28 फ़रवरी, 2016

ग़ज़ल : मोहम्मद खां यानी इब्ने इंशा

मित्रों आज याद करते हैं शेर मोहम्मद खां यानी इब्ने इंशा को
जन्म  १९२७ लुधियाना में 
प्रारंभिक शिक्षा लुधियाना में ही हुई १९४९ में कराची आ बसे और वहीं उर्दू कालेज से बीए किया। माता पिता ने शेर मोहम्मद खां नाम दिया लेकिन बचपन से ही स्वयं को इब्ने इंशा कहना और लिखना प्रारंभ कर दिया और इसी नाम से प्रसिद्ध हुए। 

उर्दू के प्रख्यात कवि और व्यंग्यकार। लहज़े में मीर की खस्तगी और नज़ीर की फ़कीरी। मनुष्य की स्वाधीनता और स्वाभिमान के प्रबल पक्षधर।

आपकी उर्दू रचनाओं में हिन्दी के प्रयोगों की भरमार है। हिंदी ज्ञान के बल पर शुरू में आल इंडिया रेडियो पर काम किया। बाद में कौमी किताबघर के निर्देशक, इंगलैंड स्थित पाकिस्तानी दूतावास में सांस्कृतिक मंत्री और फिर पाकिस्तान में यूनेस्को के प्रतिनिधि रहे। 
११ जनवरी, १९७८ को लंदन में कैंसर से मृत्यु।

प्रमुख पुस्तकें : उर्दू की आख़िरी किताब (व्यंग्य) चाँद नगर, इस बस्ती के इस कूचे में (कविता), बिल्लू का बस्ता, यह बच्चा किसका है (बाल कविताएँ)
वे मशहूर कवि थे। जगजीत सिंह ने इनकी कई गजलों को अपनी आवाज दी है। उर्दू की आखिरी किताब एक क्लासिक रचना है। उन्होंने इसमें तमाम अनुशासनों की हदें तोड़ दी हैं। एक साथ ही वे व्यंग्य की तीखी धार और हास्य बोध से चकित कर देते हैं।

प्रस्तुत हैं उनकी चंद ग़ज़लें....

१.
उस शाम वो रुख़्सत का समाँ याद रहेगा
वो शहर वो कूचा वो मकाँ याद रहेगा

वो टीस कि उभरी थी इधर याद रहेगी
वो दर्द के उठा था यहाँ याद रहेगा

हम शौक़ के शोले की लपक भूल जायेंगे
वो शमा-ए-फ़सुर्दा का धुआँ याद रहेगा

कुछ मीर के अब्यात थे कुछ फ़ैज़ के मिसरे
इक दर्द का था जिन में बयाँ याद रहेगा

जाँ बख़्श सी थी उस गुलबर्ग की तरावात
वो लम्स-ए-अज़ीज़-ए-दो-जहाँ याद रहेगा

हम भूल सके हैं न तुझे भूल सकेंगे
तू याद रहेगा हमें हाँ याद रहेगा

२.
और तो कोई बस न चलेगा हिज्र के दर्द के मारों का
सुबह का होना दूभर कर दें रस्ता रोक सितारों का

झूठे सिक्कों में भी उठा देते हैं अक्सर सच्चा माल
शक्लें देख के सौदा करना काम है इन बंजारों का

अपनी ज़ुबाँ से कुछ न कहेंगे छुपे ही रहेंगे आशिक़ लोग
तुम से तो इतना हो सकता है पूछो हाल बेचारों का

एक ज़रा सी बात थी जिस का चर्चा पहुँचा गली गली
हम गुमनामों ने फिर भी एहसान न माना यारों का

दर्द का कहना चीख़ उट्ठो दिल का तक़ाज़ा वज़अ निभाओ
सब कुछ सहना चुप चुप रहना काम है इज़्ज़तदारों का

३.
रात के ख़्वाब सुनायें किसको रात के ख़्वाब सुहाने थे
धुंधले धुंधले चेहरे थे पर सब जाने पहचाने थे

ज़िद्दी वहशी अल्हड़ चंचल मीठे लोग रसीले लोग
होंठ उनके ग़ज़लों के मिसरे आँखों में अफ़साने थेये लड़की तो इन गलियों में रोज़ ही घूमा करती थी
इससे उनको मिलना था तो इसके लाख बहाने थे

