17 अप्रैल, 2015

राजेश झरपुरे जी की कहानी


वह ज़मीन के अन्दर, अन्दर चला जा रहा था. 
अँधेरा, अँधेरा इतना कि सारे रंग एक दूसरे में मिलकर गहरे काले रंग में बदलकर रह गये थे. 
सुरंग, सुरंग ऐसी कि जिसका अन्त पृथ्वी की ओर-छोर. रोशनी, रोशनी इतनी कि जुगनुओं की तरह झिलमिलाती सी बस !
कभी एक तेज रोशनी उसकी आँखों में हुआ करती थी और एक उसके हेलमेट में-मद्धिम और लुपलुपाती. वह बहुत दिनों से, बहुत रातों से और बहुत छोटी उम्र में इन अँधेरो के बीच एक टिमटिमाती रोशनी की तरह था. सत्तर बरस की आयु की अंधेरी गुफा में वह अठारहा बरस की आयु पूरी कर चुका था. अब उसकी उम्र पैंतीस बरस के आसपास थी. उसकी आयु पिता की आयु के साथ जुड़ती थी, जहाँ अड़तालीस बरस में पिता की आयु समाप्त होकर घटाटोप अँधेरे में तब्दील होकर रह गईं थी,वहीं से उसके खेल मैदान में पड़ने वाले कदम इस सुरंग में पड़े थे.
      उसके पास बहुत से उजले और सुनहरे रंग थे. उसके स्पोट्र्स से सबसे सुन्दर और प्रखर रंग जुड़ते थे. क्रिकेट की ऊँचाईयों को छूना उसका सबसे सुन्दर सपना था. वह जितनी देर मैदान में क्रिकेट खेलता, उससे कहीं अधिक देर तक स्वप्न में. 
यूथ क्रिकेट क्लब के विरूद्ध एक दिवसीय मैच में अपने क्रिकेट जीवन की पहली सेन्चुरी पूरी कर, पहले दो ओवर में तीन विकेट चटकाये थे. वह यादगार दिन, दिन के पल-पल उसे आज भी रोमांचित कर देते है. क्रिकेट उसकी आत्मा में रचा-बसा था. अपने भविष्य के कैनवास पर वह तरह-तरह से खेल के भिन्न-भिन्न रंग भरता पर अपने बल्ले से रनों की लम्बी रेखा खींचना उसे बड़ा सुखद लगता. एक दिन बाॅल उसके बैट से लगकर आकाश की अनन्त ऊँचाईयों में खो गई. उसके हाथ से बैट छूट गया और  कांधे पर पिता की कुल्हाड़ी रखा गईं. पिता के हिस्से के कर्म, उनकी जव़ाबदारी, उनके सहकामगारों का साथ, सब उसके हिस्से आ गया. 

पिता की गोद में बड़ा होकर, उनके कन्धे पर चढ़कर, पिता जितना ऊँचा पूरा होकर, वह घर पर उन्हें सही ढंग से नहीं जान पाया था. पिता से ठीक-ठीक और सही परिचय कोयला खान की इन्हीं अँधेरी सुरंगों में ही हुआ था.
पिता की अकसर दिन, दिन पाली रहती थी-जनरल शिफ्ट. वह सेफ्टी डिपार्टमेंट में काम करते और टिम्बर मिस्त्री थे. उनका काम बहुत जोखिम भरा था और खतरनाक भी. वह अकसर माँ से कहा करते थे “-मेरा रास्ता मत देखा करो.” माँ उनके कहे का आशय समझ नहीं पाती थी. वह भी नहीं समझ पाता था. भूगर्भ की सुंरग में छानी (रूफ़/छत) को थामें रखना, उसकी कांथी (दीवार/साईट वाॅल) को धसकने से बचाये रखना उनकी मेन ड्यूटी हुआ करती थी. और अब उसकी. 

टिम्बर मिस्त्रियों के टोकन नंबर तो टाँगते वे ही थे, निकालेगा कौन... यह तय नहीं होता. बहुत कम टिम्बर मिस्त्री अपनी सर्विस पूरी कर स्वस्थ रिटायर्ड होते. बहुत से सुरंग की छानी और कांथी में दबकर भूगर्भीय अँधेरे में गुम होकर रह जाते थे-पिता की तरह. कुछ सुंरग का अँधेरा साथ लेकर अपंग और असहाय होकर मेडिकल अनफिट हो जाते. कुछ यदि अपनी ड्यूटी पूरी कर रिटायर भी हुए तो पृथ्वी की खुली हवा में अँधेरे की महीन कोल डस्ट खाँसते-खखारते साल-छः महीने में ही राख हो जाते. ब्लास्टिंग के तुरन्त बाद वर्किंग फेस में घुसकर लोहे की गडर और लकड़ियों के स्लीपाट से छानी और कांथी को धसकने से बचाने के लिए उन्हें पूरा धुआँ और कोल डस्ट निगलना-उगलना पड़ता. कोल प्रोडक्शन का सारा प्रेसर उन्हीं के ऊपर होताा.
’’हरी अप्प.....
जल्दी करो! जल्दी करो!!
लोडर बैठे हैं!
अरिया खड़ा हैं!(खाली कोल टब का सैट)
अभी तक एक भी गाड़ी हाॅविस (हाॅलड) नहीं हुई. तुम्हारे कारण पूरा लोडिंग ट्रान्सपोर्ट और ट्रामिंग मेैनपाॅवर फ़ालतू बैठा हैं.’’
अँधेरे की पीठ पर रोशनी के कोड़े पड़ते -सटाक! सटाक!!
प्रेसर, प्रेसर इतना कि सुपरवाईज़र्स से लेकर मैनेजर और एजेंट तक का. 
वे बढ़ेंगे तो छटेगा अँधेरा.
वे उठायेंगे हाथ तो उठेगा कोयला. 
वे बढ़ायेंगे कदम तो ही भूगर्भ से सतह पर आयेगा काला हीरा.
और ब्लास्टिंग जोन की छानी ऐसी की सुरसा का मुँह! 
कांथी ऐसी कि शुम्भ-निशुम्भ की बलिष्ट भुजायें! 
वे सदैव खनिक को दबोचने और लीलने के लिये आतुर रहतीं.  
उसके मुँह को सिलना, उनके खूनी हाथों को कलम करना, टिम्बरिंग टीम के लिए किसी युघ्द की तरह होता है. तमाम प्रेसर के बाव़जूद एक निश्चति समय में वर्किंग सेक्शन को सुरक्षित और संरक्षित कर देने की युद्ध कलाओं में पिता माहिर थे. उनके वीरगति को प्राप्त करते ही अब वह युद्धरत है-खान कर्मियों के साथ-एक खनिक के रूप में.

अँधेरे बताते हैं ’’...पिता बहुत परिश्रमी और शान्त स्वभाव के थे. दो बोतल ठर्रा गटकने के बाद भी टस से मस नहीं होते. उन्हें गुस्सा कभी नहीं आता था. और न ही वह और लोगों की तरह खदान में अपशब्दों का प्रयोग करते थे. खान में कोई ऐसा खनिक नहीं था, जिसके फेफड़ों में कोयला न हो और जिसकी आत्मा में अँधेरा. कभी गुस्से में, तो कभी हमदर्दी पाकर, पर सदा दारू के अन्दर जाते ही उनका अँधेरा बाहर निकल पड़ता था. इन सब के बीच पिता ही एक ऐसे शक्स थे,जिनके अन्दर सदैव एक रोशनी जगमगाती रही.वह कभी बहकते नहीं थे बल्कि और अधिक सभ्य और संस्कारित हो जाते थे. उन्होंने अँधेरे को अपने संस्कार की रोशनी से दूर कर रखा था. वह अपने अन्दर के अँधेरे में कभी खो गये हो, ऐसा किसी ने न देखा और सुना था. बाहर दो-चार और घर में सिर्फ़ मां जानती थी कि वह नशा करते थे-पर  ड्यूटी  में कभी नहीं पीते थे.’’

