॥नेहरू के नाम मंटो का खत॥
सआदत हसन मंटो
पंडित जी,
अस्सलाम अलैकुम।
यह मेरा पहला खत है जो मैं आपको भेज रहा हूँ। आप माशा अल्लाह ! अमरीकनों में बड़े हसीन माने जाते हैं। लेकिन मैं समझता हूँ कि मेरे नाक-नक्श भी कुछ ऐसे बुरे नहीं हैं। अगर मैं अमरीका जाऊँ तो शायद मुझे हुस्न का रुतबा अता हो जाए। लेकिन आप भारत के प्रधानमंत्री हैं और मैं पाकिस्तान का महान कथाकार। इन दोनों में बड़ा अंतर है। बहरहाल हम दोनों में एक चीज साझा है कि आप कश्मीरी हैं और मैं भी। आप नेहरू हैं, मैं मंटो...कश्मीरी होने का दूसरा मतलब खूबसूरती और खूबसूरती का मतलब, जो अभी तक मैंने नहीं देखा।
मुद्दत से मेरी इच्छा थी कि मैं आपसे मिलूँ (शायद बशर्ते जिंदगी मुलाकात हो भी जाए)। मेरे बुजुर्ग तो आपके बुजुर्गों से अक्सर मिलते-जुलते रहे हैं लेकिन यहाँ कोई ऐसी सूरत न निकली कि आपसे मुलाकात हो सके।
यह कैसी ट्रेजडी है कि मैंने आपको देखा तक नहीं। आवाज रेडियो पर अलबत्ता जरूर सुनी है, वह भी एक बार।
जैसा कि मैं कह चुका हूँ कि मुद्दत से मेरी इच्छा थी कि आपसे मिलूँ, इसलिए कि आपसे मेरा कश्मीर का रिश्ता है, लेकिन अब सोचता हूँ इसकी जरूरत ही क्या है? कश्मीरी किसी न किसी रास्ते से, किसी न किसी चौराहे पर दूसरे कश्मीरी से मिल ही जाता है। आप किसी नहर के करीब आबाद हुए और नेहरू हो गये और मैं अब तक सोचता हूँ कि मंटो कैसे हो गया? आपने तो खैर लाखों बार कश्मीर देखा होगा। मुझे सिर्फ बानिहाल तक जाना नसीब हुआ है। मेरे कश्मीरी दोस्त जो कश्मीरी जबान जानते हैं, मुझे बताते हैं कि मंटो का मतलब 'मंट' है यानी ढेढ़ सेर का बट्टा। आप यकीनन कश्मीरी जबान जानते होंगे। इसका जवाब लिखने की अगर आप जहमत फरमाएँगे तो मुझे जरूर लिखिए कि 'मंटो' नामकरण की वजह क्या है?
अगर मैं सिर्फ डेढ़ सेर हूँ तो मेरा आपका मुकाबला नहीं। आप पूरी नहर हैं और मैं सिर्फ डेढ़ सेर। आपसे मैं कैसे टक्कर ले सकता हूँ? लेकिन हम दोनों ऐसी बंदूकें हैं जो कश्मीरियों के बारे में प्रचलित कहावत के अनुसार 'धूप में ठस करती हैं..
.'मुआफ कीजिएगा', आप इसका बुरा न मानिएगा। मैंने भी यह फर्जी कहावत सुनी तो कश्मीरी होने की वजह से मेरा तन-बदन जल गया। चूँकि यह दिलचस्प है इसलिए मैंने इसका जिक्र तफरीह के लिए कर दिया है। हालाँकि मैं आप दोनों अच्छी तरह जानते हैं कि हम कश्मीरी किसी मैदान में आज तक नहीं हारे।
राजनीति में आपका नाम मैं बड़े गर्व के साथ ले सकता हूँ क्योंकि बात कह कर फौरन खंडन करना आप खूब जानते हैं। पहलवानी में हम कश्मीरियों को आज तक किसने हराया है, शाइरी में हमसे कौन बाजी ले सका है। लेकिन मुझे यह सुनकर हैरत हुई है कि आप हमारा दरिया बंद कर रहे हैं। लेकिन पंडित जी, आप तो सिर्फ नेहरू हैं। अफसोस कि मैं डेढ़ सेर का बट्टा हूँ। अगर मैं तीस-चालीस हजार मन का पत्थर होता तो खुद को इस दरिया में लुढ़ा देता कि आप कुछ देर के लिए इसको निकालने के लिए अपने इंजीनियरों से मशविरा करते रहते।
पंडित जी, इसमें कोई शक नहीं कि आप बहुत बड़े आदमी हैं, आप भारत के प्रधान मंत्री हैं। उस पर मुल्क, जिससे हमारा संबंध रहा है, आपकी हुक्मरानी है। आप सब कुछ हैं लेकिन गुस्ताखी मुआफ कि आपने इस खाकसार (जो कशमीरी है) की किसी बात की परवाह नहीं की।
देखिए, मैं आपसे एक दिलचस्प बात का जिक्र करता हूँ। मेरे वालिद साहब (स्वर्गीय), जो जाहिर है कि कश्मीरी थे, जब किसी हातो को देखते तो घर ले आते, ड्योढ़ी में बिठाकर उसे नमकीन चाय पिलाते साथ कुलचा भी होता। इसके बाद वे बड़े गर्व से उस हातो से कहते, "मैं भी काशर हूँ।"
