वह खोड़ली कलमुँही (6 अगस्त 09) रात थी, जब प्रमोद उपाध्यायजी ज़िन्दगी की फटी जेब से चवन्नी की तरह खो गये। प्रमोद जी इतने निश्छल मन थे कि कोई दुश्मन भी कह दे उनसे कि चल प्रमोद… एक-एक पैग लगा लें, तो चल पड़े उसके साथ। उनकी ज़बान की साफ़गोई के आगे आइना भी पानी भरे। अपने छोटे-से देवास में मालवी, हिन्दी के जादुई जानकार। भोले इतने कि एक बच्चा भी गपला ले, फिर सुना है मौत तो लोमड़ी की भी नानी होती है न, गपला ले गयी। प्रमोदजी को जो जानने वाले जानते हैं कि वह अपनी बात कहने के प्रति कितने ज़िम्मेदार थे, अगर उन्हें कहना है और किसी मंच पर सभी हिटलर के नातेदार विराजमान हैं, तब भी वह कहे बिना न रहते। कहने का अंदाज़ और शब्दों की नोक ऎसी होती कि सामने वाले के ह्रदय में बल्लम-सी घूप जाती। जैसा सोचते वैसा ही बोलते और लिखते। न बाहर झूठ-साँच, न भीतर कीच-काच।
उनने नवगीत, ग़ज़ल, दोहे सभी विधा की रचनाओं में मालवी का ख़ूबसूरत प्रयोग किया है। रचनाओं के विषय चयन और उनका निर्वहन ग़ज़ब का है, उन्हें पढ़ते हुए लगता- जैसे मालवा के बारे में पढ़ नहीं रहे हैं बल्कि मालवा को सांस लेते। निंदाई-गुड़ाई करते। हल-बक्खर हाँकते। दाल-बाफला बनाते-खाते और फिर अलसाकर नीम की छाँव में दोपहरी गालते देख रहें हैं। मालवा के अनेक रंग उनकी रचनाओं में स्थाईभाव के साथ उभरे हैं। यह बिंदास और फक्कड़ गीतकार कइयों को फाँस की तरह सालता रहा है।
प्रमोद जी के एक गीत का हिस्सा देखिए-
तुमने हमारे चौके चूल्हे पर
रखा जबसे क़दम
नून से मोहताज बच्चे
पेट रह रहकर बजाते
आजू बाजू भीड़ उनके
और ऊँची मण्डियाँ हैं
सूने खेतों में हम खड़े
सहला रहे खुरपी दराँते ।
9/12/96
देवास ज़िले के बागली गाँव में एक बामण परिवार में (1950 ) जन्में प्रमोद उपाध्याय कभी बामण नहीं बन सके। उनका जीने का सलीका। लोगों से मिलने-जुलने का ढंग उन्हें रूढ़ीवादी और गाँव में किसानों, मजदूरों को ठगने वाले बामण से सदा भिन्न ही नहीं, बल्कि उनके ख़िलाफ़ रहा। प्रमोदजी सदा मज़दूरों और ग़रीब किसानों के दुख-दर्द को, हँसी-ख़ुशी को, तीज-त्यौहार को गीत, कविता, दोहे और ग़ज़ल में ढालते रहे। उनके कुछ दोहे पढ़े-
0 सूखी रोटी ज्वार की काँदा मिरच नून
चाट गई पकवान सब थोड़ी-सी लहसून
0 फ़सल पक्की है फाग में टेसु से मुख लाल
कुछ तो मण्डी में गई, कुछ ले उड़े दलाल
प्रमोद उपाध्याय इस तथाकथित लोकतंत्र के बारे में भी ख़ूब सोचते और बात करते थे। उनके पास बैठें तो वे लोकतंत्र की ऎसी-ऎसी पोल खोलते थे कि मन दुखी हो जाता और देश की राजनेताओं को जूते मारने की इच्छा होने लगती। प्रमोदजी बार-बार लोकतंत्र में जनता और सत्ता के बीच फैलती खाई की तरफ़ इशारा करते। उन्हीं के शब्दों में कहें तो- लोकतंत्र की बानगी देते हैं हुक्काम / टेबुल पर रख हड्डियाँ दीवारों पर चाम (15/2/97)
ख़ुद मास्टर थे, लेकिन शिक्षा व्यवस्था पर टिप्पणी कुछ यों करते- नई नई तालीम में, सींचे गये बबूल/ बस्तों में ठूसे गये, मंदिर या स्कूल (15/2/97)
