पिछले 9 अगस्त को मानवता के विरूद्ध 70 साल पहले अमेरिका द्वारा हिरोशिमा नाकासाकी शहर पर परमाणु बम जैसी नृशंस कार्यवाही की गयी। इस काले दिन की स्मृति में बिजूका समूह की बहुत काबिल सदस्य नीलम मलकानी जी ने अपना आत्मकथ्य व रचनाएँ भेजी हैं। जिससे हम सब उस काले दिन पर बेगुनाह लोगो की स्मृति में अपनी श्रद्धाजंलि देंवे। और उन सब के प्रति सहानुभूति जो आज भी इस त्रासदी को भुगत रहे हैं।
॥ नीलम मलकानी ॥
✏मैं सभी साथियों के लिए एटम बम संग्रहालय की कुछ तस्वीरें भी लगाऊँगी समय मिलते ही। पर कविता 'काल' को समझने के लिए कुछ घटनाओं को जानना ज़रूरी है। ये कविता उन जापानी मित्रों के लिए लिखी गई थी जो पृष्ठभूमि पहले से ही जानते हैं पर जो अभी परिचित नहीं हैं उन सभी के लिए ये कुछ बिंदु...
१. हमले में एक मेडिकल कॉलेज तबाह हो गया था
२. एशिया का सबसे बड़ा उराकामी चर्च भी
३. एक व्यक्ति के हाथ में हमले के समय काँच की बोतल थी, काँच और पिघली हड्डियाँ आपस में मिल गए हैं और संग्रहालय में रखे हैं
४. एक बहुत मज़बूत धातु की बड़ी दीवार घड़ी है जिसके हिस्से मुड़ गए हैं, इस पर न कुछ गिरा न घड़ी गिरी पर विकिरण की वजह से ऐसा हुआ था
५. लोगों की खाल उधड़ने लगी थी और पास बहती उराकामी नदी पर ज़हरीले रसायन की परत चढ़ गई थी
६. हर जगह का पानी सूख गया था और लोग प्यासे मर गए थे
७. लोग बम से तुरंत भस्म हो गए थे लेकिन हैरानी की बात है कि उनकी परछाईयाँ बची रहीं क्योंकि विकिरण ने हर दीवार औरपत्थर को भी प्रभावित किया था
८. ज़मीन का तापमान बढ़ जाने और रसायनों के प्रभाव की वजह से कीड़े मकोड़ों की फ़ौज इंसानों पर लपक गई थी।
९ माँ बाप और बच्चे एक दूसरे का शव ढोते फिर रहे थे कि कहाँ दफ़नाया जाए.
⭕नीलम मलकानिया
सत्तरवीं वर्षगांठ, परमाणु हमले की
जापान से मेरा पहला परिचय स्कूल में हुआ था जब मानव इतिहास की अनोखी त्रासदी और हिरोशिमा तथा नागासाकि के बारे में जाना था। जापान हमेशा अपनी सुंदरता के लिए जाना जाता है। लेकिन यहाँ जापान में रहते हुए और यहाँ के सबसे बड़े मीडिया संगठन में काम करते हुए रोज़ ये जानने का अवसर मिलता है कि जापान की ख़ूबसूरती के पीछे कितनी मेहनत है और कितना अनुशासन है। युद्ध और हमलों के बारे में जानकर बहुत दुख होता है। मैं आज नागासाकि में हूँ और यहाँ होने वाली प्रार्थना स्मृति सभा को कवर करने आई हूँ।
कल मैं नागासाकि एटम बम संग्रहालय भी गई थी और सच कहूँ तो मैंने अपने जीवन में इतनी भयावहता और बदसूरती कभी नहीं देखी थी। अन्तरराष्ट्रीय विभाग में काम करते हुए हम बहुत से ऐसे विषयों के बारे में जानते हैं जब मन दोतरफ़ा सोचता है। हर बात से जुड़े दो पक्ष तथा तर्क-कुतर्क सामने आते हैं। पर जीवन को छोड़ मृत्यु का पक्ष लेता हर तर्क बेकार है।
इसीलिए मन फिर से बच्चा बन जाना चाहता है। मन चाहता है कि मेरे लिए जापानी गुड़िया, जूडो, किमोनो और चैरी के फूल ही जापान की पहचान हों कोई परमाणु बम हमला नहीं।
आज जापान फाउंनडेशन में आयोजित इस कार्यक्रम में हमलों का शिकार हुए लोगों की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना और हमलों में जीवित बचे लोगों यानी हिबाकुशा के प्रति सम्मान प्रकट करते हुए मैं अपनी दो कविताएँ हिरोशिमा और नागासाकि को ही समर्पित करती हूँ।
आरीगातो गोज़ाइमास
( धन्यवाद)
नीलम मलकानिया,
भाषा विशेषज्ञ
हिन्दी सेवा
रेडियो जापान
॥कविताऐ॥
1
आँकड़े-
(परमाणु बम हमला)
सुदूर द्वीप पर उगती होगी,
कच्ची सी धूप कुछ पहले ही।
लाल-पीले इचो पर लिख,
कुछ इबारतें इतिहास की।
मानवता झूमती होगी बेसबब,
लरजते चैरी के शालीन फूलों सी।
बहती शिनानो को बाँध फुजि के खूँटे से,
गढ़ा होगा वर्तमान नया।
मशरूमी बादलों पर चढ़ता होगा इंडैक्स।
आँकड़े जीतते हैं देश।
जीते हैं लोग, मरते हैं लोग,
साँस लेते रहते हैं आँकड़े।
*******
( इचो =पीले पत्तो वाला पेड़, बम हमले में सिर्फ छह पेड़ बचे रह गए थे)
(शिनानो=जापान की सबसे लंबी नदी)
( फ़ुजि= जापान का सबसे ऊंचा पर्वत)
2.
......काल......
आसमां में गूँजी थी चीख़ जो,
धरती ने नहीं चाही थी कभी वो।
सँवार रहे थे कुछ युवा भविष्य,
बन रहे थे डॉक्टर ख़ुशियाँ बाँटते।
माँ झुला रही थी शिशु बाँहों में,
झूमती थी उराकामी नदी देख उन्हें।
मदर मैरी मुस्काती थीं दया से,
मज़बूत लगते थे पत्थर चर्च के।
पहाड़ियाँ नागासाकि की सुरक्षा करती थीं,
जीत न पाया था कभी सरहद कोई।
लहलहाती हरी दूब पर,
छात्र खेलते थे बस्ते लिए।
एक शैतान लपका था उसी दौर में,
मशरूम से बरसी थी आग कई रोज़ तक।
उधड़ गई थी चमड़ी, जल गए थे बाल,
फ़ैट मैन ने फैलाया था विकिरण का जाल।
ढह गए थे घर,ढाँचों को थी अपनों की खोज।
धरती की कोख से निकली थी
कीड़ों की फ़ौज।
प्यासी बच्ची ने पिया था ज़हर, पानी पर तैरता,
भस्म हो गए थे लोग, रह गईं थीं परछाइयाँ।
मौत थी ये नए अंदाज़ की,
आहट जिसकी पता न चली।
70 साल पहले आसमां से उतरा था काल,
और थम गया था समय नागासाकि में।
बाद 1945 दुनिया में आए जो
सुनी कहानियाँ नाम साथ सुने दो।
मैं नागासाकि तुम नान्जिंग कहो,
हिरोशिमा से पहले या पर्ल हार्बर रख दो।
पर संग्रहित वो पिघली हड्डियाँ काँच संग,
पूछती हैं क्या मुस्कुरा सकते हो मुझे देख?
दो इतिहास बिलखते करेंगे सच यही बयाँ,
मारा था इंसान ने, मर गया था इंसान
000 नीलम मलकानी
--------------------------------
टिप्पणियाँ:-
प्रज्ञा :-
मानवीय त्रासदी पर एक सार्थक प्रयास नीलम जी। भीतर तक हिला गयी कविताएँ और फिर ये सब तथ्य ओह।
ये त्रासदियां दरअसल नृशंस मानव हत्याएं हैं । सुविचारित षड्यंत्र। ट्रेजेडी कहकर हम शिकारियों पर बचाव का आवरण सा डाल देते हैं। आपकी कलम के लिये मेरी शुभकामनाएं। कविताएँ पहले पढ़ी हुई थीं।
भोपाल गैस काण्ड के कितने तथ्य समान हैं।
मित्रो हिरोशिमा परमुक्तिबोध की क्लाड ईथरलि और भोपाल गैस काण्ड पर कई भाषाओ में अनूदित रमेश उपाध्याय की ट्रेजेडी माय फुट भी पढ़ी जानी चाहिए।
सुवर्णा :-
भयावह त्रासदी। कितनी कितनी कीमत चुकाई गई है प्रगति परीक्षण प्रयोग सब चलते हैं पर इन ज़ख्मों का क्या। मानवता की देह पर लगे इन घावों को कभी भुलाया नहीं जा सकता। अच्छी कविताएँ नीलम जी।
किसलय पांचोली:-
नीलम जी, आपने
मानव जन्य त्रासदी का बहुत ह्रदय विदारक वर्णन करते हुए काव्यात्मक प्रस्तुतियाँ दी हैं ।ये हमें सोचने को मजबूर करती हैं कि सबसे उन्नत मानव मस्तिष्क की विकृति का मंजर कैसा भयावह रहा होगा। ईश्वर न करे कि कहीं और ऐसा हो।
फ़रहत अली खान:-
आप यूँ समझिये कि जब धूप पड़ती है तो जहाँ सूर्य का प्रकाश सीधे सीधे ज़मीन पर पड़ता है वहाँ कोई परछाई नहीं बनती, लेकिन जहाँ प्रकाश किसी के शरीर पर पड़ता है वहाँ उसकी परछाई नज़र आती है यानी शरीर प्रकाश को ज़मीन पर पड़ने से रोक लेता है। अब ज़रा सोचें कि अगर इस प्रकाश की जगह बेहद ज़्यादा तीव्रता का प्रकाश अचानक किसी शरीर पर पड़े तो जहाँ ज़मीन पर वो तीव्र विकिरण सीधा पड़ेगा वहाँ ज़मीन का रंग कुछ और होगा; और जहाँ वो विकिरण शरीर पर पड़ा वहाँ(उस शरीर के ठीक नीचे) चूँकि ज़मीन पर विकिरण उतनी ज़्यादा तीव्रता के साथ नहीं पहुँचा सो वहाँ ज़मीन का रंग कुछ और सो वहाँ लोग तो नहीं रहे, भस्म हो गए, लेकिन उनकी परछाइयाँ बाक़ी रहीं।
ठीक ऐसे ही जैसे हाथ में पहनी अंगूठी के नीचे त्वचा का रंग कुछ और होता है और बाक़ी त्वचा का कुछ और।
मनीषा जैन :-
फरहत जी से सहमत। ऐसा भी मान सकते हैं जब विस्फोट हुआ तब आदमी साबुत जल गये और उनकी राख उसी जगह रह गयी जो अब एक परछाई का भ्रम देती है। काश !!! अब ऐसा कभी न हो....आमीन
फ़रहत अली खान:-
नीलम जी ने अपनी कविताओं से पहले दिए बिंदु-7 में जो बात बताई कि विकिरण ने हर दीवार और पत्थर की भी प्रभावित किया उससे ये बात समझ में आयी और विज्ञान भी इसकी वज़ाहत करता है।
कविता वर्मा:-
मुझे लगता है आदमी जहॉं थे वहीं भस्म हो गये पर चूंकि हड्डी एकदम भस्म नही होती तो कंकाल वहॉं वैसे ही छूट गया जिसे परछाई कहा गया क्योंकि उस कंकाल की स्थिति से ये पता चलता था कि उस समय वह व्यक्ति क्या कर रहा था किस पोज़िशन में था । क्योंकि विकिरण तो सेकेंड़ के सौ वे हिस्से से कम समय में ही सब तरफ फैल जाता है । इसका जिक्र भी है आदमी की हड्डी मे पिघला कॉेच ।
प्रदीप कान्त:-: सारी होड़ वर्चस्व की है जिसके कारण इंसान को इंसान ही मारता है। जब तक ये होड़ खत्म नहीं होगी तब तक किसी न किसी प्रकार यही सब चलेगा
अंजू शर्मा :-
ये कविता बहुत मार्मिक हैं। हृदयविदारक सच को सामने रखती कविता। ऐसा सच कि आज इतने सालों बाद भी मानवता का सिर शर्म से झुक जाता है इसे याद कर। सलाम नीलम जी
आनंद पचौरी:-
जापान और चीन के सामरिक संबंध ठीक नहीं हैं।चीन अपनी विस्तार वादी नीतियों के कारण १६ देशों से सीमा विवाद में है।इस तनावपूर्ण स्तिथियों मे भयंकर विनाश भोगी हुई कौम और क्या कर सकती है?हमारे देश ने जैसा चारों ओर से घेर लेने का मौका चीन को दिया है वैसा तो किसी भी जागरूक देश में नहीं हो सकता।
नीलम जी की संवेदना बहुत मार्मिक है।
राजेश्वर वशिष्ट:-
अद्भुत कविताएँ। पृष्ठभूमि के साथ। इन्हें पढना अनूठा अनुभव रहा। मानवता के विरुद्ध फिर जभी ऐसा न हो।बधाई।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें