04 अक्तूबर, 2015

लेख : यम-कानून सिर्फ गरीबों के लिये क्यों सरकार!

आज विचार के लिए एक आलेख दे रहे हैं। आप सब पढ़े और अपने विचार व्यक्त करें।

यम—कानून सिर्फ गरीबों के लिए क्यों सरकार!
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कुलभूषण उपमन्यु
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कब्जा हटाने का आदेश एकतरफा किसानों के ही विरुद्ध लिया गया फ़ैसला है, जबकि जलविद्युत परियोजनाओं, निजी उद्योगों ने कई जगह वन भूमि पर सैकड़ों बीघा पर नाजायज कब्जा कर रखा है. उस पर कोर्ट आज तक कोई कार्यवाही नहीं की गई. इसी तरह के हजारों नाजायज कब्जे सरकारी उद्योगों तथा प्रतिष्ठानों ने भी कर रखे हैं...
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पिछले दिनों हिमाचल प्रदेश के वन विभाग ने अप्पर शिमला के रोहडू व अन्य स्थानों में वन भूमि पर लगे सेब के बगीचों, जिसमें सेब की फसल तैयार थी, को निर्ममता से काटा है. ऐसा ही अप्रैल माह में गोहर में भी किया गया था, जब एक बगीचे को काटा गया था, जिसमें फूल लग रहे थे. कांगड़ा तथा प्रदेश के अन्य हिस्सों में घरों से बिजली व पानी के कनेक्शन काटे तथा कुछ घरों को तोड़ दिया गया.

यह घृणित कार्य सरकार के ही विभाग ने हिमाचल उच्च न्यायालय के 6 अप्रैल 2015 व इससे पहले के आदेशों की आड़ में किया. इसमें भी सरकार द्वारा छोटे व गरीब किसानों पर ही गाज गिराई, जबकि बड़े किसानों तथा प्रभावशाली लोगों पर यह कार्यवाही नहीं की गई. यह केस उच्च न्यायालय में वर्ष 2008 से चल रहा है, जिस पर इससे पहले भी कोर्ट ने कई आदेश जारी किए, जबकि प्रदेश सरकार ने आज तक इस पर वन अधिकार कानून की बाध्यता का पक्ष कोर्ट में नहीं रखा.

इससे पहले भी कोर्ट के बहुत से आदेशों का पिछले कई सालों से पालन करने में सरकार निष्फल रही है या उसे लागू करने की नियत ही नहीं दर्शायी. ऐसे में केवल इस आदेश पर वन विभाग की सक्रियता पर शक पैदा होता है और सरकार की वन अधिकार कानून को न लागू करने की नियत को ही दर्शाता है.

सरकार के संज्ञान में यह बात चाहिए थी कि उच्च न्यायालय का यह फ़ैसला कानूनसंगत नहीं है, क्योंकि वनाधिकार कानून 2006 इसके आड़े आता है. उक्त कानून के प्रावधानों के मुताबिक, जब तक वन अधिकारों की मान्यता की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती तब तक आदिवासी व अन्य परंपरागत वन निवासी किसी भी तरह से उन केपरंपरागत वन संसाधनों से बेदखल नहीं किए जा सकते.

नियमगिरी के फैसले में उच्चतम न्यायालय ने भी यह प्रस्थापना दी है कि जब तक वन अधिकारों की मान्यता की प्रक्रिया पूरी नहीं होती, तब तक वन भूमि से बेदखली की कार्यवाही व भूमि हस्तांतरण की प्रक्रिया नहीं चलाई जा सकती है. सरकार उच्च न्यायालय में इस पर दखल व पुनरावलोकन याचका दायर करनी चाहिए थी. जबकि वन अधिकार कानून के तहत मुख्य सचिव की अध्यक्षता वाली राज्यस्तरीय निगरानी समिति ने अगस्त 2014 में प्रस्ताव पारित कर के सरकार से अनुरोध किया था कि इस पर उच्च न्यायालय में पुनरावलोकन याचिका दायर करे, परंतु सरकार की ओर से कोई भी पहल नहीं हुई.

अगर कब्जाधारी जिसका कब्जा हटाया गया है, ने वन अधिकार समिति व ग्राम सभा में अपने दखल को सही व 13 दिसंबर 2005 से पहले का साबित करवा लिया तो ऐसी स्थिति में कब्जा हटाने, घर तोड़ने व हरे सेब के पेड़ काटने वाले पुलिस व वन विभाग के कर्मचारियों के खिलाफ उच्चतम न्यायालय के हरे पेड़ काटने पर प्रतिबंध के निर्देशों, वन अधिकार कानून के प्रावधानों तथा वन संरक्षण अधिनियम 1980 के तहत कानूनी कार्यवाही भी हो सकती है.

यह केस पिछली सरकार के वक्त से चल रहा है, जिस पर उस समय की सरकार ने भी कोई ठोस कदम नहीं उठाया. जबकि ज्यादातर कब्जे 2002 के हैं, जब उस समय की सरकार ने नाजायज कब्जे बहाल करने के आदेश दिए थे परंतु बाद में दूसरी बार भी सत्ता में आने के बावजूद अपने इस फैसले को लागू नहीं करा सकी.

वन अधिकार कानून को लागू करने पर पिछली सरकार ने भी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. बर्तमान प्रदेश सरकार तो आज भी वनाधिकार कानून 2006 के अनुसार सोचने को तैयार नहीं है, इसलिए सरकार का यह कहना अनुचित है कि हम छोटे किसानों के कब्जे बचाना चाहते हैं और उन्हें नौतोड़ देंगे. उनसे पूछना चाहिए कि किस कानून के तहत कब्जों को बहाल किया जा सकता है व नौतोड़ दी जा सकती है? आज ऐसा कोई भी कानूनी प्रावधान नहीं है. केवल वन अधिकार कानून तथा भारत सरकार की 1990 की नोटिफिकेशन के तहत ही कब्जों का नियमितीकरण हो सकता है.

यह भी तथ्य है कि जब से वन संरक्षण अधिनियम 1980 लागू हुआ है, तभी से प्रदेश में नौतोड़ बांटना बंद हुआ है, जो आज भी लागू है. इसलिए सरकारी ब्यान असत्य व तथ्यों से परे है. लीज पर भी वन भूमि खेती के लिए ऐसे में नहीं दी जा सकती. वन संरक्षण अधिनियम 1980 में संशोधन होना चाहिए, परंतु यह संसद में ही पारित हो सकता है जो आज संभव नहीं है. ऐसे में रास्ता एक ही है कि सरकार वन अधिकार कानून 2006 को ईमानदारी से लागू करें और 13 दिसम्बर 2005 तक के उचित कब्जों व वन भूमि पर आजीविका के लिए वन निवासियों द्वारा किया दखल का अधिकार का पत्र किसानों को दिलवाया जाए.

वन अधिकार कानून के तहत प्रदेश के किसान, जो आदिवासी हों या गैर आदिवासी, के 13 दिसंबर 2005 से पहले के कब्जे नहीं हटाए जा सकते, बल्कि उन्हें इसका अधिकार पत्र का पट्टा मिलेगा, बशर्ते इस पर खुद काश्त करते हों, या रिहायशी मकान हो. प्रदेश के सभी गैर आदिवासी किसान भी इस कानून के तहत अन्य परंपरागत वन निवासी की परिभाषा में आते हैं, क्योंकि वे यहाँ तीन पुश्तों से रह रहे हैं और आजीविका की जरूरतों के लिए वनभूमि पर निर्भर हैं. इसलिए पूरे प्रदेश के तकरीवन सभी किसानों पर यह कानून प्रभावी है.

ऐसे में वन भूमि पर दखल को नाजायज कब्जा नहीं कहा जा सकता. यह आजीविका की मूल जरूरतों के लिए किया दखल है, जिस पर ग्राम सभा निर्णय लेने का अधिकार रखती है. ग्राम सभा ही इसे नाजायज कब्जा या निजी वन संसाधन का अधिकार के रूप में मान्यता दे सकती है.

कब्जा हटाने का आदेश एकतरफा किसानों के ही विरुद्ध लिया गया फ़ैसला है, जबकि जलविद्युत परियोजनाओं, निजी उद्योगों ने कई जगह वन भूमि पर सैकड़ों बीघा पर नाजायज कब्जा कर रखा है. उस पर कोर्ट व सरकार द्वारा आज तक कोई भी दंडात्मक कार्यवाही नहीं की गई. इसी तरह के हजारों नाजायज कब्जे सरकारी उद्योगों तथा सरकारी प्रतिष्ठानों ने भी कर रखे हैं.

हिमाचल सरकार ने उच्च न्यायालय में उसके आदेशों में आंशिक संशोधन के लिए 25 जुलाई 2015 को आग्रह पत्र दायर किया है और कोर्ट से आग्रह किया कि नाजायज कब्जे से छीनी गई भूमि व सेब के पेड़ों को वन विभाग को सौंपा जाए. यह आग्रह ही अपने आप में गैरकानूननी व असंवैधानिक है. क्योंकि वन निवासी का वन भूमि पर दखल अगर 13 दिसंबर 2005 से पहले का है तो उस भूमि पर उसी किसान का कानूनी अधिकार बनता है. उच्च न्यायालय का इस पर दिया गया 27 जुलाई का फैसला भी अनुचित है और कानून समत नहीं माना जा सकता.

ऐसे में वन अधिकार कानून 2006 व उच्चतम न्यायालय के फैसले के मुताबिक हिमाचल उच्च न्यायालय का निर्णय हिमाचली किसानों (आदिवासी व अन्य परंपरागत वन निवासियों) पर लागू ही नहीं हो सकता है और सरकार कोर्ट के इस आदेश को लागू करने के लिए बाध्य भी नहीं होनी चाहिए.

सरकार को चाहिए कि हिमाचल उच्च न्यायालय के इस आदेश के स्थगन के लिए उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर करे. वन अधिकार कानून को पूरे प्रदेश में अक्षरश: लागू करे व वन अधिकार के लंबित पड़े सभी दावों का निपटारा किया जाए. इस पर भारत सरकार ने प्रदेश सरकार को 10 जून 2015 को आदेश भी जारी किया है और छह माह के अंदर इस कानून को लागू करने की सभी प्रक्रिया पूरी की जाए.

13 दिसंबर 2005 से पहले के सभी कब्जे/दखल, जो खेती व आवासीय घर के लिए किए गए हैं, के अधिकार पत्र के पट्टे प्रदेश के किसानों को सौंपे जाने चाहिए. जिन किसानों के विरुद्ध वन व राजस्व विभाग द्वारा नाजायज कब्जे की FIR दर्ज की हैं वे सभी गैरकानूनी हैं, उन्हें तुरंत वापिस किया जाना चाहिए. वन अधिकार कानून संसद में पारित एक विशेष अधिनियम है, जिसके तहत जब तक वन अधिकारो की मान्यता की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती तब तक इस तरह की बेदखली की कार्यवाही गैरकानूनी है. ऐसे में उच्च न्यायालय व सरकार का कब्जा हटाओ अभियान वन अधिकार कानून की अवहेलना है जिस पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए.

(कुलभूषण उपमन्यु हिमालय नीति अभियान के अध्यक्ष हैं.)
प्रस्तुति - सत्यनारायण पटेल
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टिप्पणियाँ:-

सुषमा अवधूत :-
Jiski Lathi bhains usiki, ye kahawat sabhi ko malum hi hai, isiliye chhote kisano par sab jor.aajmaish hoti hai, jabki kisan jo hamara anndata hai ,use to kafi riyayat di jani chahiye

फ़रहत अली खान:-
हमेशा पतली गर्दन ही पकड़ी जाती है और आज के ज़माने में किसानों और मज़दूरों से पतली गर्दन और किसकी हो सकती है।
बहरहाल अगर ईमानदार सामाजिक संगठन न्यायालय के समक्ष इस आवाज़ को उठाते हैं तो मुमकिन है कि कुछ बेहतर परिणाम सामने आएँ।

अल्का सिगतिया:-
बहुत  ज्वलंत  चर्चा।मुझे  लगता  है  सदियों से जो चला आ रहा  है।कारण जर जमीन  जोरू।आज ज़मीन के दाम आसमान। छू रहे हैं।हर सरकार  उद्योग  पतियों  के फायदे केलिए प्रतिबद्ध होती है।चोर। चोर मौसेरे भाई  हैं।survival of fittest के नियम को ये समझते। हैं।fittest मतलब जहाँ। बरस रही है , लक्ष्मी  कृपा।परसाई को याद करें। Oil king क मुट्ठी। में। है। सारी व्यवस्था।

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