अँधेरे बताते हैं ’’...खैनी खाने की आदत उन्हें इन्हीं सुरंगों में पड़ी थी. उनके सीधेपन पर पहले-पहल सब हँसते थे. उनका मजाक उड़ाते. उन्हें गांवठी और देहाती जैसे शब्दों से सम्बोधित करते थे. वह चुप और सिर्फ़ चुप रहते. लेकिन अँधेरे में भी उनकी आँख बोलती थीं और वह सिर्फ़ अपना काम करते रहते. उनकी टीम में उनके साथ एक हेट मिस्त्री और चार हेल्पर थे. हेट मिस्त्री पक्का दरूआ था. बिना पिये भी उसके पैर डगमगाते थे और हाथ काँपते थे. पिता उसके हिस्से का काम भी बिना किसी त्रास या एहसान जताये बिना कर देते थे. वह उनकी आँखों की भाषा समझ जाते और तहेदिल से उनका आदर करता था. पिता अपनी टीम के अघोषित हेट मिस्त्री थे लेकिन वेतन उन्हें जूनीयर मिस्त्री का ही मिलता था. वह अपनी टीम में हेल्परों के साथ कार्य का विभाजन नहीं करते थे. वह रूफ़ सपोर्ट का काम, अपना काम समझकर करते. वह भूगर्भ में अँधेरे के सीने पर रोशनी के स्तम्भ खड़ा करते. वह जितनी दक्षता से सपोर्ट के लिये लकड़ियाँ फाटते हुए कुल्हाड़ी चलाते, उतनी ही कुशलता से लकड़ियों के चाॅक भी बाँध लेते थे. और उससे कहीं अधिक तत्परता से लोहे की बड़ी-बड़ी गडरों, मोटी-मोटी बल्लियों को अपना कन्धा भी लगाते थे. कन्धा देना हेल्परों का काम होता पर वह अपना कन्धा सबसे पहले बढ़ा देते. हेल्पर्स भी उनकी आँखों की भाषा समझ जाते और सारे कन्धे एक साथ, एक ही दिशा में, एक ही वजन पर लगते थे . गडरों और बल्लियों का भार फूल जैसा हो जाता था.

   धीरे-धीरे सभी खानकर्मियों ने उनकी इस भाषा को जान लिया. वह गाँवठी और देहाती शब्दों के सम्बोधन से ऊपर उठ गये. उनकी आँखों के बोल बहुत प्रभावशाली थे. उनकी दृष्टि अँधेरे को चीरते हुये सीधे प्रकृति को चुनौती देती थी .उनके सेक्शन में कार्य करने वाले लोडर, ड्रेसर, आपरेटर, यहाँ तक की सुपरवाईज़री स्टाफ़ भी अपने आपको बेहद सुरक्षित मानते थे. उनका मानना था जहाँ पिताजी के हाथ का खूँठा ठुका हो, उस सुरंग की छानी और कांथी चू-चपाट नहीं कर सकती .वे निर्भय होकर, कोयले में बिलचा लगा सकते हैं. बॅकेट भर-भरकर, कंधे पर लादकर कोल टबों तक ढुलाई कर निर्भय होकर रह सकते हैं. कांथी अपनी जगह वहीं मजबूती से खड़ी रहेगी. छानी, स्टील, कंक्रीट और सीमेंट से जुड़े स्लेब की तरह अडिग रहेगी. हालाँकि यह सब इस तरह होने जैसे के पीछे पिता पर उन सबका विश्वास होता. वे सब पिता के आश्रय में अपने आपको बेहद सुरक्षित पाते थे. 

     अँधेरे बताते हैं ’’...उन्हें भूगर्भ में होने वाली हलचल का पूर्वाभास हो जाता था. वह छानी के सिसकने की करूणामयी आवाज़, ख़ुशी में फूलकर कुप्पा हुई छानी की किलकारी और वेन्टीलेशन फेन की एयर से मदोन्मत्त हुई कांथी का अट्ठहास बिलकुल साफ़ सुन सकते थे और उसके मनसूबे को समझ भी सकते थे. उन्होंने कह दिया तो सुपरवाईज़र तुरन्त वर्किंग फेस को खाली करवा देता था. और देखते ही देखते छानी घोर गरजना के साथ बैठ जाती. कांथी ढहने की आवाज़ छानी की हथनी जैसी चिंघाड़ के मध्य कहीं दबकर रह जाती. पूरी सुरंग में दूर-दूर तक सन्नाटा और कोलडस्ट पसरा होता. फेस का मैनपाॅवर चूहों की तरह सेफ़ जोन में दुबका होता पर पिता घटना स्थल से कुछ दूर खड़े भूस्खलन के स्वभाव का गंभीरता से आकलन करते रहते. वह ज़्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे. यदि होते तो भूगर्भशास्त्री ही होते. यदि पढ़ना-लिखना और अपने मन के मुताबिक विषय चुनने की सुविधा और स्वतंत्रता उनके पास  होती तो. पर ’’यदि’’ यह “तो”  उनके जीवन के साथ कभी नहीं जुड़ा और वह अक्षरज्ञान तक ही सीमित होकर रह गये. 

