मित्रो, पिछले कुछ समय से देश भर में और बिजूका समूह में भी जेएनयू का मुद्दा चर्चित रहा है। आज हम बिजूका के एक साथी की इसी विषय को संबोधित करती कुछ रचनाएँ प्रस्तुत कर रहे हैं और उन पर आपकी सारगर्भित टिप्पणियों की अपेक्षा करते हैं।
1. जे.एन.यू.
यहाँ चाय की प्यालियों में
अपनी पूरी गर्माहट के साथ
उतरता है क्यूबा और वियतनाम
असली कक्षाएँ जमती हैं
ढाबे और मेस की टेबलों पर
होती है हर सड़क के बरक्स
एक झाड़ीदार टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी
एक मुकम्मल विकल्प की ठसक के साथ।
किसी नशे की तरह उतरता है जेएनयू नसों में
और छा जाता है पूरे वजूद पर
यहां होना एक अलग दुनिया में होना है
कि पीएसआर के बाजुबां पत्थर
और दीवारों के पोस्टर
देते हैं जीने की सलाहीयत
छाती फुला के बताते हैं अग्रज
कि क्रांति की सेज सजानेवालों की यह दुनिया
कभी थम गई थी एक थप्पड़ के चलने से
कि तुम्हारी सोच का बदलना
बड़ी क्रांति का होना है
कि लाइब्रेरी के छठे माले पर
सेल्फ की किताबों के बीच अटके
चार नयनों से भी होती है क्रांति
सपने और हकीकत की घालमेल रेखा पर
यूं बिठाता है जेएनयू
कि जेएनयू से निकलने में
निकल जाती है पूरी उम्र
छोटे से छोटे मुद्दे पर
अदहन की तरह उबल पड़ता है जेएनयू
कभी हॉस्टल में घुसा कुत्ता जुगलबंदी करता है
युधिष्ठिर संग स्वर्ग गए स्वान से
कहीं हाथ की बिसलरी की बोतल
चुगली करती है साम्राज्यवाद विरोध की
तो कहीं ढाबे का छोरा
चहक के दागता है सवाल
नये-नये घुसे रंगरूट से
तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है पार्टनर!
मार्च ऑन और इंकलाब के नारों के गुबार उड़ाता
जीबीएमों और बहसों से खून खौलाता
सवाल का दूसरा नाम है जेएनयू
जो अकसर चिपक जाता है प्रश्नचिह्न बनकर
सत्ताधरियों के माथे पर
बहुत सवाल पूछता है जेएनयू
ठेठ अपने अंदाज में
मसलन सवाल यह है कि
सवाल है क्या?
यूँ सवाल तो यह भी हो सकता है
कि जेएनयू में
कितना बचा है जेएनयू?
2. विश्वविद्यालय में सौंदर्यीकरण
अरे! अरे! ये पत्ती यहाँ कैसे उग गई
और ये डाल टेढ़ी क्यों है?
पौधों को बिलकुल शऊर नहीं होता
ठीक वहीं फेंक देंगे कनखी
जहाँ कायदे से होनी चाहिए
ख़ाली जगह
जहाँ होनी चाहिए शाखाएं
वहाँ बस गूमड़ बन के रह जाएगा।
बताइए भला अब इस नीरस अमलतास का यहाँ क्या काम
यहाँ तो टॉर्च लीली ही फबेगी न
और ये पेड़
सामनेवाले की तरह इसे चार फीट से ज़्यादा
कतई नहीं होना चाहिए
और इस लतर का तो समूल नाश करो
बार-बार काटने पर भी
वी.सी. के रास्ते तक फैली मिलती है
नहीं-नहीं यह कँटीला पौधा
मेडिसीनल है तो क्या हुआ
मिसफिट है ए-क्लास यूनिवर्सिटी के लिहाज से!
ओह ये चट्टान
रास्ते की चिकनाई में रोड़ा क्यों
जरा घीसीए या फिर उखाड़िए इसे
डिफ्रेन्ट आइडेंटिटी क्या होती है भला
चीजें सिमेट्री में ही अच्छी लगती हैं
इस पेड़ को भी हटाइए
इसकी शाखा हॉकिन्स की थ्योरी की ओर पहुँचते-पहुँचते
दादी के अनुभवों की बात करने लगती है
अचानक खड़ी सी ये चट्टान
चुनौती देती है
इस पर सीढ़ियाँ बना दो।
इस जंगली पौधे को भी हटा दो
अनुशासन से बिलकुल अपरिचित है यह
विषय के अतिक्रमण की तो
जैसे कसम खा रखी है इसने।
उस ‘भटकटैये’ को तो बिलकुल तमीज नहीं
एक कंटीला पौधा
बस चले तो पूरी यूनिवर्सिटी को
लोकसंस्कृति का अड्डा बना दे
उसे तो यह भी नहीं मालूम
कि ठहाके जाहिल लगाते हैं
अरे! बस इतना मुस्कुराइए कि दाँत न दिखें
सवाल वर्ल्डक्लास यूनिवर्सिटी का है
कोई हँसी-ठट्ठा है क्या?
