1.
उज़्र आने में भी है और बुलाते भी नहीं
बाअस-ए-तर्क-ए-मुलाक़ात बताते भी नहीं
(उज़्र - संकोच; बाअस - वजह; तर्क - रद्द करना; बाअस-ए-तर्क-ए-मुलाक़ात- मुलाक़ात रद्द करने की वजह)
मुंतज़िर हैं दम-ए-रुख़्सत कि ये मर जाए तो जाएँ
फिर ये एहसान कि हम छोड़ के जाते भी नहीं
(मुंतज़िर - इंतज़ार में रहना; दम-ए-रुख़्सत - विदा होते समय)
क्या कहा फिर तो कहो, हम नहीं सुनते तेरी
नहीं सुनते तो हम ऐसों को सुनाते भी नहीं
ख़ूब पर्दा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं
साफ़ छुपते भी नहीं, सामने आते भी नहीं
(चिलमन - बारीक पर्दा)
देखते ही मुझे महफ़िल में ये इरशाद हुआ
कौन बैठा है, उसे लोग उठाते भी नहीं
(इरशाद हुआ - कहा गया)
मुझ से लाग़र तेरी आँखों में खटकते तो रहे
तुझ से नाज़ुक मेरी नज़रों में समाते भी नहीं
(लाग़र - कमज़ोर/पतले-दुबले)
हो चुका क़ता-तअल्लुक़ तो जफ़ायें क्यूँ हों
जिनको मतलब नहीं रहता वो सताते भी नहीं
(क़ता-तअल्लुक़ - सम्बन्ध विच्छेद; जफ़ा/जफ़ायें - बेवफ़ाई)
ज़ीस्त से तंग हो ऐ 'दाग़' तो जीते क्यूँ हो
जान प्यारी भी नहीं, जान से जाते भी नहीं
(ज़ीस्त - ज़िन्दगी)
2.
ख़ातिर से या लिहाज़ से मैं मान तो गया
झूठी क़सम से आप का ईमान तो गया
(ख़ातिर - किसी के वास्ते; लिहाज़ - आदर)
दिल ले के मुफ़्त कहते हैं कुछ काम का नहीं
उल्टी शिकायतें हुईं, एहसान तो गया
डरता हूँ देखकर दिल-ए-बे-आरज़ू को मैं
सुनसान घर ये क्यूँ न हो मेहमान तो गया
(दिल-ए-बे-आरज़ू - दिल जिसमें कोई इच्छा न हो)
3.
तुम्हारे ख़त में नया इक सलाम किस का था
न था रक़ीब तो आख़िर वो नाम किस का था
(रक़ीब - दुश्मन)
वो क़त्ल कर के मुझे हर किसी से पूछते हैं
ये काम किसने किया है, ये काम किस का था
वफ़ा करेंगे, निबाहेंगे, बात मानेंगे
तुम्हें भी याद है कुछ ये कलाम किस का था
(निबाहना - साथ साथ निर्वाह करना)
रहा न दिल में वो बे-दर्द और दर्द रहा
मुक़ीम कौन हुआ है, मक़ाम किस का था
(मुक़ीम - निवासी; मक़ाम - निवास-स्थान)
न पूछ-गछ थी किसी की वहाँ न आव-भगत
तुम्हारी बज़्म में कल एहतिमाम किस का था
(बज़्म - महफ़िल; एहतिमाम - मेज़बानी/आयोजन)
हमारे ख़त के तो पुर्ज़े किए पढ़ा भी नहीं
सुना जो तूने ब-दिल वो पयाम किस का था
(पुर्ज़े - टुकड़े; ब-दिल - दिल से; पयाम - पैग़ाम)
गुज़र गया वो ज़माना कहूँ तो किस से कहूँ
ख़्याल दिल को मेरे सुब्ह-ओ-शाम किस का था
हर इक से कहते हैं क्या 'दाग़' बे-वफ़ा निकला
ये पूछे उन से कोई वो ग़ुलाम किस का था
इफ़्शा-ए-राज़-ए-इश्क़ में गो ज़िल्लतें हुईं
लेकिन उसे जता तो दिया, जान तो गया
(इफ़्शा-ए-राज़-ए-इश्क़ - प्रेम का राज़ खुलना; गो - यद्यपि; ज़िल्लत - अपमान)
गो नामाबर से ख़ुश न हुआ, पर हज़ार शुक्र
मुझ को वो मेरे नाम से पहचान तो गया
(गो - यद्यपि)
प्रस्तुति:- फ़रहत अली खान
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टिप्पणियाँ:-
पदमा शर्मा :-
फरहत अली जी दाग़ देहाल्व़ी जी की बहुत खूबसूरत ग़ज़लें आपने पेश किन।साथ ही कई शब्दों को अर्थ सहित बताने का प्रयास हमारे ज्ञान में निश्चित वृद्धि करेगा।
"गो नामाबर से खुश न हुआ ,पर हज़ार शुक्र मुझ को वो मेरे नाम से पहचान तो गया।"
बहुत सुन्दर
मुकेश माली:-
तीनों ही गजल बेशकीमती नगीने
की तरह. ....
तरन्नुम में इनका आनंद लेना हो
तो. .दूसरी गजल तलत अज़ीज सा. ने. ....
और तीसरी गज़ल गुलाम अली सा. ने गायी है.. ...
फरहत भाई बस इसी तरह इनायत
बनी रहे.. ...
मीना शाह :-
तीनों ही गजलें बेहद खूबसूरत....
बुत बने बैठे हैं कुछ बात बताते भी नहीं
और ये पूछा की मैं रूठूँ तो मानते भी नहीं....
क्या ये शेर भी दाग़ साहब का ही है ...ये ग़ज़ल शायद बेग़म अख्तर ने गए है ...शायद
अलकनंदा साने:-
युवा लेखक फरहत अली खान का न सिर्फ चयन उम्दा होता है, बल्कि उनको उर्दू अदब की खासी जानकारी भी है ।
उनको यदि इस समूह में भी जोडा गया तो उनके ज्ञान का लाभ सभी को मिल सकता है ।
आशीष मेहता:-
जायकेदार, हाज़मादुरुस्त, ताब ओ तवाँ बढ़ाने वाले अशआर । ( राहुल भाई, कोशिश की है, गुस्ताखी माफ
संजय वर्मा:-
बढ़िया है । बस ' रकीब ' लफ्ज़ का मतलब ' दुश्मन ' लिखा है , वह अखर रहा है । रकीब का अर्थ है 'प्यार में प्रतिद्वन्दी '।
राहुल वर्मा 'बेअदब':-
संजय जी
रकीब का मतलब दोनों ही होता है
1 जो आपने बताया
2 जो उपरोक्त ग़ज़ल में दिया गया है
याद कीजिये ज़रा
कोई दोस्त है न रकीब है
तेरा शह र कितना अजीब है
संजय वर्मा:-
राहुल जी । ये भी हो सकता है।
फैज़ की एक मशहूर नज्म है , 'रकीब से' , जिसमें वतन को प्रेमिका और देश वासी साथी को रकीब कहा है।
फ़रहत अली खान:-
उर्दू शायरी के दिल्ली स्कूल के सबसे विख्यात शायर नवाब मिर्ज़ा ख़ाँ 'दाग़' देहल्वी (1831-1905) महानतम शायरों में गिने जाते हैं। इनकी ग़ज़लों में जो लयात्मकता, मुहावरे, तीखे और सरल शब्दों का उम्दा प्रयोग मिलता है, वो इनके पहले या इनके बाद किसी शायर के कलाम में नज़र नहीं आता; और यही बात इन्हें एक अनूठा शायर बनाती है।
ख़ुद अल्लामा इक़बाल ने अपने एक शेर के ज़रिये बताया कि उन्हें दाग़ का शागिर्द(बहुत संक्षिप्त समय के लिए) होने पर फ़ख़्र है।
दाग़ के बहुत से अशआर आज भी प्रचलित हैं। इनमें से कुछ देखें:
"न जाना कि जाँ से भी जाता है कोई*
बड़ी देर की मेहरबाँ आते आते"
"तू है हरजाई तो अपना भी यही तौर सही
तू नहीं और सही, और नहीं और सही"
दाग़ पर मेरी एक ग़ज़ल का मक़्ता(ग़ज़ल का अंतिम शेर जिसमें तख़ल्लुस आता है) भी मुलाहिज़ा फरमाएँ:
"सुख़नवर सौ हुए 'फ़रहत', सुख़नवर दाग़ सा लेकिन
नहीं मिलता, नहीं मिलता, नहीं मिलता, नहीं मिलता"
(सुख़नवर - शायर; सौ - सैकड़ों)
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