20 दिसंबर, 2015

कविता : लीलाधर जगूड़ी

1.असंत-वसंत के बहाने

हवा, पानी और ऋतुओं में बदल कर समय
हेमंत और शिशिर का कल्याणकारी उत्पाती
सहयोग ले कर
अनुवांशिकी के लिए खोजता या ख़ाली करवाता 
है जगह

संत या असंत आगंतुक वसंत ने
वृक्षस्थ पूर्वज— वसंत के पीछे
हेमंत—शिशिर दो वैरागियों को लगा रक्खा है
जो पत्रस्थ गेरुवे को भी उतार अपने सहित
सबको
दिगम्बर किए दे रहे हैं
और शीर्ण शिराओं से रक्तहीन पदस्थ पीलेपन के
ख़ात्मे में जुटे हुए हैं

हिम—शीत पीड़ित दो हथेलियों को करीब ले आने वाली
रगड़ावादी ये दो ऋतुएँ
जिनका काम ही है प्रभंजन से अवरोधक का
भंजन करवा देना
हवाओं को पेड़ों और पहाड़ों से लड़वा देना
नोचा—खोंसी में सबको अपत्र करवा देना
ताकि प्रकृति की लड़ाई भी हो जाए और बुहारी
भी
और परोपकार का स्वाभाविक ठेका छोड़ना भी न 
पड़े

पिछला वसंत अगर एक ही महंत की तरह
सब ऋतुओं को छेके रहे
तो नवोदय कहाँ से होगा
कैसे उगेगी नवजोत एक—एक पत्ती की

हर ऋतु के अस्तित्व को कोई दूसरी ऋतु धकेल
रही है
चुटकी भर धक्के से ही फूटता है कोई नया फूल
खिलती है कोई नई कली
शुरु होता है कोई नया दिल
चटकता है कोई नया फूट कछारों में
ब्राह्म मुहूर्त में चटकता है पूरा जंगल

रोंगटों—सी खड़ी वनस्पतियों के पोर—पोर में
हेमंत और शिशिर की वैरागी हवाएँ
रिक्तता भेंट कर ही शांत होती हैं जिनकी चाहें और 
बाहें
स्त्रांत में पत्रांत ही मुख्य वस्त्रांत है जिनका
वसनांत के बाद खलियाई जगहें ऐसे पपोटिया
जाती हैं
जैसे पेड़ भग-वान इन्द्र की तरह सहस्त्र नयन हो
गए हों
घावों पर वरदान-सी फिरतीं
वसंत की रफ़ूगर उँगलियाँ काढ़ती हैं पल्लव
सैंकड़ों बारीक पैरों से जितना कमाते हैं पादप
उतना प्रस्फुटित हज़ारों मुखों को पहुँचाते हैं
टहनियों के बीच खिल उठते हैं आकाश के कई 
चेहरे

दो रागिये—वैरागिये
हेमंत और शिशिर
अधोगति के तम में जाकर पता लगाते हैं उन
जड़ों का
जिनके प्रियतम-सा ऊर्ध्वारोही दिखता है अगला
वसंत

पिछली पत्तियाँ जैसे पहला प्रारूप कविता का
झाड़ दिये सारे वर्ण
पंक्ति—दर—पंक्ति पेड़ों के आत्म विवरण की नई 
लिखावट
फिर से क्षर —अक्षर उभार लाई रक्त में
फटी, पुरती एड़ियों सहित हाथ चमकने लगे हैं
पपड़ीली मुस्कान भी स्निग्ध हुई 
आत्मा के जूते की तरह शरीर की मरम्मत कर दी
वसंत ने
हर एक की चेतना में बैठे आदिम चर्मकार
तुझको नमस्कार !

2.जाति विहीन

अयोग्य की जाति मत बनने दो
अयोग्यता को मत बनने दो इन्द्रियों का गोत्र
कोई न कोई योग्यता पैदा करने में मदद करो
अयोग्य की

वह जाति विहीन होगा तो कम बोझ होगा
जातीय बोध से बनी व्यवस्थाओं के लिए ।

3.एक बुढ़िया का इच्छा-गीत 
 
जब मैं लगभग बच्ची थी
हवा कितनी अच्छी थी

घर से जब बाहर को आई
लोहार ने मुझे दराँती दी
उससे मैंने घास काटी
गाय ने कहा दूध पी
 
दूध से मैंने, घी निकाला
उससे मैंने दिया जलाया
दीये पर एक पतंगा आया
उससे मैंने जलना सीखा
 
जलने में जो दर्द हुआ तो
उससे मेरे आँसू आए
आँसू का कुछ नहीं गढ़ाया
गहने की परवाह नहीं थी
 
घास-पात पर जुगनू चमके
मन में मेरे भट्ठी थी
मैं जब घर के भीतर आई
जुगनू-जुगनू लुभा रहा था
इतनी रात इकट्ठी थी ।

4.ऊँचाई है कि    

मैं वह ऊँचा नहीं जो मात्र ऊँचाई पर होता है
कवि हूँ और पतन के अंतिम बिंदु तक पीछा करता हूँ
हर ऊँचाई पर दबी दिखती है मुझे ऊँचाई की पूँछ
लगता है थोड़ी सी ऊँचाई और होनी चाहिए थी

पृथ्वी की मोटाई समुद्रतल की ऊँचाई है
लेकिन समुद्रतल से हर कोई ऊँचा होना चाहता है
पानी भी, उसकी लहर भी
यहाँ तक कि घास भी और किनारे पर पड़ी रेत भी
कोई जल से कोई थल से कोई निश्छल से भी ऊँचा उठना चाहता है छल से
जल बादलों तक
थल शिखरों तक
शिखर भी और ऊँचा होने के लिए
पेड़ों की ऊँचाई को अपने में शामिल कर लेता है
और बर्फ़ की ऊँचाई भी
और जहाँ दोनों नहीं, वहाँ वह घास की ऊँचाई भी
अपनी बताता है

ऊँचा तो ऊँचा सुनेगा, ऊँचा समझेगा
आँख उठाकर देखेगा भी तो सवाए या दूने को
लेकिन चौगुने सौ गुने ऊँचा हो जाने के बाद भी
ऊँचाई है कि हर बार बची रह जाती है
छूने को ।

5.अपने अन्दर से बाहर आ जाओ

हर चीज़ यहाँ किसी न किसी के अन्दर है
हर भीतर जैसे बाहर के अन्दर है
फैल कर भी सारा का सारा बाहर
ब्रह्मांड के अन्दर है
बाहर सुन्दर है क्योंकि वह किसी के अन्दर है

मैं सारे अन्दर-बाहर का एक छोटा सा मॉडल हूँ
दिखते-अदिखते प्रतिबिम्बों से बना
अबिम्बित जिस में
किसी नए बिम्ब की संभावना-सा ज़्यादा सुन्दर है
भीतर से ज़्यादा बाहर सुन्दर है 
क्योंकि वह ब्रह्मांड के अन्दर है

भविष्य के भीतर हूँ मैं जिसका प्रसार बाहर है
बाहर देखने की मेरी इच्छा की यह बड़ी इच्छा है
कि जो भी बाहर है वह किसी के अन्दर है
तभी वह संभला हुआ तभी वह सुन्दर है

तुम अपने बाहर को अन्दर जानकर 
अपने अन्दर से बाहर आ जाओ

6.आँधी

रात वह हवा चली जिसे आँधी कहते हैं
उसने कुछ दरवाजे भड़भड़ाए
कुछ खिड़कियाँ झकझोरीं, कुछ पेड़ गिराए
कुछ जानवरों और पक्षियों को आकुल-व्याकुल किया
रात जानवरों ने बहुतसे जानवर खो दिए
पक्षियों ने बहुत-से पक्षी
जब कोई आदमी नहीं मिले
तब उसने खेतों में खड़े बिजूके गिरा दिए
काँटेदार तारों पर टँगे मिले हैं सारे बिजूके
आदमियो! सावधान
कल घरों के भीतर से उठनेवाली है कोई आँधी

7.अपने से बाहर

जब घाटी से देखा तो, सुंदर दिखता था 
शिखर 
अब शिखर पर हूँ तो ज़्यादा सुन्दर दिखती है घाटी
अपने से बाहर जहाँ से भी देखो
दूसरा ही सुन्दर दिखता है ।

000 लीलाधर जगूड़ी

रचना चयन: कविता गुप्ता

प्रस्तुति:सत्यनारायण पटेल
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टिप्पणियाँ:-

किसलय पांचोली:-
अत्यंत सुंदर
और सारगर्भित कविताएँ!
पंक्तियाँ जिन्होंने दिल को छुआ और वाह बटोरी--
कैसे उगेगी नव ज्योत एक -एक पत्ती की
वरदान सी फिरती वसंत की रफुगर ऊँगलियाँ
अयोग्यता को मत बनने दो इन्द्रियों का गोत्र
ऊँचाई है कि हर बार बची रह जाती है छूने को
जो भी बाहर है वह किसी के अंदर है

फ़रहत अली खान:-
जगूड़ी जी बढ़िया कवि हैं, इनके बारे में सुना था लेकिन पढ़ा आज पहली बार ही है।
'जाति-विहीन', 'ऊँचाई है कि', 'अपने से बाहर' कविताएँ पसंद आयीं।
इन कविताओं के भाव अच्छे हैं।
हालाँकि कई जगह बिम्ब समझने में कठिनाई भी महसूस हुई।

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