3. जे.एन.यू. की लड़की
देखा मैंने उसे
जे.एन.यू. की सबसे ऊंची चट्टान पर
डैनों की तरह हाथ फैलाये
उड़ने को आतुर
देख रही थी वह
अपने पैरों के नीचे
हाथ बाँधे खड़ी
सबसे बडे़ लोकतंत्र की राजधानी को
जहाँ रही है चीरहरण की लंबी परंपरा
अलकों के पीछे चमकता चेहरा...
जैसे काले बादलों को चीर के
निकल रहा हो
चांद नहीं!
सूरज!
ग़ज़ब की सुन्दर लगी वो
चेहरे पर थी
विश्वास की चमक
उल्लास की चिकनाई
पैरों में बेफिक्री की चपलता
दिखी वो रात के एक बजे
सुनसान पगडंडियों पर कुलांचे भरती
याद आ गयीं ‘कलावती बुआ’
घर से निकलने से पहले
छः साल के चुन्नू की मिन्नतें करतीं
साथ चलने को।
पहली बार जाना
हँसती हैं लड़कियाँ भी
राह चलते छेड़ देती हैं
ये भी कोई तराना।
पर्वतारोहण अभियान से पहले
उठाए थी बड़ा सा बैग कंधे पर
चेहरे की चमक कह रही थी
ये तो कुछ भी नहीं
सदियों से चले आ रहे बोझ के आगे
हाँफता समय चकित नजरों से देख रहा था
उसकी गति को।
तन कर खड़ी थी मंच पर
लगा दादी ने ले लिया बदला
जिसकी कमर टेढ़ी हो गई थी
रूढ़ियों के भार से
प्राणों में समेट लिया
उसकी पवित्र खिलखिलाहट को
देर तक महसूसा
माँ का प्रतिकार
जिसकी चंचलता
चढ़ा दी गई थी
शालीनता की सूली पर
बहुत-बहुत बधाई ऐ लड़की!
देखना! बचाना अपनी आग को
जमाने की पुरानी ठंडी हवाओं से
उम्र के जटिल जालों से
दूर रखना अपने सपनों को
हो सके तो बिखेर देना
अपने सपनों को हवाओं में
दुनिया के कोने-कोने में फैल जाएँ
तुम्हारी स्वतंत्रता के कीटाणु
अशेष शुभकामनाएँ!
4. नामकरण
अरे भाई!
ये मंगरू स्टेडियम कौन सा रास्ता जाता है?
पता नहीं किस-किस के नाम पर
अब बनने लगे हैं स्टेडियम!
देखिए, इस घूरफेंकन पथ को पकड़े सीधे चले जाइए
कौन घूरफेंकन?
अरे वही जिसने अपनी जान पर खेलकर
कुएँ में डूबते बच्चे को निकाला था।
फिर अकरम हास्पीटल से दाहिने घूम जाइएगा
अब ये अकरम कौन है भाई?
