहा है, चुपचाप से ही हो रहा है. इधर चार-पांच सालों से बातें आने लगी हैं.

मुख्य चुनौती तो यह नक्सलवाद और माओवाद ही है, क्योंकि ये लोग तो देश के हार्ट लैंड में हैं. मणिपुर और कश्मीर तो अलग होने की बात करते हैं, मगर माओवादी तो वर्ग संघर्ष की बात करते हैं. आप इन्हें देशद्रोही कैसे दिखायेंगे, ये एक बड़ा नया चैलेंज है स्टेट के सामने. वह मणिपुर और कश्मीर के बारे में दिखा सकता है कि वे देश को तोडना चाहते हैं. इससे राष्ट्रीय स्तर पर एक आम सहमति बनती है कि ये तो विभाजन चाहते हैं. मगर माओवाद तो बडी दिलचस्प चुनौती है कि इसे देश विरोधी दिखायेंगे कैसे ? इधर अब आप देखेंगे कि अखबारों में माओवादी आंदोलन के बारे में ठीक उसी तरह लिखा जाने लगा है, जिस तरह कश्मीर के बारे में लिखा जाता है. भारत जो आज कश्मीर में करता रहा है, उन सबका इस्तेमाल अब माओवादियों के खिलाफ कर रहा है.

उड़ीसा और नंदीग्राम में जो हो रहा है, वहां सबको माओवादी बता दिया जा रहा है. सरकार के पास समस्या तो है. अब कलिंगनगर के अहिंसक आंदोलन को देखें. वहां के बारे में क्या कहेंगे? यह दिलचस्प है कि वे वहां कहते हैं कि कलिंगनगर के लोग विकास के रास्ते में आ रहे थे. अभी तक जो कोई भी आवाज़ उठा रहा था, उसके बारे में कहा जाता था कि वह देश के खिलाफ़ आवाज उठा रहा है. अब यह कहा जा रहा है कि आप विकास के रास्ते में आ रहे हैं. अगर आप विकास के खिलाफ़ हैं तो आप देश के भी खिलाफ़ हैं. लेकिन क्या देश की आबादी इतनी आसानी से इसे मान लेगी? मीडिया तो मान चुका है, क्योंकि वह तो इसी का हिस्सा है. लेकिन पब्लिक क्या इतनी आसानी से मान लेगी ?

• आपकी फिल्म के बारे में कहा गया है कि इसमें कश्मीरी पंडितों के बारे में बहुत अधिक नहीं दिखाया गया है. क्या आप उनकी समस्या को कम करके देखते हैं, खास कर पलायन?

ऐसा नहीं था कि उनका पलायन पहले नहीं हुआ था. हम जिस पलायन की बात कर रहे हैं वह हुआ 1991-92 में. लेकिन उस मुद्दे का इस्तेमाल 1993-94 में होना शुरू हुआ. तो मुश्किल हो गया लोगों के लिए कहना कि वहां आजादी की तहरीक जायज है, क्योंकि सरकार ने इसे सांप्रदायिक साबित कर दिया. कहा जाने लगा कि इन्होंने पंडितों को निकाल दिया वहां से.

आज हालत यह हो गयी है कि आप कश्मीर पर बात करें तो पहला सवाल आता है कि कश्मीरी पंडितों पर क्या कहेंगे? फिल्म बनी तब से यही सवाल उठता रहा है कि आपने कश्मीरी पंडितों को क्यों नहीं और समय दिया. मेरा कहना है कि कश्मीर के मुद्दे को हिंदुस्तान में समझने के लिए कश्मीरी पंडितों को इस तरह इस्तेमाल किया गया है जैसे वे ही कवच हों और सबसे बडा सवाल हों.

आपने कश्मीर का नाम लिया ही कि आ गया सवाल कि- बोलिए पंडितों के साथ क्या हुआ?

मेरा कहना है कि पहले आप सबसे बड़े और पहले सवाल को देखें कि कश्मीर में क्या हुआ. इसके बाद ही तो कश्मीरी पंडित निकले न. कश्मीरी पंडितों का मामला कश्मीर समस्या के साथ जुड़ा हुआ है. आप पहले उसका हल करें. फिर इसके बाद ही बात होनी चाहिए. कश्मीरी पंडितों का इस्तेमाल किया गया. जो निकले-भागे बरबाद हुए, वे तो हुए ही, मगर जो जम्मू में कैंपों में रह रहे हैं, उनकी समस्या को कोई भी सरकार चुटकी में सुलझा सकती थी. लेकिन उन्हें बनाये रखना था सरकार को ताकि वे उनका इस्तेमाल कर सकें. जो पढे-लिखे पंडित थे, वे तो दिल्ली आ गये, पर जो छोटे और अनपढ किसान थे, वे बेचारे जम्मू और दूसरे कैंपों में रह रहे हैं. कश्मीरी पंडितों को अहम रोल दिया गया है, ताकि उनका इस्तेमाल हो सके और कश्मीर समस्या पर बात को अटकाया जा सके.

पंजाब में मैंने एक फ़िल्म बनायी थी दूरदर्शन के लिए, 1986 में. पंजाब में एक अच्छा खासा आंतरिक पलायन हुआ था पंजाबी हिंदुओं का, लेकिन पंजाब सरकार में उन्हें सीमा से बाहर नहीं जाने दिया. उन्हें पठानकोट, अमृतसर में शिविरों में रखा गया. मैंने उन्हें शूट किया है फ़िल्म में. वे वहां छह महीने साल भर रहे और वापस चले गये. कश्मीर सरकार ने ऐसी कोशिश कभी नहीं की. दूसरी तरफ़ कश्मीर में अभी भी 5-6 हज़ार कश्मीरी पंडित हैं. वे कश्मीर छोड़ कर कभी नहीं गये. वे भी जी रहे हैं. कैसे जी रहे हैं, यह कोई नहीं जानता. सरकार की ओर से तो उन्हें थप्पड़ ही मिलते हैं कि तुम यहां क्या कर रहे हो, निकलो यहां से.

• कश्मीर पर लेफ़्ट के रवैये को आप कैसे देखते हैं?

लेफ़्ट, उदारवादी, प्रगतिशील-इन सबका कश्मीर के मामले में ज़्यादा से ज़्यादा रोल यही रहा है कि यह एक मानवाधिकार उल्लंघन का मामला है और यह नहीं होना चहिए. वे राष्ट्रवाद के उस फ़्रेमवर्क से बाहर नहीं निकल पाये हैं. हर सरकार ने शुरू से ही कश्मीर के मुद्दे को इस तरह सफलता पूर्वक पेश किया है कि सबको यही लगता है यह भारत-पाकिस्तान के बीच ज़मीन का कोई झगड़ा है. भारत के राष्ट्रीय नेताओं में अकेले जयप्रकाश नारायण ही ऐसे नेता थे, जिन्होंने कश्मीरियों के आत्मनिर्णय के अधिकार की बात की. थोडा़ बहुत संघर्ष वाहिनी ने भी यह बात रखी थी.

1994 तक आंध्रप्रदेश पीयूसीएल वालों ने कश्मीर के लिए टीम भेजी और सेल्फ डिटरमिनेशन की बात की. लेकिन बाद में वे भी चुप हो गये. यह देखने वाली बात है कि शुरू के उन भयंकर दिनों में तो वे बोल रहे थे, लेकिन बाद में वे चुप हो गये. इसकी कई वजहें हो सकती हैं. एक वज़ह तो यह भी हो सकती है-और इस पर शोध होना चाहिए- कि शुरू में स्ट्रगल जेकेएलएफ़ के हाथ में था और वह सेकुलर था तो लोगों को उसे स्वीकार करने में दिक्कत नहीं हुई. 1994 तक जेकेएलएफ़ को खदेड़ दिया गया और हिज्बुल जैसे संगठन आ गये. ये लोग इस्लामिक व पाक समर्थक छवि वाले थे. तब पीयूसीएल जैसे संगठनों के लिए अजीब स्थिति रही होगी.

• कश्मीर में हालात किस तरफ़ जा रहे हैं?

हालात वहां बदल तो रहे हैं. पाकिस्तान सरकार का रवैया ही बहुत बदला है. लेकिन सिर्फ़ इन तक ही मुद्दे को सीमित कर के देखने से हम वही गलती दोहरायेंगे कि यह सिर्फ़ हिंदुस्तान-पाकिस्तान का मसला है. इसमें कश्मीर के लोगों को शामिल नहीं किया गया है. यह तो वही पुराना और गलत नज़रिया है. आप बेशक समझौते कर लीजिए, अखबारों में छा जाइये, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आपकी पब्लिसिटी हो जायेगी, लेकिन इससे मुद्दा तो सुलझने वाला नहीं है. हां, यह भले हो सकता है इससे कुछ चीज़ो पर असर पडे़.

एक अजीब सी स्थिति है वहां, कि वहां एक चुना हुआ लोकतांत्रिक ढांचा है, लेकिन जो बातचीत चलती है, वह हुर्रियत के लोगों के साथ होती है. हुर्रियत के लीडर कहते हैं कि हम तो सिर्फ़ सेंटीमेंट्स को रीप्रेजेंट करते हैं. जो आपके लोकतांत्रिक उपकरण हैं, उन से तो आप बात नहीं कर रहे हैं, क्योंकि वे तो आपके ही ढांचे का हिस्सा हैं.तो इससे अपने लोकतांत्रिक ढांचे के बारे में हिंदुस्तान का क्या नज़रिया है, यह पता चलता है. पीडीपी, नेशनल कांग्रेस और दूसरी पार्टियों के बारे में हिंदुस्तान सोचता है कि वे तो अपने ही कर्मचारी हैं.

• कश्मीर में फिल्मों, डॉक्यूमेंटरी फिल्मों की क्या स्थिति है?

वहां फिल्में नहीं बनती. घटिया किस्म का पॉपुलर ड्रामा बनता है. दूरदर्शन के जरिये निर्बाध पैसा जाता है, कल्चर को बरबाद करने के लिए, घटिया कार्यक्रमों के लिए. सबसे अधिक जो भ्रम था वह यही था कि मान लिया कि यह बंदा (संजय काक) दिल्ली में रहता है, मगर यदि ये फिल्म बना सकता है तो हमलोग क्यों नहीं. उसकी वजह यह नहीं कि हमने कोई बहादुरी दिखा कर फिल्म बनायी है, ऐसा कुछ नहीं. बात यही है कि हमने ईमानदारी से फिल्म बनायी. कश्मीर में ईमान भी बहादुरी से कम नहीं. वहां चहारदीवारी के भीतर बढिया बातें मिलती हैं, लेकिन सार्वजनिक रूप से कुछ नहीं. अगर मैं दिल्ली का हूं, संजय काक हूं, पकडा भी जाऊं तो भाग सकता हूं. मगर कोई स्थानीय है तो उसके लिए संभव नहीं.

• भारत में क्या आपको लगता है कि इन सबके संदर्भ में कोई वैकल्पिक माध्यम और साधन खड़े करने चाहिए?

यह तो हो रहा है. 10 वर्षों में काफी बदलाव आया है. 10 साल पहले ऐसी फिल्म बनाने की मैं सोच भी नहीं सकता था. शूट पर जाना होता था तो छह लोग, ताम-झाम, बडा-सा कैमरा. शूट करके लाए तो एडिटिंग का भी प्रति घंटा किराया देना होता था. इसलिए अधिक से अधिक 20 से 40 मिनट की फिल्म बना सकते थे.

जब से नयी तकनीक आयी है तब से कैमरे से ही काम चल चल जाता है. एडिटिंग आप अपने कंप्यूटर पर कर सकते हैं. आसान हो जाने के कारण लोग हर जगह फिल्म बना रहे हैं. अच्छी हो या बुरी, पर वैकल्पिक फिल्में बन रही हैं.

अब वितरक की बात है. आनंद पटवर्धन के पास पहले दो प्रिंट होते थे, जिन्हें प्रोजेक्टर लेकर वे दिखाते थे. अब डीवीडी-वीसीडी से बिलकुल कायाकल्प हो गया है. प्रोजेक्टर सस्ते और हल्के हो गये हैं. कह सकते हैं कि तकनीक हमारे साथ है. और इसी की बदौलत हम नैरोकास्टिंग कर रहे हैं. एक चुनींदा ग्रुप को इकट्ठा किया और दिखाया. वे फिर बहुत लोगों को बतायेंगे, फिल्म पर चर्चा करेंगे. यह उत्साहजनक है. इस तरह हम भयंकर मास मीडिया को चुनौती दे रहे हैं. हम अपने हाशिये पर खड़े बहुत खुश हैं.

हालांकि वह मास मीडिया तो और भयंकर होता जायेगा, लेकिन अगर हम उसकी तरफ देख कर डरने लगे तो फिर कुछ नहीं कर पायेंगे. दूसरी बात कि मास मीडिया जितना बेवकूफी भरा होता जा रहा है, उतना ही लोग उससे कट रहे हैं, हमारी ओर आ रहे हैं. अगर उनको कुछ समझ नहीं आ रहा है तो कहते हैं कि चलो तुम बता दो. हम उसे चुनौती कितनी दे पाते हैं, यह अलग बात है. इतना बडा कैपिटल स्ट्रक्चर है. लोग फिल्में पहले खरीदते नहीं थे, अब जहां भी हम जाते हैं, वे हमसे सीडी की मांग करते हैं.

आप इसे इस तरह देख सकते हैं कि हम लोगों की समझ का निर्माण कर सकते हैं, मास मीडिया को चुनौती देते हुए. किसी घटना के बारे में हमारी समझ अखबारों से नहीं बनती, बल्कि यह इमेल या दूसरे ऐसे ही माध्यमों से बनती है. असली बात का पता इसी तरह लगता है. अंगरेजी में यह सब शुरू हो चुका है, हिंदी में भी हो रहा होगा. अखबार आप इसलिए पढते हैं ताकि सिस्टम क्या समझता है, यह जान पायें. अभी तो ब्लॉग भी एक सशक्त माध्यम बन कर उभरा है.

15 सितंबर, 2009

मणि यानी कमांडोज की गोली का टारगेट

मणि यानी रत्न होता है। मणिपुर का मतलब रत्नो का नगर है। पर लगता है इन शब्दों का यह अर्थ डिक्सनरी में ही होता है। मणिपुर के बासिंदों के लिए मणि का अर्थ बहुत अलग है। या कह सकते हैं कई शब्द ! जैसे हत्या, बलात्कार, जेल, भूख और किसी भी तरह के दमन को सहने वाला, यानी मणि है, और इन्हीं मणियों से मिलकर बनता है मणिपुर। क्या ख़ूब नाज़ होगा मणिपुरियों को अपने मणि होने पर ? अपने देश की सेना, अपने राज्य की पुलिस के कमांडोंज की बदूँक से छूटी गोली जब उनके पेट, सीने और कनपटी में उतरती होगी। तब वे मरने में कितना सुकून महसूस करते होंगे ? यह मणिपुर का ही कोई बंदा ठीक से बया कर सकता है, हम शेष भारतीय तो दूर बैठे महसूस ही कर सकते हैं। आज मणिपुर में मणि यानी कमांडोज की गोली का टारगेट है। वाह… रत्न की क्या इज़्ज़त है !

