20 अक्तूबर, 2010

आँसुओं में शर्म की कोई बात नहीं

( अब्राहिम लिंकन का अपने पुत्र के शिक्षक के नाम पत्रः संपादित अंश )

उसे पढ़ाना कि संसार में दुष्ट होते हैं तो आदर्श नायक भी
कि जीवन में शत्रु हैं तो मित्र भी
उसे बताना कि श्रम से अर्जित एक रुपया
बिना श्रम के मिले पाँच रुपयों से भी अधिक मूल्यवान है
उसे सिखाना कि पराजित कैसे हुआ जाता है
यदि तुम उसे सिखा सको तो सिखाना
कि ईर्ष्या से दूर कैसे रहा जाता है
नीरव अट्टहास का गुप्त मंत्र भी उसे सिखाना
तुम करा सको तो उसे पुस्तकों के
आश्चर्य लोक की सैर अवश्य कराना
किन्तु उसे इतना समय भी देना कि वह
नीले आकाश में विचरण करते विहग-वृन्द के
शाश्वत सत्य को जान सके
हरे-भरे पर्वतों की गोद में खिले फूलों को देख सके
उसे सिखाना की पाठशाला में अनुत्तीर्ण होना
अधिक सम्मानजनक है
बनिस्बत किसी को धोका देने के
उसे अपने विचारों में आस्था रखना सिखाना
चाहे उसे सभी कहें- ‘ यह विचार ग़लत है ’
तब भी
उसे सिखाना कि सज्जन के साथ सज्जन रहना है
और कठोर के साथ कठोर….
मेरे पुत्र को ऎसा मनोबल देना
कि वह भीड़ का अनुसरण न करे
और जब सभी एक स्वर में गाते हों तो उसे सिखाना
कि तब वह उन्हें धैर्य से सुने
किन्तु वह जो कुछ सुने उसे सत्य की छलनी से छान ले
उसे समझाना दुख में कैसे हंसा जाता है
उसे समझाना आँसुओं में शर्म की कोई बात नहीं होती
तुनक मिजाजियों को लताड़ना उसे सिखाना
और यह भी कि अधिक मधुभाषियों से सावधान रहना है
उसे सिखाना कि अपना मस्तिष्क और विचार
अधिकतम बोली लगाने वाले को ही बेचे
मगर अपने ह्रदय और आत्मा पर मूल्य-पट्ट भी न टाँके
उसे समझाना कि शोर करने वाली भीड़ पर कान न दे
और यदि वह समझे कि वह सही है
तो उस पर दृढ़ रहे और लड़े
उसके साथ सुकोमल व्यवहार करना
पर अधिक दुलारना भी मत
क्योंकि अग्नि-परीक्षा ही इस्पात को सुन्दर, सुदृढ़ बनाती है
अधीर होने का साहस भी उसमें पैदा करना
और बहादुर होने का धैर्य भी
उसे सिखाना कि वह सदैव अपने आप में उदात्त आस्था रखे
क्योंकि तभी वह
मनुष्य जाति में उदात्त आस्था रख पाएगा

रूपांतरणः रामप्रसाद दाधीच

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10 अक्तूबर, 2010

लैंग्सटन ह्यूज की कविता



लैंग्सटन ह्यूज (1902-1967) के कृतित्व के प्रति अमेरिकी आलोचकों और प्रकाशकों का उपेक्षापूर्ण रवैया अमेरिकी साहित्य की दुनिया में रंगभेद का प्रतिनिधि उदाहरण है। कविताएँ, कहानियाँ,उपन्यास, नाटक,निबन्ध-ह्यूज ने इन सभी विधाओं में विपुल मात्रा में लिखा और उनका रचना संसार काफ़ी वैविध्यपूर्ण था, पर अँग्रेज़ी के साहित्य संसार में उसका समुचित मूल्याँकन नहीं हुआ। इसका कारण महज़ इतना ही नहीं था कि ह्यूज अश्वेत थे और अश्वेतों के उत्पीड़न के मुखर विरोधी थे। इससे भी अहम कारण यह था कि वह विचारों से वामपंथी थे और इस सच्चाई को उन्होंने कभी छुपाया नहीं । इसका ख़ामियाज़ा उन्हें मैकार्थीकाल में ही नहीं बल्कि उसके बाद भी चुकाना पड़ा। लैंग्सटन ह्यूज जीवन, संघर्ष और सृजन के सहज प्रवाह के कवि है। सादगी और सहज अभिव्यक्ति का सौन्दर्य उनकी कविता की शक्ति है। हिन्दी पाठक उनकी कविताओं से बहुत कम परिचित हैं, क्योंकि वे हिन्दी में छिटपुट और काफ़ी कम अनूदित हुई हैं। ह्यूज कि कविताओं का विषय मुख्य रूप से मेहनतकश आदमी है, चाहे वह किसी भी नस्ल का हो। उनकी कविताओं में अमेरिका की सारी शोषित-पीड़ित और श्रमजीवी जनता की कथा-व्यथा का अनुभव किया जा सकता है। ह्यूज का अमेरिका इन सब लोगों का है- वह मेहनतकशों का अमेरिका है, जो दुनिया में अमन-चैन और बराबरी चाहता है, और तमाम तरह के भेदभाव को मिटा देना चाहता है। ह्यूज की इसी सोच ने उन्हें अन्तरराष्ट्रीय कवि बना दिया और दुनिया-भर के मुक्तिसंघर्षों के लिए वे प्रेरणा के स्त्रोत बन गये।
अभिनव

एक बार फिर अमेरिका वही अमेरिका बने


एक बार फिर अमेरिका वही अमेरिका बने
वही एक सपना जो वह हुआ करता था
नयी दुनिया का अगुवा
एक ठिकाना खोजता
जहाँ ख़ुद भी आज़ादी से रह सके
अमेरिका मेरे लिए कभी यह अमेरिका रहा ही नहीं
एक बार फिर अमेरिका उन स्वप्नदर्शियों का सपना बने
प्यार और मोहब्बत की वही ठोस महान धरती
जहाँ राजा कभी पैदा हुआ ही नहीं
और न आतंककारियों की यह साज़िश
कि किसी एक के शासन में दूसरा प्रताड़ित हो
‘ यह कभी मेरे लिए अमेरिका रहा ही नहीं ’

जी हाँ, मेरी यह धरती ऎसी धरती बने
जहाँ आज़ादी सम्मानित न हो
झूठी देशभक्ति की मालाओं से
जहाँ सबको अवसर मिले
और जीवन मुक्त हो
और जिस हवा में हम साँस लेते हैं
वह सबके लिए एक-सी बहे

‘आज़ाद लोगों की इस धरती’ पर
कभी आज़ादी या बराबरी मुझे नसीब नहीं हुई
बतलाये तो, कौन हैं आप इस अँधेरे में छिपते हुए
और कौन हैं आप सितारों से चेहरा छुपाते हुए

मैं एक ग़रीब गोरा आदमी हूँ अलगाया हुआ
मैं एक नीग्रो हूँ ग़ुलामी का घाव खाया हुआ
मैं एक लाल आदमी हूँ अपनी ही धरती से भगाया हुआ
मैं एक प्रवासी हूँ अपनी उम्मीदों की डोर से बँधा हुआ
और हमें वही पुराना रास्ता मिलता है बेवकूफ़ी का
कि कुत्ता कुत्ते को खाये, कमज़ोर को मज़बूत दबाये

मैं ही वह नौजवान हूँ
ताक़त और उम्मीदों से लबरेज़
मुनाफ़े की, सत्ता की, स्वार्थ की, ज़मीन हथियाने की
सेना लूट लेने की
ज़रूरतें पूरी करने के उपायों को हड़पने की
काम कराने की और मज़दूरी मार जाने की
अपने लालच के लिए सबका मालिक बनने की
ख़्वाहिशों की

मैं ही वह किसान हूँ ज़मीन का गुलाम
मैं वह मज़दूर हूँ मशीन के हाथ बिका हुआ
मैं ही वह नीग्रो हूँ आप सबका नौकर
मैं ही जानता हूँ विनम्र, भूखी, निम्मस्तरीय
उस सपने के बावजूद आज भी भूखी
नेताओ ! आज भी प्रताड़ित
मैं ही वह आदमी हूँ जो कभी बढ़ ही नहीं पाया
सबसे ग़रीब मज़दूर जिसे वर्षों से भुनाया जाता रहा है
फिर भी मैं ही वह हूँ जो देखता रहा
वही पुराना सपना…
पुरानी दुनिया का जब बादशाहों का ग़ुलाम था
और इतना सच्चा सपना
जो आज भी अपने उसी दुस्साहस के साथ
गीत बनकर गूँजता है
हर एक ईंट में .. , में पत्थर
और हर एक हल के फाल में
जिसने अमेरिका की ज़मीन को ऎसा बना दिया है
जैसी आज वह है
सुनो, मैं ही वह आदमी हूँ
जिसने उस शुरुआती दौर में समुद्रों को पार किया था
अपने होने वाली रिहाइश की खोज में
क्योंकि मैं ही वह हूँ
जिसने आयरलैंण्ड के अँधेरे तटों को छोड़ा था
और पोलैण्ड की समतल भूमि को
और इंग्लैण्ड के चरागाहों को
और काले अफ़्रीका के समुद्री किनारों से बिछुड़ा था
‘एक आज़ाद दुनिया’ बनाने के लिए

आज़ाद ..?
किसने कहा आज़ाद..?
मैं तो नहीं
जी हाँ .. मैं तो नहीं
वे लाखों लोग भी नहीं
जो आज भी भीख पर जीते हैं
वे लाखों हड़ताली भी नहीं
जिन्हें गोली मार दी गयी
वे लाखों लोग भी नहीं है
हमें देने के लिए
क्योंकि सारे सपने हमने मिलकर देखे थे
और सारे गीत हमने मिलकर गाये थे
और सारी उम्मीदें हमने मिलकर सजायी थीं
और सारे झण्डे हमने मिलकर फहराये थे
और लाखों लोग हैं
जिनके पास कुछ भी नहीं है आज
सिवा उस सपने के जो अब लगभग मर चुका है
एक बार फिर अमेरिका वही अमेरिका बने
जो कि वह अब तक नहीं बन पाया है
और जो कि उसे बनना ही है
एक ऎसी धरती जहाँ हर कोई आज़ाद हो
जो हमारी धरती हो, एक ग़रीब आदमी की
रेड इण्डियन की, नीग्रो की, मेरी..
अमेरिका को किसने बनवाया..
किसके ख़ून-पसीने ने
किसके विश्वास और दर्द ने
किसके हाथों ने कारख़ानों में
किसके हल ने बरसात में
हमारे उस मज़बूत सपने को
फिर से जगाना होगा
चाहे जैसी भी गाली दो मुझे
ठीक है तुम चाहे जिस गन्दे नाम से मुझे पुकारो
आज़ादी का वह महान इस्पात झुकता नहीं है उनसे
जो लोगों की ज़िन्दगी में
जोंक की तरह चिपके रहते हैं
हमें अपनी धरती वापस लेनी ही होगी….
अमेरिका
जी हाँ… मैं दो टूक बात करता हूँ
अमेरिका कभी मेरे लिए यह अमेरिका रहा ही नहीं
फिर भी मैं क़सम खाता हूँ वह होगा
गिरोहों की लड़ाइयों में हमारी मौत के बावजूद
बलात्कार, घूसखोरी, लूट और झूठ के बावजूद
हम लोग, हम सारे लोग
मुक्त करेंगे इस धरती को
इन खदानों को , इन वनस्पतियों को
नदियों को, पहाड़ों और असीम समतल भूमि को
सबको, इन महान हरित प्रदेशों के सम्पूर्ण विस्तार को
और फिर बनायेंगे अमेरिका को अमेरिका…।
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अनुवादः रामकृष्ण पाण्डेय
साभारः आव्हान

03 अक्तूबर, 2010

लोक कला के साथ न्‍याय नही करती पीपली लाइव

राजेन्‍द्र बंधु


पिछले महीने रिलीज हुई आमिर खान की होम प्रोडक्‍शन फिल्‍म ''पीपली लाईव'' को दर्शकों द्वारा सराहा तो जा रहा है, किन्‍तु न्‍याय-अन्‍याय की कसौटी पर यह फिल्‍म खरी नहीं उतर रही है। एक अच्‍छी फिल्‍म बना देना अगल बात है, किन्‍तु उसका निर्माण ईमानदार मूल्‍यों पर आधारित होना दूसरी बात है। पीपली लाईव में लोकगीत को जमकर व्‍यवसायिक उपयोग तो किया गया, किन्तु उनके रचयिता को रायल्‍टी से वंचित रखा गया है। छत्‍तीसगढी गीत के साथ इस फिल्‍म में इसी तरह का अन्‍याय किया गया है।

इसमें फिल्‍माया गया गीत ''चोला माटी के हे राम'' छत्‍तीसगढ के जाने माने गीतकार स्‍व; गंगाराम शिवारे द्वारा लिखा गया था, जो पिछले तीन दशकों से यहां जन-जन में प्रचलित है। छत्‍तीसगढ के कलाकारों ओर सामाजिक कार्यकर्ताओं का आरोप है कि इस गीत को पीपली लाईव में लेने से पहले न तो रचनाकार के परिवारजनों से कोई स्‍वीक़ति ली गई और न ही उसके लिए किसी भी तरह के मेहनताने का भुगतान किया गया।

''चोला माटी के हे राम'' गीत छत्‍तीसगढ के लोकगीत और कला का एक नायाब नमूना है। स्‍व गंगाराम शिवारे ने यह गीत अपनी म़त्‍यु के पांच साल पहले लिखा था। इसे छत्‍तीसगढ के जाने माने गायकों द्वारा गया और कई दफे इसकी मंचीय प्रस्‍तुति की गई। प्रसिद्ध नाटककार हबीब तनवीर के नाटक ''चरनदास चोर'' में इस गीत को शामिल किया गया था। छत्‍तीसगढ के कलाकार बताते हैं कि स्‍व शिवारे अपने गीतों के गैर व्‍यावसायिक उपयोग के लिए प्रतिबद्ध थे। और सामाजिक जागरूकता के लिए उन्‍होंने विभिन्‍न नाटकों में अपने गीतों के प्रस्‍तुतिकरण की अनुमति दी थी। कहा जाता है कि उन्‍होंने सामाजिक परिस्थितियों से समझौता किए बिना लोककला के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया था। उनकी इसी कला साधना का परिणाम है कि आज छत्‍तीसगढ के जन-जन में उनके गीतों की गुनगुनाहट सुनी जा सकती है। उनके सैकडों शिष्‍य छत्‍तीसगढी लोककला को नई उंचाईयां देने में जुटे हैं।

पीपली लाईव में शिवारे का गीत लिए जाने के सवाल पर छत्‍तीसगढ लोंक कला मंच की सुश्री रमादत्‍त जोशी का कहना है कि ''छत्‍तीसगढी कला का व्‍यावसायिक उपयोग करने पर उसी पर्याप्‍त रायल्‍टी दी जानी चाहिए। शिवारे ने अपनी पूरा जीवन कला साधना में लगा दिया था और आज उनके पत्र आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं। उन्‍हें श्री शिवारे के गीत की रायल्‍टी मिलनी चाहिए।'' कलाकर श्रीमती प्रभावती शर्मा कहती है कि ''फिल्‍म में लिया गया यह गीत पिछले 30 सालों से विभिन्‍न मंचों पर प्रस्‍तुत किया जा चुका है। चरनदास चोर नाटक में इसकी बहुत उम्‍दा प्रस्‍तुति हुई है।'' अंतराष्‍ट्रीय पंथी नर्तक देवदास बंजारे ने 15 साल पहले इस गीत पर प्रभावी न्रत्‍य प्रस्‍तुति दी थी।