जब 1992 में बाबरी को ढहाया गया। प्रमोदजी ऎसे बिलख रहे थे जैसे किसी ने उनका झोपड़ा तोड़ दिया, जबकि प्रमोदजी न मंदिर जाते, न मस्जिद। प्रमोदजी ने साम्प्रदायिकता फैलाने वालों को मौखिक रूप से जितनी गालियाँ बकी, वो तो बकी ही, पर साम्प्रदायिक राजनीति पर अपनी रचनाओं में जी भर कटाक्ष भी किया। देखिए एक बानगी- रामलला ओ बाबरी, अल्ला ओ भगवान / भूखे जन से पूछिये, इनमें से कौन महान / दीवारों पर टाँगना, ईसा सा इंसान / यही सोचकर रह गई, दीवारें सुनसान। और एक शे,र है कि ख़ुदगर्जों का बढ़ा काफिला, क़ौम धरम को उकसाकर / मोहरों से मोहरे लड़वाना इनका है ईमान मियाँ
प्रमोदजी का जाना केवल देवास के लिखने-पढ़ने वालों, उनके क़रीबी साथियों और परिवार के लोगों को ही नहीं सालेगा, बल्कि उनको भी सालेगा, जिन्हें प्रमोदजी गालियाँ बकते थे, जिनमें से एक मैं भी हूँ, मैं उनसे पैतीस किलो मीटर दूर इन्दौर में रहता हूँ। लेकिन मुझे नियमित रूप से सप्ताह में दो-तीन बार फ़ोन लगाते और कभी दस मीनिट, कभी आधे घन्टे तक बातें करते, बातों में चालीस फीसदी गालियाँ होती। जब मैं उनसे पूछता- सर, आप मुझे गाली क्यों बक रहे हो ? हर बार उनके पास कोई न कोई कारण होता। और मैं फिर अपनी किसी भूल-ग़लती पर विचार करता।
प्रमोदजी पिछले दो-तीन सालों से अपनी आँखों की पूर्ण रूप से रोशनी खो बैठे थे। मेरी कोई कहानी छपती तो वे बहादुर या किसी और मित्र से पाठ करने को कहते। वे कहानी का पाठ सुनते। सुनते-सुनते अगर कोई बात खटक जाती, तो पाठ रुकवा देते और बहादुर से कहते- उसे फ़ोन लगा।
फ़ोन पर तमाम गालियाँ देते और कहते- अगली बार ऎसी ग़लती की तो बीच चौराहे पर ‘पनही’ मारुँगा, मुझे बेबस ‘बोंदा बा’ मत समझना। कहानी में कोई बात बेहद पसंद आ जाती तो भी पाठ रुकवा देते। फिर फ़ोन पर गालियाँ देते और कहते- सत्तू… मुझे तुझसे जलन हो रही है, इतनी अच्छी बात कही इस कहानी में। मैं शरीर से लाचार न होता, तो मैं तुझसे होड़ाजीबी करता।
मेरे बाप ने या मेरे किसी दुश्मन ने भी मुझे इतनी गालियाँ नहीं बकी, जितनी प्रमोदजी ने बकी। वे उन गालियों में मुझे कितने मुहावरे, कहावते और कितना कुछ दे गये। लेकिन वह खोड़ली कलमुँही रात सई साँझ से ही मौक़े की ताक में काट रही थी चक्कर। और फिर जैसे साँझ को द्वार पर ढुक्की लगा कर बैठ जती है भूखी काली कुतरी। बैठ गयी थी वह, और मौक़ा पाते ही क़रीब पौने बारह बजे लेकर खिसक ली। उसने जाने किस बैर का बदला लिया। उनकी गालियाँ सुनने की लत पड़ गयी थी मुझे। लेकिन अब मुझे गाली ही कौन देगा… ? प्रमोदजी को भीगी आँखें और धूजते ह्रदय से श्रधांजलि ।
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प्रमोद उपाध्यायजी की कुछ रचनाएँ
एक
सई साँझ के मरे हुओं को
रोयें तो रोयें कब तक
रीति रिवाजों की ये लाशें
ढोयें तो ढोयें कब तक।
आगे सुई पीछे है धागा
एक कहावत रटी हुई सी
ये रूढ़ि याकि परंपराएँ
संधि रेख पर सटी हुई सी।
इल्ली लगे बीजों को
बोयें तो बोयें कब तक
अपनी साँस और धड़कन में
आखिर इन्हें पिरोयें कब तक।
शंख सीपियों का पड़ौस है
हंस उड़ें अढ़ाई कोस है
घिसी-पिटी लीकों पर चलना
आँख मींच मक्खियाँ निगलना।
अटक रहा है थूक गले में
कैसे और बिलोयें कब तक
मृतकों के मुख में गंगाजल
टोयें तो टोयें कब तक।
1/10/95
दो
चल पड़ी है
बैलगाड़ी
मण्डियों की ओर
इन गडारों से
नाज गल्ले से ठुँसी भरपूर बोरी
ओंठ पर
मुस्कान लेकर
आज होरी
चल पड़ा है गुनगुनाता
मण्डियों की ओर
इन गडारों से।
लगी भुगतान बिलों पर
अंगुठे की निशानी
ज्यों कि कुल्हों पर चुभी
ख़ुद की पिरानी
इस बरस भी
तमतमाते, स्याह ये चेहरे
बैरंग लौटे हैं
इन गडारों से।
13/4/94
सत्यनारायण पटेल
एम-2/ 199, अयोध्यानगरी
इन्दौर-11
(म.प्र.)
09826091605
ssattu2007@gmail.com 13.08.09
नवगीतकार प्रमोद उपाध्याय की स्मृति को समर्पित सत्यनारायण पटेल की कविताएँ
प्रमोद उपाध्याय - जन्म 1950 - देहावसान 6 अगस्त 09
गारे का मनक
मैं गारे का मनक हूँ
देखो, गारे के हाथ और पग
गारे का ह्रदय और मग़ज़
गारे की भावनाएँ और गारे के आँसू
गारे का पेट और रोटी भी तो गारे से निकली ही खाता हूँ हुज़ूर
फिर भी आपका अड़बीपना मिलाना चाहाता है
मुझे गारे में अगर
मेरी औक़ात नहीं एतराज़ करूँ
ज़रूर अपना शौक फरमा लीजिए हुज़ूर
लेकिन पहले मॉस्क पहन लीजिए
जब आपकी ठोकर से भरभराकर ढहूँगा मैं
धूल उड़ेगी माई-बाप
धूल के कण हवा की आड़ में छुपकर
आपके फेफड़ों में उतर जायेंगे चुपचाप
एक गाँव के खाने की क़ीमत के बराबर रुपयों से ख़रीदे जूतों में सुरक्षित छुपे होंगे आपके कोमल पैर
आपका शरीर बहुराष्ट्रीय कंपनी के महँगे और मलमली वस्त्रों से ढंका दिखेगा सुन्दर
फिर भी कैसी विडम्बना होगी हुज़ूर !
आपके जूतों के तलवों तले गारा होगा
आपके आसपास हवा में गारा होगा
आर्थिक, राजनीतिक अदृश्य धागों से बँधे देश की तरह गारे की गिरफ्त में होंगे आप भी
पर स्वतंत्रता का मुगालता सिर चढ़कर बोल रहा होगा आपके
देखना….
जब दो आँसू टपकेंगे विस्थापित बेबस बादल की आँखों से
गलने लगेगा आपके भीतर-बाहर का गारा
देखते ही देखते आप भी गारे में मिल जायेंगे
ख़तरा और डर मुझे नहीं
अपको है गारे में मिलने का
इसलिए हुज़ूर, हुज़ूर इसीलिए
मानता हूँ
मॉस्क लगाने से आप मुझ पर ज़ोर से चीख़ न सकेंगे
पर दाँत तो तब भी पीस सकेंगे माई-बाप
गारे के मनक की ज़रा-सी अर्ज़ मान लो
गारे के मनक की अर्ज़ मानने से आप गारे के होने से बच जाओगे
अर्ज़ को यूँ समझ लो
जैसे मंदी की मार से मरते अमरीकी बैंकों में साँस फूँकने पहुँचे
अपने ग्यान के गर्व से उबराते जनपक्षी अर्थशास्त्री
10.08.09
कमी नहीं हँसने के विकल्पों की
अभी जो ख़बर आयी लथपथ
सुनकर उसे भोले-मासूम और दो कौड़ी के लोग रो पड़ेंगे
इन दो कौड़ी और कुछ तो फूटी कौड़ी की औक़ात भर लोगों को रोने-झींकने के सिवा
और आता भी क्या है ?
ये भ्यां-भ्यां कर रोए उससे पहले हँसो
इनका रोना संदिग्ध बना दो
भूरा साँड चर गया इराक, अफगानिस्तान
साँड के गोबर नीचे दब रहा पाकिस्तान, हिन्दुस्तान
बड़े-बड़े नामों पर हँसने में नानी मरे तो
हरसूद, कलिंगनगर, सिंगूर, नंदीग्राम, कंधमाल, लालगढ़ या फिर मंगलकोट
हो जिसका नाम लेना आसान उस पर हँसो
अभी-अभी आयी कड़कनाथ के गर्म-गर्म गोस्त-सी
एकदम ताज़ा और बेहद स्थानीय ख़बर
वह जो,
तुम से लेकर भूरे साँड तक की माँ-बहन एक करता
1984, 1992 और 2002 की कहानियाँ सुनाते-सुनाते रोने लगता
एन.जी.ओ. कर्मी और हाई फाई यौनकर्मी में भेद न कर पाता
पेप्सी को काली कुतिया की पेशाब
और पिज्जे को भूरे सुअर का गू कहता
उसके क़त्ल की ख़बर पर हँसो
उसे इस क़दर संदिग्ध बना दो कि गमने और गेलचौदे भी थूके उसकी लाश पर
अभी थोड़ी देर पहले
जब वह रीगल चौराहे पर गाँधी को सुना रहा था
अपनी बेबसी के क़िस्से रोते हुए
तभी कातिल की नज़र पड़ी उस पर
ट्रीगर को छुआ भर और गोली उसके दिल के भीतर
वही का वही दिल था अभी तक उसके भीतर
जिसमें सूरजमूखी-सी खिलती कभी तुम्हारी याद
और फिर जिसे काली पूँछ के सफ़ेद कीड़े-सी खाने लगी थी भीतर ही भीतर
हाँ.. वही चौड़े कंधे और दहकते भाल वाला
जिसने तुम्हें एक दिन एक्शनएड
दूसरे दिन फोर्ड फाउन्डेशन
तीसरे दिन विश्व बैंक का दलाल कहा
जो सदा तुम्हारे सामने आइना लेकर हाज़िर होता रहा
तुम उसे अभिजात्य मुस्कान के साथ मनोरोग चिकित्सक को दिखाने की सलाह देते रहे
आपके कार्यकर्ताओं ने ख़ूबसूरती से अपनी ज़िम्मेदारी निभाई
एक ने उस पर चलायी वह स्वर्णाभा-सी दमकती गोली
दूसरे ने एक झटके में उतार ली उसके धड़ से गरदन
तीसरा उस खिचड़ी बालों वाले सिर से रोनालडो की तरह खेलता चढ़ने लगा शास्त्री ब्रीज
जब मग़ज़ के भीतर खाकी पैंट और काली टोपी पहने इतराने वाले
झक सफ़ेद वस्त्र पहन दाखिल हो रहे थे प्रेस क्लब में
वह उस सिर को फूटबाल की तरह कलात्मक ढंग से खेलता हुआ
न्यायालय के सामने से आ रहा था इधर ही
जब आप उनके साथ प्रेस क्लब के भीतर मीटिंग में
साँस्कृतिक राष्ट्रवाद के सिलेबस पर गहन मंथन में डूबे
अपनी प्रगतिशील छवि के पन्नों पर कुछ धब्बे छोड़ रहे थे
वह सुस्ताता हुआ प्रेस क्लब की केटिंग में चाय पी रहा था
आपकी मीटिंग ख़त्म होने और आपके बाहर आने से क्षण भर पहले ही बढ़ गया खान नदी की ओर
इस सब पर भी मन न हो, तो मत हँसो
कम से कम अपनी चतुराई पर तो हँसो
उसके हाथ में जो रिवाल्वर थी
उसकी चोरी की रिपोर्ट आपने दो माह पहले लिखा दी थी
चिकुन गुनिया, डेंगू, और स्वाइन फ्लू भी कोई बीमारी है जी
यह तो काबू में आ जायेगी, सौ-दो सौ ज़िन्दगी लीलने के बाद
इन टटपूँजी बीमारियों पर क्या हँसना !
