1.
अव्वल तो तेरे कूचे में आना नहीं मिलता
आऊँ तो कहीं तेरा ठिकाना नहीं मिलता
(अव्वल - सबसे पहले)
मिलना जो मेरा छोड़ दिया तूने तो मुझसे
ख़ातिर से तेरी सारा ज़माना नहीं मिलता
(ख़ातिर से तेरी - तेरी वजह से/तेरे वास्ते)
क्या फ़ायदा गर हिर्स करे ज़र की तू नादाँ
कुछ हिर्स से क़ारूँ का खज़ाना नहीं मिलता
(हिर्स - लालच/लालसा; ज़र - सोना/दौलत; क़ारूँ - पुराने समय का एक बेहद बुरा और धनी आदमी)
भूले से भी उस ने न कहा यूँ मेरे हक़ में
क्या हो गया जो अब वो दिवाना नहीं मिलता
(हक़ - पक्ष/समर्थन/तरफ़दारी)
फिर बैठने का मुझ को मज़ा ही नहीं उठता
जब तक कि तेरे शाने से शाना नहीं मिलता
(शाना - कन्धा)
ऐ मुसहफ़ी! उस्ताद-ए-फ़न-ए-रेख़्ता-गोई
तुझ सा कोई, आलम को मैं छाना, नहीं मिलता
(उस्ताद-ए-फ़न-ए-रेख़्ता-गोई - उर्दू शायरी का माहिर; आलम - दुनिया)
2.
रात पर्दे से ज़रा मुँह जो किसू का निकला
शोला समझा था उसे मैं, पे भभूका निकला
(किसू - किसी; पे - पर/लेकिन; भभूका - अंगारा)
'मुसहफ़ी' हम तो ये समझे थे कि होगा कोई ज़ख्म
तेरे दिल में तो बहुत काम रफ़ू का निकला
(रफ़ू - बारीकी से की गयी सिलाई)
3.
जीता रहूँ कि हिज्र में मर जाऊँ, क्या करूँ?
तू ही बता मुझे, मैं किधर जाऊँ, क्या करूँ?
(हिज्र - जुदाई)
बैठा रहूँ कहाँ तलक उस दर पे 'मुसहफ़ी'
अब आई शाम होने को, घर जाऊँ, क्या करूँ?
4.
दिल चीज़ क्या है, चाहिए तो जान लीजिये
पर बात को भी मेरी ज़रा मान लीजिये
मरिए तड़प-तड़प के दिला क्या ज़रूर है
सर पर किसी की तेग़ का एहसान लीजिये
(दिला - दिल; ज़रूर - ज़रूरी; तेग़ - तलवार)
मैं भी तो दोस्त-दार तुम्हारा हूँ मेरी जाँ
मेरे भी हाथ से तो कभू पान लीजिये
(दोस्त-दार - दोस्त; कभू - कभी)
मुश्किल नहीं है यार का फिर मिलना 'मुसहफ़ी'
मरने की अपने जी में अगर ठान लीजिये
5.
जी से मुझे चाह है किसी की
क्या जाने कोई किसी के जी की
(जी - दिल)
शाहिद रहियो तू ऐ शब-ए-हिज्र
झपकी नहीं आँख 'मुसहफ़ी' की
(शाहिद - गवाह; शब-ए-हिज्र - जुदाई की रात)
रोने पे मेरे जो तुम हँसो हो
ये कौन सी बात है हँसी की
जूँ-जूँ कि बनाव पर वो आया
दूनी हुई चाह आरसी की
(जूँ-जूँ - ज्यों-ज्यों; बनाव - संवारना; आरसी - आईना)
गो अब वो जवाँ नहीं पे हम से
लत जाए है कोई आशिक़ी की
(गो - यद्यपि/हालाँकि; पे - पर/लेकिन)
मैं वादी-ए-इश्क़ में जो गया
मजनूँ ने मेरी न हम-सरी की
(वादी-ए-इश्क़ - प्रेम की घाटी; हम-सरी - बराबरी)
क्या रेख़्ता कम है 'मुसहफ़ी' का
बू आती है इसमें फ़ारसी की
(रेख़्ता - 'उर्दू' का पुराना नाम; कम - कमज़ोर)
प्रस्तुति:- फ़रहत अली खान
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टिप्पणियाँ:-
बलविंदर:-
उस्ताद "मुसहफ़ी" की मुख़्तलिफ़ ग़ज़लों के इन उमदः अशआरों के लिए बहुत बहुत शुक्रिया.
ग़ज़ल 4 देख कर पता चलता है कि फ़िल्म उमराव जान की ग़ज़ल के लिए "शहरयार" साहब ने माल कहाँ से उठाया था..ख़ैर ऐसा करने वाले वो इकलौते नहीँ थे.
हज़रत-ए-मुसहफ़ी की ये ग़ज़लें अगर मुकम्मल होतीं तो और भी लुत्फ़ बढ़ जाता.