और जाने कितना-कितना बताया था-अँधेरे ने पिता के बारे में, जितना कभी माँ भी नहीं जान पाई थी. उनके द्वारा पला बढ़ा शिक्षित हुआ वह भी नहीं जान पाया था. 
एक रोशनी उसकी आँखों में थी और एक उसके हेलमेट में. वह अब तक यह जान पाया था कि उसकी नौकरी, पिता के शेष उत्तरदायित्व की पूर्ति के लिए उसे अनुकम्पा नियुक्ति के रूप में प्राप्त हुई है. इन अँधेरों में उसने यदि कोई रोशनी पैदा की है तो वह उसके शिक्षा की है. पिता की मृत देह की काबिलियत पर मिली टिम्बर मजदूर की नौकरी को वह अपनी शिक्षा के बल पर सीनियर अन्डर मैंनेजर के पद तक ले आया था. पर फिर भी असन्तुष्ट था. उसकी आँखें लगातार एक सच की तलाश करती रहती जो कोयला खान की इन्हीं सुरंगों के अँधेरे में कही दफ़न था. इन पन्द्रह सालों में उसके सेक्शन में कभी कोई दुर्घटना नहीं घटी. किसी कामगार को न कभी गंभीर चोट लगी और न ही कोई गंभीर भूगर्भीय आपदा से उसका सामना हुआ. वह अब तक अँधेरे से जीतता ही आया था. सभी खान कर्मी कहते ’’...खान के अँधेरो में छिपकर बैठे उसके पिता का आशीर्वाद उसके साथ है. वह बहुत सौभाग्यशाली है. भूगर्भ से उसके आँखों की रोशनी टिमटिमाने लगती -वह पिता को घटाटोप अंधेरे में भी महसूस कर लेता था. खान के पायें (पिल्लर) को स्पर्श करते ही उसे पिता की सजीव देह का आभास होता. वह आज भी उतने ही हष्टपुष्ट और स्वस्थ लगते जितने वह मृत्यु से पहले हुआ करते थे .     
  
अँधेरे बताते हैं पिता बहुत जिद्दी थे पर सनकी नहीं. बीस-बीस फीट की छानी की नाक में नकेल डालना उनका शौक था. यह असम्भव था. उनकी जगह पर उन जैसा नहीं, कोई और होता तो यह असम्भव था पर उन्होंने असम्भव को कई बार सम्भव कर दिखाया था. पर घर में उन्होंने इसकी कभी चर्चा तक नहीं की . 