पंडित जी, आप काशर हैं... खुदा की कसम अगर आप मेरी जान लेना चाहें तो हर वक्त हाजिर हैं। मैं जानता हूँ बल्कि समझता हूँ कि आप सिर्फ इसलिए कश्मीर के साथ चिमटे हुए हैं कि आपको कश्मीरी होने के कारण कश्मीर से चुंबकीय किस्म का प्यार है। यह हर कश्मीरी को चाहे उसने कश्मीर कभी देखा भी हो या न देखा हो, होना चाहिए।
जैसा कि मैं इस खत में पहले लिख चुका हूँ। मैं सिर्फ बानिहाल तक गया हूँ। कद, बटौत, किश्तबार ये सब इलाके मैंने देखे हैं लेकिन हुस्न के साथ मैंने दरिद्रता देखी। अगर आपने दरिद्रता को दूर कर दिया है तो आप कश्मीर अपने पास रखिए। मगर मुझे यकीन है कि आप कश्मीरी होने के बावजूद उसे दूर नहीं कर सकते, इसलिए कि आपको इतनी फुरसत ही नहीं।
आप ऐसा क्यों नहीं करते... मैं आपका पंडित भाई हूँ, मुझे बुला लीजिए। मैं पहले आपके घर शलजम की शब देग खाऊँगा। इसके बाद कश्मीर का सारा काम सम्हाल लूँगा। ये बख्शी वगैरह अब बख्श देने के काबिल है... अव्वल दर्जे के चार सौ बीस हैं। इन्हें आपने ख्वाहमख्वाह अपनी जरूरतों के मुताबिक आला रुतबा बख्श रखा है... आखिर क्यों? मैं समझता हूँ कि आप राजनेता हैं जो कि मैं नहीं हूँ। लेकिन यह मतलब नहीं कि मैं कोई बात समझ न सकूँ।
आप अंग्रेजी जबान के लेखक हैं। मैं भी यहाँ उर्दू में कहानियाँ लिखता हूँ... उस जबान में जिसको आपके हिंदुस्तान में मिटाने की कोशिश की जा रही है। पंडित जी, मैं आपके बयान पढ़ता रहता हूँ। इनसे मैंने यह नतीजा निकाला है कि आपको उर्दू से प्यार है। लेकिन मैंने आपकी एक तकरीर रेडियो पर, जब हिंदुस्तान के दो टुकड़े हुए थे, सुनी... आपकी अंग्रेजी के तो सब कायल हैं लेकिन जब आपने नाम निहाद उर्दू में बोलना शुरू किया तो ऐसा मालूम होता था कि आपकी अंग्रेजी तकरीर का तर्जुमा किसी ने ऐसा किया है जिसे पढ़ते वक्त आपकी जबान का जायका दुरुस्त नहीं था। आप हर फिक्रे पर उबकाइयाँ ले रहे थे।
मेरी समझ में नहीं आता कि आपने ऐसी तहरीर पढ़ना कुबूल कैसे की... यह उस जमाने की बात है जब रैडक्लिफ ने हिंदुस्तान की डबल रोटी के दो तोश बना कर रख दिए थे लेकिन अफसोस है अभी तक वे सेंके नहीं गए। उधर आप सेंक रहे हैं और इधर हम। लेकिन आपकी हमारी अंगीठियों में आग बाहर से आ रही है।
पंडित जी, आजकल बगू गोशों का मौसम है... गोशे तो खैर मैंने बेशुमार देखे हैं लेकिन बगू गोशे खाने को जी बहुत चाहता है। यह आपने क्या जुल्म किया कि बख्शी को सारा हक बख्श दिया कि वह बख्शीश में भी मुझे थोड़े से बगू गोशे नहीं भेजता।
बख्शी जाए जहन्नुम में और बगू गोशे... नहीं, वे जहाँ हैं सलामत रहें। मुझे दरअसल आपसे कहना यह था, आप मेरी किताबें क्यों नहीं पढ़ते? आपने अगर पढ़ी हैं तो मुझे अफसोस है कि आपने दाद नहीं दी। और अगर नहीं पढ़ी हैं तो और भी ज्यादा अफसोस का मुकाम है, इसलिए कि आप एक लेखक हैं।
अश्लील लेखन के आरोप में मुझ पर कई मुकदमे चल चुके हैं मगर यह कितनी बड़ी ज्यादती है कि दिल्ली में, आपकी नाक के ऐन नीचे वहाँ का एक पब्लिशर मेरी कहानियों का संग्रह 'मंटो के फोह्श अफसाने' के नाम से प्रकाशित करता है।
मैंने किताब लिखी है। इसकी भूमिका यही खत है जो मैंने आपके नाम लिखा है... अगर यह किताब भी आपके यहाँ नाजायज तौर पर छप गई तो खुदा की कसम मैं किसी न किसी तरह दिल्ली पहुँच कर आपको पकड़ लूँगा। फिर छोड़ूँगा नहीं आपको...