मिसरे तक तो बात ठीक है, लेकिन दोनों मिसरे ?
चलिए मान लिया की दोनों मिसरे..लेकिन दुसरे शेर भी..
"मुसहफ़ी" का शेर है..
मरिये तड़प तड़प के क्या ज़रूर है
सर पर किसी की तेग़ का एहसान लीजिय
"शहरयार" साहब का शेर देखिये
माना कि दोस्तों को नहीँ दोस्ती का पास
लेकिन ये क्या जी ग़ैर का एहसान लीजिए
"मुसहफ़ी" का मक़्ता देखिये...
मुश्किल नहीं है यार फिर मिलना "मुसहफ़ी"
मरने की अपने जी में अगर ठान लीजिये
"शहरयार" साहब का शेर देखिये...
कहिये तो आस्मां को ज़मीं पर उतार लाएं
मुश्किल नहीं है कुछ भी अगर ठान लीजिये
आलोक बाजपेयी:-
सोचने की बात है की 18वी सदी में भी उर्दू में कितनी अच्छी हिंदी का खड़ी बोली के रूप में इस्तेमाल हो रहा था ।अगर हिंदी उर्दू विभाजन न हुआ होता तो देश की भाषाई तहजीब का कितना भला होता।भाषाई साम्प्रदायिकता ने बहुत नुक्सान किया।
प्रज्ञा :-
वाह फरहत जी आपने सुबह शायराना कर दी। मुसहफ़ी जी की ग़ज़लें और अंश अच्छे लगे। खासकर पहली । और रफू वाला अंश भी छू गया।
यदि शायर का थोडा संक्षिप्त परिचय भी हो तो बेहतर।
शुक्रिया।
फ़रहत अली खान:-
सभी लोग चौथी ग़ज़ल का पहला शेर देखें:
"दिल चीज़ क्या है, चाहिए तो जान लीजिए
पर बात को भी मेरी ज़रा मान लीजिए"
बहुत मुमकिन है कि जब ज्ञानपीठ पुरुस्कार से सम्मानित शायर अख़्लाक़ मुहम्मद ख़ान 'शहरयार' साहब ने जब अपना सबसे ज़्यादा चर्चित शेर लिखा, जो कि निम्न है:
"दिल चीज़ क्या है, आप मेरी जान लीजिए
बस एक बार मेरा कहा मान लीजिए"
(जो कि 'उमराव जान' फ़िल्म में गाया गया है)
तब वो मुसहफ़ी के ऊपर दिए गए शेर से ख़ासे प्रभावित रहे हों।
ग़ज़लों में किसी दूसरे शायर के अशआर से प्रभावित होकर या कुछ अंश उससे लेकर या उनकी सी ही ज़मीन(प्लेटफॉर्म) पर कई शायरों ने ऐसे शेर कहे जो किसी कारणवश मूल शेर से भी ज़्यादा प्रसिद्ध हुए।
ऐसे में मूल शायर को श्रेय देना ज़रूरी हो जाता है।
निधि जैन :-
जनाबे नज़्म सुभाष से कहीं ज़्यादा तक़्लीफ़ उनके हमदर्दों को हो रही है; लेकिन मुझे उनसे ज़रा-सी हमदर्दी भी महसूस नहीं हो रही; क्योंकि सरका (किसी और शायर के कलाम को अपना लेना) और तवारद (किसी शायर के ख़याल का किसी और पर असर नज़र आना) उर्दू शायरी की बरसों से चली आ रही रवायत है. तरही मुशायरों में तो ये बीमारी कोढ़ में खुजली की तरह आम-फ़हम है. जज़्बाती हज़रात की जानकारी के तौर पर भारतीय ज्ञानपीठ का पुरस्कार पाने वाले मरहूम शायर जनाब शहरयार की करतूत का मुआयना कर लीजिये. अमर शहीद पण्डित रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ की एक और प्रसिद्ध ग़ज़ल है—
दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिए
ख़ंज़र को अपने और ज़रा तान लीजिए
मर जायेंगे मिट जायेंगे हम क़ौम के लिए
मिटने न देंगे मुल्क़, ये ऐलान लीजिए
बेशक़ न मानियेगा किसी दूसरे की बात
बस एक बार मेरा कहा मान लीजिए
'बिस्मिल' ये दिल हुआ है अभी क़ौम पर फ़िदा
अहले-वतन का दर्द भी पहचान लीजिए
इस ग़ज़ल के मतले के पहले मिसरे के साथ तीसरे शे’र के दूसरे मिसरे को जोड़कर अनेक ईनाम हासिल करने वाली कला-फ़िल्म (?) ‘उमराव जान’ के लोक-प्रिय गीत का मुखड़ा—
दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिए
बस एक बार मेरा कहा मान लीजिए
‘ईजाद’ करने वाले उस्तादे-सरका (नकल-प्रवीण) मरहूम शायर जनाब शहरयार को आप क्या कहेंगे...?
एक और मिसाल पेशे-ख़िदमत है. बशीर बद्र का एक बहुत प्रसिद्ध शे’र है—
आसमाँ भर गया परिन्दों से
पेड़ कोई हरा गिरा होगा
इस शे’र का पूरी तरह हुलिया बिगाड़कर हरियाणा उर्दू साहित्य अकादमी के अध्यक्ष बनने वाले अफ़सरनुमा-शायर ने एक सरकारी मुशायरे में यों पढ़ा था—
चील-कौओं से भर गया आँगन
कोई उम्मीद मर गई होगी
और हैरान कर देने वाली बात यह है, कि उसे भी बहुत ‘दाद’ मिबी थी.
...बोल जमूरे जय-जय, मेरा भारत देश महान...
फ़रहत अली खान:-
निधि जी।
fb पर तो कोई किसी को भी कुछ भी कह देता है, लेकिन इस ग्रुप में ऐसी भाषा के साथ किसी की आलोचना नहीं की जाती है।
ग़ज़ल एक नियम-बद्ध विधा है जिसमें अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए कुछ निश्चित नियमों पर आधारित पंक्तियाँ लिखी जाती हैं। ऐसे में किसी एक विचार को व्यक्त करने के लिए अलग अलग शायरों द्वारा लिखी गयी पंक्तियों में समानता होना आम बात है। अगर ये आज़ाद नज़्म या कविता होती तो एक ही विचार को अलग अलग आयामों में बिना किसी बंदिश के ज़ाहिर किया जा सकता था।
इसीलिए ग़ज़लों में एक ही ज़मीन या मिसरे पर शेर या ग़ज़ल कहना ग़लत नहीं समझा जाता।
उन साहब के जिनके कमेंट का आपने ज़िक्र किया है, अपने कुछ विचार ऐसे होंगे लेकिन उनके द्वारा किसी शायर का ज़िक्र अमर्यादित तरीके से करना ठीक नहीं है।
मुसहफ़ी के इस शेर का ज़िक्र मैंने इसलिए किया क्यूँकि मुझे लगता है कि उन्हें भी इसका कुछ श्रेय मिलना चाहिए।
अंजनी शर्मा:-
शानदार शेरों की प्रस्तुति के लिए फरहतजी को बधाई तथा धन्यवाद ।
साथ ही fb के संदर्भ में आपकी गरिमामय व मर्यादित भाषा में नपी -तुली व सधी हुई टिप्पणी ने आपके सुलझे हुए लेखकीय व्यक्तित्व से परिचित कराया है ।
बहुत खूब फरहतजी ।
फ़रहत अली खान:-
ग़ुलाम हमदानी 'मुसहफ़ी'(1751-1824) को क्लासिकल उर्दू ग़ज़ल के सबसे बड़े शायरों में शुमार किया जाता है। इनका जन्म यूपी के अमरोहा ज़िले के एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। दिल्ली में उर्दू, फ़ारसी और शायरी की शिक्षा पाकर ये लखनऊ चले गए जहाँ मुग़ल दरबार में ये बतौर शाही शायर नियुक्त किये गए।
उर्दू को उस ज़माने में हिंदवी, दकनी, रेख़्ता आदि नामों से जाना जाता था; इन्हें उस ज़माने में उर्दू पर किये गए अपने काम के लिए भी जाना जाता है। इन्हों हज़ारों ग़ज़लें लिखीं; आठ दीवान(सुव्यवस्थित ग़ज़ल संग्रह) लिखे और कुछ दूसरी किताबें भी लिखीं। कहा जाता है कि ये अपने अशआर दूसरे लोगों को बेचा भी करते थे, जो उन अशआर को अपने नाम से प्रसारित करते थे।
इनकी इंशाअल्लाह ख़ाँ 'इंशा'(जिन्होंने पहली हिंदी कहानी 'रानी केतकी की कहानी' लिखी है), जो ख़ुद एक नामचीन शायर थे, से प्रतिद्वंदिता मशहूर है। बाद में इनकी जगह 'इंशा' को लखनऊ के मुग़ल दरबाद का शाही शायर बनाया गया।
मुसहफ़ी की ग़ज़लों में एक ख़ूबसूरत लय नज़र आती है, साथ ही शब्दों का चयन बेजोड़ है; इन्होंने उस समय के प्रचलित मुहावरों का भी अच्छा इस्तेमाल किया है। मूलतः ये एक रूमानी शायर थे लेकिन रफ़ी 'सौदा' की तरह जीवन के गूढ़ फ़लसफ़ों पर भी इन्होंने अशआर लिखे हैं। कुल मिलाकर इनकी शायरी में जीवन का हर रंग और रस नज़र आता है।