इन पन्द्रह बरसों में वह पिता को बहुत अच्छी तरह से समझ पाया था . नहीं समझ पाया था तो सिर्फ़ इतना कि पिताजी जैसे प्रैक्टिकल जियोलाजिस्ट का फेटल एक्सीटेंड कैसे हुआ. अँधेरे बताते हैं ’’-उनके ऊपर छानी गिर गई थी .वह वहीं ढेर हो गये थे. ’’उसे विश्वास नहीं होता. अँधेरे गहरा जाते है. सुरंग बताती है ’’-रूफ़ सपोर्ट करते समय अचानक उनके ऊपर कांथी गिर पड़ी थी और वह वहीं मलवे में दबकर रह गये थे.’’ उसे सुरंग की बातों पर विश्वास नहीं होता. वह पिता के समय से काम कर रहे और अब तक मेडिकल अनफिट, वी.आर.एस., एक्सीडेंट से बचे और जल्द ही रिटायर होने वाले बुजुर्ग कामगारों से पूछता. वे घबरा जाते. ’’-अब काहे बुढ़ापे में मिटियां खराब करत हो साहब.’’ कहते हुए वे अपने अन्दर बैठे अँधेरे के विस्तार में कहीं खो जाते हैं. वह फ़ाईलों से पूछता है. वे बताती हैं ’’-एक्सीडेंट प्लान, इन्क्वारी रिपोर्ट और इन्क्वारी कमीशन की फाईन्डिंग. गौर से पढ़ता. पूरे मनोयोग से जाँच पड़ताल करता, एक्सीडेंट प्लान की आड़ी तिरछी रेखाओं की. पर किसी ठोस निर्णय पर नहीं पहुँच पाता. अँधेरे अब सुरंगों से निकलकर उसकी देह पर पसरने लगते.
एक रोशनी उसकी आँखों में है. और एक उसके हेलमेट में.
वह अपनी माईनिंग स्टिक से रूफ़ का निरीक्षण करता है .
’’टक! टक!! ’’
उसे सुनाई देता-
’’प्रोडक्शन!’’ 
     प्रोडक्शन!! ’’
   उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं होता. वह पन्द्रह वर्षों से कोयला खान के  अँधेरों में पिता के फेटल एक्सीडेंट का वास्तविक कारण जानना चाह रहा था पर मिली सारी जानकारी आधी-अधूरी लगती, अविश्वसनीय और असंगत भी. कोयला खान की सुरंग में रोशनी नहीं होती. यह सोचकर वह और दुःखी हो जाता और फिर स्टिक से छानी पर हिट करता-
’’टिक ! टिक !! टिक !!! ’’
’’सेफ्टी! सेफ्टी!! सेफ्टी!!!’’
वह उछलकर दूर भागता...
’’धड़! धड़!! धड़ !!!’’
वह पीछे मुड़कर देखता है...
’’अँधेरा! अँधेरा!! अँधेरा!!!’’
पूरी पृथ्वी के गर्भ का अँधेरा सिमटकर खान की सुरंगों में समा जाता.
     एक उम्मीद जो उसकी आँखों में थी-स्याह अँधेरे में कहीं लुप्त हो जाती है.
कमर में बँधी बैटरी से हेलमेट में लगी केपलेम्प की रोशनी जुगनू की तरह लुपलुपाने लगती. उजाला नहीं होता. वह महसूस करता हैं-आज पिता सचमुच नहीं रहे.
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राजेश झरपुरे 
सम्पर्क: नयी पहाड़े काॅलोनी, जवाहर वार्ड, गुलाबरा, पो. एवम् जिला - छिन्दवाड़ा  (म.प्र.480001) मोबाइल 9425837377.;

प्रस्तुति:- स्वरांगी साने

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टिप्पणियां:-
लीना मल्होत्रा:-
कहानी पढ़ी। यह एक जरूरी कहानी है जिसमे एक ऐसे अछूते विषय पर   लेखक ने पूरे मनोयोग से परकाया अनुभव को इस कदर  जीवंत कर दिया है कि पाठक भी पात्र को आत्मसात कर उन अंधेरों का हिस्सा बन जाता है कांधी जैसे तकनीकी शब्द कहानी की अर्थवत्ता को बढ़ाकर उसे यथार्थ के करीब ले जाते हैं। बहुत सार्थक कहानी।


गणेश जोशी:-
सच में समाज में बहुत कुछ बदल रहा है लेकिन सोच नहीं बदली। कई जगह इस तरह की घटिया सोच बरकरार है। अच्छा संस्मरण।


हेमेन्द्र कुमार:-
राजेश ने अपनी कहानी में कोयला खान में काम कर रहे मजूरों की दुश्वारियों को बेहद संवेदनशीलता के साथ व्यक्त किया है।कहानी का शिल्प और भाषा प्रभावशाली है।बहुत अच्छी कहानी के लिए राजेश को बधाई।


अरुण आदित्य:-
वक्त के अंधेरों और शोषक व्यवस्था की सुरंगों के बीच एक आम आदमी के सपनों की मौत का  मार्मिक आख्यान।
पाश ने लिखा है, "सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना।" व्यवस्था जिसे अनुकंपा के रूप में देती है उसकी कीमत के बदले सपने छीन लेती है।
कहानी की विषय-वस्तु ही नहीं, कहन का ढंग भी प्रभावी है।