मणिपुर में राज्य और केन्द्र सरकार के खूंखार सेनिक और कमांडोज शांति का प्रयास कर रहें हैं। एक पुलिस अधिकारी की इस बात से समझ में आता है कि वे किस तरह के प्रयास कर रहे हैं। पुलिस अधिकारी कहता है- ‘या तो हम हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहें या फिर कुछ करने का फ़ैसला करें। सच्चाई ये है कि पिछले दो साल में हम और भी तेज़ी से जवाबी हमले कर रहे हैं। पंजाब में देखिए समस्या कैसे दूर हुई।, उनके प्रयास और सोचने के ढंग से लगता है कि भविष्य में मणिपुर बूढ़ों का राज्य रह जायेगा। क्योंकि सेनिक और कमांडोज एक-एक कर हर जवान स्त्री-पुरुष को ख़त्म कर देंगे।

मणिपुर में शांति स्थापित करने के प्रयास का लम्बा इतिहास है। सन 2000 की बात है। असम राइफल के बहादुर जवानों ने दस मणियों को धूल चटा दी। और भला वे क्यों न चटाते धूल ? सरकार उन्हें तनख्वाह ही इस बात की देती है। इनमें एक वह युवक भी था, जिसे देश की सरकार ने 1988 में राष्ट्रीय बाल वीरता पुरस्कार से सम्मानित किया था। राष्ट्रीय बाल वीरता पुरस्कार प्राप्त इस युवक को धूल चटाने पर, शायद उन्हें सरकार ने शूरवीर पुरस्कार दिया हो ! लेकिन इस जघन्य हत्याकांड के ख़िलाफ़ कई मणियों के मग़ज़ की कोशिकाएँ सुन्न पड़ गयी। एक मानवाधिकार कार्यकर्ता 28 बरस की इरोम शर्मिला भूख हड़ताल पर बैठ गयी। मारे गये लोगों के परिवारों को न्याय मिले और काला क़ानून (1958 का आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पॉवर एक्ट) हटाया जाये जैसी इरोम की माँगे हैं।

अब इरोम कोई महात्मा गाँधी तो है नहीं, जिसके भूख हड़ताल पर बैठने से देश में हड़कंप मच जाये। राज करने वाले भी गोरे अंग्रेज नहीं, जो गाँधी की भूख हड़ताल तुड़वाने को काले क़ानून को रद्द करने पर विचार करे। अब देश जिन काले अंग्रेजों के हाथ में हैं, वे इतने बेशर्म और पत्थर ह्रदय हैं कि उन्हें इरोम जैसी कितनी ही महिलाओं के भूख हड़ताल पर बैठने से कोई फर्क़ नहीं पड़ता है। इस बात की पुष्टि इससे भी होती है कि (सन 2000 से 09) अब तक इरोम की भूख हड़ताल ज़ारी है। उसे सरकार के लोगों द्वारा ज़बरन नाक में नली डालकर तरल भोजन दिया जा रहा है। सरकार ज़बरन और ज़्यादती करने में ही हुनरमंद है। सोचने की बात है कि लम्बे समय से भूखी इरोम के शरीर में कितना कुछ बदल गया होगा। उसकी हड्डियाँ भीतर ही भीतर गल रही होगी ! उसकी आँते शायद अब रोटी पचाने लायक भी न बची हो। लेकिन सरकार अड़बी (जिद) पड़ी है कि काला क़ानून नहीं हटायेगी। है न, गोरों से ज़्यादा क्रूर काले अंग्रेज ?

यह तथ्य बहुत कम लोग जानते होंगे और पढ़ी-लिखी खाती-पीती नयी पीढ़ी तो शायद बिल्कुल ही नहीं जानती होगी ! खाते-पीते वर्ग की नयी पीढ़ी डिस्कोथेक, हुक्का बार, वाइन बार, मल्टीप्लेक्स, मॉल में अपना समय इतना ख़र्च करती है कि इतिहास, साहित्य और संस्कृति जैसे विषयों को पढ़ने और जानने के लिए उसके पास वक़्त का टोटा पड़ जाता है। उनके पास वक़्त से भी बड़ा जो टोटा है, वह है जानने की इच्छा का, संस्कार का। बापड़ों को ऎसा संस्कार ही न मिला कि उनका रुझान इन विषयों के प्रति हो। दूसरी तरफ़ जो अनपढ़ और ग़रीब पीढ़ी है, वह तो उदर पूर्ति के पाटों के बीच ही पीस कर रह जाती है। सदा ही गोरे और काले दोनों अंग्रेजों की साम्राराज्यवादी नीतियाँ यही तो चाहती रही है।

यहाँ यह बताना ठीक ही होगा कि जब 1947 में गोरे अंग्रेजों ने भारत छोड़ दिया। मणिपुर के महाराजा ने मणिपुर को संवैधानिक राजतंत्र घोषित किया। उन्होंने अपनी संसद के लिए चुनाव भी करवाए। लेकिन शायद दिल्ली ने महाराजा पर ऎसा दबाव बनाया कि मणिपुर का भारत (1949) में विलय करने के सिवा कोई चारा नहीं बचा था। विलय के बाद मणिपुर को सबसे निचले स्टेट का यानी सी ग्रेड राज्य का दर्जा दिया गया। फिर 1963 में केन्द्र शासित प्रदेश और फिर 1972 में राज्य का दर्जा दिया गया। लेकिन भारत सरकार का मणिपुर के साथ जो बर्ताव था, वह मणिपुर के चेतना से लबरेज़ लोगों से देखा नहीं गया। 1964 में ऎसे ही लोगों ने भारत सरकार के ख़िलाफ़ बग़ावत का बिगूल फूँक दिया। उन्होंने यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट के नाम से भूमिगत आँदोलन की शुरुआत कर दी। फिर 70 के दशक में पी.एल.ए, प्रीपाक, के.सी.पी और के.वाई.के.एल जैसे दूसरे संगठन भी बने। राष्ट्रवाद को लेकर सबकी अपनी-अपनी धारणाएँ थीं, लेकिन वे लड़ रहे थे, मणिपुर की आज़ादी के लिए। इन्ही सब आँदोलनों को कुचलने के लिए मणिपुर में (1958 का आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पॉवर एक्ट) काला क़ानून लागू किया गया था, जो आज तक ज़ारी है।

मणिपुर में सबसे ज़्यादा विरोध का उफान 2004 में देखने को मिला। कुछ समय के लिए पूरे देश का ध्यान मणिपुर की ओर आकर्षित हुआ। 2004 में असम रायफल्स के जवानों ने अपनी वीरता का झंडा कुछ इस अंदाज़ में गाड़ा कि देश का हर जागरूक और संवेदनशील तबका थू.. थू.. करे बिना न रह सका। मामला यूँ था कि एक रात असम रायफल्स के जवान 32 बरस की थांग्जम मनोरमा को उसके घर से उठा ले गये। वे इसलिए नहीं उठा ले गये थे कि मनोरमा ने कहीं बम फोड़ दिया था या कुछ और गंभीर अपराध कर दिया था, बल्कि उसके साथ ज़बरदस्ती करने को ले गये थे और सामूहिक रूप से की भी। बलात्कार के बाद मनोरमा की हत्या कर फेंक दी गयी। इस घटना ने मणिपुरी महिलाओं के मान-सम्मान की धज्जियाँ बिखेर दी। पूरा मणिपुर सड़क पर उतर आया। महिलाओं ने मणिपुर की राजधानी इंफाल में भारतीय सेना के कार्यालय के सामने नग्न होकर विरोध जताया और नारा दिया- इंडियन आर्मी रेप अस।

इस घटना से केवल मणिपुर सरकार की ही नही, केन्द्र सरकार की भी देश भर में थू.. थू होने लगी। तब अगस्त 2004 में केन्द्र सरकार को इंफाल नगर पालिका क्षेत्र से (ए.एफ.एस.पी.ए.) काला क़ानून हटाने को बाद्ध्य होना पड़ा। मणिपुर में सेना का हस्तक्षेप कम हुआ और सेना की जगह मणिपुर पुलिस कमांडोज (एम.पी.सी) ने ले ली। एम पी सी को राज्य के इंफाल पूर्व, इंफाल पश्चिम, थाउबल और बिष्णुपर जिलों में तैनात हैं। इनकी तैनाती ऎसी ही है जैसे नागनाथ को हटाया और सांपनाथ को तैनात किया हो।

इस बल का गठन 1979 त्वरित कार्यवाही बल के रूप में किया गया था। इस बल के बारे में राज्य के पूर्व महानिरीक्षक थांग्जम करुणमाया सिंह का कहना है कि ए.पी.सी के जवानों को ख़ास आॉपरेशन्स के लिए प्रशिक्षित किया गया है और उन्हें तभी गोली चलाने का निर्देश है जब उन पर गोलीबारी हो रही हो। उन्हें महिलाओं, बूढ़ों और बच्चों का ध्यान रखने को कहा जाता है। लेकिन 23 जुलाई 09 की सुबह क़रीब साढ़े दस बजे ख्वैरम्बंड बाज़ार में तलाशी अभियान के दौरान जो घटना घटी, वह पूरी तरह से उक्त कथन का मखौल उड़ाती है।

2008 में इस बल ने कुल सत्ताइस बार नाम कमाया, पर ये मुठभेड़ और उत्पीड़न के मामले इसने सुनसान जगह में निपटाये थे। पर बल के कमांडोज और नेतृत्व करने वालों को शायद लगा कि उनका नाम कम हुआ। शायद उन्हें वह कहावत याद आयी कि जंगल में मोर नाचा, किसने देखा। तब शायद उन्होंने अपने अचूक निशाने का हुनर (23 जुलाई 09 को) बीच चौराहे पर दिखाने का सोचा होगा। शायद इस सोच का सफल और चर्चित परिणाम- रबीना देवी, संजीत चोंग्खम और उस गर्भवती स्त्री के शव हैं। कमांडोज की सूझबूझ और दूरदर्शिता तो देखिए, उस गर्भवती महिला के बच्चे को पेट ही में मारकर, जन्म लेकर बच्चे की पी.एल.ए के संगठन से किसी भी रूप में जुड़ने की संभावनाओं को पूर्णतः समाप्त कर दिया। कमांडोज ने मणिपुर राज्य विधान सभा से लगभग 500 मीटर की दूरी पर यह कारनामा कर दिखाया, ताकि विधान सभा में बैठने वाले मंत्री गोलियों की आवाज़ सुन सके और जाँबाज कमांडोज के लिए उचित पुरस्कारों के प्रस्ताव तुरंत पारित करवा सके।

कमांडोज का यह दावा सही है कि संजीत पहले पी.एल.ए से जुड़ा हुआ था, इस आरोप के कारण संजीत को सन 2000 में हिरासत में लिया था और फिर छोड़ दिया था। फिर 2006 में संजीत अपनी तबीयत ख़राब रहने की वजह से पी.एल.ए से अलग हो गया था। 2007 में संजीत को राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून के तहत फिर से हिरासत में लिया और 2008 में छोड़ दिया था। कमांडोज उसे बार-बार पकड़ते, बंद करते और फिर छोड़ देते थे। कोई तो वजह थी, जिसकी वजह से उसे छोड़ना पड़ता था- शायद सिद्ध नहीं होता था कि संजीत के पी.एल.ए से संबंध है या कुछ ओर बात थी ! क्या था यह तो वही जानते होंगे, लेकिन उसे बार-बार छोड़ना पड़ जाता था। वह अपने परिवार के साथ खरई कोंग्पाल सजोर लीकेई में रहते हुए एक निजी अस्पताल में अटेंडेंट की नौकरी करता था, यह बात वहाँ सब जानते थे।

‘तहलका’ पत्रिका में छपी तस्वीरों में से किसी में भी वह कमांडोज के साथ झूमाझटकी करता, भागता या गोली चलाता नज़र नहीं आ रहा है। पुलिस कमांडोज उसे घेरे खड़े हैं। फिर उसे खींचते और धकियाते एक फार्मेसी के स्टोर रूम की तरफ़ ले जाते नज़र आ रहे हैं। थोड़ी देर बाद उसकी लाश को घसीट कर बाहर लाते हैं। उन तस्वीरों और संपूर्ण घटनाक्रम को जानने के बाद तो ऎसा ही लगता है कि कमांडोज ने 23 जुलाई 09 को मनमाने ढंग से सब्जी वाली रबीना देवी, गर्भवती स्त्री और संजीत की हत्या कर दी। वास्तविकता क्या है यह कोई ईमानदार एजेंसी की जाँच रिपोर्ट से पता चलेगा ! पर इस बात से जाँबाज कमांडोज का नाम पूरे देश में हो ही गया ! इससे राज्य सरकार और केन्द्र सरकार की इस समझ का भी पता चलता है कि वे अपने अधिनस्थ काम करने वाली सरकारी एजेंसियों को किस तरह से प्रशिक्षित करते हैं ! सवाल यह है कि क्या अपने हक़ के लिए लड़ने वालों से निपटने का यही एक मात्र तरीक़ा है ?

बात मणिपुर की तो है ही, पर अकेले मणिपुर की ही नहीं है। आज देश के कई हिस्सों में अपनी अलग-अलग माँगों और अधिकारों के लिए लड़ने वाले किसान, मज़दूर, आदिवासी, दलितों को सरकार गोली की भाषा से ही समझा रही है ।

इस सरकार और इस व्यवस्था से कुछ विनम्र सवाल है कि क्या सरकारी आतंकवाद कभी थमेगा ? कभी सरकार और उसके अधिनस्थ काम करने वाली एजेंसियों को यह समझ में आयेगा कि वे सब शोषण करने और आमजन को कुचलने के लिए नहीं, बल्कि उसके हर अधिकार को सम्मान और सुरक्षा प्रदान करने के लिए चुने और नियुक्त किये जाते हैं ? क्या यह सरकार आमजन के मन में यह भरोसा पैदा कर सकती है कि वह साम्राज्यवादी ताक़तों की अंगुली के इशारे पर नाचने वाली कठपुतली नहीं है ? क्या देश के सभी हिस्सों से भूख, भय, बेरोज़गारी, शोषण, दमन जैसी समस्याओं को खदेड़कर देश में शांति और सद्भाव का माहौल तैयार करने का विश्वास पैदा कर सकती है ?

क्या सरकार के पास ऎसा कोई रास्ता है जिससे लोगों के सवालों और समस्याओं के हल खोजे जा सके ? बात केवल राज्य और देश की सरकारों की नहीं है, बल्कि क्या इस पूरी साम्राज्यवादी व्यवस्था के ही पास ऎसा कोई रास्ता है ? अगर नहीं, तो फिर अकेली सरकार नहीं, इस पूरी साम्राज्यवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की ज़रुरत है ! यह काम जितना ज़ल्दी होगा, सुकून उतना नज़दीक होगा।

बिजूका फ़िल्म क्लब, इन्दौर द्वार 6 सितंबर 09 को मणिपुर के मुद्दे पर केन्द्रित निर्देशक कविता जोशी द्वारा बनायी डॉक्यूमेण्ट्री
फ़िल्म ‘ टेल फ्रॉम द मॉर्जिन’ का प्रदर्शन किया गया। फ़िल्म देख दर्शक स्तब्ध थे। दर्शकों ने मणिपुर में चल रहे दमन घोर निंदा की। दर्शकों ने कहा- एक झूठ लगातार जनता के सामने टी.वी. और अख़बार के माद्धय से परोसा जाता है कि देश में लोकतंत्र है। लेकिन मणिपुर, छत्तीसगड़, लालगढ़ और देश के कई हिस्सों में राज्य और केन्द्र सरकार जो कर रही है, वह सब किसी भी लोकतांत्रिक देश में संभव नहीं है।
बिजूका फ़िल्म क्लब के चुनिंदा दर्शकों के लिए फ़िल्म ‘ टेल फ्रॉम द मॉर्जिन’ नौवीं प्रस्तुति थी। मणिपुर की समस्या पर शब्बर हुसैन, संदीप कुमार, रेहाना, डॉ. यामिनी, प्रत्युष, चेतन, कॉ. आफ़क़ ,कॉ. सत्यनारायण वर्मा, कॉ. राजेन्द्र केसरी, रोहित पटेल और सत्यनारायण पटेल आदि ने अपने विचार रखे।



सत्यनारायण पटेल
बिजूका फ़िल्म क्लब
एम-2/199, अयोध्या नगरी
इन्दौर-11, (म.प्र.),
09826091605,
ssattu2007@gmail.com

05 सितंबर, 2009

गैर बराबरी की खाई से पैदा होते हैं फूलन जैसे चरित्र

मैं फूलन देवी हूँ भेनचोद.. मैं हूँ।

बेंडिट क्वीन फ़िल्म का यह पहला संवाद है, जो दर्शक के कपाल पर भाटे की नुकीली कत्तल की माफिक टकराता है। अगर दर्शक किसी भी तरह के आलस्य के साथ फ़िल्म देखने बैठा है, या बैठा तो स्क्रीन के सामने है और मग़ज़ में और ही कुछ गुन्ताड़े भँवरे की तरह गुन गुन कर रहे हैं, तो सब एक ही झटके में दूर छिटक जाते हैं। दर्शक पूरी तरह से स्क्रीन पर आँखें जमाकर और मग़ज़ के भीतर के भँवरे पर काबू पाकर केवल फ़िल्म देखता है और फ़िल्म यहीं से फ्लैश बैक में चली जाती है।

स्क्रीन पर नमुदार होते हैं, चप्पू के हत्थे को थामें मल्लहा के हाथ, और फिर पूरी नाव। नाव चंबल की सतह पर धीरे से आगे खिसकती है, अपनी गोदी में आदमी, औरत, बच्चे, पोटली, ऊँट और भी बहुत कुछ मन के भीतर का, जो नाव में सवार चेहरों पर दिखता है। शायद काम की तलाश, शायद गाँव को छोड़ने का दुख और भी कुछ। दर्शक इन्हीं चेहरों में खोजता है ख़ुद को और कुछ सोचने की तरफ़ बढ़ता है कि भूरे, मटमेले, ऊँचे बीहड़ों में से निकलता है बकरियों का एक झुण्ड। नदी किनारे आते झुण्ड के पीछे चल रहे हैं एक दाना (बुजुर्ग) और किशोर। यह पूरा दृश्य दर्शक के मन में रोज़गार के अभाव और विस्थापन की त्रसदी की चित्रात्मक कहानी बुनता है।

फिर आता है एक बच्ची की हाँक में एक बच्ची को बुलावा- फूलन … ए फूलन…

वह 1968 की एक दोपहर थी, जिसमें फूलन को पुकार रही थी एक बच्ची, जो शायद उसी की बहन थी। लेकिन ग्यारह बरस की फूलन अपनी सखियों के साथ नदी में किनारे पर डुबुक-डुबुक डूबकियाँ लगा रही थीं। वे केवल नहा नहीं रही थी, बल्कि सब सखियाँ मिलकर नदी में एकदूसरी के साथ और नदी के पानी के साथ खेल रही थीं। एकदम निश्चिंत और उन्मुक्त। शायद ये बेदधड़कपन और उन्मुक्तता चंबल के पानी में घुला कोई तत्व था, जो फूलन के भीतर कुछ ज़्यादा ही मात्रा में घुल गया था।

इस बार हाँक थोड़ी नज़दीक से और कुछ ज़ोर से आयी- फूलन…. ए फूलन…

फूलन ने देखा अपनी बहन के साथ और वहीं से पूछा- कईं है………..

