15 मई, 2015

नज़ीर अकबराबादी की नज़्म 'आदमी-नामा'

आगरा में जन्मे प्रख्यात उर्दू शायर और नज़्मों के जन्मदाता कहे जाने वाले नज़ीर अकबराबादी(1740-1830) की एक बेहद मशहूर नज़्म 'आदमी-नामा' के कुछ अंश आज मैं पेश कर रहा हूँ। ग़ौर से पढ़कर ये देखें कि इनके ज़माने में यानी आज से लगभग 250 साल पहले किस प्रकार की भाषा का प्रयोग होता था और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियाँ दें: 

"आदमीनामा"- नज़ीर अकबराबादी (1740-1830)

दुनिया में बादशा है सो है वो भी आदमी
और मुफ़लिस-ओ-गदा है सो है वो भी आदमी
नेमत जो खा रहा है सो है वो भी आदमी
टुकड़े चबा रहा है सो है वो भी आदमी
(बादशा = बादशाह; मुफ़लिस-ओ-गदा = ग़रीब और भिखारी)

मस्जिद भी आदमी ने बनायी है याँ मियाँ
बनते हैं आदमी ही इमाम और ख़ुत्बा-ख़्वाँ
पढ़ते हैं आदमी ही क़ुरआन और नमाज़ याँ
और आदमी ही उनकी चुराते हैं जूतियाँ
जो उन को ताड़ता है सो है वो भी आदमी
(ख़ुत्बा-ख़्वाँ = धार्मिक बयान करने वाले)

याँ आदमी पे जान को वारे है आदमी
और आदमी पे तेग़ को मारे है आदमी
पगड़ी भी आदमी की उतारे है आदमी
चिल्ला के आदमी को पुकारे है आदमी
और सुन के दौड़ता है सो है वो भी आदमी
(तेग़ = तलवार)

चलता है आदमी ही मुसाफ़िर हो ले के माल
और आदमी ही मारे है फाँसी गले में डाल
याँ आदमी ही सैद है और आदमी ही जाल
सच्चा भी आदमी ही निकलता है मेरे लाल
और झूठ का भरा है सो है वो भी आदमी
(सैद/सय्याद = शिकारी)

याँ आदमी ही शादी है और आदमी बियाह
क़ाज़ी वकील आदमी और आदमी गवाह
ताशे बजाते आदमी चलते हैं ख़्वाह-म-ख़्वाह
दौड़े हैं आदमी ही तो मशअल जला के राह
और ब्याहने चढ़ा है सो है वो भी आदमी
(मशअल = मशाल)

याँ आदमी नक़ीब हो बोले है बार बार
और आदमी ही प्यादे हैं और आदमी सवार
हुक़्क़ा सुराही जूतियाँ दौड़ें बग़ल में मार
काँधे पे रख के पालकी हैं दौड़ते कहार
और उस में जो पड़ा है सो है वो भी आदमी
(नक़ीब = सरदार/प्रमुख)

बैठे हैं आदमी ही दुकानें लगा लगा
और आदमी ही फिरते हैं रख सर पे खूंचा
कहता है कोई 'लो' कोई कहता है 'ला रे ला'
किस-किस तरह की बेचें हैं चीज़ें बना-बना
और मोल ले रहा है सो है वो भी आदमी
(खूंचा = सामान रखने की टोकरी)

याँ आदमी ही लाल-ओ-जवाहर में बे-बहा
और आदमी ही ख़ाक से बदतर है हो गया
काला भी आदमी है कि उल्टा है जूँ तवा
गोरा भी आदमी है कि टुकड़ा है चाँद सा
बद-शक्ल बद-नुमाँ है सो है वो भी आदमी
(लाल-ओ-जवाहर = रूबी पत्थर और जवाहरात, बे-बहा = बेशक़ीमती)

मरने में आदमी ही क़फ़न करते हैं तैयार
नहला-धुला उठाते हैं कंधे पे कर सवार
कलमा भी पढ़ते जाते हैं रोते हैं ज़ार-ज़ार
सब आदमी ही करते हैं मुर्दे का कार-ओ-बार
और वो जो मर गया है सो है वो भी आदमी
(कार-ओ-बार = क्रिया-कर्म)