हम को सारी रात जगाया जलते बुझते तारों ने
हम क्यूँ उन के दर पे उतरे कितने और ठिकाने थे

वहशत की उनवान हमारी इनमें से जो नार बनी
देखेंगे तो लोग कहेंगे 'ईंशा' जी दीवाने थे 

४.
कल चौदवीं की रात थी शब भर रहा चर्चा तेरा
कुछ ने कहा ये चाँद है कुछ ने कहा चेहरा तेरा

हम भी वहीं मौजूद थे हम से भी सब पूछा किये
हम हँस दिये हम चुप रहे मंज़ूर था परदा तेरा

इस शहर में किससे मिलें हम से तो छूटी महफ़िलें
हर शख़्स तेरा नाम ले हर शख़्स दीवाना तेरा

कूचे को तेरे छोड़ कर जोगी ही बन जायें मगर
जंगल तेरे पर्बत तेरे बस्ती तेरी सहरा तेरा

हम और रस्म-ए-बन्दगी आशुफ़्तगी उफ़्तादगी
एहसान है क्या क्या तेरा ऐ हुस्न-ए-बेपरवा तेरा

दो अश्क जाने किसलिये पल्कों पे आ कर टिक गये
अल्ताफ़ की बारिश तेरी इकराम का दरिया तेरा

ऐ बेदारेग़-ओ-बेअमाँ हम ने कभी की है फ़ुग़ाँ
हम को तेरी वहशत सही हम को सही सौदा तेरा

तू बेवफ़ा तू महरबाँ हम और तुझ से बद-गुमाँ
हम ने तो पूछा था ज़रा ये वक़्त क्यूँ ठहरा तेरा

हम पर ये सख़्ती की नज़र हम हैं फ़क़ीर-ए-रहगुज़र
रस्ता कभी रोका तेरा दामन कभी थामा तेरा

हाँ हाँ तेरी सूरत हसीं लेकिन तू ऐसा भी नहीं
इस शख़्स के अशार से शोहरा हुआ क्या क्या तेरा

बेशक उसी का दोश है कहता नहीं ख़ामोश है
तू आप कर ऐसी दवा बीमार हो अच्छा तेरा

बेदर्द सुननी हो तो चल कहता है क्या अच्छी ग़ज़ल
आशिक़ तेरा रुसवा तेरा शायर तेरा "ईन्शा" तेरा

५.
जोग बिजोग की बातें झूठी सब जी का बहलाना हो
फिर भी हम से जाते जाते एक ग़ज़ल सुन जाना हो

सारी दुनिया अक़्ल की बैरी कौन यहाँ पर सयाना हो
नाहक़ नाम धरें सब हमको दीवाना दीवाना हो

तुम ने तो इक रीत बना ली सुन लेना शरमाना हो
सब का एक न एक ठिकाना अपना कौन ठिकाना हो

नगरी नगरी लाखों द्वारे हर द्वारे पर लाख सुखी
लेकिन जब हम भूल चुके हैं दामन का फैलाना हो

तेरे ये क्या जी में आई खींच लिये शरमाकर होंट
हम को ज़हर पिलाने वाली अमरित भी पिलवाना हो

हम भी झूठे तुम भी झूठे एक इसी का सच्चा नाम
जिससे दीपक जलना सीखा परवाना मर जाना हो

सीधे मन को आन दबोचे मीठी बातें सुन्दर लोग
मीर,नज़ीर,कबीर' और ' ईन्शा' का एक घराना हो

प्रस्तुती-रूचि गांधी

कहानी : उस पार : सिनीवाली शर्मा

मित्रो, आज समूह के साथी की एक लम्बी कहानी दे रहे हैं।
प्रस्तुत कहानी समकालीन परिवार के जीवन की अनेक परिस्थितियों से गुजरती है जिनसे हम सब कभी न कभी दो चार होते रहते हैं। यदि कहानी कहीं से भी आपके मन को छूती है तब अपनी प्रतिक्रया अवश्य दें। जिससे लेखक को कुछ हौसला मिल सके। तो मित्रो प्रतीक्षा रहेगी। रचनाकार का नाम भी कर ही घोषित करेंगे। आइये पढ़ते हैं कहानी

उस पार : सिनीवाली शर्मा

सुल्तानगंज घाट, कल कल बहती गंगा, उस में नहाते स्त्री-पुरुष, कुछ लोग मंत्र  बुदबुदा करअर्घ्य दे रहे हैं। वहीं थोड़ा हटकर बच्चे छप छप छपाक करते उछल रहे हैं तैर रहे हैं ।
घाट से थोड़ा हटकर पान की दुकान, दो चार युवक खड़े किसी बात पर ठहाका लगा रहे हैं। उनमें से एक ने कहा, अरे, जरा चार खिल्ली पान तो लगाओ, तुलसी, तीन सौ, चौंसठ भी, और पान पर चूना कत्था चढ़ने लगा। बगल की दुकान में चाय खौल रही है। इधर मूढ़ी चना वाले दुकान में लगता है चूल्हा बुझ गया है। नौकर मालिक की झिड़की खा रहा है साथ ही साथ पंखा से हौंक हौंक कर चूल्हा भी सुलगा रहा है। सामने वाले दुकान से आवाज आई, हे हो, दही केना पाव -----आरो चूड़ा-----कय टका------। कुछ लोग चौकी पर बैठ कर उस पार जाने की बाट जोह रहे हैं।

इस सबके बीच अकेली, चिंतित, शून्य में निहारती वो कौन बैठी है ? उम्र से ३५ साल के आसपास लगती है। अस्त व्यस्त कपड़े और उड़ते हुए बाल। हाथ में दो चार काँच की चूड़ियां। बगल में बालू पर रखा एक झोला। लहरें धीमे धीमे पैर को भिंगोती। आँखें भरी और सब खाली। लगता है उस पार जाने वाली है।
गंगा जल में उसके आँसू टप टप गिर कर क्या कह रहे हैं, वह चुपचाप है पर क्या उसका मन ऐसे ही शांत होगा। जब मन अशांत होता है तो कई बार बाहर ऐसे ही चुप्पी छा जाती है।

बहुत दिनों के बाद देखा------इसलिए पहचान नहीं पाया, अरे ये तो बदरी बाबू की बेटी सुनैना है। ये बड़ी संतान है और एक बेटा है गौतम। बदरी बाबू किसान हैं।
सुनैना के पति वित्तरहित कॅालेज में किरानी हैं पर लक्ष्मी का दर्शन भगवान भरोसे है। सुनैना के एक १२-१३ साल का बेटा है जो नजदीक के शहर में साधारण अंग्रेजी स्कूल में पढ़ता है। घर की आर्थिक स्थिति लोरपोछन जैसी है। घर का खर्चा खेती से किसी तरह चल ही जाता है पर बेटे की पढ़ाई इन पर भारी पड़ती है। पर आजकल बिना अंग्रेजी स्कूल में पढ़े कोई उपाय भी नहीं है। इसलिए सुनैना किसी भी हाल में अपने बेटे को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाना चाहती है ताकि दिन फिर सकें।

जेठ का तपता महीना है। आम पकने लगा है। सुनैना को नैहर से बुलावा आया है, उसकी भौजाई जो दिल्ली में रहती है वो भी अपने तीन साल के बेटे को लेकर आई है।

भौजाई का नाम मंगला है और शाहपुर गाँव नैहर है। भाई गौतम बी ए पास करके रोजगार खोजते खोजते दिल्ली में नाईट गार्ड बन गया। गौतम मंगला को महीने डेढ़ महीने के लिए छोड़ कर दिल्ली वापस चला गया।

सुनैना के आने के बाद उसकी माँ बेटी पतोहू पर घर छोड़कर अपने भतीजे के जनेऊ में नैहर चली गई, दस पन्द्रह दिनों के लिए। गए तो बदरी बाबू भी थे ससुराल पर द्वारे पर खड़ी गाय की देखभाल किसी दूसरे पर कितना दिन छोड़ते। वो दूसरे ही दिन चले आए।

सास के नहीं रहने पर अगल-बगल की औरतों को घर की बहू की बुद्धि फेरने और गुरुमंत्र देने का अवसर मिल जाता है। रोज दोपहर हाल चाल पूछने के बहाने आतीं और गुरुमंत्र देकर चली जातीं। बार बार झंडापुर वाली किसी न किसी तरह इस बात का जिक्र जरूर करती, तुम्हारे नहीं रहने पर खेती से जो चार पैसे आते हैं, वो कहाँ चले जाते हैं। बार बार, सुनते सुनते मंगला के दिमाग पर असर हुआ और हँसते खेलते घर का माहौल जेठ के महीने की तरह गरम होने लगा।

