24 फ़रवरी, 2011
POLICE ATROCITY ON TRIBAL WOMAN
Recently the salesman of the public distribution outlet in village Chapria some forty kilometers from Alirajpur district in Madhya Pradesh took out all the wheat, rice and sugar meant for subsidised distribution to the villagers during the night on 2nd February, 2011 and then lodged a complaint with the Police outpost in Phoolmal village nearby that some unidentified thieves had stolen the foodgrains and sugar. The policemen from the outpost then made a visit to Chapria village on 9th February in search of a person named Kalia and not finding him caught hold of his wife Vechli and gave her a solid caning on her buttocks and thighs and left her writhing on the ground. When her cries brought the other villagers to her house the policemen threatened them with dire consequences if they did not bring Kalia to the outpost and returned.
The villagers next day instead of visiting the police outpost took a circuitous route to Alirajpur and came to the office of the Khedut Mazdoor Chetna Sangath. Shankar, the secretary of KMCS immediately had an application prepared and went with them to complain to the Collector and the Superintendent of Police. The SP, a woman, was aghast at the purple weal marks of the beating on Vechli's body shown in the picture below and immediately ordered her to be taken to hospital and also ordered that the two policemen on duty in Phoolmal Chowki be called for explanations.
The media too were given the story and the next day the papers were full of it. While all this was happening the people came back to the KMCS office from the hospital with the woman saying that the doctor had said that the wounds were superficial and needed only first aid and no hospitalisation. Shankar had to rush back to the hospital and give the doctor a dressing down to get the woman admitted.
The huge negative publicity in the press forced the administration to suspend the PDS salesman and also announce that special efforts would be made to see that the foodgrains, sugar and kerosene did indeed reach the people and were not siphoned off. The official enquiry regarding the culpable police personnel is still going on. It remains to be seen what the Police action is against their own culprits.
What all this underlines is the impunity of the government functionaries which allows them to indulge in corruption and oppression due to the lack of exemplary punitive action by higher authorities who are in turn bound less by rules and more by the interests of scammers. There are only a few areas in this country where there are organisations like the KMCS that can challenge this impunity in any effective manner. That the KMCS now has the power to do so is because its members have fought for many years and borne much suffering to build up this power. Even so this power is tenuous because if the state decides it can, at anytime crush, the organisation. So democracy is not something that can be easily established when there is a huge centralisation of economic and political power and needs much greater people's mobilisation than there is at present.
15 फ़रवरी, 2011
लाइफ इज़ ब्यूटीफुल ( La vita e bella )
रोबर्टो बेनिनी की फिल्म ‘लाइफ इज़ ब्यूटीफुल (1997) ’ एक इतालवी फिल्म है जो जीवन के कड़वे यथार्थों से संघर्ष की कहानी है . यह जीवन से लबरेज़ एक ऐसे आदमी की कहानी है , जो हमेशा ज़िन्दगी के सकारात्मक पक्ष को देखता है.
फिल्म की कहानी द्वितीय विश्व युद्ध के समय की है जो एक यहूदी इतालियन व्यक्ति और उसके परिवार के इर्द -गिर्द घूमती है . फिल्म के पहले भाग में एक निहायती फक्कड़ और खुशमिजाज़ आदमी , ग्विडो इटली के अरेज़्जो शहर में आता है और बुक स्टोर खोलना चाहता है . अस्थायी तौर पर वह एक रेस्टोरेंट में काम करने लगता है . शहर में उसकी मुलाकात बड़े ही मज़ेदार तरीके से वहीँ के एक स्कूल में पढ़ाने वाली युवती डोरा से होती है , जो असल में काफी धनवान परिवार से सम्बन्ध रखती है . डोरा के परिवार वाले चाहते हैं की उसकी शादी किसी बड़े पद पर काम करने वाले व्यक्ति से हो . लेकिन डोरा खुद भी ग्विडो को चाहने लगती है और उसी से शादी करना चाहती है . बड़े ही नाटकीय तरीके से ग्विडो डोरा को उसकी सगाई की पार्टी से भगाकर अपने घर ले आता है . दोनों शादी करके ख़ुशी - ख़ुशी साथ रहने लगते हैं , कई साल बीतते हैं . अब घर में तीन लोग हैं ग्विडो, डोरा और उनका बच्चा - जोशुआ . धीरे धीरे डोरा की माँ भी पुरानी बातें भूलकर डोरा को माफ़ कर देती है . एक दिन जब जोशुआ के जन्मदिन पर डोरा अपनी माँ को लेकर घर आती है तो पाती है की घर का सारा सामान बिखरा पड़ा है . घर में न तो ग्विडो है न जोशुआ . मोहल्ले के दूसरे यहूदियों के साथ उन्हें भी यातना शिविर में ले जाया जा चुका है .
यहाँ से फिल्म का दूसरा भाग शुरू होता है . डोरा भी तय कर लेती है की उसे हर हाल में अपने पति और बच्चे के साथ ही रहना है . वह भी उस ट्रेन में जाने की अनुमति ले लेती है, जिसमें ग्विडो और जोशुआ के साथ वे सब लोग हैं जिन्हें यातना शिविर में ले जाया जा रहा है . अपनी पत्नी को साथ चलता देखकर ग्विडो खुश भी होता है और दुखी भी . शिविर में पहुचने के बाद महिलाओं और पुरुषों को अलग कर दिया जाता है . जोशुआ के पूछने पर ग्विडो उसे समझाता है कि वे सब लोग एक खेल खेल रहे हैं जिसमें उन्हें कुछ दिन घर से दूर रहना पड़ेगा और खेल के नियमों के हिसाब से चलना पड़ेगा . जो भी व्यक्ति सबसे पहले 1000 पॉइंट्स बटोर लेगा वो जीत जाएगा . और जीतने वाले को इनाम में एक टैंक दिया जाएगा , असली टैंक ! ग्विडो नहीं चाहता कि जोशुआ को इस कड़वी सचाई का पता चले कि वे लोग एक ऐसी जगह आ चुके हैं , जहाँ से जीवित वापस लौटना शायद कभी संभव न हो . इस तरह जोशुआ के हर सवाल के जवाब में ग्विडो उसे आश्वस्त करता है कि बाकी लोग उसे कुछ भी कहें , उसे उनकी बात पर भरोसा नहीं करना चाहिए क्योकि वो लोग नहीं चाहते कि जोशुआ जीते . यातना शिविर में जहाँ बूढों और बच्चों को काम के लिए निरर्थक मानकर मार दिया जाता है , ग्विडो जोशुआ को अपने कमरे में जर्मन सैनिकों से छुपा कर रखता है , जहाँ उसके साथ और भी कई लोग हैं . यातना शिविरों में यह एक आम तरीका हुआ करता था जिसमें काम के लिए निरर्थक समझे जाने वाले लोगों को बाथरूम जैसे कक्षों में शावर लेने को कहा जाता था और पानी की जगह ज़हरीली गैस छोड़कर मार दिया जाता था.
जोशुआ को अंत तक ग्विडो महसूस नहीं होने देता की वास्तविकता क्या है . जब युद्ध समाप्त होने लगता है और जर्मन सेना वापसी की तैयारी करने लगती है , भगदड़ में ग्विडो जोशुआ को एक बॉक्स में यह कह के छुपने को कहता है कि यह खेल का अंतिम पड़ाव है , वे लोग बस खेल जीत ही चुके हैं और जीतने के लिए जोशुआ को किसी भी कीमत पर तब तक डिब्बे से बाहर नहीं निकलना है, जब तक कि सब लोग वहाँ से चले नहीं जाते. ग्विडो डोरा को खोजने निकल जाता है , लेकिन बीच में ही एक सैनिक द्वारा पकड़ लिया जाता है . सैनिक ग्विडो को गोली मार देता है .
ग्विडो के कहे अनुसार जोशुआ सुबह तभी बाहर निकलता है , जब चारों तरफ शांति छा चुकी है , बचे खुचे यहूदी भी धीरे - धीरे बाहर आते हैं . जोशुआ सड़क पर अकेला खड़ा है , तभी सामने से अमेरिकन आर्मी का एक टैंक आता है . जोशुआ खुश है कि वह खेल जीत चुका है और यह टैंक उसकी जीत का इनाम है . टैंक पर सवार अमरीकी सैनिक सड़क पर खड़े अकेले बच्चे को देखकर अपने साथ टैंक पर बिठा लेता है . जोशुआ जीत कि ख़ुशी में फूला नहीं समां रहा है कि जो उसके पिता ने कहा था , बिलकुल वैसा हुआ . रास्ते में जोशुआ को उसकी माँ भी मिल जाती है . जोशुआ माँ को सुना रहा है कि कैसे उसने सारे नियमों पर चलकर सबसे ज़्यादा अंक बटोरे और इनाम में टैंक जीत लिया . जोशुआ नहीं जानता कि उसके और इस क्रूर यथार्थ के बीच ढाल बनकर खड़ा उसका पिता ग्विडो उससे हमेशा के लिए दूर जा चुका है. वह इस खेल से मुक्त हो चुका है लेकिन उसे सिखा गया है कि जीवन बहुत सुन्दर है .
फिल्म का पहला भाग कुछ अधिक लम्बा लगता है लेकिन यह ग्विडो के व्यक्तित्व को स्थापित भी करता है . जिस तरह का जीवट ग्विडो यातना शिविर में रहकर दिखाता है, उसे जस्टिफाई करने के लिए पहले भाग में उसका खिलंदडपन दिखाना ज़रूरी भी लगता है . हिटलर के यातना शिविरों की सच्चाई को स्पिलबर्ग की ' शिंडलर्स लिस्ट ' फिल्म भी ज़बर्दस्त तरीके से दिखाती है पर यह एक अलग जानर की फिल्म है . कई आलोचक इसे चार्ली की ' द ग्रेट डिक्टेटर' की श्रेणी में रखते हैं . फिल्म में ग्विडो का किरदार खुद रोबर्टो बेनिनी ने ही निभाया था . फिल्म को विभिन्न श्रेणियों में 3 ऑस्कर मिले जिसमें बेस्ट एक्टर का अवार्ड भी शामिल था . कान्स फिल्म समारोह समेत अन्य कई समारोहों में भी इस फिल्म को काफी सराहा गया , पुरस्कृत भी किया गया .
02 फ़रवरी, 2011
ये कौन सी दयार है
प्रदीप मिश्र
किसी नक्षत्र का थोड़ा-सा उजाला
मुझे मेरी राह सुझाता है
और वह थोड़ा-सा उजाला ही है
जो मुझे नष्ट कर सकता है
या बचा सकता है ।''
अदम जगाजेयेव्स्की की कविता की इन पंक्तियों को उदय प्रकाश के ब्लाग पर पढ़ा और हमारे समय की गुत्थियों को ठीक से समझने की एक नई रोशनी मिल गयी। यह हमारे समय का भयानक सच है कि हम एक तरह के उजाले से संचालित हो रहे हैं। यह उजाला हमारे समय में हो रहे विकास और उपलब्धियों का उजाला है। इस अंधाधूंध दौर में ऊपर से सबकुछ अच्छा-अच्छा होता दिख रहा है। लेकिन यहाँ पर इस बात को ध्यान रखना बहुत जरूरी है कि यह उजाला हमें नष्ट भी कर सकता है और बचा भी सकता है। चौंधियाहट हमेशा ही उजाले में पैदा होती है। लेकिन इस इस चिन्तन परम्परा में शामिल होने के लिए हमें हमें थोड़ा अवकाश चाहिए और इस दौड़ से बाहर निकल कर देखना होगा कि यह कहाँ समाप्त हो रही है। क्या ये लगातार आत्महत्या कर रहे, किसानों के कब्रिस्तान में समाप्त हो रही है या मानवीय मूल्यों के कारागार में। क्योंकि यह तो तय है कि दौड़ में जीतनेवाला एक ही होगा, बाकी सब भीड़ हैं। विडम्बना यह है कि इस दौड़ की भीड़ में पूरा का पूरा देश भी, अपने मुखिया सहित शामिल है। अगुवा वे सारे विकसित देश हैं जो बड़ी मछली और छोटी मछली के भोजन परम्परा में विश्वाश रखते हैं। यानि कभी भी कोई भी दौड़ता हुआ देश अपने देश की ध्वजा को रूमाल की तरह जेब में ठूंस लेगा और अगुवा देशों की इस समझाईश को मान लेगा ध्वजा की क्या उपयोगिता यह तो सिर्फ फहरता रहता और एक आदमी रोज इसे उतारने और चढ़ाने में खर्च होता है। जबकि रूमाल साफ-सफाई, दुर्घटना में जीवन रक्षक और जरूरत पढ़ने पर गला कस के आत्महत्या करने में उपयोगी है। यह तर्क सर्वसम्मति से अपने देश की जनता से स्वीकार भी करवा लेगा । भविष्य में आत्मस्वाभिमान, अस्तित्व और हक की बात करनेवाले लोगों को मनोरोगी कहा जाएगा और विकसित देशों में वैज्ञानिक इस शोध में लगें हैं, कि इन भयानक रोगियों का क्या इलाज हो सकता है। अब आप अवकाश लेकर कोई चिन्तन नहीं कर सकते हैं। यदि ऐसा किया तो इस विकास की दौड़ में बहुत पीछे छूट जाऐंगे। जहाँ अंधकार ही अंधकार होगा और ईमानदारी,निष्ठा, बंधुत्व, प्रेम जैसे कुछ मूल्य होंगें। इसलिए बिना सोचे समझें दौड़ें और कमसे कम विश्व विश्वग्राम तक पहुँचकर वैश्विक नागरिकता प्राप्त कर लें।
