रिटायरमेन्ट से एक दिन पहले
............................
आज वह पूर्ववत अपनी नौकरी पर है
कल वह नहीं रहेगा
कल वह रिटायर हो जायेगा
उसका रिटायरमेन्ट तय था
और तय समय पर ही हो रहा है
वह अपनी नौकरी और
तयशुदा ज़िदगी से बाहर आने वाला है
तयशुदा ज़िदगी में तय थी, उसकी गली
रोज सुबह आठ बजे जहाँ से गुज़र कर
पहुँच जाना होता था बस स्टाप,
बस स्टाप में बस भी तय थी
साढ़े आठ बजे छीनवाड़ा-नरसिंहपुर
बस मे सीट भी तय थी
कांडक्टर के पीछे तीसरी पंक्ति में
पंक्ति में क्रम भी निश्चित था
खिड़की वाली पहली सीट
और सीट पर सह-यात्री भी तय होते
और तो और बैग में रखे टिफिन-बाक्स में
सब्जी भी तय होती
जैसे कद्दू , लौकी , गिलकी ,कुन्दरू या पालक भाजी
जो हलके से बघार से पक जाये
और लंच बाक्स समय पर तैयार हो सके
कल जब वह रिटायर हो जायेगा
सुबह आठ बजे कौन गुज़रेगा, उस गली से
साढ़े आठ वाली बस में
कौन बैठकर जायेगा,उसकी सीट पर
उसके सह-यात्री क्या बदल लेंगे
अपनी-अपनी सीट,उसके न होने पर
और क्या कल सुबह
पत्नी के माथे पर होगी इतनी ही चिन्ता
और सुबह के कामों में इतनी ही तत्परता
जो कद्दू,लौकी और गिलकी को
टिफिन बाक्स में पहुँचा देने में होती थी
और उसे आफ़िस
वह जानता है
कल जब वह रिटायर हो जायेगा
उसकी पत्नी भी रिटायर हो जायेगी
उसका रिटायरमेन्ट आफ़िस,बस. बस-स्टाप,गली
और घड़ी की सुईयों पर दौड़ती-भागती जिन्दगी से
और पत्नी का सुबह-सुबह की भागम-भाग से
सचमुच पत्नी के नौकरी किये बगैर
ढंग से एक दिन भी
नौकरी नहीं कर सकता था-वह रिटायर होता आदमी
००
छोटी बहन
............................
मेरे होने से पूर्व भी थी
इस पृथ्वी पर
अपेक्षा और उपेक्षा
मैं तो उपेक्षा की कोख से ही जन्मी
और चोली दामन की तरह रही
मैं जिस कोख से जन्मी
जन्म चुकी थी
मुझ से पहले भी दो लड़कियाँ
मैं तीसरी
मारे जाने के
तमाम प्रयासों के बाद भी जन्मी
मेरे तो हिस्से में
आना ही था-उपेक्षा
पर मुझ से पहले जो आईं
उनके हिस्से भी कहाँ आया-प्रेम
पर वे हुई कम शिकार
मैं भरपूर
अच्छा हुआ मेरी जगह
उस कोख से नहीं आया कोई लड़का
वरन् मुझ से ज्य़ादा
उपेक्षित होती वे दोनों
इस तरह मैंने बचा लिया
उन्हें भरपूर उपेक्षा से
आखिर उनकी छोटी बहन जो ठहरी
उनकी अपेक्षा में खरी उतरी ।
कविता तारीख (01.01.2015)
जगह :
एक बुरे आदमी से
निजात पाने का सुख
और उसके बाद
एक अच्छे आदमी के
आने का इंतज़ार
खुसियों से भर देता हैं-हमें
पर अफ़सोस
अच्छे आदमी
कभी बुरे आदमी की
जगह नहीं लेते ।
(कविता तारीख़-31.12.2014)
जिद्द ::
सुखदयाल दु:खी
रामप्रसाद भी खुश नहीं