जब किसी से राड़ लेना हो तो खोंट रास्ता ढ़ूँढ ही लेता है।आज मंगला जानबूझकर किसी काम के बहाने कुछ पैसे अपने ससुर बदरी बाबू से माँगने आ गई। शायद समय भी अपनी चाल चल रहा था। आज उनके पास फूटी कौड़ी भी नहीं थी। मंगला कई दिनों से यही मौका खोज रही थी। ससुर के मुँह से नहीं सुनते ही लगा जैसे उसकी साध पूरी हुई। इस मौके को भुनाते हुए, भुनभुनाते हुए वहाँ से जाती हुई बोली, हाँ ----हाँ -----कहाँ से होगा घर में -------- मेरे नाक से क्या दूध गिरता है-------मैं-------क्या समझती नहीं। बोलती हुई रसोई घर में पीढ़ा पटक कर बैठ गई। सुनैना भतीजे को गोद में सुला रही थी। बातें तो उसने भी सुनी पर उसका मर्म वो उस समय समझ नहीं पाई।

अब, मंगला घर में किसी से कुछ नहीं बोलती और हमेशा गुस्से से तमतमाती रहती है, कभी अपना गुस्सा बरतन पर उतारती तो कभी बेटे पर।

एक दो दिन में ही घर में हँसता खेलता घर जैसे अभिशप्त हो गया। आज बदरी बाबू के घर आते ही मंगला जोर जोर से बोलने लगी, मेरे नाम से तो एक टका नहीं होगा -------हाँ ------इस घर में मेरी क्या गिनती है ------लेकिन पिछले बरस जो बीस हजार बेटी को दिये थे, दुलरका नाती को पढ़ाने------उसका तो कोई हिसाब होगा नहीं ------लौटेंगे भी या ---------।

बाप-बेटी, दोनों की समझ में अब ये बात आई कि आखिर बात क्या है। सुनैना को जो बीस हजार कर्ज दिया था वही बिसा गया घर को।

रात हो आई थी। सुनैना कई बार दरवाजे पर जाकर लौट आती। अभी तक बाबू जी खाने नहीं आए। बहुत देर हो रही है। सोची, जाकर बुला ही लूँ -----नहीं ------शायद आते ही होंगे------नहीं------चली ही जाती हूँ -----नहीं, नहीं------कहीं भौजी ऐसा न सोच ले कि उनका कान भरने तो नहीं  चली गई। इसी उधेड़बुन में वो खाली खटिये पर जाकर लेट गई। दोपहर में भी ठीक से नहीं खाये थे -----अभी दो कौर खा लेते ------पर वो भी जानती है आज बाबू जी से खाया नहीं जाएगा।

बदरी बाबू बड़ी देर से खाने आए। आहट पाते ही सुनैना जल्दी से उठकर उनके सामने जाने लगी। पर कुछ सोचकर उसके कदम धीरे हो गए। वो आकर ओसारे में बैठ गए। शाहपुर वाली अपनी कोठरी से बाहर नहीं निकली। सुनैना  पीढ़ा और पानी रख रसोई से थाली में ठंडी रोटी, तरकारी और कटोरे में दूध लाकर सामने रख दिया।
मन ही मन भगवान का नाम लेकर जैसे ही उन्होंने खाना शुरू किया ही था कि घर की लक्ष्मी रौद्र रूप लेने लगी। अक्सर जब घर में मर्द खाने आते हैं, औरतों को अपना क्रोध दिखाने का यही उपयुक्त समय मिलता है। कोठरी से ही जोर-जोर से बोलने लगी, आज तक तो घर के मालिक-मुख्तार बने रहे, जो मन में आया किया-----हमने तो कुछ नहीं कहा, लेकिन कोई कितना चुप रहे, अरे-----ब्याही बेटी को ही ब्याहने का शौक चर्राया है तो भला हम रोकने वाले कौन होते हैं।
वो बेतहाशा बोले जा रही थी। सुनैना ओसारे पर खड़ी चुपचाप ये सब सुन रही थी। इधर बदरी बाबू की छाती छलनी हुई जा रही थी और मंगला के एक-एक शब्द पत्थर की तरह बरस रहे थे।
बाप तो बाप, बेटी का भी वही हाल-----अपनी गृहस्थी छोड़-छाड़ कर दौड़-दौड़ कर चली आती है, बोलते हुए  बाहर आई और लोटे में पानी लेकर फिर तमकती हुई अपनी कोठरी में जाते हुए बोली, हाँ हाँ, यहाँ कुबेर का खजाना जो गड़ा है, दो चार लोर गिरायेगी, कुछ न कुछ तो मिल ही जाएगा।

इधर बाप-बेटी चुप थे पर दोनों के अंदर युद्ध चल रहा था। उधर मंगला, घर की बहू दहाड़ रही थी, न जाने हमारी छाती पर कब तक दाल दररेगी, मुझे क्या पता था हमारी हिस्सेदार यहीं बैठी है।

ये सब सुनते सुनते बदरी बाबू का पारा गरम हो गया और थाली उठा कर जोर से फेंक दी और तेजी से बाहर चले गए। पीछे से घर की लक्ष्मी गरजती रही।

सारे समस्याओं की जड़ सुनैना अपने बाबू जी की फेंकी गई थाली को जड़वत हो देखती रही और भौजाई की आवाज सुनती रही। उसकी चुप्पी बहुत सारे प्रश्न  अपने साथ लिए थे। लेकिन ये प्रश्न आँसू में ही बह जाते और कलेजे में ही घुट जाते क्योंकि ब्याह बेटी का मुँह बंद कर देती है दम निकलने तक।

बगीचा जो घर से थोड़ी ही दूरी पर है। आठ दस आम के पेड़ हैं। आम के समय में जोगवारी करने के लिए बदरी बाबू यहीं सोते हैं। आम जब पक कर ढब्ब-ढब्ब की आवाज के साथ गिरता तो वो लपक कर जाते और टार्च जलाकर गिरे हुए आमों को जमा करते। करीब रात के दस-ग्यारह बजे घर आते। आम बाल्टी में पानी डालकर रख देते और पीने का पानी लेकर फिर बगीचा चले जाते। बगीचे में उन्होंने एक छोटा सा खटोला भी रखा है और एक मचान भी बना रखा है।

लेकिन आज आम गिरता रहा, ढब्ब-----ढब्ब------ढब्ब-----पर अशक्त मन बाण की शय्या पर पड़ा आज उठ नहीं पा रहा था। रात के सन्नाटे में बहू के जोर जोर से बोलने की आवाज उन्हें यहाँ तक बेध रही थी।
जीवन में जब निराशा घेरती है तो अपने ही निर्णय, प्रश्न चिह्न बन जाते हैं। उस जमाने के मैट्रिक पास थे। चाहते तो आसानी से गुरु जी बन ही सकते थे। कईयों ने समझाया भी था। पर मन चाकरी के लिए तैयार नहीं था। नौकरी ना करी। दस बीघे जमीन, माँ-बाप, पति-पत्नी और दो बच्चे। गुजर बसर आसानी से हो जाएगा। धरती मैया को जो परिश्रम से सींचता है, उसे क्या माता भूखा रखती है, उसे बीज दो और पसीने से सींचो। वो माँ है, फल, फूल, पौधे, वृक्ष, जीवन सब देती है।

उस समय किसान और उसका जीवन कितना आसान दिख रहा था, पर ऐसा कहाँ हो पाया। खाद, सिंचाई, मजदूरी ने बदरी बाबू को इस तरह तोड़ा कि मेहनत के बल पर जीवन गुजारना मुश्किल हो गया। इतनी मेहनत से जो अनाज उपजाया उसका सही दाम कहाँ मिल पाया। किसान का सच क्या है, उनके सामने है। घर संभालते-संभालते चार बीघे जमीन बिक गया। छह बीघे जमीन, एक गाय और एक छोटा सा बगीचा, अब यही उनकी पूंजी है।

बाप की सफलता बेटी के ब्याह से देखी जाती है। बेटी ब्याही भी ऐसे घर में जहाँ उसके कोमल सपने कुम्हला गए। सोचा था, पाँच बीघे जमीन है, सुंदर रूप और सज्जन परिवार है। लड़का प्राइवेट कॅालेज में किरानी है, आज नहीं तो कल, सरकारी हो ही जाएगा। बाँध दिया बेटी का भाग्य वहाँ, जहाँ भविष्य अधर में था। आज तक वो टकटकी लगाए नौकरी, सरकारी होने की राह तकती है। धीरे-धीरे उसकी जिम्मेदारियां बढ़ती गई और मेरे ही सामने उसका जीवन हाहाकार का पर्याय बनता चला गया।

वो सारे दुख पी जाती है पर मैं भी तो बाप हूँ, कब कहाँ मेरी बेटी घुटी होगी, मेरी साँसें बता देती हैं। जीवन के थपेड़ों में आस लगाए मेरी ओर देखती है पर बोलती कुछ नहीं। ओह, ब्याही बेटी बोलने का भी अधिकार खो देती है।
 
ओह, मैं  किसान ही क्यों हुआ ! मजदूरी ही करता तो अच्छा होता। दिल्ली, सूरत जाता, फल सब्जी ही बेचता, गाड़ी ही पोछता, मोंटिया का ही काम करता, कुछ भी करता,  कुछ पैसे तो कमाता।

बदरी बाबू रात के अंधेरे में सोचते रहे, सोचते रहे। रात भी उनके दर्द के साथ भींगती रही। इधर सुनैना पूरी रात बाबू जी की राह देखती रही। क्योंकि आज रात वो पीने का पानी भी लेने नहीं आए।
भोर का सन्नाटा बता रहा था कि कई दिनों से यहाँ महाभारत पसरा है। पूरी रात की जगी आँखों ने देखा आज बाबू जी दो चार ही आम लाकर ओसारे पर रख दिया और दूध दुहने की बाल्टी उठाने लगे। पिता को देखते ही उसकी आँखों में आँसू उमड़ पड़े। अपनी स्थिति  देख कर बाबू जी की ये दशा देखकर या फिर ये सब देख कर, पर सुनैना घुटनों के बीच अपना मुँह दबाकर रोने लगी। जाते जाते वो भी रुक गए। पिछवाड़े से आती शाहपुर वाली की देह में फिर से आग लग गई। जलती हुई जीभ से फिर गरजना शुरू कर दिया, ये लोर किसे दिखा रही है राजकुमारी भोरे भोर, माथा  ठोकते हुए बोली, हे दैव, किसका मुँह देख कर उठी थी आज कि उठते ही नाटक पसर गया------ पता नहीं, कौन सा सोग पड़ गया------इस घर को तो चबा ही गई, अभी भी संतोष नहीं हो रहा------जाती भी नहीं------ करमजली, वह बिना रुके जो मुँह में आया बोले जा रही थी।

धैर्य की भी सीमा होती है। कई दिनों से सुनते- सुनते आखिर आज बदरी बाबू का धीरज टूट गया। क्रोध और बेबसी ने तपते शब्द का रूप ले लिया, वो भी जोर-जोर से बोलने लगे, दुल्हिन, हिसाब लेना है तो मुझसे लो, उसे क्या सुना रही हो ! बोलते हुए ओसारे पर से बदरी बाबू आँगन में उतर आये, जिसने कान भरा है उससे जाकर पूछो, क्या खेती ऐसे ही हो जाती है। हाँ, पिछले साल ७० हजार का मकई बेचा था। तुम भी तो मैट्रिक पास हो, तुम्ही जोड़ कर बताओ, खाद, पानी, मजदूरी, ट्रैक्टर, सबका खर्चा काटकर कितना बचता है ? तुम्हें क्या लगता है केवल खेती से ही घर चल जाता है, साल भर खाना-पीना, कपड़ा-लत्ता, न्यौता-पेहानी, दवा-दारु, और भी तो कितने खर्च हैं। मेरी हड्डी बूढ़ी हो गई है फिर भी गाय रखता हूँ, सानी-पानी करता हूँ।

शाहपुर वाली रसोई से सब सुन रही थी। आज बदरी बाबू सब कुछ कह देना चाहते थे जो कई दिनों से उनके मन को मथ रहा था।
गाय पर भी तो खर्चा है, खल्ली, चुन्नी, दाना, दवा, कैल्शियम। ऊपर से मेरा खून जलता है, तब आते हैं दो पैसे घर में, वो भी डाक्टर-वैध में खर्च हो जाता है।
गमछे से पसीना पोछते हुए बदरी बाबू बोले जा रहे थे, पर लछमी, बेटे ने तो आज तक हिसाब नहीं माँगा------तुम्हीं ले लो।

सुनैना घर की चौखट पर खड़ी आँखों में आँसू लिए सब कुछ सुन रही थी। उसकी ओर देखते हुए बदरी बाबू बोले, अगर उसी समय कुछ जमीन बेच कर दे दिया होता तो नौकरिया लड़का मिल जाता, लेकिन बेटे के मोह ने नहीं छोड़ा और भाग्य भरोसे छोड़ आया इसे। बोलते बोलते लगा जैसे सुनैना के प्रति अपराध बोध की ये भावना और भी बहुत कुछ कहलवाती कि रसोई से तमक कर मंगला निकली और जवाब देते हुए जोर से बोली, तो उस समय क्या बुद्धि घास चरने चली गई थी-----अच्छा होता जो उसी समय बेचकर दे दिया होता तो आज ये रोज-रोज की किचकिच तो नहीं होती।

ननद की ओर निगल जाने वाली नजर से देखती हुई प्रहार करते हुए मंगला बोली, छन छन काने गावे गीत, इ तिरिया के नय परतीत------ हुंह----- अपने बेटे को शहर के प्राइवेट स्कूल में पढ़ायेगी----- कलक्टर बनायेगी----- डाक्टर बनायेगी और हम कटोरा लेकर भीख माँगें ! फिर ससुर की ओर देखते हुए बोली, बुद्धि ही रहती तो पंकज के बाबू जी की तरह बड़ा बाबू तो रहते, घूस से ही कितना अच्छा घर बना लिया, पेंशन तो अभी आता। मैं भी अपने बेटे को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाऊँगी।

बदरी बाबू भी आज जवाब देने की ठान बैठे थे, बोले, मैं अभी जिंदा हूँ----- तुम्हारे बेटे को भी पढ़ाऊँगा----- एक गाय और बढ़ा लूंगा----- लेकिन तुम धीरज तो धरो----- और ये तो तुम से होता नहीं है, माथा हिलाते हुए बोले। गुस्से में वो क्या बोलने जा रहे थे उन्हें भी अंदाजा नहीं था। बोले, आखिर उसी बाप की जनमी हो जिसने पूरे गाँव को लड़ा दिया, बुद्धि तो सच में नहीं है मुझे, जो कचहरिया की बेटी को घर ले आया।

ये ऐसा तीर था, जिसके लगते ही मंगला आपे से बाहर हो गई। अभी तक जो भी बोल बज रही थी होश हवास में, पर अब कहाँ होश और कहाँ आँचल। आँखें लाल करती हुई रणचंडी बनते हुए बोली, मेरे बाप की बराबरी करने का दम नहीं है----- वो रोज मुंशी, पेशकार के साथ उठते बैठते हैं----- बुद्धि है तब तो कचहरिया हैं------तुम्हारी बेटी की तरह नहीं-------पता नहीं कितने भतार बना रखा है जो रोज रोज दौड़कर आ जाती है।
मुँह घुमा कर मंगला, आक थू-----राम राम----- छीह------राम-----राम।

सुनैना ये सुनकर सन्न रह गई, उधर बदरी बाबू को तो जैसे साँप सूँघ गया। इस बात का क्या जवाब देते, लगा खुद मर जाँय या उसे ही मार दें।

वो कुछ नहीं बोले। एक क्षण रुककर फिर सुनैना की ओर तेजी से जाकर बोले, अपना सारा सामान समेटो, मैं टेम्पू लेकर आता हूँ।

कुछ ही देर में दरवाजे पर घूरो काका का बेटा टेम्पू लेकर आ गया। बदरी बाबू, सुनैना का हाथ पकड़ कर तेजी से ले जाते हुए बोले, चल-----  आज तुम्हें हमेशा के लिए विदा कर देता हूँ इस घर से----- तभी सबको चैन आएगा। मंगला को ससुर जी के इस रूप का अंदाजा नहीं था। सुनैना पिता का ये रुप देख कर अकबका गई, वह बस इतना ही कह पाई, बाबू जी ------माँ ------- ।

पर वो सुनने वाले कहाँ थे, बस तैश में आकर बोले जा रहे थे, आज से हम मर गए तुम्हारे लिए, जब पतोहू घर का हिसाब लेने लगे तो ऐसे घर से बेटी को विदा ही कर देना चाहिये।

एक हाथ में झोला और दूसरे हाथ से सुनैना को खींचे लेते चले जा रहे थे, पीछे -पीछे वो यंत्रवत खिंची चली जा रही थी------चली जा रही थी।
इस निर्मम दृश्य को देखने अगल बगल से दो चार जनानी भी पहुँच गई।
पत्थर की तरह बेटी को उन्होंने टेम्पू के पिछले सीट पर बैठा दिया। पथराई आँखों से सुनैना बस बाबू जी को देख रही थी।
मन बहुत बार ऐसी स्थिति में रहता है जब वो सोच विचार नहीं करता, कुछ पल के लिए रिक्त हो जाता है या जो हो रहा है बस देखता रह जाता है।
अब तक बाप ने बेटी का हाथ पकड़ा हुआ था, लेकिन अब विदा होती बेटी ने बाप का हाथ पकड़ लिया पर कुछ बोल नहीं पाई। किसी तरह हाथ छुड़ा कर गमछे से अपनी आँखें पोछते हुए बदरी बाबू टेम्पू वाले से बोले, सुल्तानगंज घाट पर उतार देना ----- । मन ही मन जैसे कह रहे हों, छोड़ देना इसे, तुम भी----- मेरी ही तरह।
धूआँ छोड़ते हुए टेम्पू चल पड़ा।
बदरी बाबू  वहीं गमछे से मुँह ढंक कर जमीन पर बैठ गए।
टेम्पू खुलते ही जैसे सुनैना की तंद्रा टूटी, घर, गाय, बगीचा सब छूटने लगा। टेम्पू बढ़ता गया, पिता छूटते गए, माँ स्वप्नवत होने लगी। घर, भाई, परिवार, गाँव, समाज, पेड़-पौधे सब पराये होने लगे। दूर तक जाती सुनैना बाबू जी को देखती  रही और बहुत दिनों के बाद फूट-फूट कर रोने लगी। बदरी बाबू भी अपने कलेजे का टुकड़ा होते अपनी आँखों के सामने देखते रहे। दूरी बढ़ती गई। सब धुआँ धुआँ होता गया। बदरी बाबू बहुत देर तक सड़क किनारे कटहल के गाछ के नीचे माथे पर हाथ रखे बैठे रहे।

टेम्पू वाला जो गोतिया का भाई लगता था घाट किनारे तक सामान पहुँचा दिया और पैर छूकर चला गया। सुबह के करीब सात बजे होंगे, चहल पहल वाली घाट पर वो अकेली। उस पार जाने वाली नाव आने में देरी थी। सुनैना वहीं गंगा किनारे बालू पर बैठ गई। बगल में घर का ही सिला झोला। हड़बड़ी में ठीक से कपड़े भी नहीं रख पाई थी, जिस कारण कुछ कपड़े बाहर झाँक रहे थे। उसके पैर पर आता जाता पानी उसे भिंगो जाता, पर वो शून्य में कुछ खोज रही थी।

नैहर की विदाई पांव में महावर, माँग में सिंदूर और हाथ में चूड़ियां भरी होती हैं। कितना भी गरीब बाप हो चूड़ियां तो पहना कर ही भेजता है, माँ खोंइछा देकर विदा करती है। माँ बाप आँसू भरे आँखों से बेटी को इस तरह विदा करते हैं कि वो फिर आएगी।
पर आज नैहर से ये कैसी विदाई मिली कि-------  उसके आँसू गंगा में गिर रहे थे। दुखहरणी गंगा आज सुनैना का दुख अपने में समा नहीं पा रही थी। सुनैना सोचती जाती और थोड़ी थोड़ी देर पर पीछे मुड़कर देखती जाती, शायद बाबू जी आते होंगे। आशा के साथ उठी नजर निराश होकर लौट जाती।

वहीं थोड़ी दूर पर एक लाश जल रही थी और एक जीवित लाश यहाँ भी।

प्रस्तुति -- मनीषा जैन
----------------------------------
लेखक का परिचय-
मनोविज्ञान से स्नातकोत्तर, विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में कहानियाँ एवं व्यंग्य प्रकाशित, शीघ्र प्रकाश्य कहानी संग्रह, -
" आँखों देखा हाल "
-----------------------------------

टिप्पणियाँ:-

अल्का सिगतिया:-
विषय  पुराना पर प्रस्तुत। बहुत। ही प्रभावी। मौलिक।मनोविज्ञान  पढ़ना खूब आता है। लेखिका को

स्वाति श्रोत्रि:-
मन के भावो का बारीकी से चित्रण किया है मनोदशा का प्रभावी आकलन है बेटी के पिता तथा भाभी  के द्वन्द्व की उत्तम प्रस्तुति  साधुवाद।