तो के बुला रये ..
काई …?
मोके ना मालुम…

नदी से बाहर आती फूलन सरसों की एक कच्ची फली की तरह नन्हीं लगती है, लेकिन सवालों से भरी आँखें बोलती लगती है। फूलन के नदी से बाहर आने और घर पहुँचने के बीच, फ़िल्म में यह स्थापित किया जा चुका होता है कि फूलन को उसका पति पुत्तीलाल लेने आया है। पुत्तीलाल की उम्र क़रीब 27-28 बरस है। फूलन की माँ अनुरोध करती है कि अभी मोड़ी ग्यारह बरस की ही है। कुछ महीने बाद गौना कर देंगे। लेकिन पुत्तीलाल नहीं मानता है। अपनी माँ के बूढ़ी होने की वजह से काम न कर पाने का हवाला देता है। कहता है कि उसे मोड़ियों की कमी नहीं है। यही नहीं, बल्कि रिश्ता तोड़ने की भी धमकी देता है। फूलन का पिता भी समझाता है, लेकिन जब पुत्तीलाल नहीं मानता और किसी कर्ज़ माँगने वाले की तरह बात करता है। उसे दी गयी गाय को खूँटे से छोड़ लेता है। तब फूलन के पिता कहते हैं – ले जाने दे, अपन को कौन मोड़ी को घर में रखना है। और कोई ऊँच-नीच हो गयी तो … आदि..आदि चिंताएँ व्यक्त करता है। अंततः ग्यारा बरस की फूलन को 27-28 बरस के पुत्तीलाल के साथ रवाना कर दी जाती है।

फूलन का माँ-बाप से अलग होना और पुत्तीलाल के साथ जाने का दृश्य बहुत ही मार्मिक है। जैसे कोई गाय का दूध धाहती बछड़ी को स्तनों से अलग खींचता है और वह दौड़कर फिर स्तन को मुँह में ले लेती है। लेकिन जब बछड़ी स्तन को मुँह में लेने जाये और गाय भी उसे लात या भिट मारने को विवश हो जाये, तब दोनों ही पर क्या गुज़रती होगी, जबकि उस वक़्त उसे स्नेह के दूध की बेहद ज़रुरत होती है। दर्शक के मन में यही दृश्य उभरता है।

जब ससुराल पहुँचती है। फूलन गाँव के बीच के कुए पर गारे का हण्डा लेकर पानी भरने जाती है। अभी भी कई गाँव में दबंगों और नीची समझी जाने वाली जाती के लोगों के पानी के कुए अलग-अलग होते हैं। लेकिन फूलन की ससुराल में 1968 में भी ठाकुर और मल्लाह का एक ही कुए से पानी भरना बताया है। एक कुए से पानी भरते हैं, लेकिन एक दूसरे के बर्तनों को आपस में छूने से बचाते हैं। पानी खींचने की रस्सी, बल्टी भी अलग रखते हैं। लेकिन जब ग्यारह बरस की बहू को पता नहीं होता है, और अनजाने में या भूल से वह ठाकुर वाली बाल्टी को छूने लगती है, तो कुए से पानी भरने वाली ठकुराइने वहीं उसे घुड़क देती है और वह दूसरे छोर से, दूसरी रस्सी,बाल्टी लेकर कुए से पानी खींचती है। पानी लेकर चलती है, तो उसका हम उम्र मोड़ा और मोड़ों के साथ मिलकर उसका हण्डा फोड़ देता है। फूलन हण्डा फोड़ने वालों पर ज़ोर से चिल्लाती है, उसका चिल्लाना ठकुराइनों के कान खड़े कर देता है।

जब बग़ैर पानी लिए घर पहुँचती है, तो सास हण्डा फूटने की बात को लेकर डाँटती है। फूलन का सास के सामने भी वही तेवर बरकरार होता है। वह सास को ताना मारती है- गारे का हण्डा टूट गया, तो पीतल का लाओ, जैसे ठकुराइनों के पास है।
सास को यह ताना गचता है। गचना स्वाभाविक भी है, क्योंकि उसकी आर्थिक स्थिति ठाकुरों की बराबरी करने की नहीं होती है। सास कहती है- बहुत जबान चलती है, बुलाऊँ पुत्तीलाल को..

पुत्तीलाल फूलन को इस बात पर मारता है। वही पुत्तीलाल रात में ग्यारह बरस की फूलन के साथ बलात्कार करता है। पुत्तीलाल के इस कृत्य ने फूलन के जीवन में किसी भी तरह के सुख की संभावना को जैसे पोंछ दिया था। उस घटना से फूलन के मन में पुरुष के प्रति जो घृण का रिसाव हुआ, वह पूरी फ़िल्म में कई जगह प्रकट होता है। फूलन भागकर माइके आ जाती है। पुत्तीलाल से रिश्ता ख़त्म हो जाता है।

फूलन माइके में ही जवान होती है। उसकी जवानी पर गाँव के सरपंच के आवारा मोड़े और उसके साथी मोड़ों की नज़र होती है। वे उसे आते-जाते छेड़ते हैं और एक दिन खेत में अकेली को घेरकर ज़बरदस्ती करने की कोशिश करते हैं। ज़बरदस्ती तो नहीं कर पाते, लेकिन सब मिलकर उसे बुरी तरह से पीटते हैं। गाँव में पंचायत बैठती है और फूलन पर बदचलनी का एक तरफ़ा आरोप लगा उसे गाँव बाहर कर देती है। बार-बार प्रताड़ित, बार-बार बलात्कार फूलन के विद्रोही स्वभाव को कुचल नहीं पाता, बल्कि और भड़काता है। जब वह बंदूक थाम लेती है। पुत्तीलाल से बदला लेने पहुँचती है। पुत्तीलाल को गधे पर बैठाया जाता है। फिर लकड़ी के खम्बे से बाँध कर मारती-पीटती है। लेकिन जब वह यह कर रही होती है, उसके कान में ख़ुद की ही चीत्कार गूँजती है। वह चीत्कार जो कभी पुत्तीलाल द्वारा ज़बरदस्ती करने का विरोध करते हुए ससुराल में गूँजी थी। ग्यारह बरस की एक बहू जब मदद के लिए चीत्कार रही थी। सास दरवाजा भीड़कर दूसरी तरफ़ चली गयी थी। बदला लेते वक़्त उसे वह सब याद आ रहा था। उसकी छटपटाहट, उसे ग़ुस्से का पारावार किसी की भी मग़ज़ सुन्न कर देने वाला होता है। यहाँ फूलन अपने साथी विक्रम मल्लाह से कहती है- एस पी को चीट्ठी लिख…, अगर कोई छोटी मोड़ी को ब्याहेगा तो जान ले लूँगी।

जब फूलन को यह सब भोगना पड़ रहा था, तब केन्द्र और म.प्र. में काँग्रेस की सरकार थी। वही काँग्रेस, जो आज़ादी के बाद से ख़ुद को दबे-कुचलों के हित का ध्यान रखने वाली पार्टी होने का ढींढ़ोरा पीटती रही है। वही काँग्रेस जिसका इतिहास आज़ादी के आँदोलन में महत्तपूर्ण भूमिका निभाने वाला रहा है। उस पर धीरे-धीरे दबंगों और ठाकुरों ने किस तरह से कब्जा कर लिया। उस काँग्रेस का जैसे अर्थ ही बदल गया। जब फूलन अपने मान-सम्मान का बदला लेने और ख़ुद को ज़िन्दा बचाये रखने की लड़ाई लड़ रही थी, तब प्रदेश और देश की राजनीति में और सरकारों में भी ठाकुरों का ही बोलबाला था। इन ठाकुर नेताओं के संरक्षण में या आड़ में कह लो, इनके रिश्तेदार, और ख़ुद इन्हीं के द्वारा ग़रीब और मज़दूर वर्ग के लोगों पर किये जाने वाले शोषण और अत्याचार की कोई सीमा नहीं थी।

जंगल में भी जो ठाकुर डाकू थे, उनका दूसरे डाकू गिरोहों पर दबदबा था। जो उनके दबदबे को स्वीकार नहीं करता था, उसे या तो ख़ुद डाकू ही मार देते या पुलिस से मरवा देते। सरकार, पुलिस और डाकू सभी में ठकुराइ के प्रति बड़ी वफ़ादारी थी। डाकू बाबू गुर्जर को तो विक्रम मल्लाह उस वक़्त मार देता है, जब वह बीहड़ में फूलन के साथ ज़बरदस्ती कर रहा होता है। उसके कुछ वफ़ादारों को भी मार देता है और गेंग का लीडर बन जाता है।

लेकिन जब लालाराम ठाकुर डाकू जेल से छूट कर आता है, तो विक्रम मल्लाह उसे पूरा सम्मान देता है। रायफल देता है। लेकिन लालाराम के मुँह से पहला वाक़्य जो निकलता है और जिस लहज़े में निकलता है, उससे जात-पात की बू आती है। उसकी बात मल्लाह डाकुओं को अच्छी नहीं लगती है, लेकिन सह लेते हैं। लालाराम को एक मल्लाह के हाथ नीचे डाकू बने रहना स्वीकार न था। वह ज़ल्दी ही मल्लाह को धोखे से मारकर कायरता का परिचय देता है। फूलन के साथी सभी ठाकुर डाकू सामूहिक बलात्कार कर अपनी वीरता का झण्डा ऊँचा करते हैं ! लेकिन इससे भी ठाकुर के पत्थर कलेजे को ठंडक नहीं पहुँचती है, तब लालाराम बेहमई गाँव में फूलन को पूरे गाँव की मौजूदगी में नग्न कर देता है और उसे पानी भरने को कहता है। उसके बाल पकड़कर एक एक को दिखाता है कि ये मल्लाह ख़ुद को देवी कहकर बुलाती है। मुझे इसने मादरचोद कहा था। गाँव के सारे ठाकुर फूलन को नग्न देखते हैं। कोई विरोध नहीं करता एक औरत को इस हद तक ज़लील करने की। उस वक़्त हवा को भी जैसे लकवा मार जाता है।

फूलन इस सबके बाद जी जाती है, जितना फूलन ने सहा किसी खाते-पीते घर की औरत को यह सहना पड़ता। या किसी भी दबंग को यह सहना पड़ता, तो शायद सत्ता में, गाँव में, और हर जगह अपनी मूँछ पर बल देकर घुमने वाले दबंग की पेशानी भीग जाती। लेकिन फूलन के साथ अनेकों बार हुए बलात्कारों, ज़्यादतियों को सत्ता ने कोई तरजीह नहीं दी। आज भी आये दिन दलितों, आदिवासियों और ग़रीब स्त्रियों के साथ बलात्कार और ज़्यादतियों की ख़बरे कम नहीं सुनने-पढ़ने में आती है। लेकिन किसी के कान पर जूँ नहीं रेंगती है। अभी कुछ दिन पहले की ही बात है। धार ज़िले के गाँव में कमज़ोर वर्ग की दो औरतों को निर्वस्त्र कर गाँव भर में घुमाया गया था। उन्हें भी वैसे ही देखा गया जैसे बेहमई गाँव में फूलन को देखा गया था।

कहने का मतलब यह है कि आज भी स्त्रियों पर अत्याचार कम नहीं हो रहे हैं, बल्कि बढ़ते ही जा रहे हैं। जबकि स्त्रियों के मुद्दों पर काम करने के नाम पर, उन्हें चेतना संपन्न बनाने और उनके अधिकारों को बहाल कराने के नाम पर हज़ारों एन.जी. ओ. खुले हैं। लेकिन इस सब के जो नतीजे हैं, उससे वे कोई भी अंजान नहीं हैं, जिनके ज़िम्मे ज़िम्मेदारियाँ हैं, बस.. खामौश है। वह खामौशी शायद मुँह में भ्रष्टाचार की मलाई होने की वजह से है ! या फिर स्त्रियों की एक बड़ी जमात का फूलन के अनुसरण करने की है। भविष्य के खिसे में क्या है कभी तो राज़ खुलेगा !

14 फरवरी 1981 वह दिन था, जब फूलन, मानसिंह और साथी डाकुओं ने बेहमई गाँव के 24 ठाकुरों को मौत के घाट उतार दिया था। इस घटना ने राज्य और केन्द्र की सरकार की चिंता बढ़ा दी। क्योंकि म.प्र. और केन्द्र की सरकार में ठाकुर लाबी हावी थी। केन्द्र में देश की जनता को एमरजेंसी का स्वाद चखाने वाली प्रधानमंत्री थी। शायद उन्हीं दिनों प्रधानमंत्री पंजाब की राजनीति को नया रंग देने में व्यस्त थी, जिसका परिणाम देश ने बाद में देखा और फिर भोगा भी। लेकिन वही समय था, जब फूलन का ग़ुस्सा चंबल के किनारे तोड़ खौफ़ का पर्याय बन गया था। गाँव की सत्ता हो, देश की सत्ता हो या फिर सरकारी महकमा दबंग जहाँ कहीं था, विद्रोही फूलन के नाम से उसकी सांस ऊपर-नीचे हो रही थी। राज्य और केन्द्र की सरकार पर ठाकुर मंत्रियों का दबाव बढ़ रहा था। इसी के चलते सरकार ने फूलन के गिरोह को नष्ट करने का आदेश दिया। फिर पुलिस जितनी अमानवीय तरीक़े से फूलन के साथ पेश आ सकती थी, आयी। ठाकुर डाकू लालाराम और पुलिस ने या कहो लो सरकार ने मिलकर बागी फूलन की गेंग के ख़िलाफ़ अभियान शुरू किया। पहली बार में फूलन के गिरोह के दस बागियों को ढेर कर दिया। जंगल में पीने के पानी स्त्रोतों में ज़हर मिला दिया। फूलन को 12 फरवरी 1983 को आत्मसमर्पण करना पड़ा। इस तरह फूलन के बागी जीवन का अंत हुआ। एक फूलन का बाग़ी जीवन ख़त्म हुआ। लेकिन जिस आर्थिक, सामाजिक ग़ैरबराबरी की खाई ने फूलन को बाग़ी बनाया वह संकरी न हुई, बल्कि चौड़ी होती जा रही है, जिससे बाग़ी नये-नये रूप में दिखाई दे रहे हैं।

उपन्यासकार माला सेन के द्वारा फूलन के जीवन पर लिखे उपन्यास- ‘बेंडिट क्वीन’ के कथानक को ही पटकथा में ढाला था। निर्देशक शेखर कपूर ने इस फ़िल्म को बनाने में बहुत मेहनत की है, जो स्क्रीन पर नज़र आती है। सीमा विश्वास ने फ़िल्म के हर द्रश्य को जैसे जिया है। वह किसी क्षण सीमा विश्वास नज़र नहीं आती है। अगर किसी ने फूलन को कभी नहीं देखा और उससे यह कहा जाये कि यही फूलन है। सभी शॉट उसी वक़्त छुपकर लिये हैं, तो उसके पास मानने के सिवा कोई चारा नहीं होता। मनोज वाजपेयी,निर्मल पाण्डे आदि कलाकारो की भूमिकाएँ भी यादगार हैं।
फ़िल्म की सिनेमेटोग्राफी भी देखने लायक है। समाज में व्याप्त ग़ैरबराबरी के यथार्थ को आँखों के सामने हक़ीक़त की तरह फैला देती है। हर फ्रेम अपनी श्रेष्ठता का दावा करती है। इस फ़िल्म का प्रदर्शन 30.8.09 को बिजूका फ़िल्म क्लब, इन्दौर में किया गया। यह बिजूका फ़िल्म क्लब की आठवीं प्रस्तुति थीं, जो दर्शकों के बीच सराहनीय रही।


सत्यनारायण पटेल
बिजूका फ़िल्म क्लब,
इन्दौर

21 अगस्त, 2009

मजीद मजीदीः रिश्तों की ख़ूबसूरती

हॉलीवुड और वालीवुड के बाहर भी फ़िल्में बनती हैं और अच्छी बनती हैं यह हमारे ज़ेहन में तब नहीं आती जब तक कि हम किसी समारोह में दूसरे देशों की फ़िल्में नहीं देखते हैं. आम दर्शक को दूसरे देश की फ़िल्में देखने का मौक़ा यदा कदा ही मिल पाता हैं। इस बीच चेक रिपब्लिक, पौलैंड, टर्की, फ्राँस, क्यूबा, जर्मनी, इटली, बाँग्ला देश, इज़राइल, हंगरी तथा ईरान की कुछ बेहतरीन फ़िल्में देखने का अवसर मिला। ईरान के फ़िल्म निर्देशक मजीद मजीदी की फ़िल्में देखने अपने आप में एक सुखद चाक्षुष अनुभव है। यहाँ उनकी कुछ फ़िल्मों की झाँकी प्रस्तुत है।

कुछ समस्याएँ सार्वभौमिक और सार्वकालिक होती हैं। ऎसी ही एक समस्या तब उत्पन्न होती है जब एक किशोर बालक के पिता की मृत्यु हो जाती है और वह अपने आप को परिवार चलाने के लिए ज़िम्मेदार मानकर अपनी माँ और बहनों की परवरिश के लिए काम करने निकल पड़ता है। लेकिन उसके ग़ुस्से का अंदाज़ा किया जा सकता है जब उसे पता चलता है कि उसकी माँ ने एक अन्य व्यक्ति से विवाह कर लिया है। एक अनजान आदमी को अपने पिता के रूप में देखना शायद ही किसी किशोर को स्वीकार हो। किशोर की बेबसी, खीज, विद्रोह को परदे पर उतारना आसान नहीं है। किशोर अवस्था स्वयं में ही काफी उलझन भरी होती है तिस पर ऎसी भयंकर परिस्थिति! किशोर के मन में उठ रहे तूफान की कल्पना की जा सकती है, उस तूफान को परदे पर प्रस्तुत करना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। उसी कठिन कार्य को बड़ी सहजता, कुशलता और ख़ूबसूरती के साथ, बहुत कम किरदारों की सहायता से ईरान के फ़िल्म निर्देशक मजीद ने ‘फादर’ (पेडर) फ़िल्म में कर दिखाया है। चौदह वर्ष का मेहरोल्लाह (हसन सेदिघी) समुद्र तट पर स्थित शहर से कमाई करके वापस आता है तो पाता है कि उसकी विधवा माँ ने एक पुलिस वाले से विवाह कर लिया है। वह ग़ुस्से से उबल पड़ता है। माँ अपने नए पति के साथ उसके नए घर में रह रही है। मेहरोल्लाह अपने पुराने घर में जाता है जो जब उजाड़ पड़ा है। घर की उजड़ी स्थिति उसके मन की उजड़ी दुनिया को बख़ूबी प्रस्तुत करती है। कहाँ तो वह सोच और मान रहा था कि वह अपने पिता के रिक्त स्थान की पूर्ति कर रा है और कहाँ देखता है कि एक अजनबी उस आसन पर चढ़ बैठ है। उसे लगता है कि इस दू्सरे पुरुष ने उसकी माँ तथा बहन को बँधक रख लिया है। वह इस नये पुरुष के सामने रकम फेंक कर उन्हें उसके बंधन से छुड़ाना चाहता है, और जब इसमें नाकामयाब रहता है, तो पुलिस आॉफीसर की पिस्तौल चुरा कर हत्या करने की कोशिश करता है। अपने मालिक लूटना चाहता है। किशोर का पूरा आत्मविश्वास चकनाचूर हो जाता है। उसकी दुनिया उलट-पलट हो जाती है। उसके मन की हलचल ग़ुस्से में फूट पड़ती है। वह अपने इस नये पिता को सिरे से नकार देता है।

उसका क्रोध अपनी माँ पर भी है जो उसके लौटने तक धैर्य न रख सकी और जिसने उसकी ग़ैरहाज़िरी में दूसरे पुरुष के घर में आराम से रहना शुरू कर दिया है। उसे स्वीकार नहीं है कि उसके पिता के रिक्त स्थान की पूर्ति जिसे वह स्वयं भरना चाहता है एक अजनबी द्वारा हथिया ली जाए। उसे लगता है कि पुलिस वाला उसकी माँ पर अत्याचार करता है। उसने उसकी माँ के वैधव्य का फ़ायदा उठाया है। घर पर चूँकि कोई पुरुष नहीं था इसलिए इस पुलिसिए ने उसके परिवार को अपने कब्जे में कर लिया है। उसका ख़ून खौल उठता है और वह अपने परिवार पर हो रहे अत्याचारों का प्रतिकार करना चाहता है। इस फ़िल्म में एक किशोर की मनःस्थिति का बड़ी बारीकी से चित्रण हुआ है।

दूसरी ओर उसका नया पिता पुलिस वाला होते हुए भी बहुत नर्म दिल है और अपनी नई पत्नी तथा उसके बच्चों को बहुत प्यार करता है। वह स्वयं तलाक़ शुदा है और निःसंतान है। वह इस नई शादी से भरे पूरे परिवार की उम्मीद कर रहा है। वह अपनी पत्नी के बेटे को समझने और समझाने का प्रयास करता है परंतु मेहरोल्लह का जिद्दी व्यवहार उसके अंदर के पुलिसिए को जगा देता है। उसका धैर्य चुक जाता है। वह एक ईमानदार पुलिस आॉफिसर है और अपराधी उसके शिकंजे से बच नहीं सकता है। मेहरोल्लाह का व्यवहार उसके ग़ुस्से का का बायस बनता है। अंततः पिता उसे पकड़ लेता है और दोनों घर की ओर लौटने लगते हैं। रास्ते की परिस्थितियाँ उनके संबंधों को नया मोड़ देती हैं। यह एक किशोर के व्यस्क होने की यात्रा है। जब लौटते वक़्त पुलिस आॉफीसर मृत्यु की कगार पर पहुँच जाता है, तब यही बच्चा उसकी जान बचाता है। इस तरह पुनः उसका विश्वास लौटता है। वह बालक से व्यस्क की भूमिका में आ जाता है। यह आगमन बहुत सकारात्मक है। वह नये रिश्ते को मन में ग्रहण करता है और परिवार में अपना स्थान पा लेता है।

पुलिस आॉफीसर के भीतर बैठे कोमल ह्रदय पिता की भावनाओं को मोहम्मद कासेबी ने बहुत स्वाभाविक अभिनय द्वारा प्रस्तुत किया है। साथ ही उसका पुलिस आॉफीसर वाला किरदार भी काफ़ी आधिकारिक बन पड़ा है। परिवाश नज़रिये नामक अभिनेत्री ने पत्नी तथा माँ की कशमकश को ख़ूबसूरती से अंजाम दिया है। एक और चरित्र है मेहरोल्ला का अटपटा, भोंदू-सा दोस्त. इस किरदार को निभाया है हुसैन अबेदीनी ने, जिसकी भूमिका बहुत छोटी है, परंतु अपने अभिनय की ताज़गी से जो दर्शकों को याद रह जाता है। इसी अभिनेता ने बाद में मजीदी की फ़िल्म ‘बरन’ में मुख्य भूमिका की है।

ईरान के ग्रामीण परिवेश की उजाड़ और रूखी-सूखी प्रकृति भरे-पूरे परिवार के लिए पृष्ठभूमि का काम करती है। फ़िल्म ‘फादर’ को मजीद मजीदी ने सैयद मेहंदी शौदाई के संग मिल कर लिखा है। सबसे ऊपर काबिलेतारीफ़ है मोहसिन ज़ोलानवर की फोटोग्राफी। इस फ़िल्म में प्रकृति और मानवीय रिश्तों की ख़ूबसूरती को कैमरे की नज़र से बहुत सुंदरता के साथ प्रस्तुत किया गया है। कम से कम संवादों मजीद अपनी बात बखूबी कहते हैं । फ़िल्म माध्यम पर उनकी मज़बूत पकड़ है। उनका कैमरा आँखों की भाषा, चेहरे के भावों और शारीरिक मुद्राओं को पकड़ने की कुशलता रखता है। इसमें उनके फोटोग्राफिक डायरेक्टर मोहसिन ज़ोलानवर का भरपूर सहयोग है।

ईरान की फ़िल्में अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सवों में एक विशिष्ट स्थान रखती हैं और वहाँ की नई लहर के सिनेमा में मजीद मजीदी का एक ख़ास स्थान है। 1959 में जन्में मजीदी की रुचि प्रारंभ से नाटकों में रही है। उन्होंने थियेटर की बाकायदा ट्रेनिंग ली और इसी दौरान उनकी रुचि फ़िल्मों की ओर भी हुई। शुरुआत में उन्होंने फ़िल्मों में छोटी-छोटी भूमिकाएँ कीं। शीघ्र ही वे निर्देशन की ओर मुड़ गये।

1992 में उन्होंने अपनी पहली फ़िचर फ़िल्म बनाई। 1996 में आई फ़िल्म ‘फादर’ के साथ मजीदी अंतरराष्ट्रीय सिनेमा में एक चर्चित नाम बन गए। इस फ़िल्म को कई पुरस्कार मिले, साथ ही इस फ़िल्म ने उन देशों में भी ईरानी फ़िल्मों के लिए द्वार खोल दिए जिनमें इसके पूर्व कभी ईरानी फ़िल्मों की पहुँच न थी. इस दृष्टि से यह ईरान के फ़िल्म उद्योग में ऎतिहासिक महत्व की फ़िल्म है।

मजीद को बच्चों और परिवार को सामाजिक तथा राजनैतिक परिवेश में दिखने में महारत हासिल है। उनकी फ़िल्म 1997 में बनी ‘चिल्ड्रेन आॉफ हेवन’ को आॉस्कर पुरस्कार के लिए नामित किया गया था। एक साक्षात्कार में मजीदी ने कहा है कि वे बच्चों का संसार छोटा और सरल तथापि विशाल और आश्चर्यजनक होता है। मजीद मानते हैं कि यह आकाश की भाँति नीला, नदी की तरह स्वच्छ, और पहाड़ों की तरह ऊँचा तथा समग्र होता है। ये फ़िल्में बच्चों के विषय में हैं, उनकी दुनिया को प्रदर्शित करती हैं परंतु बच्चों के लिए नहीं हैं। बच्चों को लेकर जब वयस्कों के लिए फ़िल्में बनती हैं तो अक्सर वे सफल नहीं होती हैं। वयस्कों की उनमें रुचि नहीं होती है लेकिन मजीदी की विशेषता है कि उनके द्वारा निर्देशित ये फ़िल्में सफल रही हैं।

युद्ध जनजीवन को तबाह कर देता है यह एक सर्वविदित तथ्य है। युद्धक परिणाम ग़रीबी और बदहाली भी होता है। युद्ध के फलस्वरूप लाखों लोग अपनी ज़मीन से उखड़ जाते हैं, शरणार्थी बन जाते हैं, आज यह एक भयंकर समस्या है। विश्वयापी समस्या है।

अफगान लंबे समय से इन परिस्थितियों से जूझ रहा है। पहले सोवियत दमन और उसके बाद तालिबानी शोषण। अफगान की जनता को स्वतंत्रता में सांस लिए एक युग बीत चुका है। अफगानी जीवन भी इन समस्याओं से ग्रसित है। नतीजतन आम अफगान मौक़ा मिलते ही रोजी-रोटी की तलाश में दूसरे देशों को पलायन करता है। जब ग़ैर क़ानूनी तरीक़े से व्यक्ति दूसरे देश में रहता है, तो उसे किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, मजीद मजीदी ने इसी गंभीर अंतरराष्ट्रीय समस्या की पृष्ठभूमि पर अपनी फ़िल्म ‘बरन’ को खड़ा किया है। बरन की कहानी एक ऎसे ही परिवार से प्रारंभ होती है जो काम की तलाश में अफगानिस्तान से भाग कर ग़ैर क़ानूनी तरीक़े से रह रहा है। पिता नज़फ (गुलाम अली बख्शी) एक कंस्ट्रक्शन कम्पनी में मज़दूर है। इन शरणार्थी मज़दूरों की स्थिति ईरानी मज़दूरों की अपेक्षा बदतर है। उन्हें जी तोड़ मदद करना पड़ती है। बदले में देशी मज़दूरों से कम मज़दूरी मिलती है। रहने को ढंग का स्थान नहीं होता है और जब तब जाँच के दौरान छिपना पड़ता है। उनकी अपनी कोई पहचान नहीं होती है।

सत्रह साल का ईरानी छोकरा लतीफ (हुसैन अबेदीनी) लोगों को चाय पिलाना, उनका खाना ले आना आदि हल्के-फुल्के काम करता है। यह आलसी, चिड़चिड़ा लड़का गरम दिमाग़ का है। जब-तब अपने आसपास के लोगों के साथ बुरा व्यवहार करता है। जब एक दुर्घटना के फलस्वरूप अफगान मज़दूर नज़फ घायल हो जाता है, उसका लड़का रहमत उसके स्थान पर काम करने आता है। वह नाजुक-सा लड़का भारी काम नहीं कर पाता है। ठेकेदार उस लतीफ को सताने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ता है।

जब एक दिन उसे पता चलता है कि उसका काम छीनने वाला एक लड़का नहीं वरन मज़बूरी में पुरुष का रूप धारण किए हुए एक लड़की बरन (ज़हरा बेहरामी) है तो उसका नज़रिया बदल जाता है। वह बरन की सहायता करने लगता है, उसे परेशानियों से बचाता है। स्वयं को ख़तरे में डालकर उसकी और उसके परिवार की भी सहायता करता है। जाने-अनजाने में वह बरन की रक्षा का भार अपने ऊपर ले लेता है। मजीद के अनुसार उन्होंने पहले ही निश्चित कर लिया था कि लतीफ और बरन न तो शारीरिक रूप से एक-दूसरे को स्पर्श करेंगे ना ही एक-दूसरे से बात करेंगे और पूरी फ़िल्म में यही होता है। वह उसकी ओर पूरी तौर से आकर्षित है परंतु कभी उससे बात नहीं करता है। वह उससे कभी आँख नहीं मिलाता है। वह दिन-रात बरन का साया बना रहता है, सबसे छिप कर रोता है।

प्यार लतीफ के कठोर स्वभाव में कोमलता ला देता है, वह परिवर्तित हो जाता है। बेफ़िक्र लतीफ बरन के लिए फ़िक्र करने लगता है। उसकी मानवीय भावनाएँ जाग उठती हैं। जिसे बदले की भावना से वह दिन-रात परेशान करता था उसी के लिए परेशान रहने लगता है। वह अपने दिल की बात अपनी ज़बान पर कभी नहीं लाता है। निर्देशक उसकी भूरी आँखों पर कैमरा केन्द्रित करके उसके उसके अंतर की भावनाओं को दर्शकों तक प्रेषित करने मे क़ामयाब रहता है। ऎसा नहीं है कि बरन लतीफ की भावनाओं से परिचित नहीं है या उसे लतीफ में आया परिवर्तन नहीं दिखता है। हाँ, मूक रूप से अपनी भावनाओं का प्रदर्शन अवश्य करती है, जैसे कि वह चुपचाप एक गिलास उसके लिए चाय रख देती है।

