पहाड़ी मैना की पूरी प्रजाति के ही विलुप्ति का शिकार होने की आशंका है। पहाड़ी मैना जितना निरीह, सुकुमार और विलक्षण प्रतिभासंपन्न प्राणी विश्व में शायद ही कोई दूसरा हो।
आधी बित्ते से भी छोटा परिंदा जिसे आप अपनी हथेली पर बैठा लें, में और सब कुछ तो सामान्य मैना जैसा है पर इस नन्ही-सी जान में प्रकृति से पता नहीं कैसी अनुकरण की क्षमता मिली है कि वह मानव द्वारा उच्चरित ध्वनि की हूबहू नकल कर सकती है, बिना किसी अभ्यास या प्रशिक्षण के।
आप बोलिए और पहाड़ी मैना उसकी नकल करती चली जाएगी, जैसे किसी ने उसके गले में कोई टेप-रिकॉर्डर फिट कर दिया हो। यह मैना केवल छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग के पहाड़ों में ही पाई जाती है, इसलिए इसे बस्तरिहा मैना भी कहते हैं। छत्तीसगढ़ सरकार ने इसकी अनन्यता को स्वीकृति प्रदान करने के लिए इसे राज्य के पक्षी वर्ग का प्रतीक घोषित किया है। राज्य के अन्य प्रतीक चिह्न हैं, पेड़ों में साल और पशुओं में अरना भैंसा। अरना अर्थात जंगली भैंसा। पक्षियों में तोता ही एक ऐसा जीव माना जाता है, जिसके मनुष्य की बोली की नकल करने के सैकड़ों किस्से हमारी लोक-कथाओं और महाकाव्यों में भरे पड़े हैं।
जायसी के पद्मावत के हीरामन को कौन नहीं जानता ? शुक-सारिका अपने प्रेमालाप के लिए प्रसिद्ध हैं, पर शुक को सिखाना पड़ता है, पहाड़ी मैना को मनुष्य की बोली का अनुकरण करना सिखाना नहीं पड़ता है।
पहले के कलारसिक अपने घरों में शुक भी पालते थे और सारिका भी। बस्तर के जंगलों में जो सारिका या मैना पाई जाती है उसकी नकल सुनकर बड़े-बड़े ध्वनि विशेषज्ञ चकरा जाएं।
भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जब बस्तर के दौरे पर आईं थीं, तब वे ओरछा और नारायणपुर भी गई थीं। यह वही क्षेत्र है जो इन दिनों नक्सलवादी उथल-पुथल के लिए समाचारों में छाया रहता है। किंवदंती है कि इंदिराजी ने नारायणपुर के विश्रामगृह में जब अपनी ही आवाज सुनी तो वे कौतूहल से भर गईं। यहां मेरी आवाज में बोलने वाला कौन है? उनके सामने पिंजरबद्ध बस्तरिका मैना प्रस्तुत की गई। इंदिराजी को विश्वास नहीं हुआ। वहां के वन अधिकारियों ने पहाड़ी मैना की मानव ध्वनि अनुकरण विलक्षणता के बारे में बतलाया। पर उन्हें विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने मैना से स्वयं बातचीत की… यह क्या? मैना उनके संवादों को ज्यों का त्यों, उसी आरोह-अवरोह और बलाघात में दुहरा रही है। इंदिराजी ने जानना चाहा कि इसे पहाड़ी मैना क्यों कहते हैं ? क्योंकि ये पहाड़ों में रहती हैं, केवल बस्तर के पहाड़ों में। क्या कोई मैदानी मैना भी होती है? हां, होती है पर उसे कौंदी मैना कहते हैं। कौंदी अर्थात् गूंगी।
जब मैं बस्तर के मुख्यालय जगदलपुर के महाविद्यालय में हिंदी का प्राध्यापक होकर पहुंचा तब तक पूरे बस्तर में इंदिराजी और पहाड़ी मैना के किस्से किंवदंती बन चुके थे। यहां विद्यालय का मेरा एक विद्यार्थी था प्रफुल्ल कुमार सामंतराय। प्रफुल्ल का गला बेहद मीठा था, उसकी अंग्रेजी बहुत अच्छी थी, उसे गालिब के सैकड़ों शेर कंठस्थ थे। वह विख्यात अंग्रेजी साप्ताहिक ब्लिट्ज का क्षेत्रीय संवाददाता था। वह बैलाडिला की अयस्क खदानों की रिपोर्टिंग के लिए वन्यांचल के सुदूर क्षेत्रों में