आज समूह के साथी का एक संस्मरण दे रहे हैं नाम शाम को घोषित करेगे। आप पढ़कर अपने भाव जरूर व्यक्त करें। शीर्षक है मुक्ति।
मुक्ति
फोन पर बात करने के बाद मैं बहुत ही उधेड़बुन में पड़ गई। समझ में नहीं आ रहा था कि मैं फूट-फूट कर रोऊँ या खुश हो जाऊँ उसके लिए जिसका शरीर पिछले कई वर्षों से इस धरती पर तो था किंतु एक मशीन की तरह उसके शरीर की आत्मा भी उसकी आत्मीया न थी। अपने चालीस वर्षों की आयु में न जाने वो कितनी बार मर चुकी थी।आज आखिरकार मेरी बाल सखी की मृत्यु हो गई यह सुनकर मैं स्थितप्रज्ञ की स्थिति में आ गई थी ।उसकी भाभी फोन पर मुझसे बहुत मिन्नतें कर रही थी कि मैं 'रेशा' के अंतिम दर्शन कर लूँ।रेशा की भाभी की फोन पर रोती हुई आवाज मुझे चिढ़ा रही थी ।कितनी दिखावटी दुनिया है।जब तक रेशा जीवित थी भाभियों को फूटी आँख नहीं सुहाती थी।बेचारी पति के घर से निष्कासित तीन भाइयों के घरों में कैरमबोर्ड की गोटी की तरह इस घर से उस घर तक अपने बेचारगी के स्ट्राईगर के बदौलत ठेली जाती रही थी।आज मुझे अपनी रुलाई से ये ज़ाहिर करना चाहती है कि वह अपनी इकलौती ननद की मृत्यु से बहुत दुखित है!छी: घिन आती है मुझे इन मुखौटों से।उन्हें भी मालूम है कि मैं उन लोगों के मुखौटों के अंदर के चेहरे को अच्छी तरह जानती हूँ।मैं उस घर के लिए अजनबी नहीं हूँ।मैंने देखा है रेशा के भाईयों का रेशा के लिए जुनून से लबालब प्यार। माता-पिता की शहजादी रेशा।मैं सिर्फ उसके सुख की साक्षी नहीं रही हूँ उसके दुख ,अकेलापन और अपमानजनक समय की संगी भी रही हूँ।
सुंदर,सलोनी,मृदुभाषी रेशा की शादी जब शहर के जाने माने ज़ेवर के व्यापारी के इकलौते बेटे से हुई थी तो उसकी सबसे करीबी मैं ही तो थी।उस वक्त बारातियों की रईसी और सजीले दुल्हे को देख कहीं न कहीं मेरा भी मन धड़का था।परन्तु बाल सखी के इस सौभाग्य पर रत्तीभर भर भी जलन नहीं हुई थी।रेशा विदा हो गई किंतु एक ही शहर में विवाह होने के कारण उसका आना -जाना लगा रहता था।उनके विवाह को कुछ महीने ही हुए थे कि उसके ससुराल वालों ने उसे मायके में रहने को मजबूर कर दिया।ज़ेवर के व्यापारी ने रेशा के अंदर छिपे असंख्य रत्नों की कद्र नहीं की और उसे उन्नीस साल की अवस्था में परित्यक्ता घोषित कर दिया गया।अधूरी पढ़ाई,कच्ची उम्र और अपार सुंदरता के साथ तलाकशुदा का तग़मा।धीरे -धीरे उसकी भाभियों के व्यवहार
में फर्क पड़ने लगा। मैं भीअपने उम्र के उस दहलीज पर थी कि रेशा के जीवन में आए उस तूफान की गम्भीरता को समझ नही पा रही थी । हाँ जब भी रेशा के घर उससे मिलने जाती थी तो मुझे उसकी भाभीयों के व्यवहार में बहुत फर्क दिखाने लगा था। पहले बड़ी भाभी कब हँसते हुए नाश्ता की तश्तरी और शरवत हमारे पास रख जाती थीं हमें पता भी नहीं चलता था।परन्तु रेशा की वापसी के बाद जब कभी मैं उसके घर जाती थी तो शरबत के आने से पहले ही मुझे मालूम हो जाता था कि थोड़ी ही देर में हमारे सामने शरबत आने वाला है।रसोईघर से शरबत में चीनी घोलने की आवाज रेशा के कमरे तक आती थी।गिलास और चम्मच का घर्षण बेचारा चीनी किस प्रकार सहन करता था वो ही जाने किंतु मैं उस घर के सदस्यों की बेरुखी अधिक दिनों तक नहीं सहन कर पाई। अपनी माँ की हिदायत मानते हुए मैं अपनी पढ़ाई में व्यस्त हो गई और धीरे -धीरे मेरा रेशा के यहाँ जाना बहुत कम हो गया।रेशा भी अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी करने में लग गई।एक दिन पता चला कि रेशा की दूसरी शादी हो गई और वह किसी दूसरे शहर में चली गई।इतनी गुपचुप शादी,मुझसे भी छिपाया गया।उसके सुखद भविष्य की कामना करती हुई मैं अपने अंदर उठते इस शिकायती दुख को कम करने की कोशिश की।कुछ दिनों के बाद मैं भी वैवाहिक बंधन में बंध कर दूसरे शहर में अपना घर संसार बसा कर व्यस्त हो गई। पिछले साल एक दिन अचानक इनौरविट माॅल में एक नारी कंठ से अपने बचपन का नाम सुनते ही हर्ष मिश्रित आश्चर्य से जब उस ओर देखी तो मैं भावशून्य हो गई।जीर्ण काया ,पिचके गाल हाँ उसकी आँखें बहुत अपनी सी लगी। उसके साथ तकरीबन पंद्रह -सोलह महीने का पिलपिला सा बच्चा था।पास गई तो पता चला ये तो रेशा है! करीब के काॅफी हाउस में हम दोनों बैठ कर काफी देर तक बातें करते रहे। दूसरी शादी से भी उसे खुशियाँ नहीं मिली।उसका दूसरा पति तलाकशुदा औरत को ब्याह कर नहीं लाया था बल्कि उसने तो धनवान घर की इकलौती बेटी को अपने घर में शरण दी थी जिसे जब चाहे अपने लोभ की अग्नि का होम बना सके।रेशा की आहुति दे कर
वो दस साल तक उसके माएके से पैसे लेता रहा।इस बीच उसने दो बेटों को जन्म दिया। दस साल तक ससुराल और मायके की चौखट नापते-नापते आखिरकार रेशा हमेशा के लिए मायके आ गई। बड़ा बेटा पूरी तरह उसकी सास के गिरफ्त में था इसलिए वो उसके साथ नहीं आया। छोटा बेटा उसके साथ है। भाईयों का व्यापार के साथ-साथ घर भी बंट चुका था।एक भाई पुणे में है इसलिए वो अपने माता -पिता के साथ आई है। मेरे घर से उसके भाई के घर की दूरी बहुत अधिक थी फिर भी हमारा मिलना -जुलना हो ही जाता था।वो तो मेरे घर बहुत नहीं आ पाती थी किन्तु मुझे अकसर मेरे पति वहाँ तक पहुँचा देते थे ताकि मैं रेशा के कुछ गमों को कम कर सकूँ। अंतिम बार एक महीना पहले उससे मिली थी।घर का माहौल इतना भारी था कि मेरे लिए वहाँ रुकना मुश्किल हो रहा था। भटकती आत्माओं की तरह कोई न कोई आकृति हम दोनों के बीच आ ही जाती थी। उसकी भाभी की भावभंगिमा मेरे लिए असहनीय हो रहा था। रेशा की बड़ी -बड़ी वो आँखें बहुत कुछ कहना चाह रही थीं ,कुछ कह भी रही थी।मैं कुछ हद तक तो उसकी आँखों की भाषा पढ़ भी ली थी किन्तु उसके आँखों के नीचे की कालिमा को मैं नहीं पढ़ पाई । आज अचानक रेशा की मृत्यु की खबर!अंतिम दर्शन,उसके शरीर का?
मेरा मन बोल उठा -नहीं ,रेशा मरी नहीं है।उसे तो मुक्ति मिल गई उन रिश्तों से जो उसके लिए बनें ही नहीं थे।
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टिप्पणियाँ
अनुप्रिया आयुष्मान:-
Dil ko chhu gaya ye sansmaran
नंदकिशोर बर्वे :-
एक बेबस नारी का संघर्ष मयी जीवन। मुझे लगा कि यदि वह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होती तो कदाचित बेहतर जीवन गुजारती।
रेणुका:-
Aaj samaj Mein itni jagruta hai...fir yeh sab asahaayak sthiti aur itna sab jhelna......sweekar karna mushkil hai.....itna sehte rehni Ki kya majboori.....
चंद्र शेखर बिरथरे :-
सभी कविताएं गहरे से प्रभावित करती है । नए प्रतिक नए बिम्ब मन को आलोकित करते है । लेखिका को बहुत बहुत बधाई एवम् शुभकामनाएं ।
चंद्रशेखर बिरथरे
सुवर्णा :-
अच्छा संस्मरण है। स्त्री स्वावलंबन की आवश्यकता को महसूस करवाता हुआ। पहले मैं और मेरे कुछ साथी कॉम्पिटिटिव परीक्षाओं के लिए निःशुल्क प्रशिक्षण देते थे। मैं अक्सर क्लास में लड़कियों पर ज़्यादा ध्यान देती थी। मेरा ज़ोर इसी ओर होता था कि इस तरह की घटनाएँ ना हों। विद्यार्थियों में जो लड़के थे वे आज भी याद करते हैं कि मैं पार्शियल थी।
नयना (आरती) :-
अंतरमन तक पैठ बनाता संस्मरण। इसलिए अब नारी का आत्मनिर्भर होना ज्यादा जरुरी है।
चंद्र शेखर बिरथरे :-
बहुत ही मार्मिक संस्मरण । कहन की सुघड़ता बांधे रखती है । उत्तम शैली । ढेरों शुभकामनाएं । चंद्रशेखर बिरथरे
फ़रहत अली खान:-
व्यथित मन से लिखा गया बेहद मार्मिक संस्मरण।
महिला सशक्तिकरण के लिए किए जा रहे प्रयासों के सफ़ल न हो पाने के लिए हमारा सामाजिक ताना-बाना तो ज़िम्मेदार है ही, साथ ही इसकी एक बड़ी वजह ये भी है आर्थिक और सामाजिक रूप से सशक्त महिलाएँ ऐसे अभियानों से दूरी बनाए रखती हैं।
गीतिका जी ने बहुत ख़ूबी से ये संस्मरण लिखा।
साथ ही सुवर्णा जी के द्वारा निःशुल्क प्रशिक्षण देने का निःस्वार्थ क़दम उठाना भी क़ाबिल-ए-दाद अमल है।
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