07 जुलाई, 2015

वरिष्ठ साहित्यकार ह्दयेश जी की डायरी के कुछ पन्ने

प्रस्तुत हैं वरिष्ठ साहित्यकार ह्दयेश जी की डायरी के कुछ पन्ने। ह्रदयेश जी के अनेक उपन्यास कहानी संग्रह आ चुके हैं। आजकल शाहजहाँपुर(उत्तर प्रदेश ) में रहते हैं।और आज भी रचनारत हैं।आइये पढ़ते हैं उनकी डायरी के कुछ पन्ने।

॥ दुबारा जार्ज वाशिंगटन के मुल्क में ॥
हृदयेश 

7 जुलाई , 1997

कल शाम दुबारा अपने बेटे-बहू के घर समरसेट, न्‍यूजर्सीं आ गया। इस बार अकेला ही आया हूँ। पत्‍नी एक तो अस्‍वस्‍थ रहती हैं, दूसरे उनके साथ भाषा और पुराने आचार-विचारों की भी समस्‍या है। पत्‍नी छोटे बेटे के पास बंबई चली जाएँगी। चलने लगा तो वह बाहर तक छोड़ने आर्इं। आँखों में आँसू थे। मैं इतना लंबा अकेले सफर कर रहा हूँ, वह भी सात समुद्र पार के देश के लिए। आशंकाओं, दुश्चिंताओं से वह बराबर घिरी रहती हैं बावजूद इसके कि वह ईश्‍वर और दैवी शक्तियों पर अटूट आस्‍था रखती हैं और छोटी-से-छोटी समस्‍या के अनुकूल हल के लिए देवी-देवताओं की मानता बोलती हैं।'एअर इंडिया' से आया था। सारी सवारियाँ भारतीय थीं। लगा कि पूरा भारत साथ चल रहा है। यों तो कुछ लोग अँग्रेजी बोल रहे थे, लेकिन हिंदी अधिक सहज रूप में संवादों का माध्‍यम बन रही थी। अपनी भाषा भी सुरक्षा का आश्‍वस्‍तकारी अहसास देती है। इंग्‍लैंड से कुछ विदेशी भी न्‍यूयार्क के लिए सवार हुए थे, किंतु उनकी संख्‍या बहुत ही कम थी इतनी जैसे हल्‍के रंग मुख्‍य गहरे रंग में बिलाकर अपनी पहचान खो देते हैं। मेरी बगल वाली सीट पर एक नीग्रो महिला आकर बैठ गई थी। इतनी भीमकाया थी कि मुझे बराबर महसूस होता रहा कि कोई पुरुष साथ में बैठा है। संभवत: उसकी यह पहली हवाई यात्रा थी। मैंने बेल्‍ट बाँधने में सहायता की। बावजूद अपने मर्दाना डील-डौल के, उसका आचरण निहायत कोमल और कमनीय था। अपना बटुआ खोलकर उसने मुझे सुगंधित चुइगम दिया।आते ही पाँच साल की पोती कली ने एक शर्मीली मुस्‍कान के स्‍वागत किया। पिछली बार सन 1989 में जब आया था, तब घर में कोई बच्‍चा नहीं था। बच्‍चा होने से घर कितना आत्‍मीय बन जाता है। बच्‍चे के सहज, निष्‍कलुष क्रियाकलाप परिवेश में संगीत जैसा कुछ घोल देते हैं। संगीत का आस्‍वाद कभी भी बासी नहीं पड़ता। बाहर सड़क पर या आसपास घरों में कहीं भी कोई शोरोगुल, चीख-चिल्‍लाहट नहीं है। वाहनों की भी पोंपों, हों-हों नहीं। ऐसी शांति आध्‍यात्मिकता के अति निकट होती है। नहीं, आध्‍यात्मिकता का यह एक दूसरा नाम है। आध्‍यात्मिकता की भाँति ऐसी शांति में भी अपने अंदर में गहरे उतरा जा सकता है।