मुझे मालूम है कि इतनी गम्भीर बातों को सुनने के कान और पचाने के पेट अब नहीं रहे। लेकिन मैं भी क्या करूँ आजकल इन्दौर में घनघोर साहित्यिक और सांस्कृतिक आयोजन हो रहे हैं। हम जैसे आवारागर्दों के तो ये ठिये हैं। सो पहुँच ही जाते हैं और बुद्ध की तरह ज्ञान प्राप्त करके ही निकलते हैं। उसी ज्ञान की बघार ऊपर दे डाली। लेकिन कभी- कभी इन साहित्यिक कार्यक्रमों कुछ जादूई हादसे हो जाते हैं। ऐसा ही कुछ शरद पगारे जी के सम्मान के अवसर पर हुआ। आयोजन स्थल था मध्य भारत हिन्दी साहित्य समिति में था। सम्मान देने के लिए हमारे समय के एक लोकप्रिय नेता जी पधारे। उनके साथ कुछ एकसपाइरी डेटवाले नेता जी लोग और एक साहित्यकार प्रभू जोशी मंच पर विराजमान थे। इस कार्यक्रम के बारे में पहले ही साहित्यिक मित्रों की प्रतिक्रिया मिल चुकी थी कि क्या जाना वहाँ तो सारे नेता आ रहे हैं। खैर हमने तो खतरा मोल ले ही लिया था, और नेता जी के चिन्तन परक भाषण से रूबरू हुए और पहली बार जाना कि नेता जी संस्कारों की भी बात करते हैं और अपने शहर में होनेवाली धटनाओं के प्रति भी संवेदनशील होते हैं। यहाँ पर मुझे चन ्द्रकांत देवताले की पंक्तियां याद आयीं -
दिखाई दे रही है कई कई चीजें
देख रहा हूँ बेशुमार चीजों के बीच एक चाकू
अदृश्य हो गई अकस्मात तमाम चीजें
दिखाई पड़रहा सिर्फ चमकता चाकू
प्रभू जोशी जी हमारे बीच में लाईट हाउस की तरह हैं। उनकी चेतना हमारे समय के समग्र वैज्ञानिक विकास के लिए प्रतिबद्ध हैं। इसलिए वे जब हिन्दी भाषा की दुर्गति और उसके कारकों पर बात करतें हैं तो सचमुच हमारी आंखें खुल जातीं हैं और साफ दिखाई देता है कि यह षडयंत्र हमें बिना लड़े किस तरह से पराजित कर देगा और हम अपने विकास का जयगान करते-करते कब अपनी गुलामी का जय गान करने लगेंगे पता भी नहीं चलेगा।
इसी कड़ी में उन्होंने फिल्मी दुनिया की कुटिलता और हेकड़ी पर बात करते हुए बताया कि किस तरह से वहाँ पर लेखकों का शोषण होता है। जब कमलेश्वर जैसे सूस्थापित और रसूख वाले लेखक को फिल्मी दुनियावालों ने नहीं छोड़ा तो शरद पगारे और सत्यानारायण किस खेत के मूली हैं। यहाँ पर मुझे हाल ही का एक प्रकरण याद आया। कोई नीतू हैं जो मुम्बईया फिल्मी बाजार की खुदरा विक्रेता हैं। उनको अचानक स्वप्न आया कि मालवी का फिल्मी बाजार एकदम खाली है। यहाँ पर धन्धा अच्छा चलेगा सो वे अचानक प्रकट हो गयीं और सुप्रसिद्ध कथाकार सतीश दुबे जी के उपन्यास पर फिल्म बना डाला। इस उपन्यास को पटकथा