शायद यह ईरान और अफगान की सभ्यता-संस्कृति का तकाज़ा है और कहानी का कमाल कि फ़िल्म के दोनों पात्र एक-दूसरे से बात नहीं करते हैं फिर भी दर्शकों को बाँधे रखते हैं। कहानी में कोई नयापन नहीं है, वही लड़का-लड़की की प्रेम कहानी। वही ग़रीबी और शोषण। पुरुष समाज में जीने के लिए स्त्री का पुरुष वेष धारण करना भी नया नहीं है। शेक्सपीयर से लेकर न मालूम कितनी कहानियों में यह आ चुका है लेकिन बरन का ट्रीटमेंट उसे ताज़गी प्रदान करता है। उसे एक विशिष्ट सामाजिक-राजनैतिक परिस्थिति में एक नया अर्थ मिल जाता है। फ़िल्मांकन ख़ूबसूरत बन पड़ा है। शुरू से अंत तक लतीफ का प्रेम मासूम है और इसे निर्देशक सफलता पूर्वक दिखा पाता है। उसका पुरस्कार अंत में लतीफ को मिलता है जब जाते समय बरन अपना बुरका उलट कर लतीफ को देखती है। बड़े-बड़े लंबे-चौड़े डायलॉग जो न कह पाते, यह निगाह वह बात अनायास कह जाती है। पहली बार दोनों की आँखें मिलती हैं। बरना का चेहरा उसने पहले देखा था लेकिन इस बार बरन जिस निगाह से उसे देखती है उस निगाह से लतीफ को नया जीवन मिलता है। बरन का यह एक जेस्चर लतीफ को जीने का संबल प्रदान करता है। कीचड़ में बरन की जूती का निशान बारिश के पानी से भर जाता है। वे अपना जीवन पुनः प्रारंभ करते हैं।

ग़रीबी क्या नहीं करवाती है। छोटे-छोटे मासूम बच्चों को अपने माता-पिता से झूठ बोलने पर मज़बूर कर देती है। बच्चे मन के सच्चे होतें हैं इसलिए उन्हें हर बार झूठ बोलते समय या माता-पिता से कोई बात छिपाते समय असह्य पीड़ा होती है। उनका चेहरा खिंच जाता है, संकुचित हो जाता है। इन्हीं बारीक भावनाओं का मजीदी ने अपनी फ़िल्म ‘चिल्ड्रेन आॉफ हेवन’ में बड़ी ख़ूबसूरती से फ़िल्मांकन किय है। फ़िल्म की शुरुआत होती है जब एक मोची गुलाबी रंग के नन्हें जूतों की मरम्मत कर रहा है। नौ साल का बच्चा अली (मीर फारुख हश्मियान) अपनी छोटी बहन ज़हरा (बहार सेदगी) के जूतों की मरम्मत करा कर लौटते हुए कुछ अन्य काम भी समेटता है और इसी चक्कर में ग़लती से बहन के जूते खो बैठता है। उसे मालूम है कि उसकी एक कौठरी के घर का किराया पाँच महीने से नहीं दिया गया है। उसकी माँ काफ़ी दिन से बीमार है। ऎसे में वह अपने पिता को जूते खोने की बात बताकर और हलकान नहीं करना चाहता है और ख़ुद हलकान होने की प्रतिक्रिया से जुड़ जाता है। भाई-बहन मिलकर उपाय निकालते हैं, चूँकि दोनों के स्कूल का समय अलग-अलग है अतः दोनों मिलकर तय करते हैं कि ज़हरा सुबह अली के फटे जूते पहनकर स्कूल जाएगी और लौटते में समय में अली आधे रास्ते में सबसे छिपा कर अपने जूते उससे ले लेगा और ख़ुद उन्हें पहन कर स्कूल जाएगा। समय पर जूते लेने-देने के चक्कर में भाई-बहन की दौड़-भाग चलती है, परंतु अक्सर अली स्कूल में लेट हो जाता है। स्कूल हेडमास्टर अली को लगातार देर से आने के कारण स्कूल से निकाल देने की धमकी देता है।

मजीद मजीदी सार्वभौमिक थीम उठाते हैं, जिसका किसी ख़ास देश, संस्कृति या धर्म से संबंध होना आवश्यक नहीं है। यह किसी देश, किसी धर्म और किसी संस्कृति में रखी जा सकती है। पारिवारिक प्रेम और परिवार के लिए बलिदान एक ऎसी ही थीम है। थीम नई न होने पर भी उसका ताज़गी भरा ट्रीटमेंट उसे नवीनता प्रदान करता है। ‘चिल्ड्रेन आॉफ फेवन’ का कथानक ऎसा ही देश काल की सीमा का अतिक्रमण करने वाला है। घर में लगातार तनाव की स्थिति बनी रहती है। माली के काम की तलाश में अली का पिता उसे साइकिल पर लेकर शहर की ओर निकलता है। शहर जहाँ तरह-तरह के आकर्षण होते हैं। इसी बीच अली का स्कूल एक ऎसी प्रतियोगिता का आयोजन करता है जिसमें दौड़ कर तीसरा स्थान प्राप्त करने पर एक जोड़ा नए जूते मिलने की संभावना है। अली उस रेस के लिए नाम लिखाता है। रेस का दृश्य और परिणाम पहले से ग्यात रहने पर भी दर्शक अली के साथ दौड़ता है और उसकी सफलता (तृतिय स्थान) की कामना करता है। स्लो मोशन और क्लोज अप में दिखाई गयी यह रेस बच्चे के भीतर चल रही भावनाओं को परदे पर उतार कर दर्शकों तक पहुँचा देती है।

निर्देशक के रूप में मजीदी बच्चों से बेहतरीन काम लेने का गुर जानते हैं। बच्चों की दुनिया छोटी-छोटी ख़ुशियों से समृद्ध होती है, छोटी-छोटी परेशानियों से बिखरने की कगार पर आ जाती है, वे घबरा जाते हैं। मजीद इनका भरपूर उपयोग करते हैं, मसलन बच्चों का तालाब के शीतल जल में पैर डालकर बैठना और मज़े लेना, गुब्बारे का फूलना और बच्चों का आनंदित होना। एक बहते नाले में जूता बहने लगता है या फिर स्कूल टीचर का क्रोध उन्हें भयभीत कर देता है। दौड़ते-भागते छिप कर जूते बदलते बच्चे दर्शकों के दिल पर अपने अभीनय की छाप छोड़ जाते हैं।
1997 में बनी इस फ़िल्म को ढेरों पुरस्कार प्राप्त हुए। इक्कीसवें मोंट्रियल फ़िल्म फेस्टीवल में इसे तीन-तीन पुरस्कार मिले, साथ ही तेहरान फ़िल्म समारोह में नौ पुरस्कार तथा फिनलैंड, जर्मनी,पोलैंड,सिंगापुर में भी सम्मान मिला। मजीदी की फ़िल्में अपने दृश्यांकन के लिए जानी जाती हैं, चाहे वह ‘बरन’ हो या ‘फादर’ अथवा ‘चिल्ड्रेन आॉफ हेवन’ सबका फ़िल्मांकन आँखों को लुभाने वाला है। वे जीवन की छोटी-छोटी बातों, छोटी-छोटी ख़ुशियों को पकड़ते हैं। रिश्तों की गर्माहट, चरित्रों की मासूमियत, मानवीय लगाव के बारीक रेशों से अपनी फ़िल्म बुनते हैं। मजीदी अपनी फ़िल्मों में संगीत का उपयोग इस कदर से करते हैं कि इससे उनकी फ़िल्मों की लयात्मकता और बढ़ जाती है। उनके लिए ‘स्मॉल इज़ ब्यूटीफुल’ बिलकुल सही है।

वे पेशेवर नेताओं से काम नहीं लेते हैं। ग़ैर पेशेवर से काम करा ले जाना उनकी ख़सियत है। मजीद अपने कलाकारों का चुनाव करने में काफ़ी मशक्कत करते हैं और बहुत सावधानी से उन्हें चुनते हैं। कलाकारों का चुनाव करते समय वे उनकी आँखों का विशेष ध्यान रखते हैं। उन्हें भावप्रवण, स्वच्छ आँखों की तलाश रहती है। इसके लिए वे दूर-दूर तक जाकर खोज करते हैं। चाहे वह बालक अली की निष्पाप भूरी आँखें हों अथव ‘बरन’ की नायिका की बोलती आँखें, बरन की नायिका की तलाश में वे ख़ूब भटके। वे एक ऎसी लड़की की खोज में निकले जो बहुत ख़ूबसूरत न हो परंतु जिसके चेहरे पर मासूमियत और अध्यात्मिकता की छाया हो। जो नैसर्गिक रूप से नाजुक हो जिसकी आँखों में तरलता और सौम्यता हो। इन गुणों को ध्यान में रखकर मजीद सहायकों के साथ वीडियो कैमरा संभाले ऎसी लड़की की खोज में निकल पड़े। वे बताते हैं कि इस खोज में वे तेहरान जा पहुँचे। क़रीब डेढ़ महीने वे कई स्कूलों की खाक छानते रहे पर सफलता न मिली। वे लोग शहर के बाहर उन इलाकों में गए जहाँ किसान और कामगार रहते हैं। वहाँ भी निराशा हाथ लगी। तब उन लोगों ने मशाद जाने का फ़ैसला किया। मशाद अफगानिस्तान की सीमा से लगा हुआ है जहाँ रेगिस्तान में दो बड़े अफगान शरणार्थी शिविर थे। उन्होंने कैंप निदेशक से बात की और 13 से 16 साल की लड़कियों को देखना चाहा। थोड़ी देर उनके सामने इस उम्र की क़रीब पाँच सौ लड़कियाँ खड़ी थीं। उन्हीं के बीच उन्होंने सफेद और काले बुरके में उसे देखा। जब मजीद ने उससे बातचीत की तो उन्हें ग्यात हुआ कि यह लड़की ज़हरा काफ़ी मजबूत व्यक्तित्व की स्वामिनी है। वह एक साल की उम्र से शिविर में रह रही थी लेकिन स्कूल जाती थी और अपने इलाके की पूरी जानकारी रखती थी। इतना ही नहीं वह मजीद और मजीद की फ़िल्मों के बारे में भी जानती थी, उसने उन्हें टी.वी पर फ़िल्मों में अभिनय करते देखा था।

फिर मजीद उस लड़की के परिवार से मिले। वे बहुत अच्छे स्वभाव के निकले। मजीद पूरे परिवार को तेहरान ले आए. शूटिंग के दौरान उनके रहने ठहरने का प्रबंध किया। उसके स्कूल जाने वाले भाइयों के लिए ट्यूशन का इंतजाम किया। इस लड़की के पिता ने भी ‘बरन’ फ़िल्म में एक मज़दूर की भूमिका की। मजीद ज़हरा को अपनी बेटी की तरह प्यार करते हैं और वह भी जब-तब उनसे सलाह लेने आती है। ईरान में रहने वाले अफगान इस फ़िल्म से काफ़ी ख़ुश और मजीद के एहसानमंद हैं। वे गर्व के साथ ज़हरा की फोटो अपने घर की दीवाल पर लगाते हैं।

‘बरन’ का नायक किशोर हुसैन अबेदीनी पहले ही उनकी फ़िल्म ‘फादर’ में बुद्धू दोस्त की भूमिका कर चुका था। यह भी पेशेवर अभिनेता नहीं है। इसे मजीदी ने फल मंडी से ढूंड निकाला था। उस समय बारह साल का यह किशोर स्कूल छोड़ कर तरबूज बेच रहा था। फ़िल्म में काम करके वह बहुत ख़ुश है। फ़िल्म की सफलता का नशा उसके सिर नहीं चढ़ा है। उसे लगता है कि वह प्रसिद्ध हो गया है और अब लोग उसके फल ज़्यादा ख़रीदेंगे। मजीद बहुत चाहा कि वह फिर से स्कूल जाने लगे, पर यह न हो सका। यह सरल युवक हुसैन अब भी फल बेचता है। मजीद ने सिद्ध कर दिया है कि बिना स्टार कास्ट के भी बेहतरीन फ़िल्में बनाई जा सकती हैं।

मजीदी उन पाँच अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म निर्देशकों में से एक हैं जिन्हें चीन की सरकार ने इस वर्ष हो रहे ओलंपिक खेलों के लिए बेजिंग शहर पर वृत्तचित्र बनाने के लिए आमंत्रित किया था। निकट भविष्य में भारतीय कलाकारों को लेकर का मजीद मजीदी मन बना रहे हैं।
००
विजय शर्मा
151 बाराद्वारी, जमेशदपुर
( झारखण्ड)

14 अगस्त, 2009

घुपती ह्रदय में बल्लम–सी जिसकी बात, उसे गपला ले गयी कलमुँही रात

वह खोड़ली कलमुँही (6 अगस्त 09) रात थी, जब प्रमोद उपाध्यायजी ज़िन्दगी की फटी जेब से चवन्नी की तरह खो गये। प्रमोद जी इतने निश्छल मन थे कि कोई दुश्मन भी कह दे उनसे कि चल प्रमोद… एक-एक पैग लगा लें, तो चल पड़े उसके साथ। उनकी ज़बान की साफ़गोई के आगे आइना भी पानी भरे। अपने छोटे-से देवास में मालवी, हिन्दी के जादुई जानकार। भोले इतने कि एक बच्चा भी गपला ले, फिर सुना है मौत तो लोमड़ी की भी नानी होती है न, गपला ले गयी। प्रमोदजी को जो जानने वाले जानते हैं कि वह अपनी बात कहने के प्रति कितने ज़िम्मेदार थे, अगर उन्हें कहना है और किसी मंच पर सभी हिटलर के नातेदार विराजमान हैं, तब भी वह कहे बिना न रहते। कहने का अंदाज़ और शब्दों की नोक ऎसी होती कि सामने वाले के ह्रदय में बल्लम-सी घूप जाती। जैसा सोचते वैसा ही बोलते और लिखते। न बाहर झूठ-साँच, न भीतर कीच-काच।

उनने नवगीत, ग़ज़ल, दोहे सभी विधा की रचनाओं में मालवी का ख़ूबसूरत प्रयोग किया है। रचनाओं के विषय चयन और उनका निर्वहन ग़ज़ब का है, उन्हें पढ़ते हुए लगता- जैसे मालवा के बारे में पढ़ नहीं रहे हैं बल्कि मालवा को सांस लेते। निंदाई-गुड़ाई करते। हल-बक्खर हाँकते। दाल-बाफला बनाते-खाते और फिर अलसाकर नीम की छाँव में दोपहरी गालते देख रहें हैं। मालवा के अनेक रंग उनकी रचनाओं में स्थाईभाव के साथ उभरे हैं। यह बिंदास और फक्कड़ गीतकार कइयों को फाँस की तरह सालता रहा है।
प्रमोद जी के एक गीत का हिस्सा देखिए-
तुमने हमारे चौके चूल्हे पर
रखा जबसे क़दम
नून से मोहताज बच्चे
पेट रह रहकर बजाते
आजू बाजू भीड़ उनके
और ऊँची मण्डियाँ हैं
सूने खेतों में हम खड़े
सहला रहे खुरपी दराँते ।
9/12/96
देवास ज़िले के बागली गाँव में एक बामण परिवार में (1950 ) जन्में प्रमोद उपाध्याय कभी बामण नहीं बन सके। उनका जीने का सलीका। लोगों से मिलने-जुलने का ढंग उन्हें रूढ़ीवादी और गाँव में किसानों, मजदूरों को ठगने वाले बामण से सदा भिन्न ही नहीं, बल्कि उनके ख़िलाफ़ रहा। प्रमोदजी सदा मज़दूरों और ग़रीब किसानों के दुख-दर्द को, हँसी-ख़ुशी को, तीज-त्यौहार को गीत, कविता, दोहे और ग़ज़ल में ढालते रहे। उनके कुछ दोहे पढ़े-
0 सूखी रोटी ज्वार की काँदा मिरच नून
चाट गई पकवान सब थोड़ी-सी लहसून
0 फ़सल पक्की है फाग में टेसु से मुख लाल
कुछ तो मण्डी में गई, कुछ ले उड़े दलाल

प्रमोद उपाध्याय इस तथाकथित लोकतंत्र के बारे में भी ख़ूब सोचते और बात करते थे। उनके पास बैठें तो वे लोकतंत्र की ऎसी-ऎसी पोल खोलते थे कि मन दुखी हो जाता और देश की राजनेताओं को जूते मारने की इच्छा होने लगती। प्रमोदजी बार-बार लोकतंत्र में जनता और सत्ता के बीच फैलती खाई की तरफ़ इशारा करते। उन्हीं के शब्दों में कहें तो- लोकतंत्र की बानगी देते हैं हुक्काम / टेबुल पर रख हड्डियाँ दीवारों पर चाम (15/2/97)

ख़ुद मास्टर थे, लेकिन शिक्षा व्यवस्था पर टिप्पणी कुछ यों करते- नई नई तालीम में, सींचे गये बबूल/ बस्तों में ठूसे गये, मंदिर या स्कूल (15/2/97)