क्या जनाब अकरम साहब को नहीं जानते
ये वही हैं जिन्होंने
घायल होकर भी
अकेले दो दिनों तक
मोर्चा संभाले रखा सीमा पर
थोड़ा आगे बढ़ते ही उमेशचंद्र चौराहा पड़ेगा
पूछो इससे पहले बता दूँ
उमेशचंद्रजी ही लेखक हैं उस उपन्यास के
जिसे पढ़ निराशा से उबर गए हज़ारों युवक
वहाँ से सीधे हाथ घूमते ही
मोची चौराहा आएगा
माने, घूरहू मोची चौराहा
जहाँ वे जाड़ा-बरसात में बैठते रहे
अनवरत साठ साल तक।
अरे भाई! अब यह भी बता दो
ये मंगरू कौन था
जी मंगरू था वह शख्स
जिसका नहीं था कोई परिवार
जिसने बच्चों के मैदान पर दखल के खिलाफ
की थी बावन दिनों की भूख हड़ताल
और जान देकर छुड़ा लाया था
बच्चों का फुटबॉल भर मैदान
और मैदान भर आकाश।
०००
डॉ. प्रमोद कुमार तिवारी
(असिस्टेंट प्रोफ़ेसर)
गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय।
प्रस्तुतिः रचना त्यागी
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टिप्पणियाँ:-
प्रेरणा पाण्डेय:-
इसी खासियत ने तो JNUको सरकार सी आँख की किरकिरी बना रखा है
रचना:-
दोनों ही कविताएँ बहुत ख़ूबसूरत हैं। जिन्होंने जेएनयू की फ़िज़ा में एक पल को भी सांस ली है, वे इनमें उसकी ख़ुश्बू साफ़ महसूस कर सकते हैं। इन्हें केवल बतौर रचना पढ़ पाना नामुमक़िन है... ये जीता-जागता चित्रण हैं देश के उस शैक्षिक तीर्थ का, जहाँ का गौरवमयी हिस्सा होने का अरमान मुझ समेत लाखों लोग मन में पाले हैं।
आशीष:-
कविता सवाल करती है । जे एन यू के जीवन में पसरा अन्तर्विरोध भी दिखाती है । जैसे बिसलेरी की बोतल चुगली कर रही होती है साम्राज्यवाद विरोध का । बात बात पर सैद्धान्तिक सवालों की छाया अगले को निरुत्तर करने की हद तक सिद्धांतनिष्ठ दिखना । क्या जींस और खादी का कुरता साथ में दाढ़ी महज लोकप्रिय वामपंथ की पहचान नहीं रह गया । हम इस कविता के मूलकथ्य से सहमत हूं कि जे एन यू में कितना बचा है जे एन यू । आज हमारे मुल्क जिस तरह की प्रतिक्रिया वादी सोच गद्दी नसीन है । जिस तरह की विचारधारा समाज में पैठायी जारही है उसके प्रतिकार में जे एन यू के बहाने देश में एक नई बहस सामने आ खड़ी हुई है । ऐसे में इह बहस में तथाकथित राष्ट्र वादी अंधदेशभक्ती के विरुद्ध डटना हमरे होने की शर्त है । लेकिन साथ ही यह बात भी होनी चाहिए कि यह परिसर कोई क्रांति का माॅडल नही है । यह पता किया जाना चाहिए कि तमाम प्रगतिशील नौकरशाह . प्रोफेसर देने वाले इस परिसर ने कितने कार्यकर्ता मेहनती अवाम की मुक्ति के लिए जनजीवन से एकाकार हुए । कितने एन जीओ कार्यकर्ता आये जो साम्राज्यवाद विरोध का ककहरा पढ़ते हुए जे एन यू से आये और आगे चलकर साम्राज्यवादी फण्डिंग एजेन्सी से धनउगाहने और जनभलाई का छद्मी उद्यम करते जी रहे हैं ।
मैरे बात को एकतरफ़ा लेने की बजाय फैशनेबुल वामपंथी ताने बाने ने ही सबसे ज्यादा भारतीय वामपंथ का नुक़सान किया है । यह देखना होतो जे एन यू इस का मक्का मदीना है । तमाम संगठनों में कामकरने वाले क्रांति कारी जनपक्षधर साथियों की एकाध किस्त यहां से भी हैं । लेकिन इसकी अन्तर्निहित वस्तु स्थितयों पर भी बात होनी चाहिए ।
रचना जी आपकी कविता अच्छी है क्योंकि अपनी बात पूरी गम्भीरता से सम्प्रेषितकरा ले रही है । खासकर दूसरी कविता अपने प्रतीकात्मकता के साथ साथ समानान्तर तौर पर दूसरी बात लगातार मस्तिष्क में गुंजाती जाती है । इस कविता के निहितार्थ निरपेक्ष नहीं है यही इस कविता की विशेषता भी है और कमजोरी भी । आपके निष्कर्ष मूलक अभिव्यक्ति से सहमत असहमत हुआ जा सकता है । फिर भी !!!!
