03 जनवरी, 2016

ग़ज़ल : डॉ सोनरूपा

दोस्तो नये वर्ष की बहुत सारी शुभकामनाओं के साथ आज डा. सोनरूपा से आपको मिलवाने जा रही हूं उनकी रचनाओं के ज़रिये पहले उनका परिचय देना चाहूंगी वे स्वतंत्र लेखन एवं गायन करती हैं
दिल्ली दूरदर्शन से समय समय पर कवितायेँ प्रसारित होती रही है
आकाशवाणी द्वारा ग़जल गायन हेतु विगत १० वर्षों से अधिकृत
संस्कार चैनल से भजन प्रसारित
अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ
हिंदी की ख्यातिलब्ध पत्र -पत्रिकाओं एवं ब्लॉगस  में रचनाएँ प्रकाशित.
'लिखना ज़रूरी है' ग़ज़ल संग्रह

सम्मान - मॉरिशस में 'कला श्री सम्मान' 
  : 'उदभव विशिष्ट सम्मान'
  :  'बदायूँ गौरव सम्मान'
'उत्तर प्रदेश लेखिका संघ' द्वारा सम्मानित 
नेहरू युवा केन्द्र द्वारा 'युवा प्रतिभा' सम्मान 
बदायूँ क्लब बदायूँ की महिला विंग की उपाध्यक्ष

(1)
समझते थे जो समझाया गया है
हमें हमसे ही मिलवाया गया है

कभी एहसान कोई कर गया था
बराबर याद दिलवाया गया है

ये आँखें नींद में भी जागती हैं
ये किसका ज़िक्र दोहराया गया है

हमारे नाम का बेनाम हिस्सा
किसी के नाम लिखवाया गया है

हम अपनी गुफ़्तगू भी तौलते हैं
हमें व्यापार सिखलाया गया है

(2)
कभी कभी मुझे इतना भी तू निभाया कर
के'अपने आप को कुछ देर भूल जाया कर

न छत पे चाँद टिकेगा न रात ठहरेगी
हरेक ख़्वाब को आँखों में मत सजाया कर

मैं चाहती हूँ के'हर रूप में तुझे देखूँ
कभी-कभी मेरी बातों से तंग आया कर

तेरी पसंद की ग़ज़लें मैं लिख तो दूँ लेकिन
ये शर्त है के'उन्हें ही तू गुनगुनाया कर

ख़ुद अपने आप को पहचानना भी मुश्किल हो
मेरे वजूद में इतना भी मत समाया कर
(3)
उसको मेरा मलाल है अब भी
चलिए कुछ तो ख़याल है अब भी

रोज़ यादों की तह बनाता है
उसका जीना मुहाल है अब भी

जिसने दुश्मन समझ लिया है हमें
उससे मिलना विसाल है अब भी

उसने उत्तर बदल दिए हर बार
मेरा वो ही सवाल है अब भी

दफ़्न है फिर भी साँस है बाक़ी
कोई रिश्ता बहाल है अब भी
(4)
परेशां जब भी होते हैं ख़ुदा के पास आते हैं
नहीं तो एक मूरत है ये कह के भूल जाते हैं

किसी सूरत भी अपना हाले-दिल इनसे नहीं कहना
ये रो रो कर जो सुनते हैं वही हँसकर उड़ाते हैं

जो रख दें दाँव पर सब कुछ,उन्हीं की जीत होती है
जिन्हें हो ख़ौफ़ गिर जाने का वो ही मात खाते हैं

तुम्हारा नाम लेते हैं बहुत आहिस्तगी से हम
नहीं तो लोग सर पे आसमां अपने उठाते हैं

नहीं छोड़ा है हमने साथ नाकारा ज़मीनों का
जहाँ बंजर हो धरती हम वहीं पौधे लगाते हैं
(5)
अपनी नज़रों में हारना कब तक
उसको अक्सर पुकारना कब तक

अब तो खुल जानी चाहिए आँखें
रात को दिन पुकारना कब तक

फोन कर ही लिया तुम्हें आख़िर
शाम बेकल गुज़ारना कब तक

अब जो कीजे वो सब सही कीजे
ग़लतियों को सुधारना कबतक

सोनरूपा

प्रस्तुतिः रुचि गाँधी

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