13 अप्रैल, 2015

विमर्श:- दिनेश कर्नाटक

आज का विमर्श
**************


साहित्य विचार, संवेदना तथा कला से मिलकर बनता है। अनुभव इसे विश्वसनीय बनाता है। केवल अनुभव, विचार, संवेदना या कला से रचना नहीं बनती। कबीर की कविता मूलतः विचार की कविता है। लेकिन वहां सिर्फ विचार नहीं है। संवेदना, कला भी है। तभी कबीर आज भी हमें अच्छे लगते हैं। और शायद आने वाले कई युगों तक उनकी प्रासंगिकता बनी रहेगी।
साहित्य में कुछ लोग विचार तो कुछ अनुभव तो कुछ कला को रचना की एकमात्र कसौटी मान लेते हैं। इतना ही नहीं यह आग्रह दलित, स्त्री तथा आदिवासी लेखन के संदर्भ में यहां तक पहुंच जाता है कि अगर इन वर्गों के लोगों ने लिखा है तभी वह प्रमाणिक है। यहां पर अनुभव को रचना की सफलता की एकमात्र कुंजी मानने की गलती की जाती है।
साहित्य सूचना तथा तथ्य से नहीं बनता। अख़बार में कई घटनाएं आती हैं, जिनको पढ़कर हम हिल जाते हैं। मगर उनका प्रभाव  "कफ़न" "पूस की रात" और "वह तोड़ती पत्थर" के असर को हमारे भीतर से मिटा नहीं पाता। यह असर साहित्य का है।
रचना विचार, संवेदना, कला तथा अनुभव के समन्वय से ही संभव है। अगर समन्वय है तो वह अपना असर छोड़ेगी। नहीं है तो समय के प्रवाह में कहां खो गई इसका पता नहीं चलेगा ।
-------------------------------------------------------------------------------------
 
अमिताभ मिश्र:-
विमर्श के लिए ही सही कि एक कविता आंदोलन विचार कविता के नाम से ही चलाने का प्रयास किया गया था।  कविता में दरअसल विचार से ज्यादा संवेदना की जरूरत है।  ज्ञानात्मक संवेदना या संवेदनात्मक ज्ञान के बारे में मुक्तिबोध बात कर चुके हैं।

दिनेश कर्नाटक:-
अमिताभ जी, यह जानना सुखद है कि आपकी इन बातों को लेकर सहमति है। मगर कई लोग तो अनुभव की प्रमाणिकता तथा विचार के सवाल को लेकर साहित्य को ख़ारिज करते हुए दिखते हैं।

अमिताभ मिश्र:-
मेरे मत से बुद्धि बहुत है और बाकी बहुत ज्ञान उपलब्ध है सब जगह कमसकम कविता में संवेदना की जगह बची रहे।  वरना तो जीवन से भी लुप्तप्राय है यह चीज।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें