“तो फिर आप लिखते ही क्यों हैं?”
वर्तमान राजनीतिक व सांस्कृतिक परिदृश्य में पूँजीवादी जनविरोधी ताक़तों के दख़ल और लेखकों की भूमिका पर एडुआर्डो गेलिआनो का एक महत्वपूर्ण लेख है. यूँ तो उन्होंने अपने इस लेख में लातिन अमेरिका की परिस्थितियों का ज़िक्र करते हुए साहित्य और लेखन से जुड़े मूलभूत प्रश्नों पर अपने विचार प्रकट किये हैं लेकिन जब हम लेख पढ़ते हैं तो लातिन अमेरिका एक उदाहरण भर लगता है. वे जिन हालत की बात करते हैं वे इस वक़्त भारत समेत पूरी दुनिया के हालात हैं. मेरा व्यक्तिगत मत है कि जो भी व्यक्ति अपने समय को जानने, उसे बेहतर करने और सार्थक लेखन के बारे में सोचता, बात करता है, उसे यह लेख ज़रूर पढ़ना चाहिए.
अनुवादक
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परिचय:-
1940 में उरुग्वे में जन्मे लातिन अमेरिकी लेखक-पत्रकार एडुआर्डो ने शुरुआत प्रगतिशील पत्र-पत्रिकाओं में लिखने से की और इसी वजह से देश में आयी सैन्य तानाशाही के दमन का शिकार बनकर देश छोड़ने को मजबूर होना पड़ा। 1971 में आयी ‘Les Venas Abiertas de Amrica Latinaka’ (अंग्रेजी में Open veins of Latin America) उनकी अब तक की सबसे चर्चित किताब है। उनकी यह किताब आज़ादी के बाद लातिन अमेरिकी देशों में पूँजीवादी शक्तियों द्वारा किए गए आर्थिक हस्तक्षेप और कई मौकों पर सीधे-सीधे सैन्य हस्तक्षेप का जीवंत दस्तावेज है। अपने लेखन और सक्रिय भागीदारी से इन्होंने सामाजिक बदलाव के संघर्षों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई और आज के दौर के महत्त्वपूर्ण लातिन अमेरिकी लेखकों में शुमार किए जाते हैं। इसी बीते अप्रैल की 13 तारीख को उनका निधन हुआ.
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तो फिर आप लिखते ही क्यों हैं ?
जब भी कोई लिख रहा होता है तो वह दूसरों के साथ बाँटने की ज़रूरत ही पूरी कर रहा होता है। यह लिखना अत्याचार के ख़िलाफ़ और अन्याय पर जीत के सुखद अहसास को साझा करने के लिए ही होता है। यह अपने और दूसरों के अकेले पड़ जाने के अहसास को ख़त्म करने के लिए होता है। यह माना जाता है कि साहित्य ज्ञान और समझ को फैलाने का ज़रिया है और यह पढ़ने वालों की भाषा और आचरण पर असर डालता है। लेकिन ‘बाक़ी लोगों’ और ‘दूसरों’ जैसे शब्द बड़े ही भ्रामक हैं, ख़ासकर संकट के समय जब सही और ग़लत की पहचान ज़रूरी हो जाती है तब तो ऐसे भ्रामक शब्द झूठे भी हो सकते हैं। दरअसल लिखा उन्हीं के लिए जाता है जिनके नसीब या बदनसीबी के साथ जुड़ाव महसूस किया जाता है। ये वो लोग हैं जो ना ढंग से खा सकते हैं, ना सो सकते हैं, वे इस दुनिया के सबसे दबे-कुचले, अपमानित और इसलिए सबसे विद्रोही लोग हैं।
इनमें से ज़्यादातर पढ़ना नहीं जानते हैं। थोड़े से पढ़े-लिखे लोगों में से कितनों के पास इतना पैसा है कि वे किताबें ख़रीद सकें? तब कोई भी क्या सिर्फ़ यह कहकर कि वह ‘आम लोगों’ (जो अभी के दौर में एक भ्रामक लेकिन बहुत उत्साहित रहने वाला शब्द है) के लिए लिख रहा है, इस भयंकर सच्चाई से मुँह मोड़ सकता है?
हम किसी चाँद पर नहीं रहते और ना ही हमारी दुनिया इस दुनिया से बाहर की कोई जगह है। ये शायद हमारी ख़ुशनसीबी और बदनसीबी दोनों ही हैं कि हम दुनिया के सबसे ज़्यादा उथल-पुथल से भरे क्षेत्र लातिन अमेरिका में रह रहे हैं और वह भी इतिहास के सबसे कठिन दौर में। वर्गों में बाँट दिए गए समाज की विसंगतियाँ धनी और औद्यौगिक देशों के मुक़ाबले यहाँ कहीं ज़्यादा तीखी हैं। यह पूरी व्यवस्था ही ऐसी है जहाँ आबादी का सिर्फ़ छः फ़ीसदी हिस्सा पूरी दुनिया की कमाई का आधा हिस्सा यों ही गटक जाता है। इस हिस्से की अमीरी की क़ीमत बाक़ी दुनिया भयानक ग़रीबी में जी कर चुकाती है। चन्द अमीरों और बाक़ी सारे ग़रीब बना दिए गए लोगों के बीच की खाई लातिन अमेरिकी देशों में लगातार बढ़ ही रही है और इसे बढ़ाने और बरकरार रखने के सबसे बर्बर उपाय भी यहीं अपनाये जा रहे हैं।
खेती और खनिज पर आधारित समाज की तमाम बुराइयों और समस्याओं को दूर किए बिना ही यहाँ बहुत ही सीमित क्षमता वाले और हमेशा विदेशी सहायता पर निर्भर उद्योग खड़े कर दिए गए हैं जिससे ये समस्याएँ कम होने के बजाए बढ़ी ही हैं। जनता को अपने वादों से लुभाने और भरमाने में कुशल पारंपरिक नेता भी इस कड़वी सच्चाई को छिपा नहीं पा रहे हैं। जनता के नाम पर कुछ भी करने की दुहाई देने वाला पुराना राजनीतिक खेल भी लगातार बढ़ रही सामाजिक असमानता को ढँकने-छुपाने की बजाय उसे बढ़ावा ही दे रहा है। हमारी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में प्रभुता संपन्न वर्ग और देश अपनी धमक शोषण और ताक़त से ही कायम रखते हैं वरना लगातार एक यातना शिविर की तरह लगने वाली यह सामाजिक व्यवस्था कैसे टिकी रह सकती थी? व्यवस्था के शिकार बने अनगिनत ‘बेकार’ और सम्भावित विद्रोही (और इसलिए ख़तरनाक) लोगों को क़ाबू में रखने का और उपाय भी क्या है सत्ता के पास? वैसे भी हर जगह कटीले बाड़ लगाना संभव नहीं रह गया है। बेरोज़गारी, ग़रीबी और इससे पैदा हो रहे सामाजिक और राजनीतिक तनाव वाले दौर में ‘सभ्य जीवन जीने’ और ‘अच्छा व्यवहार’ करने की ख़ुशफ़हमी भी ख़त्म होती जा रही है। आज की व्यवस्था का असली चेहरा अपने क्रूरतम रूप में दुनिया के ग़रीब और पिछड़े बना दिए गए इलाक़ों में ही दिखता है।
लातिन अमेरिका के ज़्यादातर देशों में काम कर रही तानाशाहियाँ (यहाँ तानाशाही का मतलब सैन्य सरकारों के साथ-साथ जनतंत्र और चुनाव का नारा देकर जनता को लूटने-ठगने वाली सरकारों से भी है -अनुवादक) जनता का शोषण बड़ी ही सफ़ाई और पेषेवर चालाकी से करती हैं। संकट के इस दौर में बड़े पूँजीपतियों के लिए व्यापार की छूट असल में बाक़ी ग़रीब जनता के लिए जेल की राह है।
लातिन अमेरिकी देशों के वैज्ञानिक दूसरे देशों में काम कर रहे हैं, यहाँ की प्रयोगशालाओं और विश्वविद्यालयों के पास पैसा नहीं है और तकनीकी ज्ञान हमेशा ही बाहर से महँगे दामों पर लिया जाता रहा है। इस सबके बीच डर और आतंक पैदा करने के सभी उपायों में महारथ हासिल कर ली गयी है। आज का लातिन अमेरिका दुनिया भर में सज़ा देने, लोगों और विचारों की हत्या करने, उन्हें ख़ामोश, डरपोक और कायर बना देने की नित नयी तकनीकों का गुरु बन बैठा है। (यह बात 70-80 के दशक की है जब लातिन अमेरिका के ज़्यादातर देशों में सैन्य तानाशाहियाँ थीं। वैसे भारत के संदर्भ में, जहाँ 60 से भी अधिक वर्षों से ‘लोकतंत्र’ और ‘चुनाव’ कायम रखने की सारी कवायदों के बीच आफ्स्पा, उआपा और ‘ग्रीनहंट’ के सरकारी ख़ौफ़ का दायरा बढ़ता ही जा रहा है, यह बात बहुत मौजूँ है -अनुवादक)
सवाल यह है कि हम जैसे लोग जो बेआवाज़ लोगों की आवाज़ बनना चाहते हैं वे इस भयानक माहौल में कैसे काम करें? जब डंडे और बाज़ार के ज़ोर से सबको गूँगा-बहरा बनाया जा रहा है तब क्या हम अपनी बात सुना सकते हैं? आज का हमारा लोकतंत्र दरअसल चुप्पी और डर पैदा करने वाला लोकतंत्र है। ऐसे में लेखकों के लिए जो भी थोड़ी-सी जगह बची है, क्या वह इनकी व्यवस्था के आगे समर्पण और इसलिए इनकी हार का सबूत नहीं है? हमारी लेखकीय आज़ादी की सीमा क्या है और हम इससे किन लोगों को फ़ायदा पहुँचा रहे हैं?
न्याय और आज़ादी के लिए और भूख तथा खुले और प्रत्यक्ष-परोक्ष दमन करने वाली व्यवस्था के ख़िलाफ़ बात करना और लिखना है तो बहुत अच्छा, लेकिन सत्ता हमें यह छूट किस हद तक और कब तक देती है? ऐसे और भी कई सवाल हैं।
व्यवस्था के ख़िलाफ़ सवाल खड़े करने वाले समाचार पत्रों और पत्रिकाओं पर पाबंदी, लेखकों और पत्रकारों को देश निकाला, जेल और मौत दिये जाने में सीधे-सीधे दिखने वाले दमन की बात तो बहुत होती है। लेकिन दमन के और भी कई रास्ते हैं जो परोक्ष होने की वजह से ज़्यादा घातक साबित होते हैं। वैसे तो इनकी बात बहुत कम की जाती है लेकिन हक़ीक़त में लातिन अमेरिका के ज़्यादातर देशों में हावी बर्बर और ग़ैरबराबरी बढ़ाने वाली व्यवस्था की यही पहचान बन चुकी हैं। तो यह न दिखने वाला दमन काम कैसे करता है? दरअसल, ऐसी स्थिति ही नहीं आने दी जाती है कि कोई व्यवस्था के अन्याय को जाने और उसका विरोध करे। मिसाल के लिए, अगर लातिन अमेरिका की आबादी का सिर्फ़ पाँच फ़ीसदी हिस्सा ही फ्रिज खरीद सकता है तो ऐसे में, किताबें ख़रीदने, उन्हें पढ़ने, उनकी ज़रूरत महसूस करने और उनसे प्रभावित हो सकने वाले लोग कितने होंगे?
लातिन अमेरिकी लेखक एक संस्कृति उद्योग के दिहाड़ी मज़दूर हैं जो भद्र अभिजात वर्ग की उपभोक्तावादी ज़रूरतों को पूरा करते हैं, वे ख़ुद इसी तबक़े से आते हैं और इसी के लिए लिखते हैं। यही लेखकों की नियति है कि उनका लिखना ले-देकर सामाजिक ग़ैरबराबरी कायम रखने वाली विचारधारा द्वारा तय सीमा के भीतर ही होता है। साथ ही हम जैसे लेखक जो इन हदों को तोड़ना चाहते हैं उनका भी यही हाल है।
हम जैसे समाज में रह रहे हैं वहाँ आबादी के बड़े हिस्से की रचनात्मक क्षमताओं और संभावनाओं को लगातार ख़त्म किया जा रहा है। कुछ नया रचने-गढ़ने का काम जो जीने के दर्द को साझा करने और मौत से लड़ने के लिए ज़रूरी है अब चंद पेशेवर ‘विशेषज्ञों’ या ‘बुद्धिजीवियों’ के भरोसे छोड़ दिया गया है। हम जैसे कितने ऐसे ‘बुद्धिजीवी’ लातिन अमेरिका में हैं। हम लिखते किनके लिए हैं और किनकी बात करते हैं? हमारा लिखा किन लोगों की आवाज़ बननी चाहिए? तालियों की गड़गड़ाहट और पुरस्कारों के सपने से आगे बढ़कर हमें ये सवाल ख़ुद से पूछने होंगे। क्योंकि कभी-कभी हमारी सबसे ज़्यादा तारीफ़ भी वही करते हैं जिन्हें हमारे लिखने से कोई ख़तरा महसूस नहीं होता।
दरअसल लिखना कुछ-कुछ मौत से लड़ने जैसा है। यह लड़ाई है हमारे अंदर और बाहर फैली मुर्दा उदासी और बेरुखी के ख़िलाफ़। लेकिन हमारा यह लिखना आने वाली पीढ़ियों के तभी काम आ सकता है जब यह अपनी पहचान के लिए संघर्षरत समुदाय की ज़रूरतों से ख़ुद को जोड़ लेता है। मेरी समझ में एक लेखक का मौत की तरह तारी होती उदासी से ख़ुद को बचाना और अपने लिखे की ताक़त पहचानना ही बाक़ियों को उनकी पहचान देता है। इस तरह इंसानियत की इस लड़ाई में कला और साहित्य हथियार लेकर चलने वाले अगुआ पंक्ति के सिपाही की तरह हैं, किसी राजा के आरामगाह की चीज़ नहीं हैं। लेकिन, लातिन अमेरिका की एक बड़ी आबादी कला और संस्कृति पर उनकी हिस्सेदारी से वंचित रखी गयी है। हथियार के बल पर थोपी गयी बाहरी संस्कृति के हाथों अपनी पहचान हारने और अपने पसीने, ख़ून और सपने की क़ीमत पर पूँजी और मुनाफ़ा बनाती-बाँटती व्यवस्था को जिंदा रखने वाले ऐसे ही लोगों के लिए ‘मास कल्चर’ का झुनझुना तैयार किया गया है। यह और कुछ नहीं बल्कि ‘मास’ के लिए ‘कल्चर’ के नाम पर लोगों के बोलने, विचारने, कुछ कहने और करने की भावनाओं को नियंत्रित करना ही है। जनता के लिए पेश यह ‘मास कल्चर’ सच देख सकने की हमारी क्षमता को ही कुंद करता है और बदले में हमें कुछ करने, बनाने और नया रचने का झूठा अहसास भर देता है।
