आज पढ़ते हैं समूह की साथी की कुछ ग़ज़लें। आपकी बेबाक टिप्पणी की अपेक्षा है जिससे ग़ज़लकार को अपनी रचनात्मकता में सुधार का मौका मिल सके। रचनाकार का नाम कल घोषित करेंगे।
1
कहूँ मुश्किल मैं दुनिया से तो वो अहसान करती है
यहाँ फिर जी लूं मैं लेकिन मेरी ख़ुद्दारी मरती है
मेरा दिल चाहता है उसको तख़्तो ताज सब दे दूँ
मेरी ग़ुरबत मगर दरियादिली पर तंज़ करती है.
जहाँ चिडियों को होना था वहाँ साँपों को चुन भेजा
कि जनता जानती सब है मगर फिर भूल करती है
बडी ख़्वाहिश है तनहाई मे खुद के साथ भी बैठे
किसी की याद लेकिन महफ़िलों के रूप धरती है
हमारे दौर में ग़ुरबत, शराफ़त ऎसी बहने हैं
कि जिनमे दूजि को मारो यकीनन पहली मरती है
ज़रा सी है दुआ मौला कि हरदम जीत हो उसकी
ये चिडिया हौसलों के दम से जो परवाज़ करती है.
2
इनायत है कि वो मुझको तराशेगा सँवरने तक
मुसलसल इक सफ़र मिट्टी का है मूरत में ढलने तक.
वो इक जुगनू है उससे आज भी मैं प्यार करती हूँ
कि, मेरा साथ जो देता रहा, सूरज निकलने तक.
अकीदत में हमारा दिल झुका था उम्र भर लेकिन,
किसी ने सर झुकाया था महज़ पहलू बदलने तक
यकीनन गुफ्तगू की कश्तियाँ डालेंगे दरिया में
हमें मोहलत तो मिल जाए, ज़रा यह बर्फ़ गलने तक
3
इस हुनर में है हमें कितनी महारत देखिये ।
चल रही है हुक्मरानों की इबादत देखिये ।
तीरगी खुद अपने घर की जो मिटा पाए नहीं
आफताबों को वही देते हिदायत देखिये ।
फिर सियासी शोर में बेवा के आँसू खो गए
सरहदों पर फिर हुई कोई शहादत देखिये ।
दौड़ने और जीतने की जंग जारी उम्र भर
संभलिये अब कर ना दे ये दिल बगावत देखिये ।
बैठ कर बच्चे के संग जब फूल सपनों के चुने
पत्थरों के बीच पाया दिल सलामत देखिये।
4
मुहब्बत कुछ नही बस रब की ही सौगात होती है
अकीदत और क्या होती है तेरी बात होती है
ख़ुदाया रोशनी तो कम से कम तक्सीम कर सबको
कहीं सूरज का सजदा है, कहीं पर रात होती है
कभी तो इब्तिदा होने में भी लगते ज़माने हैं
कभी पर्दे के उठते इन्तहां की बात होती है
भँवर वो बारहा जो प्यार की कश्ती डुबोता हैं
कभी कुछ भी नही होता ज़रा सी बात होती है
मेरी तालीम अम्मा की दुआ से कितनी मिलती है
कि जब कुछ भी नही होता ये तब भी साथ होती है.
5
बुरा मत मान गर कुछ देर को चेहरे बिगड़ते हैं,
कि मिट्टी धूल में बचपन के सारे दिन सँवरते हैं.
पुराने पल वो जिनमें थी बड़ों की डांट भी शामिल,
अभी तक नीम के फूलों से यादों में महकते हैं.
परिंदों को घनेरा नीम कितना सर चढ़ाता है,
कि जैसे बाप के शानो पे ये बच्चे चहकते हैं.
न हो मायूस बीमारी से, हम नुस्ख़े बताएँगे
बुजुर्गों की तरह ये नीम जामुन बात करते हैं.
तेरे आगे तो ये झीलें कभी नदिया नहीं होंगी
कहाँ परदा गिराना है मेरे आँसू समझते हैं
000 सुवर्णा
प्रस्तुति- मनीषा जैन
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टिप्पणियाँ:-
प्रमोद तिवारी:-
कंटेंट ठीक ठाक है पर संरचना पर मेहनत की जरूरत है, पहली गजल में खास तौर से। रदीफ-काफिया जिनसे गजल बनती है, बहुत साधना की मांग करते हैं।
रचना:-
राजेन्द्र गुप्ता जी, कृपया समूह में पोस्ट की गई ग़ज़लों पर प्रतिक्रिया दें। अन्य किसी भी प्रकार की पोस्ट केवल रविवार को ही लगाएँ।
कृपया समूह के नियमों का सम्मान करें।
मीना अरोड़ा:-
आज की गजलों को पढ़ कर मन में सुखद अनुभूति के साथ ईर्ष्या हुई कि
इतना अच्छा कोई कैसे लिख सकता है । रचनाकार इस ईर्ष्या का सुखद अनुभव करें ।
फ़रहत अली खान:-
ग़ज़ल-गो कौन हैं, ये मैं समझ गया हूँ; क्यूँकि इनमें से कम से कम एक ग़ज़ल ऐसी है जो पहले भी पोस्ट हो चुकी है।
लेकिन इतना ही कहूँगा कि सादगी इनकी ग़ज़ल की प्रमुखतम विशेषता है और इसी वजह से इनकी बात सीधे तह-ए-दिल तक जाती है।
सुवर्णा :-
बहुत बहुत धन्यवाद मनीषा जी आपका कि आपने मेरी ग़ज़लों को यहाँ पोस्ट करने योग्य समझा। साथियों का भी बहुत शुक्रिया हौसला अफ़ज़ाई के लिए।
आदरणीय मदन मोहन जी, सरिता जी, राजेन्द्र गुप्ता जी, रचना जी, मीना जी, सुषमा जी, रेणुका जी, आभा जी, संध्या जी, वाज़दा जी, वसुंधरा जी, वसुकुमारी जी, rk ji, मीनाक्षी जी, संतोष जी, रौशनी जी ध्वनि जी और फ़रहत जी आप सभी का शुक्रिया।
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