जा रहा था। तब वह मुझसे मिलने आया। सर, मैं बैलाडिला से आपके लिए क्या लाऊं? पत्नी के मुंह से बेसाख्ता निकला- माड़ी मैना। माड़ी बस्तर की बोली में पहाड़ी को कहते हैं। बस्तर का दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र इसीलिए अबूझमाड़ कहलाता है। हफ्तेभर बाद जब प्रफुल्ल अबूझमाड़ का दौरा कर लौटा तो बांस की तीलियों से बना एक सुंदर-सा पिंजरा उसके साथ था। उस पिंजरे में एक सुकुमार पक्षी था- पहाड़ी मैना। पक्षी बड़ा निरीह-सा लगा, पर जब प्रफुल्ल ने हल्बी में उससे बात की तब उस सुकुमारी मैना ने उसको ज्यों-का-त्यों दुहरा दिया। यदि हमारी पीठ प्रफुल्ल की ओर होती तो हम समझते कि यह मैना नहीं, प्रफुल्ल ही बोल रहा है। हमने प्रफुल्ल की बताई हुई सारी सावधानियां बरतीं, खाने के लिए चावल की कनकी, कोदों के दाने, घास के बीज। देखो, यहां शोर मत करो, यहां बस्तर की जादूकंठी मैना सो रही है। हम लोगों ने उस विलक्षण मैना का नाम भी रखा- अरण्यप्रिया, दंडकारण्य की उस अनन्य मैना का दूसरा नाम होता भी क्या ? पर उसे देखने के लिए पूरा महाविद्यालय हमारे यहां जुट आया। पर उसे देखने के लिए पूरा महाविद्यालय हमारे यहां जुट आया। जो आता वह बरांडे में टंगे पिंजरे में झांकता, कोई सीटी बजाता, कोई हंसता। चौथे दिन मैना कुछ लस्त-सी दिखी। पांचवें दिन सबेरे हमने जब दरवाजा खोला तो पिंजरा यथावत था, मैना भी सो रही थी, पर उसकी देह निस्पंद थी- रात बड़ा कोहरा था, सर्द हवा चली थी। मैना के गले में कांटे उग आए थे और ठंड से वह प्रकृति प्रिया अकड़ गई थी। लेकिन मुझे लगा न तो वह ठंड से अकड़ी थी, न ही कोहरे से निस्पंद हुई थी। पिंजरे का बंधन उसे रास नहीं आया था। नगर का कृत्रिम जीवन उसे भारी पड़ गया था, वह वन की स्वच्छंद विहारी थी, शहर में रहना उसे रास नहीं आया, मनुष्यों के संपर्क ने उसके जीवन में जैसे विष घोल दिया हो। दंडकवन की सुरम्य प्रकृति की बाल विहारिनी की मानव निर्मित कारा में मृत्यु हमारे बस्तर प्रवास की सबसे मर्मांतक घटना थी। हम लोग उस मैना को जीवनभर नहीं भूल पाए, उसके बाद हमने किसी भी पक्षी को बंदी नहीं बनाया। पहाड़ी मैना की प्रजाति अब विलुप्ति के कगार पर है।
उसकी मानव ध्वनि की असाधारण अनुकरण क्षमता ही उसकी सबसे बड़ी शत्रु सिद्ध हुई। मुंबई, दिल्ली, पुणे, हैदराबाद जैसे महानगरों के कला रसिकों की वह इतनी बड़ी पसंद सिद्ध हुई कि दूर-दूर के व्यापारी उसे खरीदने के लिए बस्तर आने लगे और विदेशों में भी उसका निर्यात होने लगा।
अबूझमाड़, बैलाडिला, ओरछा, छोटे डोंगर, बारसूर, कुटमसरे की पहाडिय़ां पहाड़ी मैना का प्राकृतिक रहवास हैं। नागर जलवायु और असंयमित आहार उसे रास नहीं आया। ध्वनि प्रदूषण उसके लिए महारोग से कम नहीं। उसके गले में कांटे उगे नहीं कि उसकी स्वर तंत्रिका नष्ट हो जाती है। पहाड़ी मैना को संरक्षण की सख्त जरूरत है।
000 कांति कुमार जैन
प्रस्तुति- मनीषा जैन
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टिप्पणियां:-
प्रज्ञा:-
नमस्कार मित्रों कल की अनुपस्थिति के लिये क्षमा। पहले तो अर्चना जी को बधाई। कविताएँ अच्छी लगीं उनकी मुझे। पठनीय हैं बस भाषा को आज के अनुरूप गढ़ना शेष है। आपको शुभकामनाएं।
