20 जनवरी, 2016

कविता : प्रदीप सिंह

आज समूह के साथी की कविताएं। समकालीन समय को बताती कम शब्दों में गहन अर्थ लिए। अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें।

•  लोकतंत्र-1

मेरी
उंगली पे
लगा काली स्याही का
निशान
प्रमाण है
कि
मैने हथियार थमा दिए हैं फिर
उसे
जो होंगे इस्तमाल मेरे ही खिलाफ...
................

• लोकतंत्र-2

सड़कें टूटने से
पहले
नहीं करती इंतज़ार
बरसात का

जगह-जगह
ढेर कूड़े के
चाँद का मुहं चिढ़ाते हैं

असुरक्षा का
भाव
हर घर में
घर कर गया है

महंगाई, बेरोज़गारी में
लगी है
होड़
शिखर तक पहुँचने की

ऐसे में
पाँच साल बाद
आप
फिर आयें हैं
मेरे दर
झंडा थामे विकास का
जो
आंधी चलने पर भी
लहराता नहीँ

मैँ
पहले की भांति
हाथ जोड़े खड़ा हूं
आपका
कफिला गुज़रने के इंतजार मे...
..............

• लोकतंत्र-3

चूहे
पकड़ने का
पिंजरा
साफ़ करके
लगा दिया है
उसमे
पनीर का ताज़ा टुकड़ा

देश में ये आम-चुनावके दिन हैं
...........

•  घर

कुछ बेतरतीब
थोड़ा करीने से सजा
अटा पड़ा कहीं
कहीं खाली पड़ा
गमलों की हरियाली पर हर्षाता
सीलन के धब्बों को मुंह चिढाता
कभी भक्ति में लीन
कभी पार्टियों में डिस्को थीम
कहीं सो रहा
तो
कहीं खेल रहा होता है
इन्ही
सब बातों से
एक घर, घर होता है...
..............

•   छोटी चीज़ें

एक
छोटी-सी चिंगारी
कर
सकती है
शहर में आगजनी

एक
गाली भी
घोल
सकती है
शहर की
फ़िज़ां मे कड़वाहट

मोहल्ले का
छोटा-सा झगड़ा
लगवा
सकता है
शहर में कर्फ्यू

छोटी चीज़ें
अपने भीतर
अक्सर
बड़ी संभावनाएं लिए पैदा होती हैं

ईश्वर से

आत्महत्या करते किसान के लिए
भूखे पेट सोते मजदूरों के लिए
गरीबी से त्रस्त जनता के लिए
और
किसी जगह
किसी भी तरह से सताये जा रहे इंसान के लिए
जब
तुम कुछ न कर सको

तब

हे ईश्वर!
शर्म से
अपना मुँह छुपा लिया करो
कहने को
तुम्हारे पास बहुत से ब्रह्माण्ड हैं

मगर
अभाव है
दबाव है
मगर
हंसना अपना स्वभाव है

इश्क है
प्यार है
अगर
संग अपना यार है

हैरान है
परेशान है
पर
होठों पर मुस्कान है

जिल्लत है
किल्लत है
मगर
होंसलो में हिम्मत है

हताश है
निराश है
मगर
अच्छे दिनों की आस है

कुफ्र है
गुनाह है
मगर
साथ में अल्लाह है

सवाल है
बवाल है
मगर
ज़िंदगी कमाल है

कविता

रोज की
बंधी-बंधाई दिनचर्या से
निकली ऊब
नहीँ है -
कविता

दिनचर्या
एक बेस्वाद च्यूइंगम है
जिसे
बेतरह चबाये जा रहे हैं हम
कविता -
च्यूइंगम को बाहर निकाल फेंकने की
कोशिश है बस

और
एक सार्थक
प्रयास भी
रंगीन स्क्रीनो की चमक से
बेरंग हो चली
एक पीढी की आँखोँ मेँ
इंद्रधनुषी रंग भरने का

मेरे लिए
कविता
वक्त बिताने का नहीँ
वक्त
बदलने का जरिया है

नीलकंठ

देवों और दैत्यों
के उकसावे में आकर
किए सागर-मंथन से
निकले कितने ही बहुमूल्य रत्न
पर
तुम्हें पिलाया गया केवल विष

जिसे
तुम न निगल पाए

उगल ही सके
बना
तो दिया तुम्हे

'नीलकंठ'

और
पूजा भी जा रहा है
तुम्हें
सदियों से

मगर
हे शिव!
आज तक
ये कोई नही जानता
कि
अन्दर से  तुम्हारा कंठ कितना ज़ख़्मी है.

माँ

माँ
जब भी
बीमार होती है
उनके साथ
घर का हर कोना भी
बीमार और उदास लगने लगता है,,

माँ
जब भी
कभी देर से उठती हैं
सुबह
घर की सारी घड़ियाँ
तेज़ भागती हुई
कहती हैं
आज तो हम भी लेट हो गए

माँ
जब भी
मेरी शरारतो पर
खिलखिला कर हंस
देती है
घर का
बदरंग कोना भी खुबसूरत लगने लगता है

माँ

जब भी पूजा-घर में

करती है आरती

मैं

माँ के चरणों में

कर देता हूँ पुष्प-अर्पण

000प्रदीप सिंह
प्रस्तुति:- सत्यनारायण पटेल
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टिप्पणियाँ:-

विद्या:-
देश की सामाजिक, राजनैतिक,  संप्रादाईक सचाई को  एक ही कविता मै उद्गघाटित करने का मादा रखने वाली ये कविता अत्यंत  अदभुत है

मीना अरोड़ा:-
प्रदीप जी,, मेरे पास शब्द नहीं जिनसे मैं आपकी कविताओं की रचनाओं की तारीफ कर सकूँ
कम शब्दों में इतना कुछ  
लगता है आप आधुनिक युग के बिहारी हैं

विद्या:-
वर्तमान समय के सबसे ज्वलंत  मुदे किसानो की आत्महत्या, औधोगिक विकास और उसका आम आदमी पर होने वाले प्रभाव सहित माँ के समस्त रुप, गुणो का वर्णन बहुत अच्छा है

उदय अनुज:-
राजनीतिक,सामाजिक विसंगतियों  के अलावा हमारी बीमार  होती सोच पर तीखी टिप्पणी करती हैं ये कविताएँ।
उदयसिंह "अनुज"

सरिता सिंह:-
बहुत सच.. है..
छोटी  चीजें
अपने भीतर
अक्सर
बडी संभावनाएं के लिये पैदा होती हैं.
बधाई कवि को.........

संतोष श्रीवास्तव:-
प्रदीप जी की कविताएँ कवि की प्रतिबद्धता की पहचान है।छोटी और सार्थक ,बधाई

1 टिप्पणी:

  1. विषय वैविध्य लिए सभी कवितायें खुद में विशिष्ट हैं |थकान के आगे के इस कवि को हौसलों के दम पर तय करनी है अभी एक लम्बी यात्रा | बिजुका पर प्रकाशन के लिए बधाई |

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