जब 1992 में बाबरी को ढहाया गया। प्रमोदजी ऎसे बिलख रहे थे जैसे किसी ने उनका झोपड़ा तोड़ दिया, जबकि प्रमोदजी न मंदिर जाते, न मस्जिद। प्रमोदजी ने साम्प्रदायिकता फैलाने वालों को मौखिक रूप से जितनी गालियाँ बकी, वो तो बकी ही, पर साम्प्रदायिक राजनीति पर अपनी रचनाओं में जी भर कटाक्ष भी किया। देखिए एक बानगी- रामलला ओ बाबरी, अल्ला ओ भगवान / भूखे जन से पूछिये, इनमें से कौन महान / दीवारों पर टाँगना, ईसा सा इंसान / यही सोचकर रह गई, दीवारें सुनसान। और एक शे,र है कि ख़ुदगर्जों का बढ़ा काफिला, क़ौम धरम को उकसाकर / मोहरों से मोहरे लड़वाना इनका है ईमान मियाँ

प्रमोदजी का जाना केवल देवास के लिखने-पढ़ने वालों, उनके क़रीबी साथियों और परिवार के लोगों को ही नहीं सालेगा, बल्कि उनको भी सालेगा, जिन्हें प्रमोदजी गालियाँ बकते थे, जिनमें से एक मैं भी हूँ, मैं उनसे पैतीस किलो मीटर दूर इन्दौर में रहता हूँ। लेकिन मुझे नियमित रूप से सप्ताह में दो-तीन बार फ़ोन लगाते और कभी दस मीनिट, कभी आधे घन्टे तक बातें करते, बातों में चालीस फीसदी गालियाँ होती। जब मैं उनसे पूछता- सर, आप मुझे गाली क्यों बक रहे हो ? हर बार उनके पास कोई न कोई कारण होता। और मैं फिर अपनी किसी भूल-ग़लती पर विचार करता।

प्रमोदजी पिछले दो-तीन सालों से अपनी आँखों की पूर्ण रूप से रोशनी खो बैठे थे। मेरी कोई कहानी छपती तो वे बहादुर या किसी और मित्र से पाठ करने को कहते। वे कहानी का पाठ सुनते। सुनते-सुनते अगर कोई बात खटक जाती, तो पाठ रुकवा देते और बहादुर से कहते- उसे फ़ोन लगा।

फ़ोन पर तमाम गालियाँ देते और कहते- अगली बार ऎसी ग़लती की तो बीच चौराहे पर ‘पनही’ मारुँगा, मुझे बेबस ‘बोंदा बा’ मत समझना। कहानी में कोई बात बेहद पसंद आ जाती तो भी पाठ रुकवा देते। फिर फ़ोन पर गालियाँ देते और कहते- सत्तू… मुझे तुझसे जलन हो रही है, इतनी अच्छी बात कही इस कहानी में। मैं शरीर से लाचार न होता, तो मैं तुझसे होड़ाजीबी करता।

मेरे बाप ने या मेरे किसी दुश्मन ने भी मुझे इतनी गालियाँ नहीं बकी, जितनी प्रमोदजी ने बकी। वे उन गालियों में मुझे कितने मुहावरे, कहावते और कितना कुछ दे गये। लेकिन वह खोड़ली कलमुँही रात सई साँझ से ही मौक़े की ताक में काट रही थी चक्कर। और फिर जैसे साँझ को द्वार पर ढुक्की लगा कर बैठ जती है भूखी काली कुतरी। बैठ गयी थी वह, और मौक़ा पाते ही क़रीब पौने बारह बजे लेकर खिसक ली। उसने जाने किस बैर का बदला लिया। उनकी गालियाँ सुनने की लत पड़ गयी थी मुझे। लेकिन अब मुझे गाली ही कौन देगा… ? प्रमोदजी को भीगी आँखें और धूजते ह्रदय से श्रधांजलि ।
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प्रमोद उपाध्यायजी की कुछ रचनाएँ

एक
सई साँझ के मरे हुओं को
रोयें तो रोयें कब तक
रीति रिवाजों की ये लाशें
ढोयें तो ढोयें कब तक।

आगे सुई पीछे है धागा
एक कहावत रटी हुई सी
ये रूढ़ि याकि परंपराएँ
संधि रेख पर सटी हुई सी।
इल्ली लगे बीजों को
बोयें तो बोयें कब तक
अपनी साँस और धड़कन में
आखिर इन्हें पिरोयें कब तक।
शंख सीपियों का पड़ौस है
हंस उड़ें अढ़ाई कोस है
घिसी-पिटी लीकों पर चलना
आँख मींच मक्खियाँ निगलना।

अटक रहा है थूक गले में
कैसे और बिलोयें कब तक
मृतकों के मुख में गंगाजल
टोयें तो टोयें कब तक।
1/10/95

दो
चल पड़ी है
बैलगाड़ी
मण्डियों की ओर
इन गडारों से

नाज गल्ले से ठुँसी भरपूर बोरी
ओंठ पर
मुस्कान लेकर

आज होरी
चल पड़ा है गुनगुनाता
मण्डियों की ओर
इन गडारों से।

लगी भुगतान बिलों पर
अंगुठे की निशानी
ज्यों कि कुल्हों पर चुभी
ख़ुद की पिरानी

इस बरस भी
तमतमाते, स्याह ये चेहरे
बैरंग लौटे हैं
इन गडारों से।
13/4/94
सत्यनारायण पटेल
एम-2/ 199, अयोध्यानगरी
इन्दौर-11
(म.प्र.)
09826091605
ssattu2007@gmail.com

13.08.09



नवगीतकार प्रमोद उपाध्याय की स्मृति को समर्पित सत्यनारायण पटेल की कविताएँ
प्रमोद उपाध्याय - जन्म 1950 - देहावसान 6 अगस्त 09

गारे का मनक

मैं गारे का मनक हूँ
देखो, गारे के हाथ और पग
गारे का ह्रदय और मग़ज़
गारे की भावनाएँ और गारे के आँसू
गारे का पेट और रोटी भी तो गारे से निकली ही खाता हूँ हुज़ूर
फिर भी आपका अड़बीपना मिलाना चाहाता है
मुझे गारे में अगर
मेरी औक़ात नहीं एतराज़ करूँ
ज़रूर अपना शौक फरमा लीजिए हुज़ूर
लेकिन पहले मॉस्क पहन लीजिए
जब आपकी ठोकर से भरभराकर ढहूँगा मैं
धूल उड़ेगी माई-बाप
धूल के कण हवा की आड़ में छुपकर
आपके फेफड़ों में उतर जायेंगे चुपचाप
एक गाँव के खाने की क़ीमत के बराबर रुपयों से ख़रीदे जूतों में सुरक्षित छुपे होंगे आपके कोमल पैर
आपका शरीर बहुराष्ट्रीय कंपनी के महँगे और मलमली वस्त्रों से ढंका दिखेगा सुन्दर
फिर भी कैसी विडम्बना होगी हुज़ूर !
आपके जूतों के तलवों तले गारा होगा
आपके आसपास हवा में गारा होगा
आर्थिक, राजनीतिक अदृश्य धागों से बँधे देश की तरह गारे की गिरफ्त में होंगे आप भी
पर स्वतंत्रता का मुगालता सिर चढ़कर बोल रहा होगा आपके
देखना….
जब दो आँसू टपकेंगे विस्थापित बेबस बादल की आँखों से
गलने लगेगा आपके भीतर-बाहर का गारा
देखते ही देखते आप भी गारे में मिल जायेंगे
ख़तरा और डर मुझे नहीं
अपको है गारे में मिलने का
इसलिए हुज़ूर, हुज़ूर इसीलिए
मानता हूँ
मॉस्क लगाने से आप मुझ पर ज़ोर से चीख़ न सकेंगे
पर दाँत तो तब भी पीस सकेंगे माई-बाप
गारे के मनक की ज़रा-सी अर्ज़ मान लो
गारे के मनक की अर्ज़ मानने से आप गारे के होने से बच जाओगे

अर्ज़ को यूँ समझ लो
जैसे मंदी की मार से मरते अमरीकी बैंकों में साँस फूँकने पहुँचे
अपने ग्यान के गर्व से उबराते जनपक्षी अर्थशास्त्री
10.08.09

कमी नहीं हँसने के विकल्पों की
अभी जो ख़बर आयी लथपथ
सुनकर उसे भोले-मासूम और दो कौड़ी के लोग रो पड़ेंगे
इन दो कौड़ी और कुछ तो फूटी कौड़ी की औक़ात भर लोगों को रोने-झींकने के सिवा
और आता भी क्या है ?
ये भ्यां-भ्यां कर रोए उससे पहले हँसो
इनका रोना संदिग्ध बना दो

भूरा साँड चर गया इराक, अफगानिस्तान
साँड के गोबर नीचे दब रहा पाकिस्तान, हिन्दुस्तान
बड़े-बड़े नामों पर हँसने में नानी मरे तो
हरसूद, कलिंगनगर, सिंगूर, नंदीग्राम, कंधमाल, लालगढ़ या फिर मंगलकोट
हो जिसका नाम लेना आसान उस पर हँसो

अभी-अभी आयी कड़कनाथ के गर्म-गर्म गोस्त-सी
एकदम ताज़ा और बेहद स्थानीय ख़बर
वह जो,
तुम से लेकर भूरे साँड तक की माँ-बहन एक करता
1984, 1992 और 2002 की कहानियाँ सुनाते-सुनाते रोने लगता
एन.जी.ओ. कर्मी और हाई फाई यौनकर्मी में भेद न कर पाता
पेप्सी को काली कुतिया की पेशाब
और पिज्जे को भूरे सुअर का गू कहता
उसके क़त्ल की ख़बर पर हँसो
उसे इस क़दर संदिग्ध बना दो कि गमने और गेलचौदे भी थूके उसकी लाश पर
अभी थोड़ी देर पहले
जब वह रीगल चौराहे पर गाँधी को सुना रहा था
अपनी बेबसी के क़िस्से रोते हुए
तभी कातिल की नज़र पड़ी उस पर
ट्रीगर को छुआ भर और गोली उसके दिल के भीतर
वही का वही दिल था अभी तक उसके भीतर
जिसमें सूरजमूखी-सी खिलती कभी तुम्हारी याद
और फिर जिसे काली पूँछ के सफ़ेद कीड़े-सी खाने लगी थी भीतर ही भीतर

हाँ.. वही चौड़े कंधे और दहकते भाल वाला
जिसने तुम्हें एक दिन एक्शनएड
दूसरे दिन फोर्ड फाउन्डेशन
तीसरे दिन विश्व बैंक का दलाल कहा
जो सदा तुम्हारे सामने आइना लेकर हाज़िर होता रहा
तुम उसे अभिजात्य मुस्कान के साथ मनोरोग चिकित्सक को दिखाने की सलाह देते रहे

आपके कार्यकर्ताओं ने ख़ूबसूरती से अपनी ज़िम्मेदारी निभाई
एक ने उस पर चलायी वह स्वर्णाभा-सी दमकती गोली
दूसरे ने एक झटके में उतार ली उसके धड़ से गरदन
तीसरा उस खिचड़ी बालों वाले सिर से रोनालडो की तरह खेलता चढ़ने लगा शास्त्री ब्रीज

जब मग़ज़ के भीतर खाकी पैंट और काली टोपी पहने इतराने वाले
झक सफ़ेद वस्त्र पहन दाखिल हो रहे थे प्रेस क्लब में
वह उस सिर को फूटबाल की तरह कलात्मक ढंग से खेलता हुआ
न्यायालय के सामने से आ रहा था इधर ही

जब आप उनके साथ प्रेस क्लब के भीतर मीटिंग में
साँस्कृतिक राष्ट्रवाद के सिलेबस पर गहन मंथन में डूबे
अपनी प्रगतिशील छवि के पन्नों पर कुछ धब्बे छोड़ रहे थे

वह सुस्ताता हुआ प्रेस क्लब की केटिंग में चाय पी रहा था
आपकी मीटिंग ख़त्म होने और आपके बाहर आने से क्षण भर पहले ही बढ़ गया खान नदी की ओर
इस सब पर भी मन न हो, तो मत हँसो
कम से कम अपनी चतुराई पर तो हँसो
उसके हाथ में जो रिवाल्वर थी
उसकी चोरी की रिपोर्ट आपने दो माह पहले लिखा दी थी

चिकुन गुनिया, डेंगू, और स्वाइन फ्लू भी कोई बीमारी है जी
यह तो काबू में आ जायेगी, सौ-दो सौ ज़िन्दगी लीलने के बाद
इन टटपूँजी बीमारियों पर क्या हँसना !
जो फैलती है-
आपके आकाओं की यात्रा और महायात्राओं से
रायसीना टिले से हवा में फैलते अनीति वायरस से
जो एक साथ पिच्चासी फीसदी आबादी को डंक चुभाकर
चूस लेता कई पीढ़ियों का ख़ून
उस पर या प्रगतिशील कायर घुन्ने पर हँसो…..

रोने वालों को ढाँढस बँधाओ
कभी दस जनपथ
कभी चौवीस अकबर रोड की तरफ़ बढ़ती चमक दिखाओ

कहो-
एक दिन नहीं बहेंगे तुम्हारी आँखों से आँसू
न सुन सकेगा कोई तुम्हारी चीख़

तुम रोओगे तो सही कि तुम जन्मे ही हो रोने को
पर भीतर आत्मा के गाल पर ढुलकेंगे तुम्हारे आँसू
तुम चीख़ोगे भी क्योंकि पीढी दर पीढी चीखते हुए
तुम्हारे सँस्कार में शामिल हो गयी है चीख़
लेकिन अब तुम्हारे मग़ज़ में गूँजेगी चीख़
चीख़ चीरेगी भीतर ही भीतर तुम्हें
पर मानवाधिकार आयोग के लम्पटों के समक्ष
फूट की तरह फटा मग़ज़ बतौर सुबूत पेश न कर सकोगे
दुनिया के विशाल लोकतंत्र में होने के कुछ तो इनाम भोगना ही होंगे
उनका क्या है
वे किसी न किसी बात पर हँस ही लेगें
उन्हें कमी नहीं हँसने के विकल्पों की !
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12.08.09

सच के एवज में

अपरिपक्व और भ्रष्ट लोकतंत्र में झूठ को सच का जामा पहनाने को
कच्ची-पक्की राजनीतिक चेतना से सम्मपन्न होते हैं इस्तेमाल
सदा सच के ख़िलाफ़
जैसे भूख और हक़ के पक्ष में लड़ने और जीवन दाँव पर लगाने वालों के विरूद्ध सलवा जुडूम
जैसे भूख से मरे आदिवासियों का सवाल पूछने पर आॉपरेशन लालगढ़
जैसे काँचली आये लम्बे साँप की भूख निगलने लगती अपनी ही पूँछ

कभी-कभी प्रगतिशील गीत गाने वाले संघठन का मुखिया भी बन जाता है हिटलर का नाती
जब चुभने लगते हैं उसकी आँख में उसी के कार्यकर्ता के बढ़ते क़दम
तब साम्राज्यवाद की नाक पर मुक्का मारने से भी ज़्यादा ज़रूरी हो जाता है
कार्यकर्ता को ठिकाने लगाना

और जब सार्वजनिक रूप से क़त्ल किया जाता है कार्यकर्ता
शक करने, सवाल पूछने, भ्रष्ट और साम्राज्यवादी दलालों के चेहरे से नक़ाब खींचने के एवज में
तब कुछ क़त्ल के पक्ष में चुप-चुप गरदन हिलाते खड़े रहते हैं
कुछ डटकर खड़े हो जाते हैं कातिल के सामने
मुट्ठियों को भींचे, दाँत पर दाँत पीसते
कुछ ख़ुद को चतुरसुजान समझ मौन का घूँघट काड़े खड़े होते हैं तटस्थ

क़त्ल के बाद
कुछ ‘हत्यारा कहो या विजेता’ के क़िस्से सुनाते हैं
कुछ क़त्ल होने वाले की हरबोलों की तरह साहस गाथा गाते हैं
तब भी चरसुजान तटस्थ हो देखते-सुनते हैं
वक़्त सुनायेगा एक दिन उनकी कायरता के भी क़िस्से ।
08.07.09
सत्यनारायण पटेल
एम-2/ 199, अयोध्यानगरी
इन्दौर-11
(म.प्र.)
09826091605
ssattu2007@gmail.com