जो फैलती है-
आपके आकाओं की यात्रा और महायात्राओं से
रायसीना टिले से हवा में फैलते अनीति वायरस से
जो एक साथ पिच्चासी फीसदी आबादी को डंक चुभाकर
चूस लेता कई पीढ़ियों का ख़ून
उस पर या प्रगतिशील कायर घुन्ने पर हँसो…..
रोने वालों को ढाँढस बँधाओ
कभी दस जनपथ
कभी चौवीस अकबर रोड की तरफ़ बढ़ती चमक दिखाओ
कहो-
एक दिन नहीं बहेंगे तुम्हारी आँखों से आँसू
न सुन सकेगा कोई तुम्हारी चीख़
तुम रोओगे तो सही कि तुम जन्मे ही हो रोने को
पर भीतर आत्मा के गाल पर ढुलकेंगे तुम्हारे आँसू
तुम चीख़ोगे भी क्योंकि पीढी दर पीढी चीखते हुए
तुम्हारे सँस्कार में शामिल हो गयी है चीख़
लेकिन अब तुम्हारे मग़ज़ में गूँजेगी चीख़
चीख़ चीरेगी भीतर ही भीतर तुम्हें
पर मानवाधिकार आयोग के लम्पटों के समक्ष
फूट की तरह फटा मग़ज़ बतौर सुबूत पेश न कर सकोगे
दुनिया के विशाल लोकतंत्र में होने के कुछ तो इनाम भोगना ही होंगे
उनका क्या है
वे किसी न किसी बात पर हँस ही लेगें
उन्हें कमी नहीं हँसने के विकल्पों की !
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12.08.09
सच के एवज में
अपरिपक्व और भ्रष्ट लोकतंत्र में झूठ को सच का जामा पहनाने को
कच्ची-पक्की राजनीतिक चेतना से सम्मपन्न होते हैं इस्तेमाल
सदा सच के ख़िलाफ़
जैसे भूख और हक़ के पक्ष में लड़ने और जीवन दाँव पर लगाने वालों के विरूद्ध सलवा जुडूम
जैसे भूख से मरे आदिवासियों का सवाल पूछने पर आॉपरेशन लालगढ़
जैसे काँचली आये लम्बे साँप की भूख निगलने लगती अपनी ही पूँछ
कभी-कभी प्रगतिशील गीत गाने वाले संघठन का मुखिया भी बन जाता है हिटलर का नाती
जब चुभने लगते हैं उसकी आँख में उसी के कार्यकर्ता के बढ़ते क़दम
तब साम्राज्यवाद की नाक पर मुक्का मारने से भी ज़्यादा ज़रूरी हो जाता है
कार्यकर्ता को ठिकाने लगाना
और जब सार्वजनिक रूप से क़त्ल किया जाता है कार्यकर्ता
शक करने, सवाल पूछने, भ्रष्ट और साम्राज्यवादी दलालों के चेहरे से नक़ाब खींचने के एवज में
तब कुछ क़त्ल के पक्ष में चुप-चुप गरदन हिलाते खड़े रहते हैं
कुछ डटकर खड़े हो जाते हैं कातिल के सामने
मुट्ठियों को भींचे, दाँत पर दाँत पीसते
कुछ ख़ुद को चतुरसुजान समझ मौन का घूँघट काड़े खड़े होते हैं तटस्थ
क़त्ल के बाद
कुछ ‘हत्यारा कहो या विजेता’ के क़िस्से सुनाते हैं
कुछ क़त्ल होने वाले की हरबोलों की तरह साहस गाथा गाते हैं
तब भी चरसुजान तटस्थ हो देखते-सुनते हैं
वक़्त सुनायेगा एक दिन उनकी कायरता के भी क़िस्से ।
08.07.09
सत्यनारायण पटेल
एम-2/ 199, अयोध्यानगरी
इन्दौर-11
(म.प्र.)
09826091605
ssattu2007@gmail.com 13.08.09