बधाई राजेश झरपुरे जी।

व्यास अजमिल:-
मोबाइल फोन पर कहानी पढना जरा भी अच्छा नहीं। ये थका देने वाला है। लघु कथा तो एक बार चल भी जाए लेकिन लम्बी कहानी का पढना तो जोखिम भरा है। आखें थक जाती हैं ।राजेश भाई की कहानी अभी अभी पढ़ी ।लग रहा है आँखों की सेहत पर सोचता रहता तो एक अच्छी कहानी के आस्वादन से वंचित रह जाता। यह कहानी वेचैन करती है।अन्धेरे में रौशनी के मर जाने के बारे में मैंने जो भी साहित्य पढ़ा है मै इस कहानी को उसी साहित्य के साथ ससम्मान रखता हूँ। यह कहानी भी हमें किसी निष्कर्ष पर नहीं ले जाती। कैसे ले जाती जब निष्कर्ष है ही नहीं। राजेश भाई को इस अच्छी कहानी को साधने की जद्दोजहद के लिए बधाई।


परमेश्वर फुंकवाल:-
राजेश जी,  क्या कहूँ इस बेहतरीन कहानी पर। बहुत संजीदगी के साथ अपनी बात कहती है। आपने जिन शब्दों का प्रयोग किया है वे अपने पात्रों के लिए उपयुक्त है और कहानी को एक विशेष प्रामाणिकता प्रदान कर रहे हैं। मैंने कई काबिल कारीगरों को इस तरह की स्थिति में देखा है,  और कई को सफलता की सीढ़ियाँ चढते। फिर भी जब तक हम प्रतिभा का सम्मान करना नहीं सीखते अधिकांश लोगों के लिए कहानी वाली परिस्थितियां हैं। आपको बहुत बहुत बधाई।


ललिता यादव:-
कुछ लोगों के लिए समस्त जीवन यज्ञ की ज्वाला सदृश होता है, जिसमें वह स्वयं समिधा बनकर होम हो जाते हैं और यज्ञ चलता रहता है। कोयला खदान में काम करने वाले कर्तव्यनिष्ठ, समर्पित पिता की मृत्यु के बहाने पुत्र जिस संवेदनशीलता से पिता को तलाशता और जीता है, उसकी कार्यशैली की विरासत को संभाले अपने अंतस के अंधेरे के साथ सुरंग के अंधेरे से जूझता है स्पृहणीय स्थिति है, पर आज के समय में उसका मोल क्या? कुछेक ऐसे जीवों के कारण ही बची है कार्य करने की संस्कृति।पिता केन्द्रित एक संवेदनशील कहानी के लिए राजेश जी को बधाई।


दिनेश कर्नाटक:-
हमारे हिंदी के कई साथी कहते हैं। हिंदी में नए अनुभव क्षेत्रों पर नहीं लिखा जा रहा है। राजेश जी की यह कहानी न सिर्फ पाठक को एक कोयले की खान की अपरिचित दुनिया में ले जाती है बल्कि वहां के अंधेरे को सामने रखती है। एक बेहतरीन कहानी।


सुरेन्द्र रघुवंशी:-
राजेश झरपुरे की कहानी   रोशनी पर अँधेरे आज के दौर की प्रचलित रोशनी देते दिए के नीचे के यथार्थ के अँधेरे की कहानी है। ये अँधेरे अक़्सर रोशनी की चकाचौन्ध में दबकर उपेक्षित और अचर्चित रह जाते हैं ।
             कोयला खान मज़दूर की ज़िन्दगी का काला सच लेखक और कथापात्र को खान की सुरंग के भीतर की घुटन में खुद तड़प रहे अँधेरे बताते हैं ।यहाँ कौन कब अपना काम करते हुए काल कवलित हो जाये कोई नहीं जानता। लेकिन पिता जानते थे और इसलिए वे माँ से कभी उनका घर लौटने का इंतज़ार न करने की बात कहते थे । पिता इस कथा के एक ऐसे सहज नायक हैं,जिन्होंने आम देहाती कोयला मज़दूर से अपनी  सर्विस शुरू की और एक दक्ष खनन टीम लीडर तक पहुंचे । उन्होंने अपने समग्र जीवनकाल अंधेरों को हावी नहीं होने दिया । उनके सहस की रोशनी खान की सुरंगों में फैलती रही और जीवन में भी।वे जानते थे कि सुरंग में बैठे उनके सहचर अँधेरे उन्हें कभी भी निगल सकते हैं ।इसका असर उन्होंने अपने खनन कर्म पर कभी नहीं होने दिया । उनके पुत्र ने उनकी यात्रा उनके बाद आगे ले जाकर पूर्ण की । यही कहानी और जीवन की पूर्णता भी है जो शोषण की लपटों के गर्म थपेड़े सहते हुए संघर्ष की धरती पर निरंतर जारी है जबकि कोयले की डस्ट हमारे फेंफड़ों की रिक्तता को भर चुकी है और हम बेबस खांस रहे हैं ।
         इस बेहतरीन कहानी के लिए भाई राजेश झरपुरे जी को हार्दिक वधाई।