13.08.09

31 जुलाई, 2009

सिटिजन केन



सिनेमा के इतिहास के षीर्श व्यक्तित्वों में से एक आर्सन वेल्स जो अमेरिका के केनोसो, विस्कांन्सिन में 1915 में पैदा हुए थे और 1985 में जिनका निधन हुआ, के कृतित्व का अंतिम रूप से कोई मूल्यांकन अभी मुमकिन नहीं है । षायद निकट भविश्य में भी नहीं । इसलिये कि उनकी जितनी फिल्में पूरी और प्रदर्षित हो सकी थीं, उनके बराबर या षायद उनसे भी ज्यादा वे हैं जो अधूरी रह गयीं थीं या पूरी होने के बावजूद प्रदर्षित न हो सकीं । एक फिल्म ( ‘डान क्विग्जोट’, संर्वाटीज के क्लासिक उपन्यास पर आधारित ) पूरी होने के बाद एक बार सिनेमाघरों में प्रदर्षित हुई थी लेकिन उसके बाद उसका कोई अता पता नहीं । बहुत सारी फिल्में कापीराइट, रायल्टी और उत्तराधिकार के पारिवारिक, कानूनी पचड़ों में फँसी, अमेरिका में कहीं उनके मकान के सीलन भरे बंद कक्षों और तहखानों में, लाकरों और संदूकों में नश्ट हो रही हैं । 1996 में आयी वसीली सिलोविक की डाक्यूमेंटरी फिल्म ‘‘आर्सन वेल्स: द वन मैन बैंड’’ इसी विशय पर थी । इस फिल्म में उनकी ऐसी ढ़ेरों पूरी और अधूरी फिल्मों का जिक्र्र्र आता है: ‘द अदर साइड आफ द विंड’, ‘फिल्मिंग ‘द ट्रायल’’, ‘द डीप’, द ड्रीमर्स’, ‘द मर्चेंंट आफ वेनिस’, ‘डान क्विग्जोट’, ‘आर्ट आफ डार्कनेस’ और ‘कैच 22’ से लेकर ‘क्र्राइम एंड पनिषमंेट’ तक अनेक प्रसिद्ध उपन्यासों और षेक्सपियर के तमाम नाटकों के फिल्माये अंष । 1975 में बनी ‘द अदर साइड आॅफ विंड’ उनकी सबसे महत्वाकांक्षी, जटिल फिल्म बताई जाती है, जिसमें एक बूढ़ा फिल्म निर्देषक संदेही मीडिया और उदासीन हालीवुड के तंत्र के बीच एक फिल्म बनाने की कोषिष कर रहा है । जिन चंद फिल्म छात्रों और समीक्षकों को यह फिल्म, जो स्पश्टतः आत्मकथात्मक है, देखने का मौका मिला है, वे इसे उस ‘चरम सिनेमा’ की श्रेणी में रखते हैं जिसमें राषोमोन और पथेर पांचाली जैसी फिल्में आती हैं । उनकी यह फिल्म पूरी फिल्माई जा चुकी थी, केवल संपादन, ध्वनि प्रभावों और पाष्र्वसंगीत का कुछ काम बाकी था । संभवतः यह फिल्म भविश्य में कभी सामने आ सकेगी । 1969 में बनी ‘द मर्चेंंट आफ वेनिस’ पूरी होकर भी प्रदर्षित नहीं हो सकी क्यों कि उसके साउंडट्रैक की तीन रीलों में से दो चोरी हो गयीं । वे अपनी एक कहानी ‘लांडरू स्टोरी’ पर फिल्म बनाना चाहते थे लेकिन यह मुमकिन नहीं हुआ । बाद में चैप्लिन ने इसी कहानी पर अद्वितीय मानी जाने वानी एक ‘ब्लैक’ कामेडी ‘मोंस्यो बर्दोक्स’ ( जनाब बेर्दू ) का निर्माण किया पर्दे पर सादर इस उल्लेख के साथ - कहानी: आर्सन वेल्स ।
सिटिजन केन के अतिरिक्त वेल्स की अन्य प्रदर्षित फिल्में हैं: 1948 में आयी ‘द लेडी फ्राम षंघाई’, जिसमें नायिका उनकी पत्नी रीता हेवर्थ थीं । इस फिल्म में निर्माता कंपनी मर्करी प्रोडक्षन का इतना अधिक हस्तक्षेप है कि उसे विषु़द्ध रूप से वेल्स की फिल्म कहना मुष्किल है । फिल्म के प्रीव्यू में दर्षकों की राय निराषाजनक थी इसलिये उसे ‘बचाने’ के लिये स्टूडियो के द्वारा बहुत सारे क्लोजअप और दृष्य अलग से फिल्मा कर बीच बीच में जोड़े गये थे और वेल्स के फिल्माये अनेक अंष हटा दिये गये थे । ऐसा उनकी फिल्म ‘द मेग्निफिसेंट एम्बर्सन’ के साथ भी हुआ था । 1952 में उनकी फिल्म ‘ओथेलो’ आयी थी जिसकी अधिकांष षूटिंग मोरक्को और इटली में की गयी थी । अनेक वर्शों के बाद ‘फिल्मिंग ‘ओथेलो’’ में उन्होंने अंतहीन सिगारों के बीच अपनी गहरी, भारी आवाज में इस फिल्म से जुड़े अनुभवों और इससे अपने लगाव के बारे में बताया था । ( इसी फिल्म में उन्होंने कहा था - षेक्सपियर, समस्त कालों के सभी नाटककारों और कवियों में अन्यतम, मुझ अदने से फिल्मकार की हैसियत ही क्या ।) 1955 में उन्होंने ‘मि. अर्कादीन’ नाम की थ्रिलर फिल्म बनाई जो किसी भी तरह उनकी प्रतिश्ठा के अनुरूप नहीं थी । 1962 में उनकी ‘द ट्रायल’ आयी थी, काफ्का के प्रसिद्ध उपन्यास पर आधारित । इस फिल्म की उनके अन्यथा प्रषंसक रहे फ्र्रांसुआ त्रुफो ने यह कहकर आलोचना की थी कि उन्होंने काफ्का को भी वैसे ही फिल्माया है जैसे षेक्सपियर को । 1966 में आयी ‘चाइम्स एट मिडनाइट’ उनकी महानतम फिल्म है जिसमें फिर षेक्सपियर के कई नाटकों को मिला कर बनाई गयी एक दीर्घ कहानी थी । षेक्सपियर से अपने गहरे लगाव के बावजूद उन्होंने इस फिल्म में मूल के प्रति वफादारी बरतने की कोई कोषिष नहीं की थी, इसलिये यह अनायास एक अद्भुत अर्थवत्ता ग्रहण कर सकी थी । उनकी एक दिलचस्प फिल्म, या फिल्म निबंध है ‘एफ फार फेक’ जिसकी पहले समीक्षकों और सिनेमा के विद्वानों ने उपेक्षा की थी, लेकिन साधारण सिनेमा प्रेमियों ने उसे बहुत सराहा । इस फिल्म का विशय था जालसाजी और फिल्म के केंद्र में था एल्मिर डी होरी नाम का एक प्रसिद्ध जालसाज । उच्चभ्र्रू समीक्षकों ने इसे एक सस्ती, सनसनीखेज फिल्म मानकर उपेक्षा की लेकिन जिन दर्षकों ने इसे ध्यान से देखा उन्होंने पाये गहरी विचारषीलता, हास्य और उदासी के अनेक प्रसंग, तीखा विडम्बनाबोध और कला के प्रयोजन और कला की दुनिया की कठोर वास्तविकताओं के बारे में एक गंभीर बहस ।
‘सिटिजन केन’ 1941 में आयी वेल्स की पहली और सबसे अधिक प्रसिद्ध फिल्म है । इसके पहले 1938 में वे एच जी वेल्स के उपन्यास ‘द वार आफ द वल्डर्स’ को रेडियो नाटक के रूप में प्रस्तुत करके देषव्यापी बेचैनी फैला चुके थे । उसे उन्होंने एक समाचार बुलेटिन का रूप दिया था और यह इतना वास्तविक और जीवंत बन पड़ा था कि श्रोताओं ने समझा कि सचमुच मंगलवासियों ने पृथ्वी पर हमला कर दिया है और रेडियो स्टेषन उनके कब्जे में है । इसके बाद आर के ओ फिल्म्स नाम के फिल्म स्टूडियो ने उन्हें यह फिल्म दी जिसका उन्होंने सह-लेखन और निर्देषन किया और मुख्य पात्र की भूमिका भी खुद निभाई । फिल्म के भीतर जो कहानी है, इस फिल्म की अपनी कहानी उससे कम दिलचस्प नहीं । 40 के दषक में विलियम रांदोल्फ हस्र्ट अमरीका का एक मीडिया मुगल, एक बड़े अंपायर का स्वामी, अकूत संपदा का मालिक, तत्कालीन सबसे धनी और ताकतवर लोगों में से एक था । सिटिजन केन के सह-लेखक मैंकीविच कभी उनके मित्रों में रहे थे लेकिन यह मित्रता उनकी अत्यधिक षराबखोरी के कारण टूट गयी थी । हस्र्ट ने अपने अखबारों और दफ्तरों में और अपने विषाल किले जैसे मकान में अक्सर दी जाने वाली पार्टियों में उनका प्रवेष बंद करवा दिया था । उनके मन में बदले की आग सुलग रही थी । जब आर्सन वेल्स ने उन्हें एक फिल्म की कहानी और पटकथा लिखने को कहा तो उन्हंे यह बदला लेने का ईष्वरप्रदत्त मौका जान पड़ा । वेल्स के एक अन्य मित्र हाउसमैन की निगरानी में, जिनकी जिम्मेदारी थी कि वे इस दौरान षराब के करीब न जायें, वे पटकथा लिखने में जुट गये । उन्होंने हस्र्ट के जीवन और व्यक्तित्व पर आधारित फिल्म लिखी जिसमें उन्होंने उसके एक सावधानीपूर्वक छुपा कर रखे गये अवैध संबंध को उजागर कर दिया । इसके बारे में उनके पास जो भी जानकारियाँ थीं, उन्होंने सबको कहानी का हिस्सा बना दिया । हस्र्ट को अपने महल में भव्य पार्टियाँ देने का षौक था जिनमें हालीवुड के लोग मेहमान होते थे । इन पार्टियों के ब्यौरे और उनकी बातें अगले दिन हस्र्ट के समाचारपत्रों के गासिप कालमों में छप जाते थे । इस कारण हालीवुड में हस्र्ट के प्रति गुस्सा खदबदा रहा था । फिल्म बनने के दौरान इसे हालीवुड के एक पलटवार के रूप में पूरे उद्योग का नैतिक, मौन समर्थन था । लेकिन वेल्स का फिल्म बनाने का इतना सीमित उद्देष्य न था । वे मनुश्य के जीवन और अस्तित्व, उसकी सत्ताकांक्षा, लिप्सा और आधिपत्य भावना के बारे में एक सर्वथा नये, निजी और अनूठे तरीके से कोई गहन बात कहना चाहते थे । अमेरिका तीस के दषक में महामंदी के भयानक अनुभव से गुजरा था । उससे उबरने के लिये अर्थषास्त्री कींस के प्रस्तावित नुस्खे और नीतियाँ आजमाये जा रहे थे, वही कींस जो कह चुके थे - लाभ, लोभ और लिप्सा . . . बेषक वे मनुश्य के अधःपतन के लक्षण हैं लेकिन अभी हमें बहुत समय तक उनकी उपासना करनी होगी क्यों कि वे अर्थव्यवस्था को गतिषील रखते हैं । वही हमें इस अँधेरी सुरंग से प्रकाष तक ले जायेंगे । संभवतः वेल्स का एक उददेष्य उस अमेरिकी स्वप्न या अवधारणा की निस्सारता बताना भी था जिसमें लिप्सा, उपभोग और परिग्रह को कंेद्र्रीयता प्राप्त थी । फिल्म का पहले सोचा गया नाम ‘अमेरिकन’ भी इसी ओर संकेत करता है । वेल्स को फिल्म का मुख्य पात्र, केन, एक सपाट चरित्र लगा और उन्होंने मैंकीविच के साथ मिलकर पटकथा का पुनर्लेखन किया । केन के चरित्र को और जटिल और बहुआयामी बनाने के लिये उन्होंने उसमें तीन चार प्रसिद्ध व्यक्तित्व और मिलाये । फिल्म में एक जगह यह संवाद आता है: केन किस तरह अपने समय के अन्य प्रसिद्ध व्यक्तियों जैसे फोर्ड या हस्र्ट से भिन्न था । यह चालाकी भरा वाक्य जानबूझकर यही कहने के लिये डाला गया था कि फिल्म के मुख्य पात्र चाल्र्स फोस्टर केन का हस्र्ट से कुछ लेना देना नहीं । फिल्म बनने के दौरान न किसी को कोई परवाह थी, न इस बात का कोई दबाव कि उसका हस्र्ट से कोई संबंध है । लेकिन फिल्म पूरी होने के बाद मैंकीविच ने, संभवतः पीने के दौरान, उसकी पटकथा अपने एक मित्र को दिखा दी जो हस्र्ट के परिचित, उनकी गुप्त प्रेमिका के संबंधी थे । उन्होंने इसका जिक्र्र हस्र्ट से किया । हस्र्ट ने पूरी और सही रिपोर्ट लेने के लिये अपना एक आदमी फिल्म के प्रीव्यू में भेजा । इसके बाद तो जैसे कहर बरपा हो गया । हस्र्ट ने फिल्म का नेगेटिव और प्रिंट हथियाने, जलवा देने और फिल्म का प्रदर्षन रोकने के लिये अपनी सारी ताकत झोंक दी ।
हस्र्ट के मीडिया साम्राज्य ने फिल्म का बहिश्कार कर दिया । हालीवुड पर फिल्म को प्रदर्षित न होने देने के लिये दबाव डाला गया । द्वेशप्रेरित, एक महान व्यक्ति पर आक्र्रमण, इस आषय के तमाम लेख छपे । एक स्थिति आयी कि हस्र्ट के दबाव में हालीवुड के प्रमुख फिल्म स्टूडियो के मालिकों ने मिलकर फिल्म के निर्माता को नेगेटिव और प्रिंट के बदले में पूरी लागत राषि, आठ लाख डालर, देने का प्रस्ताव रखा । आर के ओ फिल्म्स ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया और फिल्म को रिलीज करने का फैसला किया । हस्र्ट ने आदेष जारी किये कि उसके अखबारों में फिल्म का उल्ल्ेाख तक न आये और अमेरिका में छविगृहों की प्रमुख श्रृंखलाओं के मालिकों को धमकी दी गयी कि अगर सिटिजन केन दिखाई गयी तो उसके समाचारपत्रांे में उनके और दिखाई जाने वाली फिल्मों के विज्ञापन प्रकाषित नहीं होंगे । नतीजतन यह गिनती के सिनेमाघरों में दर्षायी जा सकी । फिल्म को आलोचकों की सराहना मिली लेकिन तत्कालीन दर्षकों ने इसे ठुकरा दिया । 40 के दषक के दर्षक इस फिल्म की सर्वथा नयी फिल्म भाशा के लिये, पंेटिंग का आभास देने वाले फ्रेमों और फिल्म से उभरने वाले विचार, जो उस वक्त के मिजाज से बेमेल था, के लिये तैयार नहीं थे और अनेक सिनेमाघरों में वे इसे अधूरा छोड़कर उठ गये । निर्माता कम्पनी ने फिल्म को कहीं किसी गोदाम में पटक दिया और 1956 से पहले दुबारा प्रदर्षित नहीं किया । पचास के दषक में फ्रांस के युवा फिल्म निर्देषकों त्रुफो और गोदार को यह फिल्म देखने का अवसर मिला और वे चकित रह गये । इसके बाद फिल्म को जैसे पुनर्जीवन मिला । अमेरिका में उपेक्षित और भुला दी गयी इस फिल्म को, उसके एक एक फ्रेम को यूरोप में ध्यान और गंभीरता से देखा गया । फ्रांस की नूवेल वाग ( नयी धारा ) की फिल्मों पर, जिनके बाद भारत समेत दुनिया भर की भाशाओं में यथार्थवादी सिनेमा की षुरुआत हुई, वेल्स की फिल्मों का गहरा प्रभाव है । फिल्म को लगातार नये दर्षक और प्रषंसक मिलते गये और वेल्स के सौभाग्य से उनके जीवन काल में ही इसने एक निर्विवाद क्लासिक का दर्जा हासिल किया । ‘‘मैंने षुरूआत षिखर से की और षेश जीवन वहाँ से नीचे आने में बिताया’’ उनका प्रसिद्ध वाक्य है । कई दषकों से सार्वकालिक महान फिल्मों की कोई सूची इस फिल्म के बिना पूरी नहीं होती और ऐसे प्रषंसकों की संख्या कम नहीं जिनके लिये यह आज तक की सर्वश्रेश्ठ फिल्म है । हस्र्ट और वेल्स की लड़ाई की कहानी पर भी एक से अधिक डाक्यूमेंटरी फिल्में बन चुकी हैं ।
