30 अप्रैल, 2015

आज समूह के ही एक साथी कवि की कविताएँ चर्चा हेतु प्रस्तुत हैं।  आपकी सभी की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।

1
अच्छी लगती है उदासियाँ
पतझड़ सी तासीर है उदासी की
सूखे पत्तो की सरसराहट में भीगा मन
याद करता है वह खिलखिलाता समय
तब आ ही जाती है उदास होठो पर मुस्कराहट
जिस तरह छलक पड़ती है ख़ुशी में आँखे
उदासी में फिर से जी उठते हैं
उफनती नहीं है उदासी
वह बहती है मैदानी नदी की तरह
सींचती है जमीन को नई पौध के लिए
ठहरे हुए इस समय में तेज दौड़ता है मन
वो लम्हे समेटने को जो खुश कर सके उदासी को
इच्छाओं और अपेक्षाओं  से जनमती है उदासियाँ
ये समझाती है कि दरअसल अपेक्षाएं दूरियों का पर्याय है
झुर्रियों वाले हाथो में है इसका प्रमाण
पर रिश्तें नहीं टूटते हथेलियों के छूट  जाने पर भी
सुनसान पगडंडियों पर आहट की आस होती है उदासियाँ
अच्छी लगती है उदासी
सब अपना हो जाता है
आसमान धरती चाँद पेड़ पौधे
दरवाजे खिड़कियाँ पलंग तकियें
सब चुपचाप बतियाते है एक दूसरे से
उदासी भर जाती है ख़ामोशी के कोलाहल से
000

2
कोथमीर
अभी अभी तोड़ा है मैने
अपने आँगन के बगीचे से कोथमीर
जो उग आया था यूँ ही सूखे धनिये के कुछ दाने
गीली मिट्टी मे फैक देने पर
मिट्टी ने उस पीले सूखे दाने के बदले
दिया था यह खुशबूदार हरापन
जैसे माँ देती है स्नेह और दुलार
मेरे आँगन का कोथमीर
पहले विचार की तरह ताजा
उठते यौवन की तरह हरा
उनमुक्त हँसी की तरह खिला खिला
उसकी पतली डालियो पर
नरम मु लायम छोटी बडी पत्तियाँ
हाथो को इस तरह छूती है
जैसे नन्हे शिशु की कोमल उगलियाँ
थाम लेती है हमारी उँगलियाँ
घुल मिल जाते है दाल सब्जियो मे
एकाकार हो जाता है हरी मिच॔
नीबू नमक अदरक के साथ
कविता मे बिखरे शब्दो और भावो की तरह
रंगत खुशबू और  स्वाद बदल देता है
आता है जैसे नयापन कविता में।
000

3
लौट आओ
इससे पहले कि
ख़त्म हो जाये सांसे
किसी काली छाया से धुंधला होने लगे आँखों का उजाला
तुम लौट आओ
देखो  कितनी धूल जम गयी है पत्तियों पर
कितने मुसाफिर लौट गये इस राह से
पंछी आ गये है घोसलों में वापस
किसानो और गाय बैलों को भी सताने लगी है घर की याद
इससे पहले कि
राह का आखिरी कंकड़ मेरी आँखों में चुभे
तुम लौट आओ
तुम समय नहीं
समय से बंधे हो
और यह समय तुम्हारे लौटने का है
हो सकता है समय से लड़ कर अभी इतिहास बना दो
पर कहते है
इतिहास भी दोहराता है खुद को
इससे पहले कि
समय तुम्हे अपनी गिरफ्त में ले ले
तुम लौट आओ
गीली हो गई है जमीन
कतरे गलने लगे है
जड़े छोड़ने लगी है मिटटी
ध्वस्त हो जायेंगे कई घरोंदे
जो पत्ती पत्ती डाली डाली बसे है
इससे पहले कि
कोई शिला बिखर कर बहने लगे
तुम लौट आओ
000

4
नासूर
छंट ही जाती है धुंध ,पर गीली रह जाती है हवा
थमता हुआ तूफान , छोड़ जाता है बर्बादी के निशान
वक़्त भर ही देता है घावों को
नासूर फिर भी रह जाते है जो सालते है
जिंदगी भर...
000

5
एक मुलाकात
कही रह गया था गीलापन
और बीज भी
कि फूटने लगा है अंकुर
हरी होने लगी है पत्तियाँ
लौटने लगी है जाती हुई खुशबु
रंग भरने लगे है फूलों में
मन तितली हो गया
बरसो से जागी आँखे देखने लगी है
सपने फिर से
बदलने लगी है गंध डायरियों के पन्नों की
धुंधली लिखावट से
बाहर आने लगे है शब्द
फिर खिल उठा है
किताबों में रखा गुलाब
एक मुलाकात के बाद
000

6
इच्छाएं
मन के किसी कोने में
अचानक उठी इच्छाएं
फ़ैल जाती है जीवन के आकाश में
तारों की तरह
इच्छाएँ  मरती नहीं कभी
इनका घर सदा अमर
जल जंगल और जमीर पर भी
दरअसल इच्छाओं की छोटी छोटी
नदिया बहती रहती है हमारे भीतर
फिर भी एक प्यास तारी रहती है
जब इच्छाएं समुद्र हो जाती है
बनते है नए प्रतिमान
एक नई लय
एक ऐसा संगीत
जिसके आलाप का कोई अंत नहीं
वह बजता रहता है
मन के किसी निर्जन कोने में
उसका नाद डूबने नही देता
ले जाता है हमें अतृप्त संसार में
कितना अच्छा होता है यूँ
इच्छाओ का आवारा हो जाना
000
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अलकनंदा साने:-
कोथमीर शब्द कवि के किसी क्षेत्र विशेष के होने को दर्शाता है जिसे कोई और हरा धनिया लिखता । इस शब्द के अलावा उस कविता में कुछ भी आकर्षित नहीं करता । बाकी कविताएं अच्छी हैं, पढने लायक हैं, पर याद में शायद ही रहे ।
अरुण आदित्य :-
कोथमीर, लौट आओ, एक मुलाकात और इच्छाएं अच्छी लगीं।
जल, जंगल और जमीर का  मुहावरा नया है।
स्मृति, संवेदना और सहज शिल्प से रची ये कविताएं उमस भरी गरमी में हाथ-पंखे की हवा जितना सुकून देती हैं, बस।


  
Swarangi Sane: 
 अंजू दी क्षमा करें पर लगता है ये किसी ऐसे कवि की कविताये है जिसने खूब पढ़ा है। और पढ़ते पढ़ते उसे लगने लगा अरे मैं भी लिख सकता हूँ। स्मृति के दालानों से शब्द चुने और रच दिया। मैं गाना सुनती हूँ तो लगता है मैं भी गा सकती हूँ। गा भी देती हूँ। दुसरे कहते है pl मत गा। तब भी मेरे हिसाब से तो वो अच्छा ही गाया गया होता है। ये कुछ कुछ ऐसा ही लगा।

अंजू शर्मा :-
दोस्तों कल साझा की गईं कविताएँ समूह की साथी कवि दीक्षा दुबे जी की थीं।  आप लोगों की प्रतिक्रियाओं के लिए शुक्रिया।  उम्मीद है दीक्षा भी अपनी बात रखना चाहेंगी। दीक्षा अपनी इन कविताओं की लेकर थोड़ा संकोच में थीं। पर मैं अपनी बात कहूँ तो मुझे कविताएँ अच्छी लगी। कोथमीर एक नया शब्द मिला और कविता में इसका प्रयोग बढ़िया लगा।  तुम लौट आओ कविता में ताज़गी है और एक मुलाकात कविता भी पसंद आई। दीक्षा जी को शुभकामनायें।
अलकनंदा साने:-
आत्ममुग्धता के वातावरण में ऐसे संकोची लोग भी हैं , यह जानकर अच्छा लगा ।
यदि ये कविताएं नई नवेली थी तो काफी अच्छी थी ।
आप दोनों को बधाई

29 अप्रैल, 2015

मजदूर दिवस पर

1 मई को मजदूर दिवस है।  हम सब इस दिवस की सच्चाई जानते हैं।  "दुनिया भर के मजदूरों एक हो जाओ" इस आव्हान को करीब-करीब एक शताब्दी हो गई। इस नारे का मतितार्थ नकली मजदूर संगठनों  में कहीं खो गया।  श्रमिकों के प्रति सर्व व्याप्त दृष्टिकोण को दर्शाते  एक मराठी आलेख का अंश यहाँ प्रस्तुत है।
सैंकड़ो रेल्वे यात्री स्टेशन के बाहर  समूहों में फैले हुए दिखाई दे रहे थे . पुलिस की गश्त जारी थी.अंदर उससे भी ज्यादा  अफरा-तफरी मची हुई थी . संपन्न मध्यमवर्गीय यात्री अपनी बोगी के निर्धारित स्थान पर इंतजार में खड़े थे.दूसरी ओर, चेहरे से ही गरीब दिख रहे, बिखरे बाल और मैले-कुचैले कपड़े पहने कुछ  युवक प्लेटफॉर्म पर बैठे हुए थे,कुछ आपस में बतिया रहे थे,कुछ बैठे-बैठे झपकी ले रहे थे,कोई पेपर फैलाकर सो गया था, किसी ने अपनी गठरी पर ही सिर टिका दिया था. कुछ अकेले बैठे दूर अनंत की ओर ताक रहे थे. सब चेहरे अलग-अलग, लेकिन सारे चेहरों पर एक ही तरह की भाव शून्यता और असहायता  फैली हुई थी.लाऊड स्पीकर पर हो रही घोषणाओं की ओर  सबका ध्यान बराबरी से था.
अचानक कहीं से चार सिपाही  प्रगट हुए और उन  लोगों को अपने डंडे से कोंच-कोंचकर ''झेलम-झेलम'' चिल्लाने लगे.वे  युवक हड़बड़ाकर उठे और  देखते ही देखते एक कतार में बदल गए.कतार के दोनों सिरों पर एक-एक और बीच में दो सिपाही  खड़े हो गए. पहले तो मेरी यह समझ में ही नहीं आया कि मारपीट किसलिए चल रही है.जब कारण पता चला  तो ये समझ  नहीं आया कि  कतार लगवाने के लिए डंडे की क्या जरुरत है ?ये यात्री क्या जुबानी भाषा नहीं समझते? या डंडे की मार से ही इन्हें हांकना जरुरी है ? या ये मनुष्य की श्रेणी में नहीं आते हैं ?
वे  मासूम बच्चों की तरह कतार में खड़े  थे . अभी-अभी उनकी  पीठ पर,सिर पर,हाथों पर,घुटनों पर डंडे बरसे थे और उनके चेहरों पर घबराहट साफ़ तौर पर देखी जा सकती थी.  पिटाई के दौरान वे जहाँ बैठे थे वहां  एक युवक की पीठ पर जोर से डंडा पड़ा था. उसकी थैली समीप की चाय की दुकान पर छूट गई थी ,पर अब वह सब भूलकर कतार तोड़कर बाहर निकला और चाय की दुकान की ओर चल पड़ा.एक सिपाही ने उसे देख लिया . वह उसके पीछे दौड़ता हुआ गया और फिर पीटने लगा.युवक  जमीन पर गिर पड़ा. वह नीचे और ऊपर से डंडे की मार.
''मत मारो साब !'' वह चिल्ला रहा था. चिल्लाते-चिल्लाते उसने थैली की ओर इशारा किया, तभी 'साब' को दया आ गई और उसे लगा कि वह छूट गया.पर छूटना इतना आसान कहाँ होता है ? वह थैली लेकर आया और कतार में जहाँ  पहले  खड़ा था , वही जाकर खड़ा हो गया.सिपाही की नजर फिर उस पर  पड़ गई . उसको गर्दन से पकड़कर बाहर घसीटा और पीटते-पीटते कतार के आखिर में खड़ा कर दिया . वह जब बीच में अपनी पहलेवाली जगह पर  घुसा था , तो उसके पीछे खड़े सह यात्रियों को कोई उज्र नहीं था, पर कानून के रखवाले अनुशासन के पक्के थे.
हाथ में अंग्रेजी अख़बार लिए बड़ी देर से  यह तमाशा देख रहे एक व्यक्ति से मैंने पूछा -''पुलिस इन्हें क्यों मार रही है ?''
''लकड़ी के बिना मकड़ी हिलती नहीं है भाई'' उसने अपना ज्ञान बघारा
'मतलब?''
''पता नहीं कहाँ-कहाँ से चले आते हैं ? इनसे छुटकारा नहीं.जहाँ देखो ''ये'' दिखाई देते हैं. रास्कल'' उसने बुरा-सा मुंह बनाया और पच् से वहीँ थूक दिया. मानो गंदगी उसके मुंह में भर गई थी.
मैं कुछ बोलने ही वाला था कि दूर से गाडी आती दिखाई दी. कतार में खड़ा एक यात्री बेचैनी से थोड़ा हिला तो उसे मुस्तैदी से डंडे का प्रसाद तुरंत दिया गया .उसके साथ दो-तीन और चपेट में आ गए.गाडी आकर रुकी. बोगी के दरवाजे बंद थे.कतार की बेचैनी चरम पर थी.बेचैनी का कारण भी साफ़ था. बोगी मात्र  एक और चढ़नेवाले तीन सौ/साढ़े तीन सौ यात्री . आखिर में बोगी के दरवाजे खुले. कतार को अंदर जाने की अनुमति मिली.  जिस तरह मासूम चेहरेवाले स्कूली बच्चे  प्रार्थना के बाद कक्षा में जाते हैं, वैसे वे एक-एक कर चढ़ने लगे. अंदर बैठने के लिए जगह भले न मिले,पर डंडा राज से मुक्ति  का भाव उनके चेहरों पर था . चार सिपाहियों ने  तीन सौ/साढ़े तीन सौ लोगों पर डंडे के बल पर किए शासन के कुछ अंतिम पल बाकी थे .गाड़ी की सीटी सुनाई दी और दम  घोंटू बोगी में एक दूसरे पर लदे-फदे वे मजदूर अपनी सूनी आँखों में, घर पर इंतज़ार कर रहे बीबी-बच्चों,माता-पिता और तमाम रिश्तेदारों के चेहरे समेटे , चल पड़े दो-ढाई दिन की यात्रा पर,
(मराठी मासिक पत्रिका''महा अनुभव'' में प्रकाशित संपत मोरे के आलेख ''मजूर एक्सप्रेस'' का एक अंश -- साभार) 

अनुवाद ---- अलकनंदा साने
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टिप्पणियाँ:-
बी एस कानूनगो:-
हमारे समाज के दुर्भाग्यपूर्ण वर्ग विभाजन पर एक  निरिक्षण और अच्छी टिप्पणी और सुन्दर अनुवाद।

नंदकिशोर बर्वे :-
ताई अपनी कल ही अनुवाद की निपुणता और उसकी पूर्णता पर बात हो रही थी, आप जो इतना अद्भुतऔर सजीव अनुवाद कर पाती हैं उसका एक मात्र कारण यह है कि आपने मराठी को आई और हिन्दी को मावशी जैसे श्रद्धा भाव से ग्रहण किया हुआ है। ' आखों देखा हाल ' जैसे सजीव अनुवाद। बधाइयाँ।

अलकनंदा साने:-
धन्यवाद , कानूनगो जी और बर्वे जी,आप जैसे लोगों की टिप्पणी उत्साहित करती है.... 
मेरे जैसे हिंदी प्रदेश में पले-बढे के लिए ये करीब करीब उल्टा है ....हिंदी माँ और मराठी मौसी है

सुरेन्द्र कुमार :-
ये तो सही है कि देश मेँ क़ानून नहीँ डंडे का राज है आम लोग क़ानून नही पुलिस से डरते है और खास लोग समझते है अदालत में देख लेंगे आइए मिलकर क़ानून का राज स्थापित करने की अपनी अपनी और से भरसक कोशिश करे

प्रज्ञा :-
कोंचकोंचकर ठेले जा रहे और डंडों के दम पर बनाई जा रही कतार का दृश्य एकदम आँखों के आगे आ गया। श्रमिकों के पक्ष से मजूर एक्सप्रेस एक बेहतर टिप्पणी है और एक बेहद अच्छा अनुवाद। मूल की तरह तरल गतिशील।

चंद्र शेखर बिरथरे :-
आजादी के सढसठ साल बाद आज भी आम आदमी  , मजदूर वहीं खडा है जहाँ वह खडा था । सर्वहारा वर्ग के संगठित होने के बावजूद इसी वर्ग के तथा कथित ठेकेदारों ने ही लुटा । सरकारों ने , पूंजी पतीयों ने , राजनैतिक पार्टीयों ने विकास के नाम पर छला । शिक्षा के नाम पर भी धोखा मिला । राजा , महाराजा गये तो नेता राजा , महाराजा बन बैठै । वोट बैंक की राजनीति ने रही सही कसर पूरी कर दी । प्रशासन आज भी जनता जनार्दन को गुलाम समझता है ।  आज भी भारतीय पुलिस किसी तानाशाह से कम नहीं है ।

फरहात अली खान :-
संपत जी का ये आलेख वाक़ई आँखों देखा हाल मालूम होता है। अलकनंदा मैम ने बहुत ख़ूबी के साथ इसका अनुवाद किया है। वाक्य "लकड़ी के बिना मकड़ी हिलती नहीं है भाई।" क्या मूल मराठी आलेख में भी इसी तरह शायराना अंदाज़ में लिखा गया होगा?
ये बुद्धिजीवी वर्ग के लिए चिंता और कड़वी बात कहूँ तो डूब मरने का विषय है कि आज भी हमारे समाज में 'ग़रीबी' और 'मज़दूरी' एक दूसरे के पर्यायवाची शब्द बने हुए हैं। आदमी की पहचान उसके पहनावे और शक्ल-ओ-सूरत से की जाती है; हमारा भौंहें सिकोड़ना और फैलाना सामने वाले शख़्स के हुलिये पर निर्भर करता है।
क्या ग़रीब केवल दया का पात्र ही है? क्या उसे हमारे बराबर हक़ नहीं मिलने चाहिए? क्या भीड़भाड़ वाली ट्रेन में चढ़ते वक़्त हमारी सोच भी उसी आदमी की तरह नहीं हो जाती है जो आलेख में उन्हें 'रास्कल्स' बता रहा है?
आज का आलेख पढ़कर ये सवाल मेरे मन में उठे।
मुझे लगता है कि सबसे पहले मुझे ख़ुद सभी के लिए एक सा नज़रिया रखने की ज़रुरत है।

27 अप्रैल, 2015

अर्चना चावजी की कविता

साथियों आज रविवार  है, अत: व्यवस्था के अनुसार समूह के सदस्य  की किसी कविताओं  पर विचार करेंगे , जिन पर सभी सदस्य कृपया अपना अभिमत दें .
एक निवेदन कि कविताओं पर अपनी टिप्पणी अवश्य दें लेकिन उम्दा,बेहतरीन,सुन्दर , खूबसूरत आदि से थोड़ा ऊपर उठकर , ताकि रचनाकार को अगली रचना में उसका लाभ मिल सकें . अर्थात यदि वह रचना आपको अच्छी लगी तो क्यों लगी , उसका कौनसा पक्ष अच्छा लगा और नहीं लगी तो क्यों नहीं लगी , उसका कौनसा पक्ष अच्छा नहीं लगा . साथ-साथ आप उस रचनाकार (कवि/कथा लेखक) को अपने सुझाव भी दे सकते है कि उस रचना में और क्या किया जा सकता है , लेकिन ध्यान रहें टिप्पणी कैसी भी हो उसका हेतु सकारात्मक होना चाहिए .

एक निवेदन और कि कोई भी बीच में अन्य कुछ भी पोस्ट न करें .

१)
सुबह-सुबह गिरती है जब ओस 
भीग जाता है मन 
देखकर अलसाते फूल 
उनींदी आँखों से दिखाता है सूरज 
एक सपनीला नज़ारा 
धुंध में छिपा लगता है 
प्रकृति का कण-कण प्यारा 
सिहरन देती चलती है 
मॉर्निंग वॉक करती ठंडी हवा 
उम्र कई साल पीछे जा 
हो जाती है नटखट- जवां 
अलाव से उठता धुंआ 
रगड़ती हथेलियां 
गर्माता खून 
और दुबके परिंदे देख 
मन भरता है उड़ान 
और लांघता है लम्बा पुल
यादों का 
पार होते ही गलियारा 
दूसरी ओर दिखता है 
फिर एक पुराना 
सपनीला नजारा 
फिर गिरती है ओस 
इस बार कोर से 
उनींदी आँखों की 
भीग जाता है मन 
सुबह-सुबह ..

000

सूरज गया है छुट्टी पर
या जबरन भेज दिया गया लगता है
बादलों ने जमा लिया है कब्ज़ा 
पूरे आसमान पर 
शायद धरती की हरियाली से
इश्क हो गया है
धरती की खुशी 
किसमें है? किसको फिक्र?..
0000


३)
"सुनहरा वक्त"
वो भी क्या दिन थे 
हम हाथों में हाथ लिए 
साथ बतियाते थे 
रूठकर एक दूसरे से ही 
एक दूसरे को ही मनाते थे 
मैं तुम्हारी और तुम मेरी 
उलझन सुलझाते थे 
अब हरदम 
यादों में डूबी रहती हूँ 
जिन्दगी का दिया हर गम 
खुशी-खुशी सहती हूँ 
ईश्वर से एक ही आस है फ़क्त 
कभी तो पिघलेगा 
और
लौटाएगा सुनहरा वक्त....
0000


४)
बहुत करीने से 
सजाने होते हैं आँसू 
आँखों की पोरों पर 
पलकों की कैद में भी
रूकते नहीं ये बेशरम
करते हैं-अपने मन की
इतना भी नहीं जानते 
बह जायेगी साथ इनके 
यादें मेरे साजन की
0000


५)
ये सच है कि मन भटकता है
मन के पीछे मैं भी
स्थिर तो सिर्फ तुम हो...
तुम्हे खोज लेने की चाह
बेचैनी बढ़ा देती है मेरी
न जाने कहाँ गुम हो...
छटपटाहट का क्या कहूँ
जैसे दूर आसमान में
कटी पतंग की दुम हो..
0000
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बी एस कानूनगो:-
कविताएं अच्छी हैं।केवल एक बात कहना चाहता हूँ। संवेदनाओं को व्यक्त करने लिए शब्दों का इस्तेमाल कम हो बल्कि शब्दों के माध्यम से कविता में संवेदनाएं खुद ब खुद बाहर निकलें तो क्या कहने।कुछ ऐसा ही अपेक्षित है आज की कविताओं से।

प्रज्ञा :-
कविताओं के भाव अच्छे हैं । पर अचानक से ये अंत पर पहुंच गयी लगती हैं। शिल्प के धरातल पर लगा कि कविता शब्द से शुरू होकर वाक्य पर पहुंच रहीं हैं ।

फरहात अली खान :-
बेहद सलीक़े के साथ बहुत उम्दा कविताएँ लिखी गयी हैं। पहली कविता सबसे ज़्यादा प्रभावित करती है। कल्पनाओं की उड़ान कहाँ तक जा सकती है ये यहाँ नज़र आता है। कवित्री ने सर्द मौसम में दुबके परिन्दे तक देख लिए और उनका भी ज़िक्र किया है यहाँ; ये कोई बारीक-नज़र रखने वाला शख़्स ही कर सकता है।
तीसरी कविता में जब हम सबके अकेले पालनहार का ज़िक्र आया ही है तो मैं भी कुछ कहना चाहूँगा, वो यह कि वह तो रहीम और करीम है; किसी के दिल में अगर कोई करुणा या ममता है तो वो उसी रब की दी हुई है; इसलिए 'पिघलने' वाला कॉन्सेप्ट किसी इंसान पर तो लागू हो सकता है लेकिन ख़ुदा पर नहीं। इसलिए यहाँ तीसरी कविता में 'पिघलने' वाली बात न कहकर अपनी इच्छापूर्ति के लिए 'दुआ' की जाती तब ठीक रहता।
इसके अलावा 'फ़क्त'(faqt) की जगह 'फ़क़त'(faqat) होना चाहिए था।
इन बातों को छोड़ दिया जाए तो सभी कविताएँ फ़िक्र-ओ-फ़न(भाव और कला) के पैमाने पर खरी उतरती हैं।

सुरेन्द्र सिंह पूनिया:-
पहली कविता में बिखराव बहुत है। प्रतीकों में कहीं कोई साम्य या संगठन दिखाई नहीं देता। कोई सम्यक भाव देने में  यह कविता असमर्थ है।
शब्दों का कोई ठीक 'बंदोबस्त' नहीं। 'नजारा' शब्द तो महज घसीट कर लाया हुआ लगता है। यह शब्द अपनी रचना ही से कविता के भाव को बुरी तरह प्रभावित करता है।
बहरहाल इसे कविता कहने में ही बाधा है।

सुरेन्द्र सिंह पूनिया:-
दूसरी कविता में कवि कहना क्या चाहता है, यही समझ में नहीं आया।
मुझे तो डर है कि इसे बचपन में लिखा हुआ न कह दिया जाए!

सुरेन्द्र सिंह पूनिया:-
"रूठकर.......ही मनाते थे" में "ही" निपात का प्रयोग मूर्खतापूर्ण है।
'फकत' शब्द हास्यास्पद ढंग से रखा गया है।
किसी अनाडी बच्चे की सी लिखी जान पडती कविता। 
इसे कविता ही क्यों कहा जाए??

सुरेन्द्र सिंह पूनिया:-: 4 'साजन' 'बेशरम' ऐसे शब्द इस तरह प्रयोग में लाए गए हैं जैसे अभी अभी 'समीर' के गाने सुनकर कुछ लिखने का मन हुआ और लिखकर छुट्टी की।

सुरेन्द्र सिंह पूनिया:-
अंतिम रचना ऊपर की कविताओं ? के 'स्तर' से कुछ ठीक कही जा सकती है।
'दुम' शब्द पर हंसी छूटे तो कोई क्या कर।

सुवर्णा :-
कविताएँ अच्छी हैं। पर कानूनगो जी की बात से पूर्णतः सहमत हूँ। कम शब्दों में प्रभाव कविता को कविता बनाता है साथ ही प्रतीकों का सहज इस्तेमाल। इन बातों को अपनाकर शायद और बेहतर सा कुछ किया जा सकता है। धरती की ख़ुशी.... अच्छी लगी। इसे प्रतीक लेकर आगे रचा जा सकता है। साधुवाद।

निधि जैन :-
मॉर्निंग वाक
फ़क्त
दुम

मतलब तुकमिलानी के लिए कुछ भी
सोऽहं जी की समीक्षा से शत प्रतिशत सहमत

सुरेन्द्र सिंह पूनिया:-
आजकल की समीक्षा में कार्यालयी भाषा के पारिभाषिक शब्दों का बहुतायत प्रयोग होने लगा है, किसी रचना के भाव को शिथिल और शुष्क ढंग से प्रस्तुत करता है कि पाठक किसी रचना के भाव को समझने के लिए इनसे भी किनारा करने लगा है।
मुझे लगता है यह आधुनिक मनोविज्ञान के अनुकरण पर किया जा रहा है।
अब काव्य कला को भी विज्ञान के दायरे में घसीट कर लाया जाने लगे तो उसे युगधर्मिता कहकर ही मन को समझाना पडेगा।

बी एस कानूनगो:-
कविता 4 में कहा गया की -बहुत करीने से सजाना होते हैं आंसू! बहुत बचकानी बात है।कौन करीने से सजाने के लिए आंसू बहाता है।केवल शब्दों को रख देना कविता नहीं होता।इसे शायद कवी को खुद ही नष्ट कर देना चाहिए। कविता 5 में आखिर पंक्ति आसमान में लहराती कटी हुई पतंग की बेसहारा डोर हूँ ... अधिक उपयुक्त हो सकता है।
कविता 2 में थोड़ा ठीक ठाक बिम्ब बनता है लेकिन कुछ शब्दों को बदला जा सकता है जैसे इश्क की जगह प्रेम ।फ़िक्र की जगह चिंता।कवि अपने शब्द सामर्थ्य को बढ़ाने का उपक्रम कर सकते है।पहले लिख लें।फिर धैर्य से सम्पादन करें।चाहें तो किसी परर्यायवाची समान्तर कोश की मदद लें।कविताओं को निखारें।

नंदकिशोर बर्वे :-
तीसरी कविता सूरज गया है ----भाव और कहन के पैमाने पर परिपूर्ण रचना है। शेष में ये दोनों ढूंढना पड़ते हैं।

अलकनंदा साने:-
साथियों आज किसी कारणवश थोडा जल्दी रचनाकार का नाम घोषित कर रही हूं । इसके बाद भी यदि कोई अपनी प्रतिक्रिया देना चाहे तो दे सकते हैं ।

हम लोग जिनकी मधुर आवाज में कई बार दूसरों की रचनाएं सुन चुके हैं वे अर्चना चावजी आज की कवयित्री हैं । एक विशेष बात मैं उनके बारे में कहना चाहूंगी कि वे स्वयं कभी भी अपनी कविताओं को साझा करने के लिए बहुत उत्सुक नहीं थी। बार बार कहती रही मुझे लिखना नहीं आता। लेकिन मैंने उनसे आग्रह किया कि जब तक आप अपनी कविताएं सबके सामने नहीं रखेंगी उनकी कमी बेशी पता नहीं चलेगी ।
मुझे लगता है कि आज की प्रतिक्रियाओं से उन्हें निश्चित ही लाभ मिलेगा ।
अब वे अपना वक्तव्य यहां रखेंगी ।

प्रज्ञा :-
आपने ठीक आग्रह किया ताई। अर्चना जी मैं पहले ही लिख चुकी हूँ भाव बहुत अच्छे लगे कविताओं के। और इस रचनात्मक मंच पर आपकी आने वाली रचनाओं का इंतज़ार रहेगा। शुभकामनाएं।

चंद्र शेखर बिरथरे :-
बिना शीर्षक की ये कविताऐं प्रभावित तो करती है मगर गहरी अनुभूति से सारोबार नहीं करती हैं । अभी और तपने की आवश्यकता है । कहन में , कथन में तारतम्यता का अभाव खटकता है । बिम्ब , उपमाएं भी भ्रमित करतीं हैं । शुभकामनाएं ।

कविता क्या कर सकती है... उदय प्रकाश

शनिवार, 25 अप्रैल। बिजूका-2 पर आज विचार विमर्श का दिन है।कविता की संगत, उसकी ताकत और कवि की नियति पर कवि-कथाकार उदय प्रकाश की एक टिप्पणी।
कविता क्या कर सकती है... 

उदय प्रकाश 
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कविताएं बचपन से ही मेरे सबसे निकट रही हैं। वे मेरे अस्तित्व के एकांत, निस्संग सन्निकटता और नीरवता की सबसे भरोसेमंद और अटूट साथी रही हैं। कई बार जब यह गहरा संदेह पैदा होता है कि इस समय और स्थान में, जहां चारों ओर अनगिन सत्ताओं का सर्वव्यापी साम्राज्य है, क्या सचमुच मेरी भी कहीं कोई मौलिक सत्ता और कहीं कोई प्रामाणिक अस्तित्व  है, क्या मैं भी कहीं ‘उपस्थित’ हूं, तो कविता ही उसका, कमज़ोर ही सही, पर सबसे पहला और शायद 
अंतिम प्रमाण होती है। 
जब सारी सत्ताएं साथ छोड़ जाती हैं, या उनके फैसलों का शोर चारों ओर गूंज रहा होता है, तो वह कविता ही है, जहां अपनी आवाज़  साफ सुनाई देती है। कविता कभी भी, पराजय, विध्वंस, आत्महीनता और गहरे दुखों के पल में भी हाथ और साथ नहीं छोड़ती। वह एक ऐसे 
निरापद दिक-काल का निर्माण करती है, जहां पूंजी से लेकर राजनीति, धर्म, नस्ल, जाति, 
मास-मीडिया और तकनीक की तमाम संगठित सत्ताओं की हिंसा और अन्याय के विरुद्ध किसी 
वंचना या विराग में डूबा एक गरीब या फकीर अपना कोई सबसे मानवीय, नैतिक और पवित्र 
फैसला सुनाता है। दिक और काल, समय और यथार्थ, निजता और समूह, व्यक्ति और सत्ता-प्रणालियों के बारे में कोई धीमा, मंद, निजी निर्णय। एक ऐसा अस्फुट एकालाप, जो बहुत करीब से, ध्यान लगाकर ही सुना जा सकता है। 


कविता समूची प्रकृति और मनुष्यता के उत्पीड़न और विनाश में लगी सबसे बलशाली ताकतों के 'पाप’ (नैतिक) और ‘अपराध’ (सामाजिक-संवैधानिक) के खिलाफ़ हमेशा  कोई न कोई ‘फतवा’ जारी करती रहती है और अपने जीवन को बार-बार दांव पर लगाती है। वह हर बार कोई न कोई जोखिम या खतरा मोल लेती है और हर बार किसी संयोग या चमत्कार से बच निकलने पर अपना पुनर्जीवन हासिल करती है और एक बार फिर सांस लेना शुरू करती है। फिर से किसी नये जोखिम भरे दायित्व का बोझ उठाने के लिए। 


मुझे याद है, जब मैं बहुत छोटा था और मां कैंसर में मर रहीं थीं। डाक्टरों ने जवाब दे दिया 
था और उन्हें मुंबई के टाटा मेमोरियल अस्पताल से गांव के घर में वापस ले आया गया था। पिता जी के पास सारे पैसे और जेवर खत्म हो चुके थे। अब कोई भौतिक और बाहरी मदद मां के लिए निरर्थ हो चुकी थी। वे सिर्फ अनार का रस पी रहीं थीं। तब भी वह कविता ही थी और चित्र, जिनके जरिये मैं अपनी मां को बचाने के लिए कैंसर से पूरे भरोसे के साथ लड़ रहा था। 
मां की मृत्यु के वर्षों बाद तक उस कमरे की दीवारों पर, जिसमें मां अपने जीवन में रहतीं थीं, 
मेरी बनाई अनगिनती आकृतियां थीं और उतने ही शब्द, जो उस समय मेरी समझ में अबूझ शक्तियों से भरे थे और वे मृत्यु को कहीं दूर रोक कर, मां को मेरे लिए बचा सकते थे। ऐसा लेकिन नहीं हुआ। शब्द और दीवारों या कागज़ों पर, किसी अकेले निर्बल कलाकार या कवि द्वारा उकेरे गये अक्षर या आकार अक्सर प्रत्यक्ष और प्रबल भौतिक शक्तियों के हाथों पराजित 
होते हैं, मिटा दिये जाते हैं। लेकिन जिसके पास कोई और बल न हो, दूसरा कोई विकल्प ही न 
हो, तो बार-बार अपने इन्हीं उपकरणों की ओर लौटने के, कोई दूसरा चारा भी तो नहीं होता। 


तमाम सारी बाहरी ताकतें जब भाषा पर आक्रमण करती हैं और स्मृतियों का विनाश करने के 
अपने राजकर्म या वणिककर्म में संलग्न हो जाती हैं, तो कविता मनुष्य या किसी व्यक्ति की 
स्मृतियों को बचाने के प्राणपन संघर्ष में मुब्तिला होती है। विस्मरण के विरुद्ध एक पवित्र और ज़रूरी संग्राम की शुरुआत सबसे पहले कविता ही करती है, अगर वह अपने किसी अन्य हितसाधन 
में नहीं उलझ गयी है, और सबसे अंत तक वही उस मोर्चे पर रहती है। सबसे पहले और सबसे अंत में 
यह मोर्चा भाषा का ही होता है। कविता की एक ऐसी निजी कवि-भाषा, जो जीवन के अनुभवों से अपना अर्थ प्राप्त करती है, प्रचलन, प्रयोग और मुहावरों से नहीं। कविता भाषा के चालू प्रत्ययों, मुहावरों और वागाडंबरों (रेटरिक या डेमागागी) को नष्ट करती है। उन्हें प्रश्नांकित करती है। .....और जो कविता जितना अधिक यह काम करती है, वह अपने विरुद्ध 
उतना ही विस्मरण का विरोध एकत्र करती है।एक तरफ वह स्मृति की रक्षा करती है, दूसरी 
ओर वह भाषा में शब्दों के अर्थ की भी रक्षा और उनका पुनरुद्धार करती है। वह शब्दों में नये 
अर्थों को आविष्कृत भी करती है। वह शब्दों को उनकी विनषट स्मृतियों के साथ बचाते हुए उन्हें 
किसी शरणार्थी शिविर तक पहुंचाती है। उनके घावों पर मलहम लगाती है और पट्टियां बांधती है। हमारे समय में, भाषा का अलग-अलग गैर-मानवीय या मनुष्य-विरोधी परियोजनाओं में जैसा ‘इस्तेमाल’ किया गया है, उसके संदर्भ में मुझे पोलिश भाषा के अपने प्रिय कवि ताद्युश रोज़ेविच की कविता 'शब्द’ की याद आ रही है -‘‘बचपन में शब्द मलहम की तरह घावों पर लगाये जा सकते थे/ हम दे सकते थे उसे/ जिसे हम प्यार करते थे/’’ 


हर सच्चे कवि को संसार की बाहरी सत्ताएं भाषा और अपने समाज से हमेशा बेदखल करती हैं। 
वह विस्थापन और उत्पीड़न की यातना उसी तरह भोगता है जैसे कोई आदिवासी या संस्कृति और 
समाज का सबसे निचला वर्ग और वर्ण।  वह कविता या रचना ही है, जो उसे करुणा और सहानुभूति से भरे, एक पवित्र और अपेक्षाकृत सुरक्षित शरण्य में आश्रय देती है। ......और वह थोड़ी-सी गरिमा जो हर मनुष्य और हर तरह की कला के लिए अभीष्ट है। 


कहीं पढ़ा था कि कविता किसी अनजान देश के किसी छोटे-से स्टेशन के निर्जन प्लेटफार्म में देर 
रात खड़ी किसी रेलगाड़ी की तरह होती है। बिल्कुल खामोश। अपनी अगली यात्रा को फिलहाल कुछ समय तक स्थगित करती हुई। बीच-बीच में, कभी-कभी इंजन से निकलती भाप से ही पता चलता है कि सांस अभी कायम है। .....और अहभी आगे कुछ स्टेशन और हैं, जहां तक यात्रा जारी है।
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कुमार अनुपम:-
"दोस्त, यही तो वह चीज़ है, जिसके कारण तुम अजीब और किसी हद तक क्रूर दिखाई देते हो, इसलिए मैंने हटा दिया।" रघुनंदन जी मेरे प्रिय कथाकार (रहे ) हैं, यह कहने के साथ मैं अपनी बात कहने की अनुमति चाहता हूँ। जो अंश मैंने संदर्भित किया है, उसमें किसी व्यक्ति (किसी जाति विशेष की खास पहचान से इसे न जोड़ा जाय तो भी) की क्रूरता का बायस दाढ़ी कैसे माना जा सकता है? जिसे हटा देने मात्र से दोस्ती का व्यक्ति-चित्र यथेष्ट बना देने की कथाकार संकल्पना प्रस्तावित करता है। यह मेरे लिए अबूझ है। और दूसरा भी दाढ़ीविहीन छवि को ही अपने मित्र का उचित रूप (चित्र) मानने की प्रस्तावना करता है। यह विचार किस समन्वयवादी आत्मीय मित्रता की छवि उपस्थित करता है? क्या दाढ़ी हटा देने मात्र से अलगाववादी सोच की प्रवृत्ति का तुष्टिकरण करने की सरल कोशिश इस कठिन समस्या के प्रति कथाकार द्वारा अख्तियार किया गया अगंभीर रवैया नहीं है? मैं अब भी इस बारे में सोच रहा हूँ। कृपया सही राय बनाने में मेरी मदद करें!


अंजू शर्मा :-
अनुपम इतनी रात को मदद मुझे लगता है यहां निहितार्थ इतने गूढ़ नहीं जितनी व्याख्या की गई है। यह व्यक्तिगत पसंद का मसला है। दाढ़ी भला क्रूरता का मापदण्ड कैसे हो सकती है। इसे किसी खास प्रतीक से जोड़ना कुछ जंचा नहीं।  ये निजी पसन्द से जुड़ा हो तो बात समझ आती है। मने हम औरों को अपनी पसन्द के अनुसार ढला हुआ देखना चाहते है पर स्वयं में कोई बदलाव हमे स्वीकार्य नहीं। जबकि ऐसा ही सामने वाले पर भी लागू हो तो यकीनन ऐसे रिश्ते दूर तक नहीं चलते।

कुमार अनुपम:-
अंजू जी : और अगर 'यह' प्रतीक वास्तव में हमारे समय में एक त्रासद अलगाव का कारण हो, जो कि दुर्भाग्य से बना दिया गया है तो...

कुमार अनुपम:-
निजी पसंदगी का निहितार्थ मैं व्यक्ति तक संकुचित अर्थों में नहीं देख पा रहा हूँ और रघुनन्दन जी जैसे बड़े लेखक के सोच को भी इतने छोटे फलक पर देखने की हिमाकत भी कैसे कर सकता हूँ जबकि कथाकार एक "क्ल्यू" उपलब्ध करवा रहा हो।

कलावंती की कवितायेँ

1।।पगड़ी ।।
वह संभालती रही
कभी पिता की पगड़ी
कभी भाई की पगड़ी
कभी पति की पगड़ी
उसने कभी सोचा ही नहीं कि
हो सकती है
उसकी अपनी भी कोई पगड़ी
एक दिन पगड़ी से थककर,
ऊबकर उसने पगड़ी उतारकर देखा
पर इस बार तो गज़ब हुआ
थोड़ा सुस्ताने को पगड़ी जो उतारी
तो देखा पगड़ी कायम थी।
बस माथा गायब था।

2 ।।डर ।।
वह डरती है
जाने क्यों डरती है
किससे किससे डरती है
वह रात से क्या
दिन से भी डरती है
एक पल जीती है एक पल मरती है।
पहले पिता से, भाई से तब पति से ....
आजकल वह
अपने जाये से भी डरती है।
                
 3 ।।मन ।।
एक नाजुक सा मन था
अठखेलियों सा तन था
पूजा सा मन था
देह आचमन था
            वो एक लड़की थी
           भीड़ मेँ चुप रहती थी
           अकेले मेँ खिलखिलाती थी
उजालों से अंधेरे की तरफ आती जाती थी
वो एक औरत थी
कभी बड़बड़ाती थी
प्यार मेँ थी कि नफरत मेँ
बेहोश थी कि होश मेँ थी
बात बात पर हँसती जाती थी
बात बात पर रोती जाती थी
उजालों से अँधेरों की
तरफ आती जाती थी। 
एक नाजुक सा मन था
अठखेलियों सा तन था
पूजा सा मन था
देह आचमन था
उसे जो कहना था
स्थगित करती जाती है
अगली बार के  लिए
जो स्थगित ही रहता है जीवन भर
पूछती हूँ कुछ कहो –
वह थोड़ा शर्माती है
थोड़ा सा पगलाती है
एक लड़की मेरे सपनों मेँ
अँधेरों से उजालों की तरफ आती जाती है
             
  क्षणिकायेँ
               (क)
एक नदी है मृत्यु की
उस पर तुम हो
इस पार मैं
अकबकाई सी खड़ी हूँ।
               (ख)
फूल गिरा था धूल पर
धूल की किस्मत थी
कि धूल कि किस्मत थी
कि फूल के माथे पर था।
           
              (ग)
बहुत झमेलों में भी,
उलझी जिंदगी में भी
मैंने चिड़िया सा मन बचाए रखा,
इतने दिन बाद मिले हो
तो उसे उड़ाने में लगे हो।
                (घ)
एक यात्रा पर
निकले हैं हम दोनों
अपने- अपने घरों में
अपने- अपने शरीर छोड़कर।
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अंजू शर्मा :-
आज की कविताएँ 'जानकीपुल' ब्लॉग से ली गई हैं।
 
 अलकनंदा साने:-
साथियों आज किसी सोशल साईट या पत्रिका से कविता साझा करने का दिन है . अंजू जी ने ''जानकीपुल ब्लॉग'' से ये कवितायेँ साझा की हैं . इन पर आपकी प्रतिक्रिया आमंत्रित है . कृपया ध्यान रहें  चर्चा के बीच कुछ और साझा न करें
 
प्रज्ञा :-
स्त्री मन की विविध छवियों का संसार बसा है इन कविताओं में। खासियत ये है कि छवियों के साथ कितने सरोकार कितने पूर्वाग्रह भी बेसाख्ता चले आये हैं। और पगड़ी का बिम्ब कितनी सघन अनुभूतियों में पिरोया गया है। जहाँ माथा गायब हो जाना वजूद स्वाभिमान सबकी बारीक किरचों को दिखाता है। सबकेबावजूद चिड़िया सा मन बचा रहने की उम्मीद बहुत से रंग और बहुत कुछ का शेष रहना ,बहुत कुछ का बचाया जा सकने में हमारे विश्वास के धागे से सहज जुड़ता है। अच्छी कविताओं से रचनात्मक दिन की शुरुआत।
 
नंदकिशोर बर्वे :-
नारी तेरी यही कहानी -----और नारी तुम केवल अबला नहीं ----जैसी ही नारी मन की विडंबनाओं और मजबूरियों से ओतप्रोत होने के बाद भी सुंदर कविताएँ हैं।
 
नंदकिशोर बर्वे :-
दूसरी क्षणिका की तीसरी और चौथी पंक्ति में फूल और धूल का स्थान परस्पर बदलने से अधिक असरदार हो सकती है। नंदकिशोर बर्वे इंदौर।
 
किसलय पांचोली:-
बहुत ही उम्दा कविताएँ! आभार अंजू जी। उनके शीर्षक भी सटीक हैं। स्त्री को उसके अस्तित्व पर पुनर्विचार करने हेतु झकजोर देती हैं ये कविताएँ।

सुवर्णा :-
सुन्दर रचनाएँ। नारीमन की बात करती प्रभावी कविताएँ और अच्छी क्षणिकाएँ
 
नयना (आरती) :-
बहुत गहरे भाव लिए सारी कविताएं। खासकर "पगडी" और चिडिया सा मन क्षणिका
 
अलकनंदा साने:-
अंजू  मुझे लगता है प्रतिक्रिया जो आती हैं उन्हें भी थोड़ा विस्तारित होने की आवश्यकता है जैसे नंदकिशोर बर्वे जी या प्रज्ञा जी ने दी है उसका लाभ स्वयं टिप्पणीकार को होता है क्योंकि उससे एक समग्र दृष्टी विकसित होती है , जो सिर्फ अच्छा या  बुरा कह देने भर से नहीं हो पाती
 
अंजू शर्मा :-
प्रज्ञा जी ने तो कविताओं के अर्थ खोलकर रख दिए। उनकी टिप्पणी सदा ही सार्थक होती है। और पगड़ी कविता वाकई कम में बहुत कुछ कहती है प्रज्ञा जी।
कविताओं पर चर्चा वस्तुतः पाठक के अपने पाठ के निष्कर्ष की प्रस्तुति से आगे बढ़ती है। यह पाठ अलग अलग हो सकता हैं और लेखक से भी इतर हो सकता है। जैसा कि बृजेश जी ने इसे अपनी तरह रखा। चर्चा जारी रखिये दोस्तों। खुलकर राय दीजिये।
 
बी एस कानूनगो:-
क्षणिकाओं की छोटी छोटी पंक्तियों में इस तरह भी बात कही जा सकती है।मुग्ध हूँ और खुद ऐसे प्रयास का मन बनाता रहता हूँ।जब कही कुछ सीखने की बात आती है हमारे लिए निश्चित सुन्दर हैं।कविताओं ने सचमुच मोह लिया है अंजू जी।
 
आभा :-
Ahaa... पगड़ी और क्षणिकाएँ ज़बरदस्त है। सीधे मन में उतरती हैं। सुबह से पांच बार पढ़ चुकी हूँ हर बार कुछ नया मिलता है। जानकीपुल की वैसे भी मैं एकदम पंखा हूँ या कहूँ विंड मिल हूँ । धन्यवाद अंजू जी इतनी जानदार कवितायेँ पढ़वाने के लिए।
 
अंजू शर्मा :-
अंतर तो है दोनों अत्यंत लघु कविता की अलग विधाएँ हैं। एक हिंदी तो दूसरी जापानी। क्षणिका में कोई व्याकरण नहीं है free verse की तरह पर हायकू में मात्राओं की गिनती जरूरी है जिसे मैं खुले दिन वाली चर्चा के दौरान साझा करूँगी।
 
कविता वर्मा:-
पगडी़ और डर कविता लाजवाब हैं ।दोनों मे स्त्री की विवशता को सरल शब्दों मे व्यक्त किया है ।मन कविता उजाले से अंधेरे और अंधेरे से उजाले का सुंदरता से उपयोग किया है लेकिन इसमे बीच मे सभी पंक्तियों का दुहराव थोडा़ खलता है । क्षणिकाऐं मन को छूती हैं ।धूल और फूल मे शब्ददों की थोडी़ हेराफेरी से शायद ज्यादा प्रेषणीय बन सके।
 
चंद्र शेखर बिरथरे :-
पगड़ी नारी के अस्तित्व की दुहाई देती  कविते है । प्रभावशाली बिम्ब । डर   स्त्री के अवलम्बित होने का दर्द प्रगट  करती है । पगडी एवं डर की विभीषिकाओं से मन की सकारात्मक कविता आशान्वित करती है । क्षणिकाएं  बहुत ही  प्रभावित करती हैं । अच्छी , सुन्दर कविताएं । साधुवाद ।
 
फरहात अली खान :-
क्षणिकाओं में तीसरी वाली पसंद आई और चारों में से अकेली यही क्षणिका प्रभावित करती है।
तीनों कविताओं में 'पगड़ी' का भाव पक्ष सबसे ज़्यादा मज़बूत नज़र आता है। इसकी पाँचवी पंक्ति में जो 'कि' आया है वो छठी पंक्ति की शुरुआत में आता तो पाँचवी पंक्ति और भी ज़्यादा प्रभावी होती। फिर इस कविता में एक ही बात को दो बार लगभग एक ही ढंग से दोहराया गया है:
1. "एक दिन पगड़ी...उतारकर देखा"
2. "थोड़ा सुस्ताने...पगड़ी जो उतारी"
'1' और '2' में एक ही बात का दोहराया जाना इस कविता का सबसे कमज़ोर पक्ष है।
इसके बाद 'डर' में एक असहाय स्त्री के बारे में जिस तरह बताया गया है, वो ज़्यादा प्रभाव नहीं डालता।
'किससे किससे' की जगह 'किस-किससे' सही बैठता।
'तब पति से...' में 'तब' क्यों आया? पता नहीं।
अंतिम पंक्ति में 'जाये' की जगह शायद 'साये' रहा होगा। यानी लिखने में ग़लती हुई शायद।
'मन' वाली स्त्री संकोची किस्म की है।
'नाज़ुक सा मन' और 'पूजा सा मन' पढ़कर फिर से ऐसा लगा जैसे कुछ है जिसकी पुनरावृत्ति हुई।
'अंधेरों से उजालो की तरफ़ आती जाती है' वाली बात समझ में नहीं आती। 'अंधेरों और उजालों के बीच आती जाती है' होता तो साफ़ समझ में आता।

25 अप्रैल, 2015

अमिताभ मिश्र जी की कहानी नया प्रशिक्षण

कथा/कहानी में आज  श्री अमिताभ मिश्र की कहानी   "नया प्रशिक्षण "  प्रस्तुत है । सभी मित्रों से अनुरोध है कि वे अपनी प्रतिक्रिया से अवश्य अवगत करायें ।

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सुबह बस होने को थी।  सूरज आसमान में लाली भरने को था।  सड़क किनारे बसे मजूरों की टपरियों से धुआं उठ रहा था।  यह समय दिन भर का खाना बनने का था।  कचरे से काम की चीजें बीनने वाले कचरे के ढेरों तक पहुंचने लगे थे।  सेहत के लिए सतर्क लोग घूम कर लौटने को थे।  माहौल में ठंडक थी, चिड़ियों की चहचहाहट थी।  लोग इस माहौल में घूमने जाना स्वास्थ्यवर्ध्दक मानते हैं और सो भी अगर चढ़ाई पर जाया जाय तो सोने में सुहागा।  तो पहाड़ी भी मौजूद है, ठंडक भी और चिड़ियों की चहचहाहट भी। अगर रोडवेज के डिपो से ऊपर चढ़ लिया जाए तो चढ़ाई भी है, सड़क भी है यानी घूमने जाने का  आदर्श स्थान।  सुबह घूमने जाने वालों की संख्या अब इतनी बढ़ चली है कि अकसर वहाँ मेले का दृश्य पैदा हो जाता है। इसके साथ ही पहाड़ी के दायीं ओर मन्दिर होना तो तय ही था।  दरअसल पहाड़ी के एक ओर पुलिस कालोनी है, वहीं एक निस्तारी तालाब है, एक मैदान है। पीछे की ओर फायरिंग रेंज है।  जहाँ से सुबह-सुबह चाँदमारी की आवाजें आती रहती हैं।  तो जब इतना सब माहौल हो तो मन्दिर होना तो तय ही था बल्कि मन्दिर परिसर था, जहाँ सार्वाधिक लोकप्रिय भगवान स्थापित थे।, मुख्य मन्दिर शंकर का, फिर हनुमान जी का। देवी का भी मन्दिर था।  जिसको जिससे काम हो, जिस पर श्रद्धा हो, वह वहाँ जाए।  घूमने वाले लोग भी घूम कर लौटने में दर्शन कर पुण्य कमा लेते।
कानों में लाउडस्पीकर से आते हुए फिल्मी गानों की तर्ज पर भजनों को सुनते हुए धन्य हो लेते थे।  मन्दिर का पुजारी पुलिस का ही था।  उसे सुबह-सुबह विशेष दर्जा प्राप्त था।  जिन्हें वह दिन भर सैल्यूट मारता नहीं थकता था वे बहुत से अफसर उसके सामने नतमस्तक रहते। अकसर एक मोटरसाइकिल जिस पर ओम पुलिस लिखा है, को ईपीएफओ मन्दिर के ठीक सामने रखा हुआ देख सकते हैं।  मेरी बेटी ने उस पुजारी था नाम ओम पुलिस ही रख दिया है।  वह रोज सुबह आरती पूजा कर शाम को चौराहे पर लोगों की माँ बहन एक करने का काम एक ही निष्ठा से करता है।
तो वह सुबह भी वैसी ही थी।  मन्दिर के नीचे निस्तारी तालाब से लगा जो मैदान है, वहां भी सुबह-सुबह खासी चहल पहल रहती है।  कुछ लड़के क्रिकेट खेलते रहते हैं, कुछ लोग दौड़ लगाते रहते हैं।  जानवर भी वहां तालाब से पानी पीते रहते हैं।
एक और बात जो उस मैदान  को खासियत देती है वह है वहां मौजूद कुत्ते ,  जो बहुत खास कुत्ते है।  पुलिस के  कुत्ते जासूसी कुत्ते।लोग कहते हैं कि इन  कुत्तों में से एक-एक पर जो  खर्च होता है वह उस घुमाने वाले के पूरे परिवार पर हुए खर्च से अधिक होता है। आखिर वे पुलिस के प्रशिक्षित जासूसी कुत्ते हैं। वे बम या विस्फोटक पदार्थों की पहचान करने   वाले  कुत्ते हैं। वे सूंघकर चोर को पकड़ने वाले कुत्ते हैं । ये कुत्ते आकार में लगभग गधे  जितने  बड़े होते हैं और उनकी पूंछ सीधी या तिरछी करने वाला कोई मुहावरा इस्तेमाल नहीं किया जा सकता क्योंकि वे पूंछ कटे होते हैं। बिना सींग पूंछ के जानवर हैं । उनके लिए बकायदा खास प्रशिक्षण केन्द्र है  जहां उन्हें प्रशिक्षित किया जाता है। उस प्रशिक्षण से उनका पद तय  होता है। तो इस तरह से तीन चार कुत्तों को घुमाने पिलाने का काम इस मैदान में सम्पन्न होता है।
वे चूंकि प्रशिक्षित हैं इसलिए उनके घुमाने वालों को ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती।  वे सब घुमाने वाले और लोगों के साथ एक जगह पर बैठकर गप्पें हांकते हैं, तंबाकू खाते हैं, अफसरों का मजाक उड़ाते हैं, दुनिया जहान की चर्चा करते हैं।  कुत्ते अपने आप घूम फिर कर फारिग होकर उनके पास आ जाते हैं। यह रोज होता है।  उस दिन भी यही सब हो रहा था।  उन लोगों की बातचीत में अमरीका का प्रधान मंत्री का दौरा और अमेरिका की प्रतिक्रिया से लेकर मोहल्ले में बढ़ते चूहों, मच्छरों की संख्या तक शामिल था। उनकी बहस के मुद्दे में कल ही हुई एक रैली भी थी जो किसानों के मुआवजे को लेकर थी, बिजली की दरों को लेकर थी,पर मुद्दा मंहगाई नहीं था, क्योंकि ऐसी रैलियां दरअसल शक्ति प्रदर्शन के लिए होती हैं,  यह सबको पता था।  उस रैली में आई एक मेटाडोर से हुए एक्सीडेंट पर सब अफसोस जाहिर कर रहे थे। जिसमें रैली के ही दस लोगों ने दम तोड़ दिया था।  सब लोग रैली को,भीड़भाड़ को कोस रहे थे।  बहस गरमागरम थी पर उसमें एकदम व्यवधान उत्पन्न हुआ।  सारे घूमने वालों,मन्दिर के दर्शनार्थियों, कचरा बीनने वालों, काम पर निकलने वाले मजूरों का ध्यान एकदम वहाँ खिंचा जहाँ उन प्रशिक्षित बिना पूछ वाले कुत्तों में से एक तालाब पर पानी पीने आई गाय पर झपट पड़ा था। यह एक खतरनाक दृश्य था।  वह गाय पूछ उठाकर भागी और वह कुत्ता उसके पीछे।  वह उसे जगह जगह काट रहा था। उस गधे बराबर कुत्ते के आगे उस निरीह गाय की क्या बिसात।  यूँ वह सामान्य आवारा या पालतू कुत्ता होता तो लोग यह न होने देते और कुत्ते को मार मार कर अलग कर देते पर वह एक जासूसी कुत्ता था,पुलिस का कुत्ता था,बल्कि अफसर कुत्ता था। उसे रोकने का मतलब था पुलिस के काम में दखल देना। तो पुलिस के कुत्ते द्वारा होता हुआ गाय पर यह अत्याचार सब भौंचक देख रहे थे।  इस कृत्य को एक ही व्यक्ति रोक सकता था और वह था रामप्रसाद तिवारी, वह तिलकधारी पुलिस का जवान जो उस कुत्ते को घुमाता था, पर असमंजस में था। आखिर वह उस कुत्ते का मातहत जो था। फैसले की घड़ी थी यह। वह क्या करे क्या न करे यह मुश्किल थी, पर तभी उसकी नज़र मन्दिर पर पड़ी और वह शंका से उबर गया।  उसने एक हाथ में बेंत ली और जोर से चीखा -"सोल्जर "।  सोल्जर एक पल को ठिठका पर फिर वह गाय के पीछे था।  वह उसे छोड़ नहीं रहा था। उसके मुँह में गाय का पैर था। तिवारी जी दौड़ पड़े सोल्जर के पीछे।  लोगों की उत्सुकता बढ़ रही थी। सभी दिल थाम कर उस दृश्य के चश्मदीद गवाह बनना चाहते थे।
मन्दिर से लेकर हाथी द्वार तक,मैदान से लेकर क्वार्टर्स तक सब जगह सन्नाटा खिंच गया था। समय की रफ्तार बहुत धीमे हो गई थी। हर पल घण्टा जान पड़ता था। तिवारी जी सोल्जर के पकड़ने को भागे।  सोल्जर ने एक बार उन्हें छका दिया, वह गाय को छोड़कर दूर भाग गया।
तिवारी जी ने राहत की साँस ली और वापस लौटने लगे।  वे ज्यों ही लौट रहे थे कि सोल्जर फिर गाय पर झपट पड़ा।  तिवारी जी का पृष्ठ भाग शिला से टिका ही था कि वह खतरनाक दृश्य फिर उनके सामने था। लोग भी वापस जाते जाते ठिठक गए। तिवारी जी ने बेंत उठाई और दौड़ पड़े।  सोल्जर को यह खेल लग रहा था।  वह गाय को छोड़कर दूसरी तरफ भागा। तिवारी जी को उस तरफ पहुंचा कर, झपटकर फिर गाय पर लपक पड़ा।  इस बार उसने गाय को बुरी तरह घायल कर दिया था।  तिवारी जी के क्रोध की सीमा नहीं थी अब। उनके मुँह से गालियाँ निकलने लगी थी।  बहुत कठिन परिश्रम के बाद उन्होंने सोल्जर को धर दबोचा।
तिवारी जी ने लपक कर सोल्जर को पट्टे से पकड़ लिया।  उसे अलग किया यानि गाय को छुड़वाया और उस पर बेंत बरसाना शुरू कर दिया।  हालांकि वह कुत्ता उनका अफसर था पर गाय पर यह अत्याचार उन्हें कतई बर्दाश्त नहीं हुआ।  धर्म की यह हानि उन्हें बिलकुल सहन नहीं हुई।  उन्होंने सोल्जर की बेरहमी से धुनाई की।  वह गाय भाग कर तालाब किनारे खड़ी हो गई।  कई जगह से खून निकल रहा था उसका,  तिवारी जी ने उस गाय को देखा, लोगों की भीड़ को देखा जो उन्हें देख रही थी और फिर वे सोल्जर को पट्टे से पकड़ कर घसीटते हुए उस गाय के नजदीक ले गए।  पट्टा पकड़े पकड़े गाय को प्रणाम किया।  गाय भागने को हुई कि उन्होंने गाय को भी पकड़ लिया और उसे पकड़ कर खड़ा कर सोल्जर को उसके सामने झुकाया, वह झुक नहीं रहा था। उन्होंने उस पर फिर बेंत बरसाना शुरू कर दिया और तब तक वे उसे मारते रहे जब तक वह दण्डवत नहीं हो गया। माँ बहन की गालियों की अजस्र धारा इस दौरान उनके मुँह से पूरे समय बह रही थी।  वह कुत्ता जो सोल्जर नाम का अफसर कुत्ता था, गौमाता के सामने प्रायश्चित स्वरूप पिट रहा था। वह अधमरा हो चला था।  यह एक अद्भुत और विलक्षण दृश्य था,अधर्म पर धर्म की विजय का। अन्य कोई युग होता तो आसमान से देवता फूल बरसाते। वहां जितने लोग थे तिवारी जी की सराहना कर रहे थे।  काफी देर बाद तिवारी जी ने गाय को प्रणाम किया, सोल्जर को दण्डवत कराया और उसे पकड़ कर वापस ले चले। उनका चेहरा गर्व से चमक रहा था, वे अपने पीछे प्रभामण्डल की गर्मी महसूस कर रहे थे।  सोल्जर को यह सब कुछ समझ नहीं आ रहा था।  वह बकरियों के पीछे दौड़ता तो ये सब वाह वाह करते,सुअर के तो कई बच्चे उसने मार डाले थे। भैसों को भगाना उसका शगल था।  फिर अब भला यह क्या हुआ कि इस जानवर के पीछे भागने पर उसे यह सजा मिली।  वह गाय पर गुर्राया।  तिवारी जी ने बेंत फटकारी, गाय सहमी सी खड़ी थी।  उसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था।  पर वहां खड़ी भीड़ को सब समझ आ रहा था और सबसे समझदार थे श्री रामप्रसाद तिवारी जो इस वक्त सबके आदर्श थे।
  तभी उन्होंने अपने आपको ऊँचे स्थान पर महसूस किया। दरअसल वे एक टेकरी पर थे सो अवसर भाँप कर उन्होंने बोलना प्रारंभ कर दिया।
    " अब है तो कुत्ता ही न,इसे क्या मालूम कि क्या धर्म है और क्या अधर्म।  सो आज हम इसे धार्मिक तरीके से समझा दिए हैं।  अब यह केवल मात्र कुत्ता तो नहीं है।  यह तो है पुलिस का जासूसी कुत्ता।  सो इसे समझ में भी आ गया होगा।  गली मोहल्ले का आवारा या पालतू कुत्ता होता तो हम उसे नहीं न समझाते पर यह तो खास कुत्ता है और इसे हमने धर्म द्वारा ही समझा दिया है और यह समझ भी गया है।  आखिर धर्म की रक्षा करना इसका और हमारा परम कर्तव्य है। "
वे इसके बाद देर तक यही बात बोलते रहे। लोग खिसकने लगे और अब भीड़ छंट चुकी थी।
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टिप्पणियाँ:-
पूर्णिमा पारिजात मिश्र:-
एक जानवर को माध्यम बना ,धर्मान्धता पर किया गया सीधा कटाक्ष ......अच्छी रचना।