यह ज़ाहिर है कि यह लुभावना ‘मास कल्चर’ हमें अपनी अस्मिता को पाने की दिशा में आगे नहीं बढ़ाता, उल्टे अलग-अलग तरीक़े से हमें एक ख़ास ढंग से जीने को बाध्य करता और ख़रीददार बनाता यह ‘मास कल्चर’ हमें इस लड़ाई से ही अनजान और उदासीन बना देता है। शासक वर्ग द्वारा विकसित देशों से सीधे-सीधे आयातित और ‘वैश्वीकरण’ और ‘विश्व-सभ्यता’ क़रार दिए गए बेचने-ख़रीदने और मुनाफ़ा कमाने की संस्कृति को ‘राष्ट्रीय संस्कृति’ का नाम दे दिया गया है। हमारे दौर की यह तथाकथित ‘विश्व सभ्यता’ बाज़ार और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की खुली छूट और टी.वी. तथा अन्य संचार माध्यमों के फैलते जाल से चुनिंदा विकसित देशों के हित साधने वाली वैश्विक अर्थव्यवस्था के शिकंजे का पूरी दुनिया पर कसते जाने का ही दूसरा नाम है। यही चुनिंदा और दुनिया के मालिक बने बैठे देश लातिन अमेरिका को मशीनें, पेटेंट, और साथ ही इस पूरी व्यवस्था को चलाने के लिए कुछ मंत्र भी बेचते हैं जिसे वो ‘विचारधारा’ का नाम देते हैं।
अगर लातिन अमेरिका की हालत यह है कि सिर्फ़ कुछ ही लोग सुख-सुविधाओं के पहाड़ पर बैठे हैं तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि बाक़ी सारे लोग नीचे रहकर उन्हें देखें और किसी दिन ऊपर पहुँच जाने का सपना देखते रहें। यहाँ ग़रीबों को अमीरी, ग़ुलामों को आज़ादी, हारे हुओं को जीतने और जिनकी हड्डियाँ तक चूस ली गई हैं उन्हें दुनिया पर राज करने के सपने बेचे जाते हैं। ग़ैरबराबरी पैदा करने वाली व्यवस्था को बनाये रखने की ज़रूरत का अहसास टी.वी., रेडियो और फ़िल्में कराती हैं जो दिन-रात सबकी समझ में आ सकने वाले अंद़ाज में व्यवस्था का सन्देश फैलाती रहती हैं। हर एक मिनट में बीमारी और भूख से एक बच्चे की हत्या करने वाली यह व्यवस्था हमें अपने हिसाब से ढाल लेने और इस अन्याय का हिस्सा बनाने के सभी उपाय करती है। हमें यह सिखाया जाता है कि दुनिया हमेशा से ऐसी ही रही है और सबकुछ ठीक चल रहा है। शासन करने वाला दल ही देश हो जाता है और विरोध की आवाज़ उठाने वालों को बड़ी आसानी से ग़द्दार या विदेशी जासूस क़रार दिया जाता है। ‘जंगल के क़ानून’ को ‘कानून का राज’ घोषित कर दिया जाता है ताकि लोग सबकुछ किस्मत का खेल मानकर चुपचाप बैठें और सहते रहें। सरकारी ख़िदमत करता तोड़ा-मरोड़ा हुआ इतिहास हमें यह नहीं बताता कि लातिन अमेरिका के पिछड़ेपन की असली वजहें क्या हैं, जिसकी ग़रीबी ने हमेशा दूसरे देशों की तिजोरी भरने का ही काम किया है।
रोज़ जब टी.वी. और सिनेमा के पर्दे पर हारने वाले ‘कमज़ोर’ और हराने वाले ‘मज़बूत’ बताये जाते हैं तब यह इतिहास में दर्ज कुछ देशों द्वारा दूसरे देशों को खोखला कर कमज़ोर बना देने के अनेक ‘बहादुर’और ‘मज़बूत’कारनामों को जायज़ ठहराने के लिए ही होता है।
पैसे की बर्बादी, भद्दा प्रदर्शन और अच्छे-बुरे का ख़याल न करते हुए सिर्फ़ अपना मतलब निकालना अब कोई बुरी बात नहीं बल्कि ‘कामयाब’इन्सान की पहचान मानी जाती है। यहाँ सबकुछ ख़रीदा, बेचा, किराये पर लिया और खाया-पचाया जा सकता है। यहाँ तक कि आत्मा भी। आजकल सिगरेट, गाड़ी, शराब की बोतल या घड़ी इन्सान को कुछ और होने तथा किसी और दुनिया में ही होने का जादुई अहसास देती हैं. इनके पास होने से ही इंसान को इंसान तथा ज़िन्दगी को सुखी और सफल माना जाता है। विदेशी नायकों की भरमार धनी देशों से आये ब्रांडों और फ़ैशन के लिए हमारी सनक का ही नतीजा है। टी.वी. और सिनेमा के पर्दे देशों की सामाजिक समस्याओं और ज़मीनी राजनीतिक हालातों से कोसों दूर बनावटीपन और अश्लीलता की एक अलग ही दुनिया रचते हैं। पश्चिमी देशों से लाये गए टी.वी. कार्यक्रम यूरोप और अमेरिका छाप लोकतंत्र का पाठ पढ़ाते हैं और वह भी बन्दूक और फ़ास्ट-फ़ूड की जय-जयकार के साथ।
लातिन अमेरिकी देशों की आबादी का बड़ा हिस्सा काम की तलाश में भटक रहे नौजवानों का है जिनके ग़ुस्से के किसी दिन फूट पड़ने का डर सरकार चला रहे लोगों की नींद उड़ाए हुए है। यहीं से इस संभावित आक्रोश को कुंद करने की सारी साजिशें शुरू हो जाती हैं। नशे की लत लगाकर युवाओं को उनके समाज से ही काट देना और कुछ कर गुज़रने की इच्छा शक्ति ख़त्म कर देना लगातार किए जा रहे ऐसे कई उपायों में से एक है। इसलिए बेतहाशा बढ़ रही आबादी को रोकने के बजाय यहाँ के लोगों के सोचने-समझने की क्षमता ज़्यादा कारगर तरीके से नियंत्रित की जाती है। इसके लिए व्यवस्था का सबसे पसंदीदा तरीका है ऐसा माहौल बना देना जहाँ कोई कुछ सोच ही न सके। ध्यान से देखें तो लातिन अमेरिकी देशों की नयी पीढ़ी जिस तथाकथित ‘प्रतिरोध की संस्कृति’ को अपना रही है वह भी जाने-अनजाने व्यवस्था का ही मतलब साधती है।
पुरानी, बदलाव की घोर विरोधी और पुलिसिया दमन पर टिकी सरकारों वाले देशों में नयी पीढ़ी का व्यवस्था में कोई दख़ल ही नहीं है। यही वे देश हैं जहाँ सिर्फ़ पैसे को पूजने वाली और रूढ़ियों का दिखावटी विरोध करने वाली बाहरी सोच ने ख़ुद को ‘प्रतिरोध की संस्कृति’ घोषित कर रखा है।
सत्तर के दशक में यूरोप और अमेरिका की ठहरी और पुरानी पड़ चुकी व्यवस्थाओं के ख़िलाफ़ हुए युवा संघर्षों के नारे, उनके प्रतीक, उनका मिज़ाज और सपने अब बाज़ार के क़ब्ज़े में हैं। नया संसार उभारने वाली छवियाँ अब ‘आज़ादी’के नारे के साथ बेची और ख़रीदी जाती हैं। इसी तरह, उनका संगीत, उनके पोस्टर, बाल बनाने और कपड़े पहनने का उनका ख़ास अंदाज़ अब नशे की लत में सपने ढूँढने वाली पीढ़ी और ‘तीसरी दुनिया’में ऐसे ही सामानों के फैल रहे कारोबार के काम आ रहे हैं। भयंकर ग़रीबी और बेकारी में जीने के रोज़ाना अपमान से जूझ रहे यहाँ के नौजवानों को ऐसे सीधे-सादे रंग, प्रतीक और नारे दूर कहीं एक अच्छी दुनिया होने की आस देते हैं। नौजवानों को इतिहास के सभी सबक़ भुलाकर ऐसी लुभावनी दुनिया का सपना देने वाली ‘प्रतिरोध की संस्कृति’का न्योता दिया जाता है। यह ‘प्रतिरोध की संस्कृति’दरअसल नशे की संस्कृति है जिसका हिस्सा बनकर लातिन अमेरिका का नौजवान धनी देशों के युवकों की तरह जीने की अपनी हसरत ही पूरी करता है। उद्योग प्रधान समाज के द्वारा राजनीतिक-आर्थिक सच्चाइयों से पूरी तरह काट दिए गए तबक़े की दबी-छुपी बेचैनियों से जन्मी इस भ्रामक ‘प्रतिरोध की संस्कृति’का हमारी अस्मिता और अधिकारों की लड़ाई से कोई लेना-देना नहीं है। यह तो अधिक-से-अधिक लोगों को कुछ कर दिखाने का भ्रम ही देती है। साथ ही, इस बात के लिए भी तैयार करती है कि ये दुनिया तो ऐसी ही चल रही है और सबकुछ यूँ ही चलता रहेगा, कि हर आदमी अपना मालिक ख़ुद है।
यह सभी सामाजिक बंधनों और ज़िम्मेदारियों को नकार कर हमें आस-पास की सच्चाइयों से दूर कर देती है और होता यह है कि सबकुछ यूँ ही चलता रहता है और हम अपनी ही रची इस नकली दुनिया के ख़यालों में खोये रह जाते हैं जो हमें बिना लड़े और तकलीफ़ झेले सबकुछ पाने की ख़ुशफ़हमी से बाँधे रखते हैं। सबसे अहम बात यह है कि इस नकली ‘प्रतिरोध की संस्कृति’ने एक बेहतर और नयी दुनिया गढ़ने की हमारी भावनाओं और उससे निकले प्रतीकों को टी.वी. की कृपा से लगातार फैल रहे ‘सुपर मार्केट’में ख़रीदे-बेचे जाने की चीज़ बना दिया है। और तो और यदि कुछ न करने की और कुछ न होने की हताशा और खीझ फ्रिज और गाड़ियों से नहीं ख़त्म हो रही हो तो दबे-छुपे लेकिन लगातार चलने वाले नशे के बाज़ार तो हैं ही जो दिन-रात ख़ुशियाँ और आशाएँ बेचते हैं।