प्रस्तुति:- फ़रहत अली खान
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टिप्पणियाँ:-

फ़रहत अली खान:-
सबसे पहले ये पंक्ति देखें:

बन-ते-हैं-आ-द-मी-ही-इ-मा-मौ-र-ख़ुत-ब-ख़्वाँ

= बन-ते-ह-आ-द-मी-हि-इ-मा-मौ-र-ख़ुत-ब-ख़ाँ

= 22 1212 1122 1212

और-
आ-द-मी-ही-फिर-ते-हैं-रख-सर-पे-ख़ू-न-चा
= अर-आ-द-मी-हि-फिर-त-ह-रख-सर-प-ख़ू-न-चा
= 22 1212 1122 1212

ये उस वक़्त की ज़बाँ है जब 'यहाँ' को अक्सर 'याँ' बोला जाता था।
आप सारी पंक्तियाँ पढ़ेंगी तो आपको 22 1212 1122 1212 की बहर में ही मिलेंगी। ये बड़े शायर थे; लगभग 6000 ग़ज़लें लिखी हैं इन्होंने।

मनचन्दा पानी:
मीटर-फीते मैं समझ नहीं पाता।
इतना भर समझ पाता हूँ की ग़ज़ल में भाव कितने सुंदर पिरोये गए हैं। फ़रहत जी ने कहा इन्होंने लगभग 6000 ग़ज़ल लिखी हैं। आगे सब ऐसी ही रही हों तो बहुत बड़ा काम है।
और इस ग़ज़ल को खोज लाये यहाँ लगाने के लिए आपका काम भी सराहनीय है।
शुक्रिया फ़रहत जी।

रूपा सिंह :-
बहुत बढ़िया।नाजिर अकबराबादी जी की अपनी खास स्टाइल।कितने बड़े सच को यूँ बयां कर जाना कि पर्सनल ही पोलिटिकल हो जाना।बहुत खूब।

ब्रजेश कानूनगो:-
दुनिया कितनी ही तरक्की कर ले।कितना ही मशीनीकरण हो जाए लेकिन सबका आधार केवल और केवल मनुष्य है।इंसान की श्रेष्ठता ही अच्छी दुनिया का सार तत्व होता है।शुक्रिया नजीर साहब।इतने बरस बाद भी ये ख़याल आज भी पूरी ताकत से कायम है।

प्रज्ञा :-
जन को समर्पित नज़ीर का अंदाज़ ही अलग। आज भी उतना ही ताज़ा और ज़रूरी।
हबीब साहब का आगरा बाज़ार भी याद आ गया। और किरदार गोविन्द निर्मलकर । तीनों ही आज नहीं हैं ।

अलकनंदा साने:-: फरहत, यदि इसी तरह की ग़ज़ल यहाँ लगाते रहे तो शायद एक दिन मुझे भी ग़ज़ल सीखने की इच्छा हो जाएगी ....क्या ग़ज़ल है ! वाकई ....और आखिरी पंक्ति तो चरम सत्य

और वो जो मर गया है सो है वो भी आदमी

मनीषा जैन:-
बहुत उम्दा ग़ज़ल। यही भाषा मैंने रामपुर व मेरठ में सुनी। और मेरे कान अभ्यस्त है इस भाषा के। चुनाव बहुत ही अच्छा फरहत जी। शुक्रिया रू-ब- रू करने का।

कविता वर्मा:
सही कहा मनीषा जी फरहत जी का गज़लों का चुनाव बहुत उम्दा होता है । शुक्रिया फरहत जी ।

फ़रहत अली खान:-
नज़ीर साहब की 'आदमी-नामा' दरअसल एक 'नज़्म' है, 'ग़ज़ल' नहीं।
नज़्म ग़ज़ल के सभी नियमों का पालन नहीं करती हैं। नज़्म और ग़ज़ल अलग अलग विधाएँ हैं।