अमिताभ मिश्र:-
राजेश एक नई भाषा, भाव भंगिमा के साथ रोचक और अनछुए विषय पर कहानी लिखते हैं, साधते हैं।  बहुत प्रभावित करती है यह कहानी।  राजेश बहुत अच्छे।


पूर्णिमा मिश्रा:-
बहुत ही मार्मिक चित्रण,एक ऐसे युवा की जिंदगी का,जो बेहद संवेदनशील है।जिसकी आँखों में सुनहरे स्वप्न थे जिन्हे पिता की असमय मृत्यु के का२ण वह पूरा न कर सका।
सीने में स्वप्न दफन कर अपनी युवावस्था सुरंग के अंधेरों के नाम कर दी।
पिता के प्रति पुत्र की कोमल भावनाओं का सुन्दर रेखांकन।
कोयला खान के कामगारो की जटिल कार्य शैली को दर्शाती हुई कथा,जो पाठकों को उस दुनिया से रुबरु कराती है जो उनकी सहज सरल जिंदगी की तुलना में बेहद दुरूह है,और जोखिम भरी भी।
अच्छी कहानी सभी तक पहुंचाने के लिये शुक्रिया।


बी एल पाल:-
बधाई राजेश भाई।कहानी पूरी कसावट के साथ है।आवश्यक महत्वपूर्ण जनवादी बुनियाद के रूप में है। कथ्य तथा कथ्य में ताप दोनों एक बराबर की स्थिति की कला में है जिसे अलगाया नहीं जा सकता।दोनों से ही यह सही और अच्छी  कहानी बन पायी है।कहानी जनवाद के कथ्य और उसकी कला के रूपक की  तरह भी है।


अंजू शर्मा:-
पिछले कई दिनों में कोयला खदानों के परिवेश पर यह राजेध जी ली दूसरी कहानी है जो मैंने पढ़ी। बचपन की स्मृतियों में जीवन्त 'काला पत्थर' फ़िल्म से खदानों की बीच के कालेपन को जानने का अवसर मिला था। फिर साहित्य में कोयला खदानों से पहला परिचय मण्डलोई जी के संस्मरणों से हुआ।  उन्ही के मुंह से इस परिवेश से जुड़े कुछ अनुभवों को जाना था पर इतना सूक्ष्म विवरण शायद पहले न पढ़ा न सुना न ही देखा।  अंधेरों का यह बिम्ब कितना भयावह और सार्थक है और इन खदानों और खनिकों के संदर्भ में कितना साश्वत है। राजेश जी की कहानी पढ़ते हुए मैंने भी कांथी और छानी को सांस लेते महसूस किया। अँधेरे का निर्मम अट्टहास सुना और यही कहानी की सफलता है। राजेश जी को एक भावप्राण और सच्ची कहानी के लिए हार्दिक बधाई


राजेश झरपुरे:-
स्वारंगी सानेजी, लीनाजी, आशाजी,अरूण आदित्यजी, गणेश जोशीजी,भाई हेमेन्द्र राय, अजामिलजी, मनचनन्दा भाई, परमेश्वर भाई, ललिताजी. दिनेश कर्नाटकजी, सुरेन्द्रमाई और भाई अमिताभजी  के प्रति आभार और शुक्रिया । आप सभी ने पूरे मनोयोग से कहानी पढ़कर अपनी महत्वपूर्ण टिप्पणी दी । मुझे सम्बल मिला और मार्गदर्शन भी । पुनः आभार ।।

पूर्णिमा मिश्राजी और अन्य मित्र अभी कहानी पढ़ रहे है उनके प्रति भी आभार और उन्हें भी हार्दिक धन्यवाद ।

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