फिल्म एक मातमी संगीत के संग एक बहुत बड़े किले जैसे विषाल, वीरान एस्टेट की सलाखों, तारों की जालियों और बाहरी दीवारों और दरवाजों के रात्रिकालीन, रहस्यमय दृष्यों से षुरू होती है । अंधेरे और कुहरे में एक बोर्ड का षाट ‘नो ट्रेसपासिंग’ दिखाई देता है । कैमरा जैसे उस बोर्ड की अवहेलना करता हुआ, लोहे के ‘के’ अक्षर को धकेलकर बहुत धीमे से भीतर दाखिल होता है । चिड़ियाघर के पिंजरों, दो बंदरों, एक झील में खामोष खड़ी नावों, झील में किले के प्रतिबिंब, एक पुल और एक गोल्फ कोर्स के सम्मोहनकारी दृष्य धीमी गति से गुजरते हैं । उस एस्टेट में एक मीडिया और उद्योग समूह का एकाकी, बूढ़ा मालिक चाल्र्स फोस्टर केन मरने के करीब है । एस्टेट अँधेरे में डूबा है, केवल एक कमरे की खिड़की पर रोषनी उभरती है, फिर बुझ जाती है । एक लेटी हुई छायाकृति नजर आती है । मरते हुए केन के होंठों का क्लोज अप पर्दे को ढाँप लेता है । वह मरने के पहले एक षब्द बुदबुदाता है . . . रो . . .ज. . .ब . . .ड. . . और इसी के साथ उसके हाथ से एक षीषे का पेपरवेट जैसा गोला, जिसमें बर्फ गिरने का आभास देने वाला एक दृष्य है, छूटकर सीढ़ियों पर लुढ़कता और टूट कर बिखर जाता है । एक नर्स आती है और उसकी बाँहों को मोड़कर सीने पर रखती, फिर उसके षरीर को एक चादर से सिर तक ढाँप देती है ।
इसके तुरंत बाद एक न्यूजरील दिखाई जाती है, जिसमें चाल्र्स फोस्टर केन के मरने का समाचार और त्वरित दृष्यों में उसके मीडिया साम्राज्य और उद्योग समूह की षुरुआत और विस्तार, दो विवाहों और तलाकों, जानाडू नाम के उसके विषाल महल, उसके चुनाव प्रचार, भाशणों, साक्षात्कारों के अंषों और उसके निजी म्यूजियम, अस्तबल और चिड़ियाघर के दृष्यों के साथ उसकी पूरी जिंदगी के ब्यौरे हैं । यह दरअसल इस न्यूजरील का प्रीव्यू है जो अचानक समाप्त होता है और हम अँधेरे में बैठे उसके दर्षकों को पहली बार देखते हैं । न्यूजरील का निर्माता महसूस करता है कि फिल्म में कुछ कमी है । ‘‘केन ने मरते समय आखिरी षब्द क्या कहा था’’, वह पूछता है । ‘‘रोजबड’’, उसे बताया जाता है । रोजबड क्या या कौन है या था, इसका उत्तर किसी के पास नहीं । वह एक पत्रकार लेरी थामसन को दो सप्ताह का समय और यह जिम्मेदारी देता है कि वह केन के निजी जीवन की जाँच करे और उसके दोस्तों और सहयोगियों से इंटरव्यू लेकर जानने की कोषिष करे कि रोजबड क्या या कौन है । थामसन केन की दूसरी पत्नी सूजन अलैक्जेंडर जो अब एक नषेड़ी और एक नाइट क्लब की मालकिन है, से बात करने जाता है । वह नषे में धुत्त, कुछ भी बताने से इंकार करती और उसे बाहर धकेल देती है । फिर वह केन के बचपन में उसके गार्जियन रहे और अब दिवंगत बैंकर वाल्टर पाक्र्स थैचर के निजी आर्काइव में जाकर पुराने कागजांेें को छानता है । यहाँ उसे केन के बचपन के बारे में महत्वपूर्ण जानकारियाँ मिलती हैं । फिर वह केन के मैनेजर मि. बर्नस्टीन, उनके दोस्त और उनके अखबार में नाटकों के समीक्षक रहे लीलैंड, दुबारा उसकी दूसरी पत्नी सूजन का और उसके बटलर का इंटरव्यू लेता है । फ्लैष बैक और फ्लैष फारवर्ड दृष्यों में केन के बचपन से मृत्यु तक सारी जिंदगी सामने आती है - आठ वर्श की अवस्था में उसके माता पिता को अनायास एक वसीयत में संपत्ति मिलना, बालक केन को दूर थैचर के संरक्षण में भेजा जाना, व्यस्क होने पर एक मरते हुए अखबार न्यूयार्क एन्कवायरर का नियंत्रण हाथ में लेने के बाद सत्ता, सम्पत्ति, ताकत और आधिपत्य के अमरीकी पथ पर उसके आगे बढ़ते जाने की दास्तान । वह बेपनाह दौलत हासिल करता है, राश्ट्रपति की भतीजी से उसका विवाह होता है, वह न्यूयार्क के गवर्नर का चुनाव लड़ता है, फिर विरोधी उम्मीदवार के द्वारा एक नाटकीय तरीके से सूजन से उसके अवैध रिष्ते को उजागर कर दिये जाने के बाद उसके राजनीतिक जीवन और पहले विवाह दोनों का अंत हो जाता है । वह सूजन से दूसरा विवाह करता है । इस बार उसका अहंकार और सत्तोन्माद उसकी पत्नी पर बरसते हैं । वह अपने मीडिया साम्राज्य की सारी षक्ति लगाकर उसे एक सफल ओपेरा गायिका बनाना चाहता है जिसकी उसमें न कोई प्रतिभा है न तमन्ना । इस विवाह का भी दुखद अंत होता है और वह अपने अंतिम दिन उसी म्यूजियम जैसे महल में, अपनी झीलों, पुलों, रेसकोर्स, चिड़ियाघर, विषाल आइनों और दुनिया भर से खरीदे गये बेषकीमती बुतों के बीच अकेले बिताता है ।
थामसन ‘रोजबड’ का रहस्य सुलझा पाने में नाकाम रहता है । फिल्म के अंत में कोई कहता है - यदि रोजबड का पता चल पाता तो षायद केन की जिंदगी की गुत्थी सुलझ जाती ।
- नहीं, मैं ऐसा नहीं सोचता । वह कहता है । - मि. केन ने अपने जीवन में सब कुछ हासिल किया और फिर उसे गँवा दिया । षायद रोजबड कोई ऐसी चीज थी जिसे वे हासिल न कर सके, या जो कहीं खोे गयी । बहरहाल, उससे कुछ भी न पता चलता । मैं नहीं सोचता कि कोई एक षब्द पूरे जीवन की व्याख्या कर सकता है । हमारे लिये वह एक पहेली ( पजल ) का महज एक टुकड़ा है, एक खोया हुआ टुकड़ा ।
फिल्म के अंंितम पलों में केवल दर्षकों के लिये ‘रोजबड’ का रहस्य उजागर होता है । फिल्म के पात्रों के लिये वह आखीर तक अँधेरे में छुपा रहता है ।
इस फिल्म में अर्थो की तमाम तहें और परतें हैं और फिल्म की हर घटना, प्रसंग और दृष्य की अलग अलग नजरियों से तमाम व्याख्यायें की गयी हैं । उस अमेरिकी स्वप्न या विचार का निशेध करना या उसकी निस्सारता बताना, जिसमंे सत्ता, सफलता, संपत्ति, अधिकार और उपभोग को केंद्रीयता प्राप्त है, यह इसके बेषुमार मायनों में से केवल एक है । लेकिन सिनेमा के इतिहास में इस फिल्म का महत्व इस कारण भी है कि उसने फिल्म की भाशा या व्याकरण को यकायक बहुत समृद्ध किया था । इसमें फिल्म बनाने की एक सर्वथा नयी षैली सामने आयी थी । पहली बार इस फिल्म में सिनेमा का ‘‘जादू’’ निर्मित किया गया था । प्रसंगवष वेल्स ( अभिनेता, पियानोवादक, लेखक, फिल्म निर्देषक और एक राजनीतिक टिप्पणीकार होने के अलावा ) एक जादूगर भी थे और द्वितीय विष्वयुद्ध में सैनिकों के लिये उन्हांेने जादू के कुछ स्टेज षो किये थे । लेकिन असली जादू तो उन्होंने इस फिल्म में पर्दे पर किया था । आज तक फिल्मों में, साधारण, व्यावसायिक फिल्मों में भी उनकी युक्तियाँ और तरकीबें दोहरायी जाती हैं, बिना उनका आभार व्यक्त किये ।
फिल्म में अधिकतर षाट्स ‘डीप फोकस’ में हैं, जिनमें कैमरे के पास, दूर और बहुत दूर एक साथ कुछ न कुछ घटता रहता है और सभी डिटेल्स फोकस में रहती हैं । कुछ दृष्यों में इसके लिये एक ही फिल्म पर एक से अधिक बार षूटिंग की गयी थी - पहले पृश्ठभूमि को अँधेरे में रखकर सामने के दृष्य फिल्माये गये थे, फिर फिल्म को वापस रोल कर उसी पर पृश्ठभूमि के दृष्य फिल्माये गये थे, सामने के दृष्यों को अँधेरे मंे रखकर । इसी फिल्म में पहली बार लो एंगल षाट्स सामने आये थे, जिनमें पृश्ठभूमि में छत दिखाई देती है - जबकि उस समय सिनेमा के सैट्स ऐसे मंचों पर बनाये जाते थे जिनमें छतें नदारद होती थीं । संभवतः इसी फिल्म में पहली बार एक दूसरे को काटते संवाद आये थे और एक ही दृष्य में आवाजों का कोलाज भी । दृष्य परिवर्तन से कुछ पल पहले ही संगीत और आवाजों का बदल जाना, जिसे सिनेमा की भाशा में ‘एल-कट’ कहा जाता है, वेल्स की ही ईजाद थी । एक ही संवाद या बातचीत के टुकड़े अलग जगहों और वक्तों में अलग अलग व्यक्तियों के द्वारा कहा जाना, यह दर्षाने के लिये कि हर षख्स या पूरा षहर उसी बारे में बात कर रहा है, यह भी इसी फिल्म में पहली बार देखा गया । केवल कुछ ही पलों में विषाल अवधियों का बीत जाना दिखाने के लिये वेल्स ने तमाम तरकीबें ईजाद की थीं । एक दृष्य में बालक केन कहता है - ‘‘मेरी क्रिसमस’’ जिसे पूरा करता है उसका गार्जियन थैैचर - ‘‘एंड ए वेरी हैप्पी न्यू इयर’’, लेकिन इस एक वाक्य की अवधि में वह जवान से अधेड़ हो चुका है । फिल्म में केन और उसकी पहली पत्नी के बीच रिष्ता धीरे धीरे निर्जीव होता जाता है । 9 बरसों की यह अवधि दो मिनट के मोंताज में दर्षायी जाती है - वे एक ही सेट में, नाष्ते की मेज के सिरों पर छोटे छोटे दृष्यों में नजर आते हैं, केवल उनके वस्त्र, मेकअप और बातचीत का अंदाज बदलता जाता है । हर दृष्य में वे पहले से अधिक उम्रदराज नजर आते हैं । फिल्म में प्रकाष, छायाओं, क्लोज अप्स और असामान्य कैमरा कोणों का प्रचुर इस्तेमाल है और अधिकतर दृष्य किसी अभिव्यंजनावादी चित्र की तरह लगते हैं ।
फिल्म पर 1941 में महान आर्हेंतीनी लेखक बोर्गेस ने, जिनका अंधत्व उनके सिनेमा प्रेम में बाधक नहीं था, समीक्षा लिखी थी जिसमें उन्होंने कहा था - एक पराभौतिक जासूसी कथा ( मेटाफिजिकल डिटेक्टिव स्टोरी ) जिसमें, मनोवैज्ञानिक और प्रतीकात्मक दोनों अर्थो में, एक षख्स के ‘आत्म’ की तलाष की कोषिष है, उस नैतिक कबाड़ में जो वह अपने पीछे छोड़ गया । वे हमारे सामने उस षख्स की जिंदगी के टुकड़े रखते और हमें आमंत्रित करते हैं कि हम उन्हें जोड़ें, उन टुकड़ों से उस षख्स का पुनर्निर्माण करें । फिल्म के षुरुआती दृष्य दिखाते हैं कि उस आदमी ने अपने जीवन में कितना कुछ हड़पा है, कितने खजाने लूटे हैं । अंत के एक दृष्य में एक बेचारी, विलासी, पीड़ित औरत एक बहुत बड़े किले के फर्ष पर जो एक म्यूजियम भी है, एक विषाल पजलगेम के टुकड़ों से खेल रही है । अंत में हम जान पाते हैं कि उन टुकड़ों में कोई आंतरिक एकता नहीं और चाल्र्स फोस्टर केन महज एक छायाभास है, या ऐसे आभासों की अराजकता ।
लेकिन ऐसा नहीं कि इस फिल्म के आलोचक न हों । बर्गमैन को यह फिल्म बिल्कुल नापसंद थी, उन्हें यह भयंकर रूप से उबाऊ लगती थी । अनेक समीक्षकों के विचार में यह एक अधिमूल्यित फिल्म है जिसमें विशयवस्तु के खोखलेपन को षैली की भव्यता, और रूपकों की प्रचुरता से ढका गया है - एक अनात्म फिल्म, अपने मुख्य पात्र की ही तरह ।
फिल्म को नौ विभिन्न श्रेणियों में नामांकन मिला था, लेकिन यह केवल मौलिक पटकथा का एक ही आस्कर जीत सकी । 25 बरस की अवस्था में बनाई गयी इस पहली फिल्म के विवादों में घिर जाने और फिर व्यावसायिक रूप से असफल रहने के कारण फिल्मकार के रूप में वेल्स की आगे की राह बहुत मुष्किल रही । हस्र्ट का दुश्प्रचार भी अपना काम कर रहा था । इस कारण और उनकी राजनीतिक सक्रियता के कारण भी उन्हें हालीवुड में मनचाहा काम करने का मौका कभी नहीं मिला, वहाँ उनका नाम हमेषा संदिग्धों, अवंछितों की सूची में रहा । 1947 में वे अमेरिका छोड़कर यूरोप चले गये और अपने सक्रिय जीवन का बड़ा हिस्सा स्पेन, फ्रांस और इटली में फिल्में बनाने में बिताया । 1971 में जब उन्हें अकादमी का लाइफटाइम एवार्ड मिला तो उसे लेने के लिये खुद न जाकर उन्होंने अपने एक मित्र को भेजा जो जूरी और दर्षकों को यह फटकार सुना कर आया कि वे लोग जो उसे सम्मानित करने के लिये इतने आतुर हैं, वही हैं जो जीवन भर उसके कामों में अड़ंगे लगाते रहे । 1962 में ‘चाइम्स एट मिडनाइट’ के लिये सर्वश्रेश्ठ अभिनेता का आस्कर जीत चुके वेल्स एक बेहतरीन अभिनेता भी थे ( 1972 में गाडफादर की उस भूूमिका के लिये भी पहले उनके नाम पर विचार हुआ था जिसे बाद में मार्लिन ब्रांडो ने निभाया ), इसलिये दूसरे निर्देषकों की फिल्मों और विज्ञापन फिल्मों में काम करने से उनकी आजीविका चलती रही । आजीविका के लिये उन्हें एक साथ बहुत सारे काम करने होते थे और इसके लिये एक जगह से तत्काल दूसरी जगह पहुँचना होता था । न्यूयार्क के ट्रैफिक को मात देने का जो तरीका उन्होंने निकाला वह भी उन जैसी प्रतिभा के अनुरूप था । उन्होंने अपने वकील मित्रों से दरियाफ्त की कि क्या ऐसा कोई कानून है कि एम्बुलेंस में सफर करने के लिये मरीज होना जरूरी है । उन्हें बताया गया कि ऐसा कोई कानून नहीं है । इसके बाद वे एक से दूसरी जगह जाने के लिये टैक्सी की जगह एम्बुलेंस मंगवाते थे और उसके सायरन की आवाज से ट्रैफिक को चीरते हुए यहाँ से वहाँ आते जाते थे ।
---योगेन्द्र आहूजा