30 सितंबर, 2015

मजदूर जू लिझी की कविता

फ़ॉक्सकाॅन के मज़दूर की कविताएँ
ये कविताएँ चीन की फ़ॉक्सकाॅन कम्पनी में काम करने वाले एक प्रवासी मज़दूर जू लिझी (Xu lizhi) ने लिखी हैं। लिझी ने 30 सितम्बर 2014 को आत्महत्या कर ली थी। लेकिन लिझी की मौत आत्महत्या नहीं है, एक नौजवान से उसके सपने और उसकी जिजीविषा छीनकर इस मुनाफ़ाख़ोर निज़ाम ने उसे मौत के घाट उतार दिया। लिझी की कविताओं का एक-एक शब्द चीख़-चीख़कर इस बात की गवाही देता है। आज भी दुनियाभर में लिझी जैसे करोड़ों मज़दूर अपने जीवन के लिए संघर्ष कर रहे हैं। लिझी की कविताओं के बिम्ब उस नारकीय जीवन और उस अलगाव का खाका खींचते हैं जो यह मुनाफ़ाख़ोर व्यवस्था थोपती है और इंसान को अन्दर से खोखला कर देती है।

1-

मैंने लोहे का चाँद निगला है

मैंने लोहे का चाँद निगला है

वो उसको कील कहते हैं

मैंने इस औद्योगिक कचरे को,

बेरोज़गारी के दस्तावेज़ों को निगला है,

मशीनों पर झुका युवा जीवन अपने समय से

पहले ही दम तोड़ देता है,

मैंने भीड़, शोर-शराबे और बेबसी को निगला है।

मैं निगल चुका हूँ पैदल चलने वाले पुल,

ज़ंग लगी जि़न्दगी,

अब और नहीं निगल सकता

जो भी मैं निगल चुका हूँ वो अब मेरे गले से निकल

मेरे पूर्वजों की धरती पर फैल रहा है

एक अपमानजनक कविता के रूप में।

2-

एक पेंच गिरता है ज़मीन पर

एक पेंच गिरता है ज़मीन पर

ओवरटाइम की इस रात में

सीधा ज़मीन की ओर, रोशनी छिटकता

यह किसी का ध्यान आकर्षित नहीं करेगा

ठीक पिछली बार की तरह

जब ऐसी ही एक रात में

एक आदमी गिरा था ज़मीन पर

3-

मैं लोहे-सा सख़्त असेम्बली लाइन के पास

खड़ा रहता हूँ

मैं लोहे-सा सख़्त असेम्बली लाइन के पास

खड़ा रहता हूँ

मेरे दोनों हाथ हवा में उड़ते हैं

कितने दिन और कितनी रातें

मैं ऐसे ही वहाँ खड़ा रहता हूँ

नींद से लड़ता।

4-

मैं एक बार फ़ि‍र समुद्र देखना चाहता हूँ

मैं एक बार फ़ि‍र समुद्र देखना चाहता हूँ, बीत चुके आधे जीवन के आँसुओं के विस्तार को परखना

चाहता हूँ

मैं एक और पहाड़ पर चढ़ना चाहता हूँ,

अपनी खोई हुई आत्मा को वापिस ढूँढ़ना चाहता हूँ

मैं आसमान को छूकर उसके हल्के नीलेपन को महसूस करना चाहता हूँ

पर ऐसा कुछ भी नहीं कर सकता,

इसीलिए जा रहा हूँ मैं इस धरती से

किसी भी शख़्स जिसने मेरे बारे में सुना हो

उसे मेरे जाने पर ताज्जुब नहीं होना चाहिए

न ही दुख मनाना चाहिए

मैं ठीक था जब आया था और जाते हुए भी ठीक हूँ

5-

मशीन भी झपकी ले रही है

मशीन भी झपकी ले रही है

सीलबन्द कारख़ानों में भरा हुआ है बीमार लोहा

तनख़्वाहें छिपी हुई हैं पर्दों के पीछे

उसी तरह जैसे जवान मज़दूर अपने प्यार को

दफ़न कर देते है अपने दिल में,

अभिव्यक्ति के समय के बिना

भावनाएँ धूल में तब्दील हो जाती हैं

उनके पेट लोहे के बने हैं

सल्फ़युरिक, नाइट्रिक एसिड जैसे गाढे़ तेज़ाब से भरे

इससे पहले कि उनके आँसुओं को गिरने का

मौक़ा मिले

ये उद्योग उन्हें निगल जाता है

समय बहता रहता है, उनके सिर धुँध में खो जाते हैं

उत्पादन उनकी उम्र खा जाता है

दर्द दिन और रात ओवरटाइम करता है

उनके वक़्त से पहले एक साँचा उनके शरीर से चमड़ी अलग कर देता है

और एल्युमीनियम की एक परत चढ़ा देता है

इसके बावजूद भी कुछ बच जाते हैं और बाक़ी बीमारियों की भेंट चढ़ जाते हैं

मैं इस सब के बीच ऊँघता पहरेदारी कर रहा हूँ

अपने यौवन के कब्रिस्तान की।

(ये कविताएँ libcom.org वेबसाइट से ली गयी हैं, जिन्होंने चीनी भाषा से अंग्रेज़ी में अनुवाद किया है। अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद सिमरन ने किया है।
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टिप्पणियाँ:-

सत्यनारायण:-
मित्रो आज जू लिझी की कविताएँ प्रस्तुत है...जैसा कि ऊपर दिया है
कि जू लिझी फ़ॉक्सकॉन कम्पनी में मज़दूर थे....लेकिन उन्होंने आत्महत्या कर ली...कवि, लेखक, फिल्मकार, चित्रकार, अदाकार आदि कलाकारों, रचनाकारों  के बारे में हम पढ़ते सुनते आ रहे हैं....वे शोषण...गैरबराबरी से उपजे तनाव से लड़ नहीं पाते हैं या फिर ऐसे माहौल में जीने से तंग आ जाते हैं....या वे कौन सी वजह होती हैं जो उन्हें आत्महत्या करने के लिए उकसाती है और ऐसा कर लेते हैं....आज आपसे अनुरोध है कि जू लिझी की कविताओं के ज़रिए हम उक़्त विषय की पड़ताल करने का प्रयास करें.....अतंतः यह हम सभी से जुड़ा और बहुत ही संवेदनशील मसला है....मैंने जो बाते कही वे एकदम त्वरित है...पर मुझे आशा है कि साथी गंभीरता से इस विषय की पड़ताल करेंगे.....

प्रेरणा पाण्डेय:-
शु लिझी की कविताँए उस दर्द का दस्तावेज़ हैं जो भोक्ता ने स्वयं कविताओं में ढाला है। कविता की मार्मिकता कवि के संवेदनशीलता का परिचय देते हैं । साथ ही शोषक की तानाशाही प्रवृति को भी प्रच्छन्न रूप में उजागर कर दिया गया है--'ये किसी का ध्यान आकर्षित नहीं करता....'
बेहद संजीदा कविताएं!!"

आशीष मेहता:-
कुछ यथार्थपूर्ण कविताएँ, अवसादग्रस्त कवि की। कुछ रचनाएँ बेहद महत्वपूर्ण। पर आत्म हत्या पड़ताल हेतु Xu महाशय कुछ प्रेरित नहीं कर पा रहे (समस्त संवेदना के बावजूद)

आनंद पचौरी:-
शोषण का ऐसा ही खेलहमारे देश मेम भी चल रहा है जिसकी ओर से सब आँखें बंद किये हुए हैं।multinational companies लालच का चारा डालकर नौवजवानों का खून चूस रही हैं ।१५- २० घंटे काम करा कर ,४-६ घंटे बसों में धक्के खाते जब ये बच्चे लौैटते हैं ते उनके  तनाव और अकेलेपन को भरने उनके पास कुछ नहीं होता सिवाह बढा़ हुआ blood pressure और नशे के।२८ की उम्र में heart attacks हो रहे हैं।इस तरह दुनिया की सबसे अधिक युवा आबादी वाला समाज घुन की तरह खोखला हो रहा है।दीपावली के दिन अवकाश होते हुए भी रात १२बजे corporate office में काम करतै युवा की मानसिक्और शारिरिक स्तिथि का आंकलन किया जा सकता है। सारे नियम कानून यहाँ धरे रह जाते हैं़ और कैरियर के नाम पर यह कुच्रक देश को चूस रहा है ।शायद हम में से बहुतों को यह जानकारी भी न हो कि हमारे ही बच्चों के साथ क्या हो रहा है । गुलामी का यह sophisticated तरीका है।हम कब सोचेंगे कि हमारे नवजवान किस तरह अवसाद ग्रस्त हो रहे हैं?  इन कविताओं में कहीं हम भी छुपे हुए हैं।

आशीष मेहता:-
बिल्कुल हैं, आनंद जी। पर क्या यह स्वैच्छिक नहीं  ? पिछले दशक ने हिन्दुस्तानी संदर्भ में कई उजले उदाहरण दिए हैं, जिन्होंने "पद/पैसे" को ठुकरा  कर, अपने सपने जाए हैं।

आनंद पचौरी:-
आप सही कह रहे हैं मगर इस दौड में हाँपती गिरती पीढी को हम नहीं समझा पाएँगे।आखिर हम ने उन्हे इसमें झोंका है और इसकी भयावहता से हम सब आखें मूँदे हुए है।

आभा :-
जनसँख्या और कम्युनिज़्म के कारण चीन के हालात बहुत ख़राब हैं। पैसे की वजह से सम्पन्नता और विकास तेज़ है लेकिन समानता और बेरोज़गारी से हालात खराब हैं

निधि जैन :-
सबसे पहले कहना चाहूंगी कि अनुवादित कविताओं के सन्दर्भसहित प्रस्तुतीकरण ने पढने में रूचि पैदा की है , हर बार ऐसा ही हो तो वैश्विक साहित्य में नए पाठकों की रूचि पनप सकती है।
दूसरी बात कवितायें बढ़िया हैं ,दूसरी कविता बेहतरीन, मुझे जो कहना था वो कमेन्ट पहले ही आ चुके हैं कि आदमी अब धातु का या रोबोट ही कह लें तो भी ठीक रहेगा, बन चूका है, फिर चाहे गरीब कामगार हों या सेठ; भावनाएं , संवेदनाएं मर चुकी है,

मजदुर को श्रद्धांजलि

वसुंधरा काशीकर:-
माओ के विचार पर आधारित कम्युनिस्ट शासन व्यवस्था जहा सर्वहारा, मज़दूर वर्ग का शासन अपेक्षित है, वहाँ एक मज़दूर आत्महत्या करता है इससे बड़ी शोकान्तिका क्या हो सकती है। ख़ैर चीन अब नाम का ही कम्युनिस्ट देश रह गया है।
कविताओं से पता चलता है की, कवी की मानसिक स्थिति बहुत ही विकल, अगतिक हो गयी है । जीने की चाह ख़त्म होती जा रही है। सभी व्यवस्थाओं के कुछ फ़ायदे और नुक़सान है। पर पूँजीवादी व्यवस्था मैं कुछ लोंगो के पास बहुत कुछ और बहुत सारे लोगों के पास कुछ भी नहीं एेसी स्थिती होती हैं।
राजेश रेड्डी साहब ने ख़ूब लिखा है।
ये जो ज़िंदगी की किताब है। ये किताब भी क्या किताब है। कही छिन लेती है हर ख़ुशी। कही मेहरबाँ बेहिसाब है।
मुझे इस वक़्त प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ हॅराॅल्ड लास्की का कथन याद आ रहा हैं। there should be sufficiency for all before there is superfluity for some few. बेहतरीन अनुवाद।

फ़रहत अली खान:-
सभी कविताएँ अंदर तक झिंझोड़ देती हैं। आज के मज़दूर की यही परिभाषा बन चुकी है; वो आदमी जिसके पास बुनियादी सुविधाओं का सबसे ज़्यादा अभाव है और जिसको मामूली तनख़्वाह पर सबसे ज़्यादा ज़ोख़िम भरे काम दिए जाते हैं। बे-रोज़गारी का ये आलम है कि एक बुलाओ तो दस आते हैं।
सरकार चाहे कम्युनिस्ट हो या लोकतांत्रिक, ग़रीब मज़दूरों का शोषण इसी तरह होता आया है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में मज़दूर संघ ज़रूर होते हैं, लेकिन वो भी अब स्वार्थी और कमज़ोर हो चले हैं।
ज़ू लिझी ने जिस ख़ूबी के साथ अपनी भावनाएँ व्यक्त कीं, उसने सचमुच दिल को छू लिया; यानी वो एक मज़दूर ही नहीं, एक बेहतरीन कवि भी थे।
मनीषा जी का बहुत ही उम्दा और विचारणीय चुनाव।

1 टिप्पणी:

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