8 जुलाई

 कल रात्रि बिजली का स्विच गिर जाने से कमरे में लगी इलेक्ट्रिक घड़ी बंद हो गई। जब स्विच फिर आन किया घड़ी ने चलना बारह से शुरू किया। भारत से जो अपनी पुरानी कलाई घड़ी बाँध कर चला था, उसने भी अपनी सुइयाँ घुमाना सवा दस बजे के बाद रोक दिया। सोने की कोशिश की, किंतु देर तक नींद नहीं आई। आँख खुलने पर मैं खिड़की के बाहर लटके आकाश से समय का अंदाजा लेता या फिर गलत हो गई घड़ियों से। स्‍ट्रीट तथा दूसरी लाइट्स से बिंधा बाहर का अंधेरा इस अंदाजे को गड़बड़ा देता था। उतर कर नीचे तल्‍ले में आ गया। वहाँ लगी घड़ी सवा पांच बजा रही थी। बेड डी पीने की मुद्दत से आदत है। चुपचाप चाय बनाई। फिर पीछे का स्‍लाइडिंग दरवाजा खिसका कर बाहर निकल गया।घर से अटैची में पैक कर पहनने के जो कपड़े लाया था, ठूसम-ठाँस करने से वे सारे मुचड़ गए थे। दोपहर में घंटा भर लगकर लोहा किया। यह यहाँ से जुड़ने के लिए अपने को तैयार करना था, बाहर से भी और भीतर से भी।

9 जुलाई

आज सीनियर सिटीजन सेंटर जाने का सुयोग बन गया। सुयोग इस मायने में कि यहाँ आने की अगली शाम ही बेटे ने दस-बारह घर छोड़कर रहने वाले एक वृद्ध से परिचय कराया था जिनकी समय काटने के लिए साथी की जरूरत थी। पहचान लिया, अरे यह तो भंडारी साहब है, जो 25-30 वर्ष पूर्व मेरे अपने शहर शाहजहाँपुर में बैंक मैनेजर थे और जिनसे दुआ-सलाम हुआ करती थी। बेटों के आ जाने पर वह भी इस देश में आ गए थे। छह बेटों में से पाँच अमेरिका में हैं।भंडारी साहब ने बताया था कि वह बुधवार, बृहस्‍पतिवार तथा शुक्रवार को इस सेंटर पर जाते हैं। मंगलवार को वह 50 मील दूर एक दूसरे शहर के सेंटर पर जाते हैं जहाँ वह कभी कुछ साल तक रहे थे और जहाँ उनके कुछ पुराने परिचित हैं। इस दूसरे को वह बस और रेल से तय करते हैं। शनिवार को एक दूसरा बेटा ले जाता है, जिसके पास वह रविवार तक रहते हैं। भंडारी साहब ने जोर दिया था कि मैं उनके साथ सेंटर चला करूँ। तीन-चार घंटे का अच्‍छा वक्‍त कटा करेगा।भंडारी साहब चलते हुए बराबर अपने अतीत के बारे में बतातें जाते थे कि उनके अधिकारी किस प्रकार उनके कार्य, उनकी दक्षता तथा उनके आचरण की दाद देते थे और लोग कैसे उनकी इज्‍जत करते थे। मैं जल्‍द समझ गया कि 'इज्‍जत करना' उनका तकिया कलाम है। या वह इस बीमारी से मुबितला है। यह भी बताया कि नौ साल उन्‍होंने अमेरिका में भी शान से सर्विस की थी, जिसकी बिना पर ग्‍यारह सौ डालर बतौर पेंशन वह हर माह पाते हैं। सर्दी का मौसम यहाँ बड़ा बेरहम है। तब वह हिंदुस्‍तान चले जाते हैं जहाँ अपने मित्रों और संबंधियों के परिवारों के बीच समय गुजारते हैं। आठ-नौ वर्ष पूर्व उनकी पत्‍नी गुजर गई जिसकी वजह से वह बहुत अकेलापन महसूस करते हैं।''यहाँ बूढ़ों के पास बैठने, बतियाने के लिए अपने सगों के पास भी फुरसत नहीं। दरअसल यह मुल्‍क बूढ़ों के लिए नहीं है।'' बातों के बीच वह बोले।''मैंने सुना है यहाँ फादर्स डे होता है।''उन्‍होंने चश्‍मे के मोटे शीशों के पीछे से झाँका, ''हाँ, होता है, सितंबर महीने में। उस दिन बेटे-बेटियाँ अपने माँ-बाप से मिलने आते हैं। नहीं आ सकने पर ग्रीर्टिंग्‍स कार्ड भेज देते हैं, या फिर फोन पर 'लाँग हैपी लाइफ' के लिए शुभकामनाएँ।कुछ देर बाद बोले, ''मुझसे गलती यह हो गई कि मैंने ड्राइविंग नहीं सीखी। यहाँ जो कार चलाना नहीं जानता है, सैर-सपाटे या शार्पिंग वगैरह के लिए वह दूसरों की मेहरबानी का मोहताज है।''यों तो भंडारी साहब की आवाज में शब्‍दों को एक दूसरे से जोड़े रखने वाला कसाव था और उनकी कमर व गर्दन भी सीधी थी, लेकिन पटरी पर चलते हुए वह बीच-बीच में दो मिनट के लिए रूक जाते थे। जब वह ऐसा करते थे, उनकी बताई हुई 84 वर्ष की उम्र अपने सही होने का प्रमाण देने लगती थी।सेंटर पहुँचने पर भंडारी साहब ने वहाँ की महिला सचिव को मेरा परिचय देते हुए बताया कि मैं इंडिया से छह महीने के लिए बहैसियत विजिटर आया हूँ और सेंटर का मेंबर बनने का इच्‍छुक हूँ। महिला सचिव ने भरने के लिए फार्म दे दिया।एक बड़ा सा हाल था जिसमें साफ चमकदार प्‍लास्टिक कवर से लैस गोल मेजें फासले से पड़ी थीं और हर मेज के गिर्द कई कुर्सियाँ। हम दोनों एक कोने में रखे कंटेनर से गर्भ काफी कागज के कपों में लेकर मेज पर आ गए। मेरे फार्म भरने लगने पर भंडारी साहब ने कहा कि उन्‍होंने अपना नाम छोटा कर केवल 'राम' तक सीमित कर लिया है और मैं अपने नाम का मध्‍य नाम 'नारायण' लिखकर ही हस्‍ताक्षर करूँ। मेरा सरकारी नाम ह्दय नारायण मेहरोत्रा है।मैंने अपने लेखक होने और उससे जुड़े नाम की बात उनकी नहीं बताई थी। यहाँ के लोग गैर ईसाई नामों का उच्‍चारण ठीक से कर नहीं पाते हैं। बेटे ने एकबार बताया था कि चीनी, जापानी लोग अमेरिका में आकर एक दूसरा अमेरिकन नाम रख लेते हैं, अपने बॉस को उच्‍चारण कि कसरत से बचाने के साथ-साथ अपने नाम की फजीहत न होने देने के लिए।मेरी मेज वाली कुर्सियों पर तीन बूढ़ी महिलाएँ आकर बैठ गई। भंडारी साहब की तरह उनकी भी शायद वे स्‍थाई सीटें थीं। एक महिला ने आगे के बाल गोलाई से कटा रखे थे। उसने ओंठों पर चटक सुर्ख रंग की लिपस्टिक भी लगा रखी थी। वह अंत तक एकदम खामोश बैठी रही, किसी माडल जैसी। छोटे कद की दूसरी महिला ने साथ लाई एक मैगजीन खोल जी और किसी पजिल को हल करने में मशगूल हो गई। तीसरी महिला, जो छरहरे जिस्‍म की थी, एक फ्रेम में कसे जालीदार कपड़े पर कशीदागीरि करने लगी, इसलिए कि अँगुलियों के जोड़ों की गाँठें सख्‍त होने से बची रहेगी। दूर की एक मेज पर तीन-चार आदमी कुछ जोर-जोर से बातें कर रहे थे। उनमें से किसी की कमर झुकी हुई थी, किसी की माँसपेशियाँ सींवन खुली थिगलियों की तरह लटकी हुई थीं और एक की नाक ने अपना प्रकृत आकार बदल डाला था।टी.वी. वाले पास के कमरे से आठ-दस लोग रेंगते हुए हाल में आ गए और अपनी मेजों के गिर्द बैठ गए।बढ़ी उम्र क्‍या इमारतों की तरह इनसानों को भी खंडहर नहीं बना देती है? खंडहरों को देखकर पहले कुछ तेज-सा धक्‍का लगता है, फिर उनका अतीत उस धक्‍के को करूणा में तब्‍दील कर पिघलने लगता है।ठीक बारह बजे कोई निर्देश हवा में गूँजा और सब लोग सीने पर हाथ रखकर खड़े हो गए। मुझे भी वैसा करना पड़ा। अमेरिका का राष्‍ट्रीय ध्‍वज हाल के अंदर प्रदर्शित था और कोई छोटे-सा गान उसके सम्‍मान में गाया जा रहा था। गान के बाद वहाँ मौजूदा लोग लंच लेने के लिए काउंटर की ओर बढ़ने लगे। उस दिन लंच का मेनू था-जूस, दूध, मिक्‍सड सलाद, डबलरोटी का टुकड़ा तथा दो-एक और चीजें।लंच की समाप्ति के साथ उस सेंटर के समय की भी जैसे से समाप्ति थी। अपनी कारों से आने वाले कारों से चले गए। बाकी लोग बस का इंतजार करने लगे जो बंद मिनट में आ भी गई। बारह-चौदह सीटों की वह छोटी-सी अरामदेह बस थी। एक अश्‍वेत महिला चला रही थी।मैं और भंडारी साहब बस के वापस लौटे।

11 जुलाई

उस दिन सेंटर पर कम उपस्थिति के बारे में पूछने पर भंडारी साहब ने बताया था कि शुक्रवार को यहाँ डाँस होता है और तब रौनक खासी रहती है। आज हम दोनों बस से आए। हाल में बजे टेप पर नृत्‍य हो रहा था। 25-30 लोग तीन-तीन की पँक्तियों में खड़े थे। दो-चार को छोड़कर सब महिलाएँ ही थीं। ज्‍यादातर पतलून और नेकर पहने थीं। सबसे आगे खड़ी महिला टेप की लय पर जो स्‍टैप्‍स लेती थीं, भागीदारी करने वाले अन्‍य भी लेते थे। हाथ और पैर धीरे-धीरे उठकर दिशा ग्रहण करते थे। बीच-बीच में दो-एक बहुत हलके ढँग के चक्कर भी लगाते थे। काफी बढ़ी हुई उम्र की महिलाएँ भी ऐसा कर रही थीं, अपने शरीर को किसी प्रकार से सहाले हुए। उनके खुले अंग बुझे चूने से जैसे बने हुए थे और लगता था कि वह चुना किसी भी वक्‍त झर सकता है। नृत्‍य में कोई उद्दामता नहीं थी। चुँकि सामूहिक नृत्‍य यहाँ की संस्‍कृति का एक हिस्‍सा है, उसका जैसे-तैसे बस निर्वाह हो रहा था। औपचारिकता अपने में निर्जीव होती है और उसका पूरा किया जाना उसे ढोना होता है।सेंटर की गोरी सेक्रेटरी ने आकर बताया कि चूँकि मैंने आज के आने के लिए बतौर नोटिस साइन नहीं लिए थे, मेरे लिए लंच की व्‍यवस्‍था नहीं की गई है। आते ही मैंने गोलक में डेढ़ डालर डाल दिया था। यों सेंटर राज्‍य पोषित था, पर हर आने वाला डेढ़ डालर सहायता के रूप में डालना था। बंदिश न होते हुए भी यह बंदिश थी। व्‍यवहार अपने में बंदिश ही है। रजिस्‍टर देखने पर ज्ञात हुआ कि मैंने गलती से अगले शुक्रवार के सामने चिह्न लगाया था।एक अश्‍वेत वृद्ध सज्‍जन, जो अपनी पत्‍नी के साथ आए थे, मेरी मेज पर उठकर चले आए और आत्‍मीयता से अपनी दोस्‍ती का इजहार करने लगे। उन्‍होंने अगली दफा मुझसे नृत्‍य में भाग लेनेके लिए भी कहा। खाना लेने की पुकार लगने पर मैं नहीं उठा तो अश्‍वेत सज्‍जन ने भंडारी साहब से कारण जानना चाहा। जानकर उनकी आँखों में जो बेचैनी झलक आई उसे पढ़ा जा सकता था। जब भंडारी साहब ने अपने लंच में से मुझे सलाद, जूस जैसी कुछ चीजें दे दीं, उन आँखों में झलका - हाँ यह ठीक है।बस से हम लौट आए। भंडारी साहब ने आज भी अकेलापन महसूस करने की शिकायत की और जानना चाहा कि क्‍या शाम को मैं उनके घर आकर ताश खेलने में साथ दे सकता हूँ। मुझे तत्‍पर न देखकर वह उदास हो गए। सेंटर पर रोज न आ सकनेके लिए मैंने पहले ही दिन अपनी स्थिति साफ कर दी थी।
साभार- हिन्दी समय
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टिप्पणियाँ:-

गरिमा श्रीवास्तव:-
बहुत मार्मिक संस्मरण।सारे पश्चिमी देशों में यही स्थिति है।वह दिन दूर नहीं जब यह भारत की सच्चाई भी होगी।कृष्णा सोबती के उपन्यास समय सरगम में बुज़ुर्गों के अकेलेपन के भारतीय सन्दर्भ काफी प्रमाणिकता के साथ आये हैं।हृदयेश जी की कई कहानियां वृद्ध जीवन के यथार्थ की अभिव्यक्ति करती हैं।यह संस्मरण मन में एक कारुणिक भाव पैदा करता है और भविष्य के प्रति भयाक्रान्तता भी।

नयना (आरती) :-
अच्छा संस्मरण ह्रदयेश जी  का.अकेलेपन की वस्तुस्थिती को दर्शाता.संस्मरण मे कही-कही कुछ् छुटता सा नजर आया "उस दिन सेंटर पर कम उपस्थिति के बारे में पूछने पर भंडारी साहब ने बताया था कि शुक्रवार को यहाँ डाँस होता है और तब रौनक खासी रहती है। आज हम दोनों बस से आए।(उपस्थिति और डाँस की रौनक के बीच विरोधाभास).

लेकिन मुझे लगता हैं यह स्थिती सिर्फ़ आज की नही हैं और कालांतर से यह चला आ रहा है.अगली पीढी जब अपने वर्तमान के किये संघर्षरत  रहती हैं तब कही ना कही बुजुर्गो को अकेलेपन को भोगना पडता हैं. यही हिन्दुस्तान मे वानप्रस्थाश्रम हैं जिसे पहली पीढी आंनद से स्वीकार कर ले और आध्यात्म को अपना ले तो अकेलापन त्रासदी नही कहलायेगा न ही हमे भविष्य के प्रति भयाक्रान्त होने की आवश्यकता होगी.

कविता वर्मा:-
नयना जी से सहमत कि संस्मरण में तारतम्य नहीं है ऐसा लगता है जैसे भावनाओं के उद्वेग को जल्दबाजी में जस का दस कलम बद्ध कर दिया गया है । अकेलेपन की त्रासदी का एक बड़ा कारण है बुजुर्गों का अपने शहर या गॉंव से दूर बच्चों के पास रहने जाना भी है जहॉं उन्हे उनके संगी साथी नहीं मिलते जिनके साथ उन्होने अपने जीवन का अधिकांश समय बिताया हो । नये साथियों से जुड़ने में समय लगता है । ऐसे समय में जीवनसाथी का साथ छूट जाना त्रासदी है लेकिन खुद हो कर साथ छोड़ना ( भले कुछ समय के लिये ) समझ से परे है ।

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