तो लोगों को झकझोरकर जगा देने और उन्हें आस-पास की सच्चाई से रू-ब-रू कराने का काम कैसे किया जाए? जब दुनिया इस दौर के कठिन हालातों से रू-ब-रू है तो क्या साहित्य हमारे काम आ सकता है? संस्कृति का जो रूप सरकारें लेकर आती हैं वह तो सत्ता में बैठे चंद लोगों के लिए ही है। यह सरकारी संस्कृति बर्बर व्यवस्था को ‘विकास’और ‘मानवता’का चेहरा देकर लोगों को गुमराह करती और व्यवस्था का ग़ुलाम बना देती है। ऐसे में अपनी कलम से नयी दुनिया की राह बनाने वाला लेखक ‘सब ठीक है’जैसे झूठे दावों पर टिकी व्यवस्था से कैसे लड़े? ऐसे समय में जब हम अपनी अलग-अलग इच्छाओं और सपनों के साथ एक-दूसरे को सिर्फ़ फ़ायदे और नुकसान के नज़रिये से देख-समझ और परख पा रहे हैं तब सबको साथ लेकर चलने और दुनिया की तस्वीर बदलने का ख़्वाब सँजोने वाले साहित्य की क्या भूमिका हो? हमारे आस-पास के हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि लिखना और कुछ नहीं बल्कि एक के बाद दूसरी समस्याओं की बात करना और उनसे भिड़ना हो गया है। तब हमारा लिखना किन लोगों के ख़िलाफ़ और किनके लिए हो? लातिन अमेरिका में हम जैसे लेखकों की किस्मत और सफ़र बहुत हद तक बड़े सामाजिक बदलावों की ज़रूरत से सीधे-सीधे जुड़ा है। लिखना इस बदलाव के लिए लड़ना ही है क्योंकि यह तो तय है कि जब तक ग़रीबी, अशिक्षा और टी.वी. तथा बाक़ी संचार माध्यमों के फैलते जाल पर बैठी सत्ता का राज कायम रहेगा तब तक हमारी सबसे जुड़ने और साथ लड़ने की सभी कोशिशें बेकार ही रहने वाली हैं।
एडुआर्डो गैलिआनो
अनुवादः पी. कुमार मंगलम
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टिप्पणियाँ
सत्यनारायण:-
मित्रो बात सिर्फ़ लिखने की ही नहीं है...मुझे लगता है कि हम किसी भी विधा में
काम करते हैं....पेंटिंग बनाते हैं...फ़ोटोग्राफ़ी करते हैं...फ़िल्म बनाते हैं...नाटक करते हैं...या हम डॉक्टर है और इलाज करते हैं....हम शिक्षक हैं और पढ़ाते हैं....हम दुनिया में हैं और कोई भी काम करते हैं....तब भी हमें यह सोचने की ज़रूरत है...ख़ुद से यह सवाल करने की ज़रूरत है कि आख़िर हम जो कुछ कर रहे है...वह क्यों कर रहे हैं...?
क्या सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने लिए....या हम जो कुछ करते हैं....उसके करने के पीछे हमारा सामाजिक दायित्व भी है कुछ....हमारी कुछ ज़िम्मेदारी भी है या नहीं ? हमारी कोई पक्षधरता है या नहीं ? है तो किसके प्रति है ! जिसके प्रति है , क्या वही होनी चाहिए !
हम ग़लत पाले में तो नहीं खड़े हैं...! मुझे लगता है कि इस तरह से हमें बहुत कुछ सोचने- समझने की ज़रूरत है....अपनी प्राथमिकता और पक्षधरता को बहुत स्पष्ट ज़ाहिर करने की भी ज़रूरत है और उसके प्रति अपनी प्रतिबद्धता भी दर्शानी ही पड़ती है.....हम सोचने समझने वाली कौम...आख़िर इंसान है...यह बताने की ज़रूरत है...मुझे ऐसा लगता है.....
अपने प्यारे और विचारशील साथियो
अनुरोध है कि खुल कर अपनी बात रखे.....
किसलय पांचोली:-
लातिनी अमरीकी लेखक गैलिआनो के लेख "तो फिर आप लिखते ही क्यों हैं_ एक दो तीन " के सफल अनुवाद ने झकझोर कर रख दिया। नैतिक और सच्चे प्रजातान्त्रिक मूल्यों की पुनरस्थापना का संघर्ष और उससे जुड़े विश्व लेखकीय दायित्व पर आँखें खोलता है आलेख। साधुवाद।
प्रज्ञा :-
गैलियानो के लेख के लिये सत्यनारायण पटेल जी का शुक्रिया। सही ही कहा कि इसे पढ़कर ये एक ख़ास परिधि तक महदूद नही रहता।
तीसरी दुनिया के सभी देशों पर खरा उतरता दीखता है। जनतांत्रिक सोच के हर दरीचे को कैसे बन्द किया जाए ,नौजवान चिंतन को कैसे निष्क्रिय किया जाए। मीडिया को किस प्रकार इसमें इस्तेमाल किया इन सबके बरक्स लेखन कैसे प्रतिरोध की संस्कृति का कारगर हथियार बन सकता है लेख अनेक सन्दर्भों से व्यक्त करता है।
यह लेख आज के दौर में बेहद ज़रूरी।
ब्रजेश कानूनगो:-
बिलकुल सच कह रहे हैं आप।लिखने के साथ बहुत जरूरी है की हमारी पक्षधरता बिलकुल साफ़ हो।हमारी सक्रियता से अंततः किसका भला होना सम्भव है। जब हम किसी तंग बस्ती के बच्चे के हित की दृष्टि से कोई कार्य करते हैं ऐसा महसूस होता है कोई अच्छी कविता लिख ली हो।
अशोक जैन:-
तो फिर आप लिखते ही क्यों हैं?