मैं आज दिन भर बाहर था, इसलिये बीच में ठीक से अपनी हाज़िरी दर्ज नहीं करा पाया। आप सभी का आभार कि इतनी पुरानी रचना को इतना सराहा।

आगरा में जन्मे नज़ीर अकबराबादी को जनकवि कहा जाता था क्यूँकि उनकी नज़्में आमजन की तत्कालीन स्थिति का बारीकी से विवरण करती हैं। उन्होंने आम इंसान से जुड़े लगभग हर विषय पर जैसे कि त्योहारों, मौसमों, फलों, रोज़मर्रा की इस्तेमाल होने वाली चीज़ों, जीवन आदि पर आधारित नज़्में लिखीं। उन्होंने 'रोटी', 'मुफ़लिसी', 'ईद', 'पैसा', 'रुपया', 'आटा-दाल', 'अहल-ए-दुनिया(दुनिया वाले)', 'ख़ुशामद', 'फ़ना' से लेकर 'झोपड़ा', 'तरबूज़', 'ककड़ी', 'पंखा', 'बाला(ear-ring)'जैसे विषयों तक पर नज़्में लिखीं। 'आदमी-नामा', 'बंजारा-नामा', 'कलजुग नहीं करजुग है ये' आदि इन्हीं प्रसिद्ध नज़्में हैं। इनके द्वारा छुए गए विषयों की बड़ी रेंज के आधार पर इन्हें एक बेहद ज़हीन(जीनियस) शायर माना जाता है।
 
हालाँकि नज़्मों के विभिन्न रूपों को दुनिया के सामने लाने का श्रेय अल्ताफ़ हुसैन 'हाली' और मुहम्मद हुसैन 'आज़ाद' को जाता है लेकिन चूँकि नज़ीर इन दोनों से काफ़ी से पहले ही नज़्में लिख चुके थे इसलिए उन्हें नज़्मों का जन्मदाता(father of nazm) कहा जाता है।

नज़्मों के अलावा इन्होंने बहुत सी ग़ज़लें भी लिखी हैं। इनका एक उम्दा शेर देखें:

न गुल अपना, न ख़ार अपना, न ज़ालिम बाग़बाँ अपना...
बसाया आह किस गुलशन में हमने आशियाँ अपना...

(ख़ार - काँटे, बाग़बाँ - माली, गुलशन - बाग़, आशियाँ - घर) 

(नज़ीर अकबराबादी)

मुकेश माली :-
जिंदगी के फलसफे को बयां करती
नज़ीर सा. की कालजयी रचना.
गज़लों, नज्मों के चाहने वालों में बेहद
मकबूल.. .!.हमने इस नज्म को
नुक्कड़ नाटकों.. सभाओं में
समूह में सस्वर पाठ किया है.. (जनगीत की तरह)
इसका और अच्छा प्रयोग ’लखनऊ इप्टा ’ टीम अपने नाटकों में
करती है.. .!
होली पर नज़ीर सा. लिखते हैं.
जब फागुन के रंग दमकतें हों...
तब देख बहारें होली की.. ..!
और दफ़्तर के शोर खडकतें हों
तब देख बहारें.होली की. ...."
जैसे कहानी में मंटो वैसे ही
नज्म में नज़ीर सा.! !!!
धन्यवाद फरहत भाई.

रूपा सिंह :-
फरहत जी अकबर नजीराबादी जी की ही हैं न वो पंक्तियाँ..मैंने पुछा ख्वातीनों से पर्दा तेरा कहाँ है...उन्होंने कहा मर्दों की अकल पर पड़ गया...'बताइये न सही से क्या है...��

फ़रहत अली खान:-
नहीं, रूपा जी। ये मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी साहब का शेर है; वही शायर जिनके "हर शाख़ पे उल्लू बैठा है", "पैदा हुआ वकील तो शैतान" जैसे बहुत से शेर आज भी प्रचलन में हैं। ये सही मायनों में ऑलराउंडर शायर थे। इनपर तफ़सील से बात कभी और करूँगा।
सही शेर ये है:
पूछा जो उन से आपका पर्दा वो क्या हुआ...
कहने लगीं कि अक़्ल पे मर्दों की पड़ गया... :)

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