आज का संस्मरण बहुत ही सम्वेदनशील है। मैना को केंद्र में रखकर परिधि से विस्तार लेता हुआ और फिर परिधि को केंद्र में समेटकर पूर्णता की ओर गतिशील।
गौरैयाओं और मैनाओं जैसे परिंदों को वाकई संरक्षण की ज़रूरत है। ज़रूरत मानवीय दृष्टि की सर्वाधिक है जो लुप्त होती जा रही है। इसे साझा करने का शुक्रिया।
ब्रजेश कानूनगो:-
अब पक्षी और गिलहरी जैसे जीव लगातार कांक्रीट के जंगलों को छोड़कर भाग रहे हैं।विलुप्त होते प्राणियों को संस्मरणों में पाना भी राहत देता है।आभार शेयर करने के लिए।
मिनाक्षी स्वामी:-
अद्भुत पहाडी मैना के संरक्षण का प्रेरणादायक, रोचक और मार्मिक संस्मरण पढकर अच्छा लगा। भाषा का प्रवाह बांधे रहता है।
अनुप्रिया आयुष्मान:-
बहुत ही उम्दा संस्मरण है ।इसमें एक नया ही विषय वस्तु है ।और लिखने की शैली ने मुझे ही प्रभावित किया। बीजूका के माध्यम से बहुत सी जानकारियां मिल रही है ।इसके लिए धन्यबाद ।
कविता वर्मा:
बस्तर के जंगल जितने खूबसूरत है उतने ही प्राकृतिक संसाधनो से भरपूर हैं। मैंने अभी छत्तीसगढ़ से कार से या त्रा की है। हालांकि राजमार्ग निर्माण के लिए जंगल की बहुत कटाई हुई है लेकिन फिर भी कही कहीं जंगल में पक्षियों का कलरव सुनाई देता है। कई जगह नीलकंठ के दर्शन हुए। शहरीकरण जंगलों की कटाई और बढ़ते ध्वनि प्रदूषण ने कई पक्षियों के सामान्य जीवन चक्र को बाधित किया है ऐसे में वे या तो पलायन कर गए हैं या विलुप्ति के कगार पर हैं। जिसमे गौरय्या कौवे चील गिद्ध जैसे पक्षी अब देखने को नहीं मिलते। पहाड़ी मैना के बहाने ये सभी पक्षियों की विलुप्ति के लिए चिंता है। जिसे बेहद रोचक और धाराप्रवाह भाषा में अभिव्यक्त किया गया है। पहाड़ी मैना की मौत हर उस पक्षी के करुणामय अंत की ओर इशारा है जिससे उसका प्राकृतिक आवास छीना जा रहा है। आभार मनीषा जी इसे पढ़वाने के लिए।
गरिमा:-
कांति कुमार जैन अपने बेहतरीन संस्मरणों के लिए जाने जाते हैं।हंस में उनके संस्मरणों की श्रृंखला छपी थी।जीवंत,व्यंग्य और संवेदना से भरपूर।हिंदी की संस्मरण विधा को समृद्ध करने में उनका महत्वपूर्ण स्थान है।जिसके कारण उन्हें कई बार कड़ी आलोचना का सामना भी करना पड़ा।वे सागर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में थे।उन्होंने समीक्षा और स्मृति चित्रों का समन्वय किया बच्चन जी,रामप्रसाद त्रिपाठी ,रजनीश और शिवमंगल सिंह सुमन पर लिखे उनके संस्मरण उल्लेखनीय हैं।समीक्षा और स्मृति चित्रों के समन्वय के प्रमाणस्वरूप उनकी पुस्तक "तुम्हारा परसाई"को देखा जा सकता है।उन्होंने कहा था क़ि "किसी भी संस्मरणीय के केवल कृष्णपक्ष का उद्घाटन करना लक्ष्य नहीं बल्कि उसके व्यक्तित्व की संरचना के तानो-बानों और उसके परिवेश की सन्निधि में उसकी रचनात्मकता के छोटे बड़े प्रसंगों के माध्यम से स्केनिंग मेरा अभीप्सित है।"उनका संस्मरण पढ़वाने के लिए एक बार फिर आप सबका आभार।
फ़रहत अली खान:-
मसरूफ़ियत की वजह से दिन भर ग़ायब रहा, कुछ देर पहले ही कांति जी का संस्मरण पढ़ा। कितनी बढ़िया रचना है; पहले तो पहाड़ी मैना की विशेषतायें बतायीं और फिर एक मैना की मार्मिक कहानी भी सुना दी; और वो भी इतने प्रभावी ढंग से। संस्मरण के अंत में जो एक सन्देश छुपा है उसे हम सभी को समझने की ज़रुरत है।
धन्यवाद मनीषा जी।
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