बताया जाता है कि फिल्‍म ''दिल्‍ली-6'' में फिल्‍माया गया गीत ''सास गारी देवे'' भी स्‍व; गंगाराम शिवारे ने 1970 में लिखा था, जो छत्‍तीसगढ के लोक मानस में पहले से प्रचलित है। जबकि फिल्‍म में रहमान की संगीत धुनों के साथ प्रस्‍तुत इस गीत के गीतकार के रूप में प्रसून जोशी का नाम दिया गया है।

उल्‍लेखनीय है कि छत्‍तीसगढ की धरती लोककला से सम़द्ध है। यहां करमा, द‍‍दरिया, सुआ, पंथी, नाचा-गम्‍मत ऩत्‍यों में लोकजीवन की सहजता प्रदर्शित होती है। स्‍व गंगाराम शिवारे, स्‍व शेख हुसैन, स्‍व हबीब तनवीर, दाउ दुलार सिंह मांदरा, स्‍व रामचन्‍द्र देशमुख, स्‍व बद्री विशाल परमानन्‍द, स्‍व हेमनाथ यदू, डा नरेन्‍द्रदेव, स्‍व हरि ठाकुर, स्‍व केशरी प्रसाद वाजपेची आदि अनेक लेखकों एवं गीतकारों के योगदान से छत्‍तीसगढी स़स्‍ंकति संमद्ध हुई है। तीजनबाई(, किसमतबाईख्‍ मालाबाई, फीताबाई, राधा और कामिनी का गायन छत्‍तीसगढी लोकजीवन का एक अहं हिस्‍सा बन गया है।

पचास वर्ष की उम्र में सन 1982 में दुनिया से विदा लेने वाले स्‍व गंगाराम शिवारे ने अपने जीवन काल में एक हजार से अधिक गीतों की रचना की। कलाकार रेखादत्‍त जोशी के अनुसार ''उनके गीतों में छत्‍तीसगढी जन मानस की सामाजिक दशा का बहुत मार्मिक चित्रण देखने को मिलता है।'' गीत ''कहां पावों रे खदर छानी के सुघर छांव'' में वे पलायन क दर्द को बयां करते हैं, वहीं ''बिलैका ताके मुसवा, भाडी ले सपट के'' गीदत में वे शोषित पीडित जनता को अपने बचाव और सशक्तिकरण की बात करते हैं।

छत्‍तीसगढी गीतों को फिल्‍मों में शामिल किया जाना उनकी व्‍यापकता की दिशा में अत्‍यन्‍त महत्‍वपूर्ण है। किन्‍तु छत्‍तीसगढी कला संस्‍क़ति और उसके कलाकारों को क्रेडिट एवं मेहनताना दिए बिना उनका व्‍यावसायिक उपयोग किया जाना कला जगत के साथ अन्‍याय है। यही कारण है कि छत्‍तीसगढ के लोगों और कलाकारों में पीपली लाईव के प्रति नाराजी देखी जा सकती है। जमीन से जुडे कलाकार अक्‍सर इस तरह के अन्‍याय के ज्‍यादा शिकार होते हैं। क्‍योंकि वे व्‍यावसायिकता की जोड-तोंड से परे रहकर ईमानदारी और मेहनत से कला साधना में लीन रहते हैं। दुख की बात यह है कि फिल्‍म उद्योगों और उंच ओहदे पर बैठे कुछ कलाकारों द्वारा उनके प्रति ईमानदारी का व्‍यवहार नहीं किया जाता।