तीनों लेख बहुत ही विचारोत्तक और झकझोरने वाले हैं। अंतिम लेख की अंतिम पंक्तियाँ एक कटु सत्य को जाहिर करती हैं और सबसे बड़ा संघर्ष भी यहीं है।
एक बात और लिखने वाला लेखक सर्वप्रथम स्वांत सुखाय लिखता है।
प्रज्ञा :-
एक बात लेखन के समय से ही लेखकीय पक्षधरता तय हो जाती है। हम कला के लिए लिखेंगे या जन के लिये। हम कोरे आनन्द के लिए लिखेंगे या समय समाज और इंसान के बेहतर भविष्य के लिये। परसाई के शब्दों में कहू कि हम पीटने वाले की और हैं या पिटने वाले की ओर।
लिखते हुए हमारा सोचना इसका अंग है फिर चाहे दिशा हमे मुक्तिबोध का कला के तीन क्षण से मिले या ई एम एस नम्बूदरीपाद तोल्स्तोय आदि के कला साहित्य संस्कृति पर विचार या ऐसे अनेक लेखों से। जो साहित्य इतिहास बोध से नही जुड़ेगा न वो मानवीय होगा न वैचारिक दृष्टि सम्पन्न। सबसे बड़ी ज़रूरत अपने आस पास के जीवन को देखना उसे महसूस करना भी है और इसमें लेखक ही नहीं सब शामिल हैं। समाज की नब्ज़ टटोलकर उसकी चिकित्सा सबका सामूहिक दायित्व है। नहीं तो वही होगा जो बहुत पहले मार्टिन नीमोलर की कविता में दर्ज है
वो सबसे पहले मज़दूरों को लेने आये
मैं कुछ नही बोला
क्योंकि मैं मज़दूर नहीं था
और अंत में वे मुझे लेने आये
तब कोई नहीं बचा
यही सोचना ज़रूरी है कि ऐसे में यथास्थिति बने या प्रतिरोध की मशाल जले?
अर्चना चावजी:-
Main apani kahu to badi post padhne me mn nahi lagta...aur mobile par to bilkul nahi....phir bhi koshish karti hu padhti rahu...hindi n hone par kuchh bhi likhne se bachti hu... Lekin meeting ko mis karti hu..... Bahut dino ka gap raha to suchi bhi nahi pata kis din kya ho raha hai...ab to school rahenge to whatsapp par aana mushkil rahega ...phir bhii ...achha hai kuchh n padhne se padhte rahna...thanks for sharing...
फ़रहत अली खान:-
गैलियानो का लेख हमें सोचने पर मजबूर करता है कि अगर हम कुछ लिखते हैं तो उसके पीछे हमारा असल मक़्सद क्या होता है। क्या हम इसलिए लिखते हैं कि वाह-वाही पा जाएँ या फिर इसलिए कि हमें अपने विचार सबके सामने लाने हैं। सही कहा लेखक ने कि हमारी सबसे ज़्यादा तारीफ़ शायद वो लोग करते हैं, जिन्हें हमसे कोई ख़तरा नहीं होते। जब इंक़िलाब हमारी सोच में आएगा तो ख़ुद-ब-ख़ुद हमारे लेखों में भी नज़र आने लगेगा।
सत्यनारायण जी का धन्यवाद।
प्रज्ञा जी की टिप्पणी अपने आप में एक छोटा वैचारिक आलेख है।
मनीषा जैन :-
एडुआर्डो गैलियानो का यह लेख सभी बुद्धिजीवियों के लिए चिन्तन का विषय है
कि आज हम लिख रहे है तो किसके लिए व क्यों ? यदि लेखन में प्रतिबद्धता नहीं तो क्यो लिख रहे हैं और प्रतिबद्धता किसके प्रति है ? हम जाति धर्म वर्ग वर्ण से परे होकर मानवता के लिए कुछ करें जिससे जो दबा कुचला है वह और दब न जाए या सत्ता व पूँजी के फेर में पड़ जाए....अन्याय के प्रतिरोध की मशाल को जलाए रखे।
दिनेश कर्नाटक:-
महत्वपूर्ण आलेख। इसे हर लिखने वाले को पढ़कर खुद से पूछना चाहिए कि मैं क्यों लिखता हूं ?
हमारे वहां स्थितियां बिलकुल वैसी भले ही ना हों। मगर वहीं को जाती हुई दिखाई पड़ रही हैं। ऐसे में लेखकों का तय करना है कि वे किस ओर हैं ?
आशा पाण्डेय:-
सच कहा दिनेश जी,ये लेखको. के लिये एक प्रश्न है जो उनको स्वयं से ही पूछना है और इमानदारी से स्वयं को ही उत्तर देना है.ठकुर सुहाती से भी बचना एक जरूरीकर्म है हम लेखको के लिये.
