"अमरफल "
(1)
तोते का जुठाया अमरूद दो मुझे
जिसके भीतर की लामिला फूटती हो बाहर
गिलहरी के दाँतों के दागवाला जामुन दो काला
अंधकार के रस से भरा हुआ
पक कर अपने ही उल्लास से फटता
एक फल दो शरीफे का
और रस के तेज वेग से जिस ईख के
फटे हों पोर
वह ईख दो मुझे
और खूब चौड़े थन वाली गाय का दूध
जिसके चलने भर से
छीमियों से झरता हो दूध
मुझे छप्पन व्यंजन नहीं
बस एक फल दो
सूर्य का लाल फल
अंधकार का काला फल
जिसे बस एक बार काटूँ
और अमर हो जाऊँ
वही अमरफल !
(2)
सबसे अच्छे फल थे वे
जो ऋतु में आए
जब पौधा था
पूरे उठान पर
लेकिन सबसे अंतिम फल ही
जो पड़े डाल पर ज्वाए
टेढ़े बाँगुर
अगली ऋतु के लिए सहेजे हमने
वही अमरफल!
"पुतली में संसार "
और मैं देखता हूँ, तो मुझे केवल पुतली नहीं
पूरी आँख दिख रही है गुरुदेव
और मछली और वह खंभा
और आकाश और आप और ये सब जन धनुर्धर
इतनी भीड़ इतनी ध्वनियाँ
और मैं तो केवल नीचे ताक रहा हूँ, तेल के कुंड में
फिर भी पूरा आकाश घूमता लग रहा है
और मुझे मछली की पुतली में घूमती
एक और छवि दिख रही है देव
किसी छवि है यह
मछली किसे देख रही है
और कोई मुझे उसके भीतर से देख रहा है
मेरी पुतली पर इतनी छायाएँ
इतनी बरौनियों इतनी पलकों की अलग अलग छाया
मुझे मछली की नदी की गंध लग रही है देव
मेरी देह में इतनी गुदगुदी
इतने घट्ठों इतने ठेलों भरी देह में यह कैसा कंपन
मैं सारे मंत्र भूल रहा हूँ
सारी सिद्धि निष्काम हो रही है
ढीली पड़ रही हैं उँगलियाँ
पसीने से मुट्ठी का कसाव कम
मेरे पाँव हिल रहे हैं
कंठ सूख रहा है -
मुझे तो देखना था बस आँख का गोला
और मैं इतना अधिक सब कुछ क्यों देख रहा हूँ देव!
"घोषणा "
मैंने गौर से देखा और पाया कि राष्ट्र के प्रधान के
जीवन में नींद नहीं
मंत्रिमंडल की बैठक हमेशा देर रात
हर जरूरी फैसला आधी रात के बाद
फौज की तैनाती का हुक्म ढाई बजे रात
विरोधियों की नजरबंदी का आदेश पौने तीन
चीनी पर टैक्स बढ़ाने का फैसला मध्य रात्रि के इर्द गिर्द
विदेश यात्रा की उड़ान रात दो बजे
विदेशी मेहमान का विमानपत्तन पर स्वागत तीन बजे
हत्यारों से मंत्रणा किसी भी क्षण
जीवन में नींद नहीं
राजा चुपके से काटता है चक्कर रात में
नए नए भेस में अलग अलग घात में
जो सोए उनके माथे से तकिया खींचता
फेंकता खलिहान में लुकाठी
मसोमात के खेत से मूली उखाड़ता
खोलता बदरू की पाठी
गुद्दा गटक फेंकता आँगनों में आँठी
जीवन में नींद नहीं
माना कि वहाँ बहुत उजाला है
फिर भी रात में रात तो है ही
और इधर आलम ये कि नौ बजते बजते ढेर
और दस तक तो देह के सोर पुरजे खोल
मैं विसर्जित हो जाता हूँ महासमुद्र में
सो, मैं भारत का एक नागरिक, एतद् द्वारा घोषणा करता हूँ कि
नींद
मुझे राष्ट्र के सर्वोच्च पद से ज्यादा प्यारी है।
"उर्वर प्रदेश "
मैं जब लौटा तो देखा
पोटली में बँधे हुए बूँटों ने
फेंके हैं अंकुर।
दो दिनों के बाद आज लौटा हूँ वापस
अजीब गंध है घर में
किताबों कपड़ों और निर्जन हवा की फेंटी हुई गंध
पड़ी है चारों ओर धूल की एक पर्त
और जकड़ा है जग में बासी जल
जीवन की कितनी यात्राएँ करता रहा यह निर्जन मकान
मेरे साथ तट की तरह स्थिर, पर गतियों से भरा
सहता जल का समस्त कोलाहल -
सूख गए हैं नीम के दातौन
और पोटली में बँधे हुए बूँटों ने फेंके हैं अंकुर
निर्जन घर में जीवन की जड़ों को
पोसते रहे हैं ये अंकुर
खोलता हूँ खिड़की
और चारों ओर से दौड़ती है हवा
मानो इसी इंतजार में खड़ी थी पल्लों से सट के
पूरे घर को जल भरी तसली-सा हिलाती
मुझसे बाहर मुझसे अनजान
जारी है जीवन की यात्रा अनवरत
बदल रहा है संसार
आज मैं लौटा हूँ अपने घर
दो दिनों के बाद आज घूमती पृथ्वी के अक्ष पर
फैला है सामने निर्जन प्रांत का उर्वर-प्रदेश
सामने है पोखर अपनी छाती पर
जलकुंभियों का घना संसार भरे।
अरुण कमल
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टिप्पणी:-
अजेय:-: अंतिम कविता अचछी लगी। अरूण कमल को बहुत बारीकी से पढता हूँ। उन की कविता में अभी तक मुझे कोई मनपसंद/ नया बिंदु न मिला जहाँ से उन की कविता में प्रवेश किया जा सके / तैरा जा सके / औ उस में गोते लगाए जा सकें । ऊर्वर प्देश जीवन की अॉर्गेनिक फोटोग्राफी है । मजा आया । "बूँटों" का अर्थ समझ नहीं आया । और निर्जन प्रांत , निर्जन मकान ठीक है पर निर्जन हवा का आशय नहीं स्पष्ट न हुआ।
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