में बदलते समय उनको मालवी बोली के जानकार की जरूरत पड़ी सो युवा कथाकार सत्यनारायण पटेल से मालवी में संवाद भी लिखवा लिया। जैसा कि हमेशा होता है, अब वे सत्यनाराण पटेल का नाम फिल्म में देने से मना कर रहीं हैं। सत्यनाराण ने उनके खिलाफ हाथ-पॉव पटक रहे है। सत्यनारायण ने फिल्म में मालवी संवाद लिखा है इसका पूख्ता प्रमाण मेरे पास भी है। अभी इन सब विचारों में हम उलझे ही हुए थे कि सामने से आते हुए विचारसिंह जी घुड़चढ़े दिखाई दिए। अपनी साईकिल का अगला पहिया मेरे दोनों पावों के बीच में लगभग घुसाते हुए, बोले - "घोर अन्याय हो गया और तुम सब चुप बैठे हो ? जाहिल हो जाहिल"
"क्या हो गया ? " मैंने सकपकाते हुए पूछा।
"वो देखो सामने।" उन्होने कसमसाते हुए आदेश दिया। मुड़कर देखा तो उसी मालवी फिल्म भुनसारा का कद्दावर बैनर लगा था। कुछ छण गौर से देखने के बाद भी मुझे कुछ भी नहीं मिला तो वे झुंझला ते हुए बोले - "यही बात है जो गलत चीजों को बड़ावा देती है। तुम लोग सोते ही रहोगे और चोर सब लूट ले जाऐंगे।" और अपने जेब से एक अपील की पर्ची मुझे थमाते हुए आगे निकल गए। पर्ची पढ़कर जब पुनः उस मालवी की फिल्मी का बैनर को देखा तो उसपर बम्बइया चेहरों की धूम थी और सिर्फ दो नाम छपे थे एक निर्देशक का और दूसरा निर्मात्री का। इन दोनों का मालवा की संस्कृति और बोली से कोई लेना देना नहीं है और इनको आज से पहले मालवा की बोली के उत्थान में कार्यशील कभी नहीं पाया। निर्माण के दौरान स्थानीय प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करने की खबरें इस फिल्म के प्रेसकान्फ्रेंसो से खूब आयीं थीं। इस पर न तो लेखक सतीश दुबे का नाम था, न सत्यनारायण पटेल का और नहीं उन स्थानीय कालाकारों के नाम या चित्र जिनको यह फिल्म एक्टिंग का अवसर दे रही थी। यहाँ पर विचारसिंह जी घुड़चढ़े के पर्चे में छपी अपील सार्थक लगने लगी कि - "अगर सच्चे मालवी हो तो भुनसारा फिल्म मत देखना। इसने तुम्हारी बोली के लेखकों और कलाकारों का अपमान किया है। उनका नाम कहीं भी बैनर पर नहीं है। तो सोचो फिल्म बनाने और उसके क्रेडिट में कितना घपला होगा। ये तुम्हारे जेब से पैसा निकाल कर मुम्बई ले जाऐंगे और तुमको ठेंगा दिखा जाऐंगे। बहिस्कार करो, भुनसारा फिल्म का बहिस्कार करो। और बता दो सबको कि मालव भूमी के लोग अपने लेखकों, कलाकारों और संस्कृति से कितना प्रेम करते हैं।" नीचे नोट लिखा था मैं इस अपील को पूरे मालवा में फैला दूँगा फिर देखता हूँ। मुम्बईया दाँव कैसे सीधे सच्चे मालवी जनता को मुर्ख बनाती है। काश विचारसिंह जी घुड़चढ़े का विचार सारे मालवा के निवासियों में प्रवेश कर जाता। मैं अपनी बात मखमूर सईदी के इस शेर के साथ पूरा कर रहा हूँ।
चल पड़े हैं तो कहीं जा के ठहरना होगा
ये तमाशा भी किसी दिन हमें करना होगा
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