मनचन्दा पानी:-
आज के समय में जब एक नयी समस्या आ कड़ी हुई। बहुत ही सटीक कहानी। धर्म मनुष्यों से बढ़कर मंदिरों से आगे जाकर जानवरों पर लागू हो चला है। जानवरों के धर्म-जात बनने लगे हैं। धर्मान्धता प्रकृति के उस नियम को भूल रही है की संतुलन बनाये रखने के लिए भैंस गाय बकरी सांप कछुवे कुत्ते कीड़े मकोड़े सब चाहिए। सबका अपना अपना महत्त्व है और सबकी अपनी अपनी उपयोगिता। असल में बंटवारा करने वाले आदमी आदमी का बंटवारा कर चुके, आदमी औरत का बंटवारा कर चुके। अब खाली बैठे थे तो सोचा जानवरों पर ही प्रैक्टिस करते है। इसलिएअब गौशाला, सूअरशाला, कुत्ताशाला आदि में भी धार्मिक फ़ोटोस्टेट लगानी पड़ रही हैं।
बढ़िया कहानी के लिए बधाई।

अरुणेश शुक्ल :-
भाई गाय अगर किसी की पालतू रही हो और पानी पिने चली आई हो गलती से ।ऐसा हो जाता है की मालिक की जानकारी के बगैर हो और मालिक बाद में पहुचे। कुत्ता बकरी मारे या गाय या सुवर उनका मालिक उन्हें छुड़ाने की कोशिश करता है ही। कोई वाह वाह नहीं करता सामान्य लोग भी निरीह जानवर को छुडाते हैं।इसमें वह गाय है इसका राजनैतिक निहितार्थ नहीं होता। पुलिससांप्रदायिक है हम सब जानते पर उसे दिखाने की युक्ति दूसरी हो सकती।
गाय के मुद्दे पर यह कहानी बनी नहीं ठीक से। वो दूसरा मसला है गौ वध पर प्रतिबन्ध या रास्ट्र माता घोषित करने का।

अंजू शर्मा :-
मुझे भी अच्छी लगी कहानी।  प्रतीकों के माध्यम से जो कहने की कोशिश की वह संप्रेषित हुआ। अंत में किंकर्तव्यमूढ़ तिवारी जी के जागने और तथाकथित धर्म को बचाने का दृश्य भी खूब है। 

बी एल पाल:-
अभिताभ की यह लघु कथा भले ही प्रतिमानों पर भले ही खरी न हो पर भरेपूरे भरपूर दृश्यों के बीच अपनी बात कहने में जरूर  सफल हुई है।यह अलग बात है पुलिस के कुत्ते भी लंबाई चौड़ाई ऊंचाई में गधे के बराबर नहीं होते कुत्तों के यह डील डौल कहानी में अवरोध की तरह है।कहानी के घटनास्थल उसके आसपास के चित्र जिवंत हैं।कहानी एक कौतुक के रूप  में है।  जो इसी के बीच समय को समझने में जरूर  मदद  करती है।

आशा पाण्डेय:-
कहानी का शिल्प बहुत सुन्दर है .रोचकता और कुतूहल दोनों इसकहानी को पूरा पढ़ने के लिये विवश करते हैऔर आज की राजनीतिक चाल को (मैं इसे समाज की सोच या समाज के धर्म से नही जोड़ पा रही हूं.संवेदनायें अब भी बची हैं और हर सम्प्रदाय में बची हैं) यह कहानी पूरी तरह उजागर करती है अच्छी कहानी के लिये अमिताभ जी को बधाई।

गणेश जोशी:-
अमिताभ जी की कहानी मूल विषय से अधिक माहौल को दर्शाती है। फिर भी कहानी खत्म होने तक जिज्ञाषा पैदा करती है। अच्छी कहानी के लिए बधाई।।

अरुण आदित्य :-
रात 12:50 पर कहानी खत्म की।
सरकारी कुत्ते का कद देखा और आदमी की कुत्तई भी।
साफ-साफ पता चला कि सोल्जर के गले में पडा सरकारी चर्म-पट्टा ज्यादा मजबूत है या तिवारी जी के गले में पडा धर्म-पट्टा।
गौ माता की पीडा पर उनका द्रवित होना दया-करुणा वगैरह की श्रेणी में दर्ज हो चुका था पर अगली पंक्तियों में जब पता चला कि कुत्ते द्वारा बकरी, भैंस आदि दूसरे जानवरों को दौडाने पर तिवारी जी गदगद हो जाते थे, तो करुणा की थ्योरी हवा हो गई और बाकी जो बचा वह धर्म-पट्टा था, जिसकी गुलामी अलौकिक आनंद देती है।
संभवतः यह कहानी का पहला ड्राफ्ट है। अंत में कुछ काम की गुंजाइश लगती है।
बी एल पाल:-
मुझे लगता है इस कहानी का ऊपरी पटल साम्प्रदायिकता से है ऐसा लगता है पर यह कहानी अपने निहितार्थ में उससे आगे मानव की पूर्णता को खोजते हुए रूप में है

24 अप्रैल, 2015

रघुनंदन त्रिवेदी की कहानी बातचीत

कहानी-अंतिम बातचीत

'ख, मैंने तुम्हारी एक तसवीर बनाई है। इसे देखकर तुम चकित हो जाओगे। इस तसवीर में तुम इतने प्यारे लगते हो कि बस्स! तुम्हारे चेहरे में जो खामियाँ हैं, उन सबको हटा दिया है मैंने इस तसवीर में।'
'क, मैंने भी तुम्हारी एक तसवीर बनाई है और मैं दावे से कहता हूँ, इस तसवीर में तुम जितने खूबसूरत दिखाई देते हो, उतने खूबसूरत, वास्तव में तुम कभी नजर नहीं आए।'
'क्या सचमुच? वाकई तुमने भी मेरी तसवीर बनाई है! लेकिन तुम तो तसवीर बनाना जानते ही नहीं। यह काम तो मेरा है।' - क' ने कहा।
'नहीं, मैंने जो तसवीर बनाई है तुम्हारी, वह कागज पर नहीं, मेरे मन में है।'
'खैर, दिखाओ।'
'नहीं, पहले तुम।'
'ठीक है। यह देखो। लगते हो न हम सबकी तरह।'
'लेकिन मेरी दाढ़ी?'
'दोस्त, यही तो वह चीज है, जिसके कारण तुम अजीब और किसी हद तक क्रूर दिखाई देते हो, इसलिए मैंने इसे हटा दिया।'
'पर मैंने तो तुम्हारे जिस चेहरे की कल्पना की है, उसमें तुम भी दाढ़ी वाले ही हो।' - 'ख' ने खिन्न होकर कहा।
इस बातचीत के बाद 'क' और 'ख' कभी दोस्तों की तरह नहीं मिल सके।
(रघुनंदन त्रिवेदी)
०००
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टिप्पणियां:-

परमेश्वर फुंकवाल:-

हम जिस चश्मे से दुनिया को देखते हैं हमें वह वैसी दिखाई देती है। परन्तु जब इन दृश्यों की अदला-बदली होती है तो हम हतप्रभ रह जाते हैं। यह कहानी इस बात को बहुत संजीदगी से रखती है।

अंजू शर्मा :-
अच्छी कहानी सत्या जी।  हम अपनों को उसी रूप में क्यों नही पसंद करते जैसे वे हैं। क्यों उन्हें बदलना चाहते हैं जबकि हम खुद अपेक्षित बदलाव का स्वागत खुले मन से नहीं कर पाते। अच्छा सन्देश।

अरुण आदित्य :-
21 वाक्यों की इस कहानी को 21 तोपों की सलामी देने का मन कर रहा है।

पूर्णिमा पारिजात मिश्र:-
हम अपनी कल्पना में किसी व्यक्ति का कैसा चित्र खींचते हैं ,यह हमारे संस्कारों पर निर्भर करता है।वो एक क्रूर व्यक्ति का सौम्य चित्र भी हो सकता है या सौम्य व्यक्ति का क्रूर भी...बदलती मनःस्थिति में अलग अलग अर्थ देती गहरी कथा।

बी एल पाल:-
रघुनन्दन की यह छोटी सी कहानी सीधे सीधे दिल में उतर जाती है ।इंसान के रूप रंग  परिधान में इनके भीतर की क्रूर समझ को समाप्त करती हुई कुछ ही शब्दों में एक झटके में आदमी की सही पहचान में सही अपेक्षा के रूप  में दर्ज हो गई है।

व्यास अजमिल:-
यही तो मुश्किल है।इंसान अपने को कभी वैसा ही नहीं स्वीकारना चाहता जैसा क़ि वो है। इसी लिए वह किसी मुखौटे के लिए परेशान रहता है। इस लघु कथा में बात बहुत अच्छी है परन्तु कहन और बेहतर हो सकता था।

बी एल पाल:-
अमिताभ आपकी कहानी बहुत अच्छी कहानी थी कुछ बिम्बों में बिलकुल नईै भी थी।बहुत सी परतों को सहजता से  खोलती हुई थी।पर उन परतों पर सही तोर से बात नहीं हो पाई थी।पर आपकी उस कहानी ने मेरे दिल में तो घर बना ली।पुनः बधाई।आलोचना ज्ञान से ही नहीं उसके साथ विवेक और धरातल की सन्निलता की  पूर्ण जरुरत बनती है जो कि पूर्ण चर्चा में उसका अभाव था।थी भी या आई भी तो वह बहुत ही क्षीण रूप में थी।

सुरेन्द्र रघुवंशी:-
रघुनन्दन त्रिवेदी  की कहानी प्रतीकों और निहितार्थों में अपनी बात कहती हुई एक विचार प्रधान अच्छी कहानी है । कि किस प्रकार हम एक ही स्थिति को अपने -अपने नज़रिये से देखते हैं । सत्य एक होता है ;अपनी मानवीयता में बहुत विनम्र । पर हमारे दृष्टिकोण हमारे अहंकार की धरती पर अहं की खरपतवार में अदृश्य हो जाते हैं।

23 अप्रैल, 2015

बिजूका की पहली बैठक ---एक रिपोर्ट

12 अप्रैल 2015 को बिजूका की पहली बैठक 

---एक रिपोर्ट 

बेमौसम झमाझम बारिश हो रही थी . एक बार तो लगा कि बैठक स्थगित कर दी जाय, पर जब जुनून चढ़ा हो तो कुछ  फ़र्क नहीं पड़ता..... . अभी एक दिन बिजूका चार पर  चल रही चर्चा में यह तय पाया गया कि लेखक खब्ती होते हैं। मैं और जोड़ना चाहती हूँ कि लेखक सनकी होते हैं, लेखक अवलिया होते हैं।    … शहर में बारिश,शहर में गुलज़ार साहब, शहर में शादियां   … इसके बाद भी एक-एक कर ''हम पांच'' अहिल्या केंद्रीय पुस्तकालय,इंदौर में जुट ही गए.   सत्यनारायण पटेल , ब्रजेश कानूनगो , आनंद पचौरी , कविता वर्मा और मैं. सही समय पर पहुंचे हम लोगों ने तय किया कि  साथियों का थोड़ी देर और इंतज़ार किया जाय. हम यह सोच ही रहे थे कि मेरे मेसेज बॉक्स और व्हाट्स एप पर ''नहीं आ पाने की क्षमा याचना के साथ''  .सरफ़राज़ नूर,चन्द्र शेखर बिरथरे,नंदकिशोर बर्वे,राहुल वर्मा,के सन्देश आने लगे....प्रदीप मिश्र,संजय पटेल,अमीता नीरव, वसुंधरा,मीना शाह, आभा निवसरकर,सौरभ पाण्डे,सुषमा अवधूत,पहले ही असमर्थता व्यक्त कर चुके थे. डॉ. यामिनी,गौरव जायसवाल,वैभव पुरोहित आने वाले थे, लेकिन नहीं आ पाए. अर्चना चावजी नेट की अनुपलब्धता की वजह से असमर्थ रही. हमने इस मौके पर अरूण आदित्य,आकांक्षा पारे,स्वरांगी साने,धनश्री देसाई आदि साथियों को भी याद किया, जो इंदौर में अपनी  सक्रिय उपस्थिति दर्ज किया करते थे और जो आज भी अपने-अपने शहरों में सक्रिय हैं तथा यहाँ भी उतनी ही शिद्द्त , उतनी ही आत्मीयता से जुड़े हुए हैं।
इन बीस  साथियों को भी अपने साथ ही मान कर हमने पहले कुछ चर्चा की और तय किया कि प्रत्येक माह के दूसरे रविवार शाम ४ से ६ बिजूका के सभी समूहों के इंदौर के सदस्यों  की नियमित बैठक की जाय और बाद में इसे विस्तारित कर अन्य शहरों में या इंदौर में ही आयोजित किया जाय. इसके बाद तय हुआ कि हम तीन कवि अपनी पांच-पांच रचनाओं का पाठ करें ,तदनुसार आनंद पचौरी जी ने रचना पाठ की शुरुआत की.पचौरी जी की 'चलो लौट चले', ब्रजेश कानूनगो जी की 'चिड़िया' ने खासा प्रभावित किया.मैंने भी अपनी पांच कवितायेँ सुनाई. कविता वर्मा ने अपनी लघुकथाओं  का पाठ किया . कुछ गपशप के बाद,मौसम का आनंद उठाते पैदल ही चल पड़े  समीप के कॉफी हाउस में. गर्मागर्म कॉफी के साथ इस आनंददायी अवसर का समापन इस विश्वास के साथ हुआ कि  ''हम पांच'' बहुत जल्दी पचास हो जाएंगे ।
अगली बैठक की संभावित दिनांक/समय/स्थान  --- 10 मई , दोपहर 4 से 6 , अहिल्या केंद्रीय पुस्तकालय,रीगल चौराहा.

---एक रिपोर्ट 

21 अप्रैल, 2015

राजेश झरपुरे जी की कहानी

कहानी:-सावधान ! दगान होने वाली हैं... 

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        हमारी काॅलोनी में अँधेरा नहीं होता. रात होती थी पर रात जैसी बिल्कुल नहीं. स्याह अँधेरे में डूबी काली, मूक, शांत और सहज रात्रि तो बिल्कुल भी नहीं. गोधूलि बेला से ही काॅलोनी के दुधिया ट्युब लाईटस् और हेलोजन का चटक पीताम्बरी प्रकाशवृत्त काॅलोनी पर छा जाता. काॅलोनी को अँधेरे के खिलाफ़ घेरे खड़े स्ट्रीट लाईटस् पूरी तरह चौकन्ने और किसी भी तरह उसे काॅलोनी में प्रवेश करने से रोकने में बेजा समर्थ थे. झींगुरों के शोर और चमक से काॅलोनी सदैव अछूती रही. उनकी संगीतमय लोरी की धुन कभी काॅलोनी में नहीं गूँजी. कभी कोई तारा आकाश से टूटकर काॅलोनी में नहीं गिरा. गिरा भी होगा तो काॅलोनी के तेज स्ट्रीट लाईट में विलुप्त होकर रह गया होगा. पीताम्बरी वृत के ऊपर आसमान में चन्द्रमा अपनी सम्पूर्ण कलाओं के साथ दमक रहा होता पर तेज रोशनी में सकुचाया सा. दिन के उजाले में किसी आदमी को जितनी दूर से उसके पहनावे, कदकाठी चालढ़ाल और रूपरंग से चीन्हा जा सकता था, उतनी ही सरलता से हमारी काॅलोनी में न कही जाने वाली रात में भी. इस तरह हम और हमारी काॅलोनी अँधेरे से परे रोशनी के एक विशालकाय सुरक्षित घेरे में थी.
     रोशनी के साथ ख़ुशियाँ, उत्साह और उमंग भी ढेरों थीं हमारी काॅलोनी में. किसी एक घर की खुशियों की सुगन्ध मोगरे और रातरानी के फूलों की खुशबू की तरह पूरी काॅलोनी में बिखर जाती. जन्मोत्सव, विवाह और कथा-सत्संग का उन्माद घरों की मुँडेर चढ़कर बोलता. एक घर, एक परिवार, एक कुटुम्ब एक ही जगह कहीं देखे जा सकते थे तो वह हमारी काॅलोनी थीं. 
      सर्वधर्म, सर्वशक्तिमान और तरह-तरह के रीति-रिवाज एक ही मंच पर, एक ही स्वर में अपनी पवित्रता की पराकाष्ठा और धर्म की शालीनता लिये जहाँ विराजमान थे... वह हमारी काॅलोनी थी. बड़े-बुजुर्गों का यथोचित आदर, बच्चों को पूरा प्यार और दुलार, स्त्रियों को पर्याप्त सम्मान व पड़ोसी को रिश्ते में सगे भाई जैसा महत्त्व जहाँ प्राप्त था...वह हमारी सद्भावना काॅलोनी थी. यहाँ ददुआ, नमन, राखीडोह, घोड़ामाड़ी और सीकरी-माँझी जैसी दूर-दूर की कोयला खानों के खानकर्मी रहते थे. वे सब रोज़ानः 30-35 किलोमीटर दूर, तीनों पाली में ड्यूटी करने जाते थे. वे जिस कोलियरी में जाते थे, वहाँ अधिक सुविधा मिलने पर उन्होंने सद्भावना काॅलोनी नहीं छोड़ी.
     हमारी काॅलोनी में लोगों को सर्दी-खांसी होती, जुकाम होता, मलेरिया और साँस उठने जैसी बीमारी भी होती पर जलन, ईर्ष्या और ढाह जैसी मानसिक बीमारियाँ तो बिल्कुल भी नहीं होती. कोयला खदानों की नौकरी में हम अपनी संतानों के भविष्य को बेहद सुरक्षित पाते थे. हमारी दो से तीन पीढ़ी इन अँधेरी खदानों में खप चुकी थीं. हरेक परिवार के पाँच-पाँच सदस्य तक खदानों में कार्यरत थे. सच तो यह था कि इन खदानों की नौकरियों पर हमारा खानदानी हक़ था-जहाँ अँधेरा नहीं होता था, रात नहीं होती थी.
पर हमारी कोयला खदान में जब विदेश से मैजिक मशीन आयी ऐन वक्त़ काॅलोनी के पीछे का स्ट्रीट ट्युब लाईट फ्युज हुआ. अँधेरा चुपके से हमारी काॅलोनी की नालियों से होता हुआ, हमारे घर के पीछवाड़े तक आ गया-दुबका हुआ और डरा सा. हममें से किसी ने भी उस पर ध्यान नहीं दिया. हम सब उस मैजिक मशीन के करतब और चमत्कृत कर देने वाले कार्य से रोमांचित थे.
         पूरी जवानी अँधेरो से खोदकर लाई रोशनी के प्रकाश में उम्र काट देने के बाद जोर-जोर से खाँसता खखारता है-एक बूढ़ा खनिक. वह लगातार छटपटाता है, हाँफता है. पूरी उम्र कोयला खदानों में गुज़ार देने के बाद उसके फेफड़ों में कोयले की एक महीन सुरंग बन चुकी. उसके अन्दर का कोयला लगातार दहकता. उसकी आँखों से निरन्तर लालपीली लपटें उठती. फिर भी ख़ुश था-वह. मेडिकल अनफ़िट होकर अपने आश्रित पुत्र के लिए नौकरी दे पाया था वह. अब वह अक़सर बूढ़ी खदानों के जवानी के दिनों को याद करता और अपने आप ही बुदबुदा उठता. कभी बहुत गुस्से में चीख भी पड़ता    ’’...सावधान! दगान होने वाली हैं.’’ काॅलोनी के पीछवाड़े की नालियों से प्रवेश कर चुका अँधेरा उसकी आँखों से बच नहीं पाया था.
      पहले जब खदान का सायरन बजता , एक शिफ्ट समाप्ति और दूसरी शिफ्ट आरम्भ होने की घोषणा के साथ दिन-रात तीन भागों में बँट जाते थे. खनिक टोकन आॅफ़िस में टोकन जमा करते, जमा किया टोकन वापस लेते, वे जिनकी शिफ्ट समाप्त हो चुकी होती थी. जमा किये टोकन वाले खानकर्मियों की माईनिंग मेट की डायरी में फिर हाॅज़री होती. भूगर्भ में उनके काम और स्थान का बँटवारा किया जाता. एक सेक्शन में टबलोडरों की एक जुट्टी (7 का समूह), टिम्बर मिस्त्री, लाईन प्लेटियर, ट्रामर, साॅकेटमेन, हाॅलेज खलासी, शाटफ़ायरर, माईनिंग मेट, ओवरमेन और अन्डर मैनेजर को मिलाकर, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में सरफ़ेस में बैठे मटेरियल सप्लाई मजदूर, केपलेम्प,टोकन आॅफ़िस, स्टोरकीपर, सीडीएस आपरेटर, सर्वेयर आदि सब मिलाकर एक सौ खानकर्मी लगते थे. और अधिकतम सवा सौ टन कोयला सेक्शन से बाहर आता था. लगभग सवा टन प्रति कामगार, प्रति पाली, उत्पादन क्षमता थी. पर अब नहीं. अब तो बिल्कुल नहीं. उस मैजिक मशीन के सामने तो आऊटपुट पर मेनशिफ्ट (ओ.एम.एस.) तो कुछ भी नहीं. जाने कैसा जादू किया विज्ञान ने कि एक सौ आदमी का बल और बुद्धि डाल दी एक ही मशीन में. अब मशीन ही ब्लास्टिंग करेगी, वही रूफ़ सपोर्ट करेगी, वही कोयला लोड करेगी. अब न इंडस्ट्रियल रिलेशन मैंनटेन करने की मशक्क़त और न इंडस्ट्रियल डिसपियुट का हैडेक. नो वर्कमेन...नो डिसपियुट, नो सुपरविजन, ओनली मैंनटेनेस एंड स्कील्ड मैंनटेनेस.
          बूढ़ा रिटायर खानकर्मी खाँसते-खाँसते बेहाल हो जाता है, ढेर सारा बलगम कोयले की महीन डस्ट के साथ बाहर आता है और उससे कई गुना अधिक अन्दर ही रह जाता है. काॅलोनी में घुसा अँधेरा शनैः-शनैः अपना विस्तार करता है. मैजिक मशीन काॅलोनी की रोशनी धीरे-धीरे निगलने लगी. वर्कमेनशिप,एम्पलायमेंट, वेलफेयर और वर्किंग कल्चर सब बदलने लगे. 
       डेडवुड वर्कर, नो फ़र्दर एम्पलायमेंट...
       सरप्लस मेनपाॅवर, ड्राईव टू मोटीवेशन फ़ार एक्सेप्टिंग वी.आर.एस. अँधेरे के षडयंत्र में उलझकर रह जाता है- खानकर्मी और खानकर्मियों की सद्भावना काॅलोनी-जहां अँधेरा नहीं होता था, रात नहीं होती थी.
        अँधेरे बढ़ रहे थे. अँधेरे लगातार काॅलोनी की रोशनी को चुनौती दे रहे थे. अँधेरे और रोशनी के बीच खड़े खानकर्मी के पोस्ट ग्रेज्युट बेरोज़गार बेटों को बड़ी बेसब्री से इन्तज़ार था-एम्प्लायमेंट इनल्यू आफ़ डिपेंडेंट आफ़ डेड एम्पलाइ. वह सुबह-शाम पूजता अँधेरे को. अँधेरे खौफ़नाक मनसूबों से लेस थे. वह घर के कोने-कोन तक पसर जाना चाहते थे. बेरोज़गार पुत्र को पूरा विश्वास था-अँधेरे पर. पर खनिक पिता के कमरे का कोई एक कोना अभी भी जगमगता था. अँधेरे उसे पराजित नहीं कर पाते.
          पिताम्बरी प्रकाश का वृत्त दीये की टिमटिमाती रोशनी में बदल चुका था. दो हाथ की दूरी से आदमी चीन्हा नहीं जाता. आसमान से तारे टूटकर सीधे काॅलोनी में गिरते-सब देखते, महसूसते और पड़ौसी द्वारा किया गया टोटका मानकर बेवज़ह लड़ते-आपस में. बात-पड़ौस से पुलिस थाने तक पहुँच जाती. खानकर्मियों की जात-पात, धर्म, झंड़ें और डंड़ें निकलकर बाहर आ जाते. घरों की मुंडेर पर चढ़े सद्भावना के उन्माद को अँधेरे एक जोर का धक्का देते. वह औंधे मुँह ज़मीन पर गिर पड़ता-चारों खाने चित. 
     अँधेरे खिलखिलाकर हँसते.
     घरों में अँधेरे की शह से बौराई कलह दिन-रात चौखट पर डटी रहती. वी.आर.एस. के लोभ में ठगा गया रिटायर्ड खानकर्मी विस्थापना का दुःख झेलते सहमा सा खड़ा दूर से देखता है-सद्भावना काॅलोनी को. जहाँ एक ही परिवार के पाँच-पाँच सदस्य नौकरी पर थे पर अब मशीनों का साम्राज्य है. खानकर्मी पिता अपनी नौकरी के रिटायरमेंट स्टेज पर और जवान बेटे जवानी के अंतिम चरण में भी बेरोज़गार.
         अपने हुनर पर सदैव जिस फोरमेन को गुरूर रहा, वह काॅलोनी के समीप, चाय की गुमठी में बैठा दिन भरता रहता. उसके कार्यकाल में कभी कोई मशाीन एक घंटे से ज़्यादा ब्रेकडाउन में नहीं रही. वह न्यू टेक्नोलाॅजी के कारण डेडवुड घोषित कर दिया गया था. वह बात बड़े पते की करता और दुःखी हो जाता. ’’...मानव और मशीन के बीच यदि उचित सन्तुलन नहीं रखा गया तो वह दिन दूर नहीं जब श्रम कोड़ियों के दाम बिकेगा. बाज़ार हमारी सभ्यता, संस्कृति और सम्बन्धों को निगल जायेगा...जैसे आज कोयला खानें, खानकर्मी और उनकी सद्भावना काॅलोनी को निगल रही हैं.’’ 
        चायवाला गुमठी में बैठे दो ग्राहको को दो कट चाय देता है और बची हुई चाय को फिर दो कट  बनाकर एक स्वयं पीता और दूसरी सेवानिवृत्त फोरमेन को देता. वह जानता था...जब-जब चाय वाला स्वयं चाय पीता, उसे भी एक प्याली पकड़ा देता पर पैसे कभी नहीं लेता. यह बात सद्भावना काॅलोनी के अँधेरे भी जानते थे कि वह गुमठी वाले की एक कट चाय से कभी जीत नहीं पायेंगे. 

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राजेश झरपुरे
नई पहाड़े काॅलोनी, जवाहर नगर, गुलाबरा, छिंदवाड़ा, जिला-छिन्दवाड़ा (म.प्र.) 480-001
मो. 09425837377
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टिप्पणियां:-

कोयला खदानकर्मियों के जीवन का असल चिट्ठा है राजेश जी की   यह संस्मरणनुमा कहानी। खनिको के जीवन  से जुडी सच्चाइयों का यह सूक्ष्म ब्यौरा द्रवित कर देता है वहीं उनकी शोचनीय दशा मन में फांस सी गड़ जाती है।  जिस पेशे में परिवार की कई पीढियां बिना किसी शिकायत खंप गई उसने आखिर क्या दिया। लीलाधर मण्डलोई जी के आत्मकथ्य में भी इसी प्रकार खनिकों के जीवन से जुड़ाव को पढ़ा था।  राजेश जी को मेरी बधाई कि वे इस श्रमसाध्य वर्ग की मूक पीड़ा को संवेदनात्मक तरीके से व्यक्त करने में पूरी तरह सफल रहे।
।। अन्जू शर्मा ।।

संस्करण ..जैसी..अच्छी टिप्पणी है. चित्रात्मकता भी है इसमें. ये मुश्किल रहा होगा कि इस को कहां और कैसे खत्म करें
मुझे कहानी में यह विशेष कौशल जान पड़ता है कि
उसे छोडें कहां
मंडलोई जी की डायरी अंश में वाकई इस जीवन की दारूण बताइ गई हैं.
।। ब्रज श्रीवास्तव ।।

हाँ सही है ब्रज जी। किसी एक व्यक्ति विशेष की कहानी न होने पर भी मुझे इस कहानी ने बाँधा। यही इसकी सफलता भी है।  मशीनी आहटों के खनिकों के जीवन में प्रवेश की तुलना अँधेरे से किया जाना उचित लगा।
।। अन्जू शर्मा


पहली बात तो ये की यह कहानी बिलकुल नहीं है। कायदे से संस्मरण भी नहीं है। मशीन बनाम मानव श्रम कोलेकर लिखी गयी चित्रात्मक टिप्पणी है जिसमे अपने निष्कर्ष व आग्रह इस कदर तै हैं की तटस्थ विश्लेषण भी नहीं हो पाया है। मशीन आने से व विदेसी पूँजी आने क पहले जैसे रामराज्य था। श्रमिकों का जीवन व भारतीय समाज कभी भी इतना अच्छा नहीं था। जात पात सामंती शोषण ठेकेदारों का शोषण सब तब भी भयावह रूप  में  था। इतना सरलीकरण अजीब है। बाकि न पात्र हैं न ही कथात्मकता। हाँ परिवेश का चित्रण है वो भी विश्वसनीय नहीं...!
।। अरूणेश शुक्ल।।



कहानी का अंत: शिल्प ही वह जादू है जो पाठक पर प्रभाव छोड़ सके.हमारे कहानी कार साथी इस पर खूब विचार करते हैं..तब कहीं..इस तरह की कहानी आ पाती है ।
।। ब्रज श्रीवास्तव ।।


बहुत संवेदनशील कहानी है. मेरे जैसे लोग जो शहरों में रहे हैं वे भी अनायास उस कहानी से, वातावरण से जुड़ जाते हैं .और यही इस कहानी का सबसे सशक्त पक्ष है . चाय वाले और सेवा निवृत्त फोरमेन के आपसी सम्बन्ध दिल को छू गए . बधाई।
।। अलकनन्दा।।



अरुणेश जी मेरी एक कहानी है। निम्नमध्यमवर्गीय लोगों के मोहल्ले की कहानी जहां अपने अपने दुखों और परेशानियों से जूझते लोग यथास्थिति स्वीकार कर खुद को उन परिस्थितियों में ढालकर खुश हैं। यहाँ भी नियति के हाथ खुद को सौंप चुके ये लोग उन परिस्थितियों से बाहर निकलना ही नहीं चाहते। दिक्कत तब आती है जब इस दिनचर्या में भी परिवर्तन आता है और इतना भी उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर हो जाता है। राजेश जी ने निजी जीवन से जुडी परिस्थितियों को ही शब्द दिए हैं लिहाज़ा निष्कर्ष तक पहुंचने का जोखिम भी वे उठा पाये हैं।
।। अन्जू शर्मा।।



आपकी बात भी ठीक है पर कहानी आज केवल किस्सागोई भर नहीं है। फिर जिस तरह से यहाँ हालात का सिलसिलेवार ब्यौरा है मुझे पढ़ना अच्छा लगा। एक अनदेखे माहौल से रु ब रु होना कहीं न कहीं खुद को समृद्ध करने जैसा है। पर आपको यदि ऐसा नहीं लगा तो यही कहूँगी कि ऐसा लगना असम्भव तो नहीं।  हम अगली बार राजेश जी की कोई और कहानी पढ़ेंगे। 
।। अन्जू शर्मा ।।



पर अंजू जी इसमें कहानी कहां है। दूसरे निष्कर्ष पर पहुंचे नहीं है जो अपना निष्कर्ष था उसे कहानी का निष्कर्ष बना दिए हैं। यथार्थ आज का इतना एकरैखिक नहीं है जितना यहाँ आया है। पहला हिस्सा तो इतना स्वप्न जैसा है की जब उस तरह का समाज व स्थितियां होंगी तब वो समाज वहां से क्यों निकलना चाहेगा। तब की परेशानियाँ व अन्तर्विरोध भी आने चाहिए थे। सब कुछ उतना अच्छा कभी नही रहा। वो तो बहुत रूमानी  है ।
।। अरूणेश शुक्ल ।।



मुझे कहानी पढ़ते मार्क्स की वह उक्ति याद आई जिसमें वह कहते हैं कि श्रमिक चेतना के अभाव में मशीनों को ही अपना शत्रु समझ लेता है। यह कहानी चेतना के उसी स्तर पर ले जाती है। हिंदी में ऐसी तमाम कहानियाँ हैं जिनमें से बाज़ार में रामधन जैसी कहानी सेलीब्रेट भी की गयी। 
।। अशोक  पांड़े  ।।


राजेश झरपुरे की इस  कहानी में एक ऐसा समाज है जो बाहर से पूरीतरह सुरक्षित दिखाई देता है पर भीतर से बहुत असुरक्षित है ।अभावों में जीते इन लोगों के बीच सभ्य समाज की बुराइयां नहीं हैं । लेकिन वहीँ एक मशीन का आना उस सुरक्षित घेरे को अचानक तोड़ देता है । यह पूंजीवाद के उस प्रारंभिक दौर की याद दिलाता है जब श्रमिकों का ध्यान भटकाने के लिए पूंजीपतियों को नही बल्कि मशीनों को ज़िम्मेदार ठहराया जाता था । अंततः वे स्थितियां हैं जहाँ संतान नौकरी के लिए अपने बाप के मरने की राह देखती है । समय का यह वीभत्स चित्र है । यह घटना प्रधान कहानी नहीं है न ही इसमें कहानी के पारंपरिक तत्व हैं लेकिन यह कहानी श्रमिकों के जीवन मे छंटनी ,वी आर एस , उनके दमन जैसे पूंजी के खेल का एक गंभीर और यथार्थवादी चित्र प्रस्तुत करती है ।
।। शरद कोकस।।


राजेश झरपुरे की कहानी ' सावधान !दगान होने वाली है' हमारे समय की बाहर से आकर्षक दिखने वाली बंद पोटली को खोलकर कोयले की काली सच्चाई को झटके के साथ सामने रखती है और हमें आश्चर्यचकित कर देती है। राजेश झरपुरे दिखाई दे रहे उजालों को यथार्थ के अंधेरों की उपस्थिति में सप्रमाण खारिज़ करते हैं। 
               खानकर्मियों की ज़िन्दगी को उनकी समग्र पीड़ा के परिप्रेक्ष्य वे उस समय संजीदगी से देख रहे हैं ; जब सरकारों ने बाजार के आगे घुटने टेकते हुए मृत संवेदनाओं की डंडियों में स्वार्थ के काँच वाले चश्मे पहन रखे हैं। कोई बूढ़ा रिटायर खानकर्मी अपनी जवानी की सारी शुद्ध साँसे देश के विकास के नाम कर बदले में सपरिवार एक आजीवन बीमारी लेकर जी रहा  है ;आज की अंधदौड़ में न कोई यह सवाल है और न ही कोई खबर । 
            हमारी पीढ़ी के प्रमुख कथाकार राजेश झरपुरे कृत्रिम उजालों के मदहोश ज़श्न में डूवे देश के सामने काली कोयला सच्चाई अपनी हार्दिक सरलता के साथ प्रस्तुत करते हैं ;जिसकी कि बहुत ज़रुरत भी है।दूसरी ओर ज़रूरतों का हवाला देकर मनुष्यता को ताक पर रख दिया गया है और उसी दुराग्रह की प्रतिक्रिया और चिंता में राजेश झरपुरे की कलम कथा सृजन पथ पर चल पड़ी है। इस विस्वास के साथ कि वह महीन लकीरें नहीं वरन् ऊर्जावान सार्थक शब्दों को जन्म देगी । इस घोर अंधकार में अंततः हमारे शब्द ही दीपक होंगे , जिनकी रोशनी में मासूम उदास चेहरों को कारण सहित पढ़ा जा सकेगा ।कथाकार राजेश झरपुरे अपनी कहानी में बार-बार इसी रोशनी की बात करते हैं ।
          मशीनें जिस तरह कामगारों का रोजगार छीन रही हैं ,उसकी समग्र वेदना उनकी कहानी में सम्पूर्ण छटपटाहट के साथ देखी जा सकती है।कहानी में खानकर्मियों के जीवन को बहुत सुन्दर चित्रण ।
।। सुरेन्द्रसिंह रधुवंशी ।।