आशीष मेहता:-
'दुनिया बदल देना' किसी के चाहने और 'कर देने' की बात ही नहीं है । 'लिखे क्यों' या 'साहित्य का ध्येय ', जैसा आलेख में इंगित है, से पूरी तरह सहमत नहीं हो पा रहा हूँ। मैं प्रभावित हूँ जिस तरह से 'पूँजीवादी ताकतों' की कार्यप्रणाली का सटीक चित्रण लातिन अमेरिकी परिवेश में किया गया है। पर यह प्रक्रिया सार्वभौमिक है। विश्व के हर हिस्से में अपनी ही कहानी लगेगी। यह जो क्रांतिकारी विचार है, 'बदल देने वाला ' यह प्राकृतिक है। यह लेखक में भी है, वैज्ञानिक, अध्यापक, प्रशासक में भी। पर यह 'बदलने' वाली प्रक्रिया /विचार भी कई और प्राकृतिक विरोधाभासों की तरह काम करता है। कोई इसे सबके लिए बराबर देखना चाहता है, तो कोई दुनिया मुठ्ठी में करना चाहता है। पूंजीवादी ताकत भी एक कृत्रिम व्यवस्था की चाह रखती है । उससे बुरे कई तानाशाह भी हो चुके हैं। इस कृत्रिम व्यवस्था में अपने तईं सभी किले लड़ाते हैं। क्या लेखक, क्या चिकित्सक, क्या समाजसेवी। पर मेरा मन तो एक जुमले पर रुक सा गया है : बीस की उम्र में जो कम्युनिस्ट नहीं, उसके दिल नहीं। और तीस की उम्र तक जो कम्युनिस्ट ही है, उसके दिमाग नहीं।
वागीश:-
आज जिस महान विचारक का लेख साझा किया गया है वो पचासी साल की उम्र में एकाध महीने पहले मरे है और आखिरी सांस तक मार्क्सवादी विचार को मानने वाले रहे। अब उनको दिमाग था की नहीं यह आप तय करें। उक्तियों से दुनियां को समझने की बजाय उन उक्तियों के निहितार्थ को समझने की कोशिश अधिक सार्थक समझ पैदा करेगी।
आशीष मेहता:-
महान विचारकों और मानव सेवा विचार और परिश्रम से ही तो व्यवस्थाएँ बनी और फली फूलीं है। परन्तु इनका निरन्तर दुरुपयोग, गरीब को और गरीब बना रहा है। वागीशजी, मेरे लिए सार्थकता विषय पर विचार रखने और 'अभिव्यक्ति का खतरा ' उठाने तक ही सीमित थी। पचासी वर्षीय महान विचारक के बारे में मेरी जानकारी सिफर है। उनके लिए मेरे मन में कोई दुराभाव नहीं है। मेरे विचारों न कोई कम्युनिस्ट बनेगा न ही कोई तानाशाह (मैं लेखक या विचारक जो नहीं हूँ)। वह उक्ति भी मेरी गढ़ी नहीं है। फिर भी आप को (एवं अन्य कम्युनिस्ट साथियों को) आहत करने का अपराधी अनचाहे बन गया हूँ। क्षमा करें।
वागीश:-
आशीष जी, कम्युनिज्म के विचार पर चलने वाले लोगों को खारिज करने और ऐसी उक्तियों से उपहास करने वालों की एक पूरी जमात है और हमें इस तरह की उक्तियाँ सुनने की आदत सी है। क्षमा की कोई बात नहीं। हाँ, जो दुःख आप व्यक्त कर रहे हैं उसमे हम सब कहीं और शिद्दत से शामिल हैं। जो है और जैसा है वो ठीक तो नहीं है। सवाल है कि दुःख से आगे जाकर क्या किया जाए की हालात बदले। और हालात तभी बदलेंगे जब हम इसको ठीक से समझने की कोशिश करेंगे। मार्क्सवादी विचार कोई रूढ़ि नहीं है। दुनिया जैसे बदल रही है उसको समझने के तरीके भी बदले हैं और उनसे निपटने के संघर्ष के तरीके भी सोचे जा रहे हैं। इसमें कोई और नया सोच जुड़े तो बात बने।
और, मुझे तो तमसो मा ज्योतिर्गमय से बेहतर लगता है अप्प दीपो भव।
आशीष मेहता:-
जी, शुक्रिया। मेरा बोझ कुछ कम हुआ (यदि आप विश्वास कर पाएँ, मैं किसी जमात में नहीं) । आप के इशारे (अप्प,...) से सहमत हूँ, बल्कि जुमले से पहले निवेदन भी किया, कि समाज के सभी घटक मिल कर ही बना (या बिगाड़) रहे हैं दुनिया को।
आलोक बाजपेयी:-
बहुत ही विचारोत्तेजक लेख।साझा करने के लिए शुक्रिया।कई बार पढने की मांग करता है।मुक्तिबोध के लेखन की तरह स्थायी महत्त्व का है।भारतीय संधर्भ में कहे तो स्थिति अभी उतनी खराब नहीं हुई है लेकिन अगर हम फासीवादी तत्वों का मुकाबला कर सकने में विफल रहे और सत्ता लंबे समय बीजेपी आरएसएस के शिकंजे में रही तो भारत की दशा शायद लैटिन अमेरिका के देशो से भी बुरी हो जाये।कमसे कम साहित्य संस्कृति के छेत्र में तो जरूर ही और सामाजिक विषमता में भी।
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