उन दोनों की तरह
कई और सुखदयाल और रामप्रसाद
सब दु:खी, सब परेशान ।
उन सबके बीच- दु:खीलाल
न दु:खी, न परेशान
और उसका इस तरह होना
सभी को अचम्भित कर जाता
दु:खों के बीच वह कैसे
खिलखिलाकर हँस सकता है
चिंता को चिता तक स्थगित कर ।
वह न एश्वर्य से भरा
न सुखों से लदा
वह जैसे का वैसा
उसके परे कुछ और हो जाना
उसे स्वीकार नहीं ।
जो सुखदयाल सरीके
वे, वह नहीं रहना चाहते
जो है ।
वे सब चाहते थे कुछ और हो जाना ।
कुछ हुए भी
कुछ नहीं
कुछ होकर दु:खी हुए
कुछ न होकर
पर दु:खी सभी ।
दरअसल
होने और न होने के बीच
जब-जब जिद्द आई
लोग दु:खी हुए. परेशान हुए
यह बात
दु:खीराम अच्छी तरह जानता है ।
कविता तारीख ( 03.01.2015)
पिता होकर ।।
न जाने कितनी- कितनी बातों में
असहमतियाँ थी
और गुस्सा भी-पिताजी से
पर अपनी जगह
वे ही सही थे
ऐसा घर मानता था
घर में माँ भी ।
सबके सही होने
और अपने सही न होने का कारण
कभी जान ही नही पाये-हम ।
हमारी नासमझी पर
माँ सदैव मुसकुराती
सही और गलत के बीच
उसका झुकाव सदैव हमारे तरफ़ होता
पर सही पिता ही ठहराये जाते।
हम माँ को भी
समझ की उसी तराजू में धर देते
जिसके दूसरे पलड़े में थे-पिता ।
माँ झुक जाती
पिता ऊँचे उठ जाते
वह जितना झुकती
पिताजी उतना ऊँचा उठ जाते ।
तमाम असहमतियों के बाद
हम माँ के जितना करीब होते
पिता से उतना ही दूर ।
एक समय बाद तो
हम समझ ही बैठे
पिता ही घर के वह सदस्य है
जिनसे सदैव हम दूर ही दूर रहे
हालाँकि वे हमसे
कभी दूर नहीं गये।
दूर-दूर के इसी एहसास में
हमारे बेटे ने बना दिया-हमें
वही पिता
जैसे थे हमारे पिता ।
क्या बच्चा जब असहमत
होना सीखता है
उसकी पहली असहमती के सामने
पिता खड़ा होता है..?
यह बात हमने पिता होकर
और पत्नी ने मुसकुराकर जाना
माँ की तरह ।
कविता तारीख (05.10.2015)
टिप्पणी
1.
समय घड़ी में हम पुरजों की तरह चल रहे हैं। धीरे धीरे हम एक लीक पकड़ लेते हैं और उसे ही जीवन समझने लगते हैं। अक्सर यह भी भूल जाते हैं कि जीवन रथ के अन्य पहियों की क्या भूमिका है। यह कविता इन सभी पहलुओं को बहुत संवेदनशीलता से छूती है। अंत में एक कृतगयता का भाव कविता को अपने उद्देश्य तक ले जाता है जहां एक स्वीकार है उसकी दुनिया के सच का जो उम्र भर चुपचाप समांतर चलती रही।
2.
छोटी बहन एक बेहद मार्मिक रचना है। अपने संक्षिप्त रूप में एक विस्तृत फलक रचती हुई। इसमें शब्द एक ऐसा तानाबाना बुनते हैं कि आप अपने आप को उपेक्षित लडकियों की पीड़ा के द्वार पर पाते हैं। यह कविता भारत के अनेक परिवारों की सच्चाई को पूरी ईमानदारी से बयान करती है।
3.
अंतहीन प्रतीक्षा की उब और नैराश्य से उपजी है यह कविता।अच्छाई कायम रहे और नियन्ता की भूमिका में हो यही हम चाहते हैं पर आशा का किला हर बार टूट जाता है। पूरे समाज को संबोधित करते हुए कवि ने सरल शब्दों का प्रयोग किया है जो इसकी पहुंच को विस्तृत करता है।
4.
ईच्छाओं के वशीभूत होकर अपनी खुशी गंवाते समय के लिए एक अमूल्य सोच लिए इस कविता में कवि उपदेशक के बजाय एक दृष्टा की भूमिका में है जिसने इस कविता की ग्राह्यता में वृद्धि की है। नाम के स्थान पर काम की महत्ता को सहजता से प्रतिपादित किया गया है। एक बार फिर भाषा की सरलता काबिले तारीफ़ है।
5.
अंतिम कविता में घर का ताना बाना बुना गया है जहां झुक कर मां बच्चों के मन में एक जगह बनाती है। पिता की असहमति हमें तब समझ में आती है जब एक असहमत संतान के सामने हम खड़े होते हैं। पर क्या है जो पुरुष को पिता की असहमति और महिला को माँ की मौन समझ देता है, समाज का ताना बाना या कुछ और। यही मां को माँ बनाता है और यह कविता इसे बहुत खूबसूरती से बयान करती है।
विशेष रूप से पहली, दूसरी ओर पांचवीं कविता के लिए कवि को साधुवाद देना चाहता हूं। इन परिपक्व और सार्थक कविताओं के लिए शुक्रिया।
सादर।
कविताएँ श्री राजेश झरपुरे जी की हैं..
उन कविताओं पर टिप्पणी साथी परमेश्वर फुंकवाल जी ने की थी...
दोनों ही साथियो का आभार....
आप लोगों ने कविताओं पर बात की...और उन्हें अपने ढँग से खोलने की कोशिश की...
आप सभी का भी बहुत-बहुत शुक्रिया...
19.01.2015
............................
आज वह पूर्ववत अपनी नौकरी पर है
कल वह नहीं रहेगा
कल वह रिटायर हो जायेगा
उसका रिटायरमेन्ट तय था
और तय समय पर ही हो रहा है
वह अपनी नौकरी और
तयशुदा ज़िदगी से बाहर आने वाला है
तयशुदा ज़िदगी में तय थी, उसकी गली
रोज सुबह आठ बजे जहाँ से गुज़र कर
पहुँच जाना होता था बस स्टाप,
बस स्टाप में बस भी तय थी
साढ़े आठ बजे छीनवाड़ा-नरसिंहपुर
बस मे सीट भी तय थी
कांडक्टर के पीछे तीसरी पंक्ति में
पंक्ति में क्रम भी निश्चित था
खिड़की वाली पहली सीट
और सीट पर सह-यात्री भी तय होते
और तो और बैग में रखे टिफिन-बाक्स में
सब्जी भी तय होती
जैसे कद्दू , लौकी , गिलकी ,कुन्दरू या पालक भाजी
जो हलके से बघार से पक जाये
और लंच बाक्स समय पर तैयार हो सके
कल जब वह रिटायर हो जायेगा
सुबह आठ बजे कौन गुज़रेगा, उस गली से
साढ़े आठ वाली बस में
कौन बैठकर जायेगा,उसकी सीट पर
उसके सह-यात्री क्या बदल लेंगे
अपनी-अपनी सीट,उसके न होने पर
और क्या कल सुबह
पत्नी के माथे पर होगी इतनी ही चिन्ता
और सुबह के कामों में इतनी ही तत्परता
जो कद्दू,लौकी और गिलकी को
टिफिन बाक्स में पहुँचा देने में होती थी
और उसे आफ़िस
वह जानता है
कल जब वह रिटायर हो जायेगा
उसकी पत्नी भी रिटायर हो जायेगी
उसका रिटायरमेन्ट आफ़िस,बस. बस-स्टाप,गली
और घड़ी की सुईयों पर दौड़ती-भागती जिन्दगी से
और पत्नी का सुबह-सुबह की भागम-भाग से
सचमुच पत्नी के नौकरी किये बगैर
ढंग से एक दिन भी
नौकरी नहीं कर सकता था-वह रिटायर होता आदमी
००
छोटी बहन
............................
मेरे होने से पूर्व भी थी
इस पृथ्वी पर
अपेक्षा और उपेक्षा
मैं तो उपेक्षा की कोख से ही जन्मी
और चोली दामन की तरह रही
मैं जिस कोख से जन्मी
जन्म चुकी थी
मुझ से पहले भी दो लड़कियाँ
मैं तीसरी
मारे जाने के
तमाम प्रयासों के बाद भी जन्मी
मेरे तो हिस्से में
आना ही था-उपेक्षा
पर मुझ से पहले जो आईं
उनके हिस्से भी कहाँ आया-प्रेम
पर वे हुई कम शिकार
मैं भरपूर
अच्छा हुआ मेरी जगह
उस कोख से नहीं आया कोई लड़का
वरन् मुझ से ज्य़ादा
उपेक्षित होती वे दोनों
इस तरह मैंने बचा लिया
उन्हें भरपूर उपेक्षा से
आखिर उनकी छोटी बहन जो ठहरी
उनकी अपेक्षा में खरी उतरी ।
कविता तारीख (01.01.2015)
जगह :
एक बुरे आदमी से
निजात पाने का सुख
और उसके बाद
एक अच्छे आदमी के
आने का इंतज़ार
खुसियों से भर देता हैं-हमें
पर अफ़सोस
अच्छे आदमी
कभी बुरे आदमी की
जगह नहीं लेते ।
(कविता तारीख़-31.12.2014)
जिद्द ::
सुखदयाल दु:खी
रामप्रसाद भी खुश नहीं
उन दोनों की तरह
कई और सुखदयाल और रामप्रसाद
सब दु:खी, सब परेशान ।
उन सबके बीच- दु:खीलाल
न दु:खी, न परेशान
और उसका इस तरह होना
सभी को अचम्भित कर जाता
दु:खों के बीच वह कैसे
खिलखिलाकर हँस सकता है
चिंता को चिता तक स्थगित कर ।
वह न एश्वर्य से भरा
न सुखों से लदा
वह जैसे का वैसा
उसके परे कुछ और हो जाना
उसे स्वीकार नहीं ।
जो सुखदयाल सरीके
वे, वह नहीं रहना चाहते
जो है ।
वे सब चाहते थे कुछ और हो जाना ।
कुछ हुए भी
कुछ नहीं
कुछ होकर दु:खी हुए
कुछ न होकर
पर दु:खी सभी ।
दरअसल
होने और न होने के बीच
जब-जब जिद्द आई
लोग दु:खी हुए. परेशान हुए
यह बात
दु:खीराम अच्छी तरह जानता है ।
कविता तारीख ( 03.01.2015)
पिता होकर ।।
न जाने कितनी- कितनी बातों में
असहमतियाँ थी
और गुस्सा भी-पिताजी से
पर अपनी जगह
वे ही सही थे
ऐसा घर मानता था
घर में माँ भी ।
सबके सही होने
और अपने सही न होने का कारण
कभी जान ही नही पाये-हम ।
हमारी नासमझी पर
माँ सदैव मुसकुराती
सही और गलत के बीच
उसका झुकाव सदैव हमारे तरफ़ होता
पर सही पिता ही ठहराये जाते।
हम माँ को भी
समझ की उसी तराजू में धर देते
जिसके दूसरे पलड़े में थे-पिता ।
माँ झुक जाती
पिता ऊँचे उठ जाते
वह जितना झुकती
पिताजी उतना ऊँचा उठ जाते ।
तमाम असहमतियों के बाद
हम माँ के जितना करीब होते
पिता से उतना ही दूर ।
एक समय बाद तो
हम समझ ही बैठे
पिता ही घर के वह सदस्य है
जिनसे सदैव हम दूर ही दूर रहे
हालाँकि वे हमसे
कभी दूर नहीं गये।
दूर-दूर के इसी एहसास में
हमारे बेटे ने बना दिया-हमें
वही पिता
जैसे थे हमारे पिता ।
क्या बच्चा जब असहमत
होना सीखता है
उसकी पहली असहमती के सामने
पिता खड़ा होता है..?
यह बात हमने पिता होकर
और पत्नी ने मुसकुराकर जाना
माँ की तरह ।
कविता तारीख (05.10.2015)
टिप्पणी
1.
समय घड़ी में हम पुरजों की तरह चल रहे हैं। धीरे धीरे हम एक लीक पकड़ लेते हैं और उसे ही जीवन समझने लगते हैं। अक्सर यह भी भूल जाते हैं कि जीवन रथ के अन्य पहियों की क्या भूमिका है। यह कविता इन सभी पहलुओं को बहुत संवेदनशीलता से छूती है। अंत में एक कृतगयता का भाव कविता को अपने उद्देश्य तक ले जाता है जहां एक स्वीकार है उसकी दुनिया के सच का जो उम्र भर चुपचाप समांतर चलती रही।
2.
छोटी बहन एक बेहद मार्मिक रचना है। अपने संक्षिप्त रूप में एक विस्तृत फलक रचती हुई। इसमें शब्द एक ऐसा तानाबाना बुनते हैं कि आप अपने आप को उपेक्षित लडकियों की पीड़ा के द्वार पर पाते हैं। यह कविता भारत के अनेक परिवारों की सच्चाई को पूरी ईमानदारी से बयान करती है।
3.
अंतहीन प्रतीक्षा की उब और नैराश्य से उपजी है यह कविता।अच्छाई कायम रहे और नियन्ता की भूमिका में हो यही हम चाहते हैं पर आशा का किला हर बार टूट जाता है। पूरे समाज को संबोधित करते हुए कवि ने सरल शब्दों का प्रयोग किया है जो इसकी पहुंच को विस्तृत करता है।
4.
ईच्छाओं के वशीभूत होकर अपनी खुशी गंवाते समय के लिए एक अमूल्य सोच लिए इस कविता में कवि उपदेशक के बजाय एक दृष्टा की भूमिका में है जिसने इस कविता की ग्राह्यता में वृद्धि की है। नाम के स्थान पर काम की महत्ता को सहजता से प्रतिपादित किया गया है। एक बार फिर भाषा की सरलता काबिले तारीफ़ है।
5.
अंतिम कविता में घर का ताना बाना बुना गया है जहां झुक कर मां बच्चों के मन में एक जगह बनाती है। पिता की असहमति हमें तब समझ में आती है जब एक असहमत संतान के सामने हम खड़े होते हैं। पर क्या है जो पुरुष को पिता की असहमति और महिला को माँ की मौन समझ देता है, समाज का ताना बाना या कुछ और। यही मां को माँ बनाता है और यह कविता इसे बहुत खूबसूरती से बयान करती है।
विशेष रूप से पहली, दूसरी ओर पांचवीं कविता के लिए कवि को साधुवाद देना चाहता हूं। इन परिपक्व और सार्थक कविताओं के लिए शुक्रिया।
सादर।
कविताएँ श्री राजेश झरपुरे जी की हैं..
उन कविताओं पर टिप्पणी साथी परमेश्वर फुंकवाल जी ने की थी...
दोनों ही साथियो का आभार....
आप लोगों ने कविताओं पर बात की...और उन्हें अपने ढँग से खोलने की कोशिश की...
आप सभी का भी बहुत-बहुत शुक्रिया...
19.01.2015
आपका साथी
सत्यनारायण पटेल
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