आशीष मेहता:-
"नामकरण" का मूल विचार मनभावन है। तकनीकी तौर पर यह कविता है या कथन या कुछ और, पता नहीं। पर असरदार है, मन को छूता है। 'कैसी है दुनिया' से हटा कर ध्यान 'कैसी होनी चाहिए दुनिया' के स्वप्न दिखाती है, रचना 'नामकरण'। निदा फाज़लीजी की 'कि बच्चे स्कूल जा रहें हैं ' जैसी पावनता समेटे हुए अपने आप में।
यदि पहली रचना ताजा है तो मौकापरस्त लगी (लगता नहीं कि ताजा है, यह रचना)। 'जेएनयू की लड़की' में से 'जेएनयू' हटा दें, तो भरपूर जीवट, उत्साही एवं युवा ओज से लबरेज रचना मिलती है। नहीं तो, भारतीय आजादी और उसके बाद के दो -चार दशकों के संघर्ष में 'महिला सहभागिता' की अवहेलना सी लगती है, वैचारिक एवं राजनितिक दोनों परिपेक्ष्य में।
बगैर किसी विचारधारा के विश्वविद्यालय के छात्र की नज़र से पढ़ूँ...... या 'वाम-अवाम के अपनी मन:स्थिति पर पड़े दुर्भाव' से परे हो कर पढ़ूँ, तो 'जेएनयू की लड़की' से नजर नहीं हटती। 'स्वतंत्रता के किटाणु' रोचक उपयोग। डा. तिवारी को साधुवाद ।
अंजू शर्मा :-
प्रमोद जी की कविताएँ आज कई दिनों बाद पढ़ी। उनकी कविताओं पर कई बार मंच से टिप्पणी की है और आज यहां लिखते भी दोहराना चाहूँगी, उनकी कविताएँ अपने समय के साथ चलने वाली कविताएँ सजग कविताएँ हैं। जे एन यू दे जुडी पहली कविता हो या दूसरी लड़की वाली कविता दोनों ही एक संस्थान की मूल आत्मा से जोड़ती प्रतीत होती हैं। मैंने जे एन यू से पढ़ाई नहीं की पर वहाँ जाती रही हूँ। कविता पाठ भी किया है। जे एन यू को साकार होते देखा इन कविताओं में। विश्वविद्यालय का सौंदर्यीकरण कविता के रूपक तो कमाल के हैं, तीखे और सटीक। नामकरण कविता पढ़ते हुए पुराने प्रमोद जी याद आये, बहुत उम्दा कविता। हार्दिक बधाई प्रमोद जी, जल्द ही आपका संकलन पढ़ने की इच्छा है तो अभी तक नहीं पढ़ पायी हूँ।
प्रमोद तिवारी-
आप सभी साथियों का हार्दिक आभार।भाई सत्यनारायण जी और रचना जी ने मंच दिया, कृतज्ञ हूँ। कुछ बातें स्पष्ट कर देना उचित होगा। 'जेएनयू की लड़की' कविता काफी पुरानी है, संभवतः 2001 में पटना की एक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। भाई आशीषजी ने बिलकुल सही पहचाना था। इसमें 90 के दशक में ठेठ गांव से जेएनयू पहुंचे युवा का कच्चा अनुभव है जिसे आजादी के बावजूद महिला सहभागिता से ज्यादा उसका शोषण देखने को मिला था। प्रो. (अब नेता भी) आनंद कुमार ने साल 2007 में एक एल्युमिनी मीट करायी थी जिसके कवि सम्मेलन में मुझे भी बुलाया था तब 'जेएनयू' कविता लिखी थी। एल्युमिनी मीट में नास्ट्रेल्जिया होती ही है सो निरंजन दादा से मैं सहमत हूँ। साल 2010 में जब अपना संग्रह प्रकाशन हेतु दिया तो यहाँ मौजूद चारो कविताएँ उसमें शामिल थीं। परंतु आज ये कविताएँ वही अर्थ नहीं दे रहीं जो 10-15 साल पहले दे रही थीं। खास तौर से 'जेएनयू' कविता हालिया घटनाओं के बाद बदल सी गई लगती है। शायद आज इन्हें लिखने बैठूं तो कुछ और ही रूप हो। आपलोगों ने गौर से इन्हें पढ़ा, सराहा, यह मेरे लिए बड़ी बात है। एक बार फिर से सर्व जी (सर्व श्री की तर्ज पर) प्रेरणा, निरंजन, मदन मोहन, रुचि, आलोक, नूतन, सृजन, यामिनी, ओम, विजय, गीतिका, आशीष और अंजु जी, आप सभी प्रियजनों का आभारी हूँ।
आशीष मेहता:-
हार्दिक बधाई प्रमोद साहब। जेएनयू आकर्षित/अभिभूत साथियों ने निश्चित् ही आनंद लिया है आपकी प्रभावी रचनाओं का।
यकीन करें, मुझ से ( जो जेएनयू की लालीमा को को ९ फरवरी से जानने लगें है), साथियों (अगर हैं, तो) ने भी इन कविताओं का भरपूर रसास्वादन किया है।
आपकी साफगोई को सलाम। १०-१५ वर्ष पूर्व लिखी इन कविताओं को आज लिखते तो क्या रूप होता ? मेरे लिए तो यह जिज्ञासा का विषय बन गया है। यदि मन बना पाऐं, समय निकाल सकें, तो जरूर लिखें 'जेएनयू' पर कविता। हम सभी आपकी संवेदनशीलता से पुनः लाभान्वित होंगे। एडमिन तो नहीं हूँ, पर इसे सामूहिक निवेदन ही मानें......एवं स्वीकारें कृपया।
आशीष:-
भाई प्रमोद जी यह कविताएं विगत दस -पन्द्रह साल पुरानी है । यह जानकर सुखद आश्चर्य हुआ। अपने परिवेश को आलोचनात्मक निगाह से देखने पर चीजें पुरानी नहीं पड़ती । इतनी साफ और बिना रागात्मकता के शिकार हुए । यह रचनाएं बहुत कुछ बता देती हैं । आपकी कविता हमारे समय एक पुनर्पाठ के लिए प्रस्तुत हुई और हमारे सामने घट रहे वाकयात के दूसरे पहलु पर विचार करने के लिए प्रेरित करे यह कम बड़ी बात नहीं है । बधाई प्रमोद जी और रचना जी ।
प्रमोद तिवारी:-
साथी आशीष जी, धन्यवाद। मैं कोशिश करूंगा लिखने की पर जरा गुबार बैठ जाए, अक्सर कविता समय लेती है, पकने में, पुष्ट होने में। आपकी भाषिक सचेतनता अच्छी लगी। आपका साथ पाना अच्छा लगेगा।
रचना:-
दोनों ही कविताएँ बहुत ख़ूबसूरत हैं। जिन्होंने जेएनयू की फ़िज़ा में एक पल को भी सांस ली है, वे इनमें उसकी ख़ुश्बू साफ़ महसूस कर सकते हैं। इन्हें केवल बतौर रचना पढ़ पाना नामुमक़िन है... ये जीता-जागता चित्रण हैं देश के उस शैक्षिक तीर्थ का, जहाँ का गौरवमयी हिस्सा होने का अरमान मुझ समेत लाखों लोग मन में पाले हैं।
संतोष श्रीवास्तव:-
बिजूका में jnu पर कई बार चर्चा हो चुकी है। आज उस पर कविताएं भी पढ़ी। सार्थक और अच्छी कविताएं हैं जो आज के मौजूदा समय को दर्शाती है ।।इतनी अच्छी कविताओं के लिए बहुत-बहुत बधाई ।आभार
फ़रहत अली खान:-: बहुत ख़ूब लिखा है कवि ने; ख़ासतौर पर दूसरी कविता बहुत प्रभावित करती है और आज के हालात की अक्कासी करती है।
रूपा सिंह :-
ठीक ठाक कवितायेँ।भाषा बड़ी अनुवादीय लेनिनवादी हो गई है जबकि मुझे लगता है jnu में भारतीय रागात्मकता इतनी अधिक है कि हम सभी जो मध्यमवर्ग से आये हुए स्कॉलर होते हैं अपने अधिकारों को लेकर सतर्क और जागरूक तो किये जाते हैं लेकिन अस्मिता बोध पूरे भारत को साथ लेने का आ जाता है।हम मुद्दों के प्रति अधिक संवेदन शील ही नहीं होते हालातों को बदल देने का माद्दा भी पैदा करते हैं और यह jnu की खासियत है।सिर्फ भाषणों और नारे और जुमले बाजों की दुनिया नहीं है सीने पर ताल ठोके,मैदान में सामने आ खड़े होकर आमने सामने की सत्य की लड़ाई दो दो हाथ कर लेने की हिम्मत रखते हैं।अगर गलत को गलत और सही को सही तेज आवाज में बोलने वाला कोई दीखे तो जान लें वह jnu से निश्चित सम्बंधित होगा।बाकी तो जी सब गूढ़ लिखने वाले और समय पर बगलें झाँकने वाले ही ज्यादा मिल जायेंगे।यह फ़र्क़ है जो jnu से हम सभी पाते हैं।कविताये निश्चित ही अच्छी हैं बेहतर हो जाती जो jnu के उन रागात्मकता का और अहसास देती जिससे हम jnu वाले हमेशा एक अटूट फॅमिली सा फील करते हैं और वैसा ही समाज बाहर जाकर रचने की कोशिश करते हैं।jnu हमें जान से ज्यादा प्यारा है और रहेगा।इसको नेस्तनाबूद करने वालों की मंशा से हमें चाहिए -आज़ादी।लेकर रहेंगे वह आज़ादी।
सभी कविताएं सार्थक और उम्दा है।
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