आपके साथ ऐसा चिमटूँगा कि आप सारी उम्र याद रखेंगे। हर रोज सुबह को आपसे कहूँगा कि नमकीन चाय पिलाएँ। साथ में कुलचा भी हो। शलजमों की शबदेग तो खैर हर हफ्ते के बाद जरूर होगी।
यह किताब छप जाए तो मैं इसकी प्रति आपको भेजूँगा। उम्मीद है कि आप मुझे इसकी प्राप्ति सूचना जरूर देंगे और मेरी तहरीर के बारे में अपनी राय से जरूर आगाह करेंगे।
आपको मेरे इस खत से जले हुए गोश्त की बू आएगी... आपको मालूम है, हमारे वतन कश्मीर में एक शाइर 'गनी' रहता था जो गनी काश्मीरी के नाम से मशहूर है। उसके पास ईरान से एक शाइर आया। उसके घर के दरवाजे खुले थे, इसलिए कि वह घर में नहीं था। वह लोगों से कहा करता था कि मेरे घर में क्या है जो मैं दरवाजे बंद रखूँ? अलबत्ता जब मैं घर में होता हूँ, दरवाजे बंद कर देता हूँ। इसलिए कि मैं ही तो इसकी इकलौती दौलत हूँ। ईरानी शाइर उसके सूने घर में अपनी बयाज छोड़ गया। इसमें एक शेर नामुकम्मल था। मिसरा सानी हो गया था, मगर मिसरा ऊला उस शाइर से नहीं कहा गया था। मिसरा सानी यह था :
कि अज लिबास तो बू-ए-कबाब भी आयद
जब वह ईरानी शाइर कुछ देर के बाद वापस आया, उसने अपनी बयाज देखी। मिसरा ऊला मौजूद था :
कदाम सोख्ता जाँ दस्त जो बदामानत
पंडित जी, मैं भी एक सोख्ताजाँ (दग्ध-हृदय) हूँ। मैंने आपके दामन पर अपना हाथ दिया है, इसलिए कि मैं यह किताब आपको समर्पित कर रहा हूँ।
27 अगस्त, 1954
सआदत हसन मंटो
( यह पत्र मंटो ने अपनी मृत्यु से चार महीना बाईस दिन पहले लिखा था।
उर्दू से अनुवाद :
( डॉ. जानकी प्रसाद शर्मा)
-------------------------------
टिप्पणियाँ:-
प्रज्ञा :-
जानकी जी के अनुवाद बेहतरीन होते हैं और इस लेख में तो ऐसी रवानगी है कि अनुवाद नही मूल ही जान पड़ रहा है। कश्मीर को देखने उसे चाहने की दो दृष्टियाँ मुझे बार बार रघुवीर सहाय याद आये
राजा ने जनता को बरसों से देखा नहीं
मुझे बालकृष्ण भट्ट याद आये
शो और ड्यूटी का फर्क समझाते।
मुझे कबीर भारतेंदु और मुक्तिबोध याद आये--अँधेरे में कविता का पागल गान बार बार याद आया। मुझे परसाई याद आये जो कहते थे तुम पीटने वाले की ओर हो या पिटने वाले की। मानो सब में डेढ़ सेर मन्टो ही बह रहे थे। कितनी ललकारती भाषा और उस भाषा में दिल का लहू पेश करने का हुनर।
शुक्रिया मनीषा जी। बिजूका में भी ये लेख गति बहाल करेगा।
मनीषा जैन :-
बहुत सही कहा प्रज्ञा जी।जितनी बार इसे पढ़ती हूँ भूल जाती हूँ कि ये अनुवाद है। भाषा की रवानगी गज़ब की है।
उम्मीद है और साथी पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य देंगे।
सुवर्णा :-
शानदार पोस्ट मनीषा जी। वाकई इन रचनाओं को पढ़ना एक अलग अनुभव होता है। सहमत हूँ कि अनुवाद सा बिलकुल नहीं लग रहा। प्रज्ञा जी सलाम आपको। क्या खूब टिप्पणी की है। आपकी टिप्पणियां पढ़ना रचना पढ़ने के आनन्द को दोगुना कर देती हैं।
फ़रहत अली खान:-
मंटो के फ़लसफ़े(जो कई बार ग़लत-बयानी के रूप में सामने आता है) का तो नहीं, लेकिन लेखन शैली का तो मैं भी क़ायल हूँ। उनकी संजीदा से संजीदा बात में हमेशा व्यंग्य का कुछ न कुछ पुट लाज़िमी तौर पर रहता है। बात कहने का अंदाज़ इतना प्रभावशाली है कि बार-बार ईरान की बात तूरान और तूरान की ईरान पहुँच जाने पर भी रोचकता बर-क़रार रहती है।
साथ ही प्रज्ञा जी के ज्ञान-वर्धक और सटीक कमेंट्स भी मैं बहुत चाव से पढ़ता हूँ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें