03 अप्रैल, 2016

कहानी : इस ज़माने में : प्रज्ञा

आइये आज पढ़ते हैं समूह की साथी प्रज्ञा की एक कहानी ।
आप सभी से कहानी पर प्रतिक्रिया अपेक्षित है

कहानी :

"इस ज़माने में"

उस दिन हमेशा की तरह ठीक टाईम से ही कॉलेज पहुंची थी लेकिन स्टाफ रूम में बहुत सारा खालीपन पसरा हुआ था। अखबारों की जगह बदली हुई थी, कमरे के आगे वाले हिस्से में तो फिर भी रौशनी थी पर पिछला हिस्सा जैसे रात के बाद जागा ही नहीं था। और तो और पिछला दरवाजा भी नहीं खुला था जिसके खुलने से न सिर्फ दिन का एहसास होता था बल्कि तेज़ी से भागती ज़िंदगी में एक खुलापन, एक ताज़गी और ढेेेेर सारी हरियाली साथ-साथ नसीब हो जाती थी। कारण खोजते हुए जब जोशी जी के कमरे तक आयी तो मजबूत दरवाज़े पर एक अदना से ताले को पाया।
‘‘ जोशी आज नहीं आया मैडम ’’ अस्थायी कर्मचारी राजपाल ने जल्दी-जल्दी काम निबटाते हुए कहा।  राजपाल केवल सूचना ही नहीं दे रहा था, मुझे लगा उसने चाय की मेरी तलब को पहचान कर जैसे ये इशारा किया कि आज का कोई नया इंतज़ाम कर लो और इस नए इंतज़ाम के रूप में जब कैंटीन का ध्यान आया तो दिल बैठ गया।
औपचारिकता से दी जाने वाली बेस्वाद चाय के बरक्स जोशी जी याद आए ‘,‘मैडम जी नमस्कार। लीजिए आपकी चाय।’’ ‘ये आपकी चाय’ में आपकी बड़ा विशिष्ट रहता क्योंकि इसकी विधि पर मेरा ही कॉपीराइट था। एक बार बता दिया कि क्या चीज़ कितने अनुपात में डालनी है बस उसके बाद सुकून ही सुकून। कॉलेज के सौ से अधिक लागों के स्वाद जोशी जी को बाकायदा याद थे और कभी स्वाद लोगों के मन मुताबिक न भी होता तो ‘आपकी’ पर दिया गया अतिरिक्त ज़ोर सारे संशयों की दीवार गिराकर बस आत्ममुग्ध करने को काफी था। ये ज़रूर था कि जब लोग ठीक मूड में नहीं होते और आत्मरति से परे चीजों को आर-पार देखने की क्षमता से भरे होते तो जोशी जी की चालाकी पकड़ी जाती। आलोचना के गंभीर दौर चलने से पहले ही मुस्कुराते हुए वे बात बदल डालते-
‘‘अरे गलती से शर्मा जी की चाय ले आया। वो आपकी तरह कम चीनी की चाय नहीं पीते न।’’ गलती का यह भोला सुधार दोतरफा काम करता। एक तरफ गुस्से की डिग्री कम हो जाती तो दूसरी तरफ शांत हो चुका आदमी खिसियाकर दूसरे के स्वाद को अपना लेता और जोशी जी की जान छूट जाती। इस तीर से काम नहीं बनते देख वो दूसरा तीर निकाल डालते ‘‘आप छोड़ दो इस चाय को, अभी आपके मतलब की चाय लाता हूं।’’ इन तीरों के अलावा उनके पास ब्रह्मास्त्र भी था जिसका प्रयोग जोशी जी कभी-कभार करते। ‘‘चाय में कोई स्वाद नहीं, कप कितना गंदा है, ओहो ये मलाई क्यों तैर रही है चाय पर , कितनी ज्यादा चीनी है और पत्ती किसके लिए बचा रखी है? ’’ जैसे नखरों से  जब वे परेशान हो जाते तब एक चुप सौ को हराए के अंदाज़ में कमरे से गायब हो जाते। अब ढूंढते रहो उन्हें, जब तक इत्मीनान के कई कश न लगा लेंगे, लौटेगें नहीं। कॉलेज में बहुत कम लोग उनके अड्डे से वाकिफ थे।
आज उस अड्डे की खाक छान आए लोगों ने मान लिया कि अब जोशी जी के दर्शन नहीं होंगे। पहला घंटा बजते ही कई लोग कक्षाओं की ओर बढ़ चले लेकिन बहुत से लोगों की जागृत हमदर्दी ने उन्हें जोशी चर्चा में लीन रखा।ं
‘‘भई ये आदमी तो ऐसा जिन्न है कि एक दिन काम के बिना नहीं रह सकता फिर आज कहां रह गया?’’ हवा में गूंजे इस सवाल के बदले फिर सवाल आया‘‘न ही घर गया है छुट्टी लेकर और न बीमार है। और तो और फोन भी बंद कर रखा है, जाने क्या बात हुई है?’’
फिर एक नई बात और सवाल ...‘‘ और गौर किया आप लोगों ने आज पहली मर्तबा नोटिस बोर्ड पर उसकी छुट्टी का नोटिस भी लगा है। ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ। आखिर माजरा क्या है?’’ 
हमेशा गंभीर मुद्रा अपनाए रखने वाले डॉ. सूरी ने अखबार में सिर गड़ाए हुए ही कहा ,‘‘ अरे गया होगा कहीं। वो भी छुट्टी का हकदार है और नौकरी छोड़कर तो गया नहीं है जो इतनी चिंता कर रहे हो।’’ उनके इस कथन को वहां मौजूद सभी लोगों ने हमेशा की तरह नज़रअंदाज किया क्योंकि उनकी गंभीर मुद्रा में कही गयी कई बातें अक्सर किसी को सम्बोधित नहीं होती थीें इसलिए उन्हें अमूर्त एकालाप मानकर लोगों ने तवज्जो देना ही बंद कर दिया था। बहरहाल जोशी जी आज मंच पर अनुपस्थित रहते हुए भी नायक थे। काश किसी जादुई शक्ति से आज की चर्चा-चिंता को वे सुन पाते तो धन्य हो जाते कि आखिरकार उनकी मेहनत विफल नहीं गयी। 
दिन चढ़ने के साथ-साथ कॉलेज भी रफ्तार पकड़ने लगा। बारह बजे के आस-पास दूसरी पाली के अध्यापकों की आमदरफ्त बढ़ने लगी। जोशी जी उन लोगों की बातचीत में भी शामिल हो गए। अचानक लोगों को चौंकाने वाली एक बात सुनने को मिली और सभी के कान उसी दिशा में लग गये। ‘‘ नहीं आया न वो जोशी आज? आता भी कैसे? अभी इतनी हिम्मत नहीं उसकी जो मुझसे सीधा पंगा ले सके।’’ कॉलेज में हाल ही में स्थायी रूप से नियुक्त हुआ, अधेड़ उम्र की ओर जाता लेक्चरर आते ही ठसकेदार मुद्रा में बोला। सुबह से उलझे हुए मामले को जैसे सुलझने का सिरा मिला।ं भूगोल पढ़ाने वाले फतेह सिंह जो अक्सर बिना किसी काम के व्यस्त रहनेे की आदत के चलते काफी मशहूर थे ,उनका तो जैसे आज के दिन को व्यस्त रखने का पुख्ता इंतज़ाम हो गया। अपनी चिर-परिचित खोजी मुद्रा में वे नए लेक्चरर के पास जा पहुंचे। यों भी उन्हें घटनाओं की तफसील जानने में और लोगों केा फर्स्ट हैंड इन्फार्मेशन देने में गहरी दिलचस्पी थी।
‘‘भई क्या बात हो गई ? क्यूं मिजाज गरम है? जोशी ने क्या कह डाला तुमको?’’ एक ही सांस में कई सवाल पूछने में फतेह सिंह को खासी महारत हासिल है। परम आत्मीयता दर्शाते हुए नए अध्यापक से उन्होंने राज उगवाने की तरकीब भिड़ाई। नया लेक्चरर कॉलेज के लिए ज़रूर नया था पर उम्र का अनुभव उसे भी कुछ कम नहीं था। तिस पर हरेक की बात पर अपनी बात को वज़नदार तरीके से रखना और तेज़ आवाज़ में सबकी बोलती बंद कर देने का एक अजब-सा गुरूर भी उसमें कम नहीं था। यही कारण था कि सीधे -साधे लोग तो उससे बचते  ही थे और तिकड़मी भी उसे नाराज़ करना पसंद नहीं करते थे। पर फतेह सिंह तो मानो इन दोनों श्रेणियों से परे थे। कोई रूठे या माने उनकी बला से। थोड़ी ही देर में सारी तस्वीर साफ होती नज़र आई। दरअसल नया लेक्चरर जोशी जी को एक मामूली नौकर  और छोटा आदमी मानकर हिकारत भरा व्यवहार करने लगा था। ‘‘ आ जाते हैं गांव-देहात से उठकर और पिछड़े होकर भी लगा लेते हैं ‘जोशी’ का दुमछल्ला। सब पता है कौन क्या है। और चढ़ा देते हैं लोग ‘जी-जी’ करके इन्हें। ये धौंस हम पर नहीं चलेगी।’’ जोशी जी के इस जातिसूचक अपमान का कई लोगों ने खुलकर तो कुछ ने दबे स्वर में विरोध भी किया था। 
जोशी जी ऐसे व्यवहार के आदि थे नहीं। अधिकांश लोग उन्हें जोशी जी ही पुकारते थे जिसके चलते नया आने वाला कोई भी आदमी इसी सम्बोधन का अनुकरण करने लग जाता। सीनियर लोग जोशी ज़रूर कहते पर अदब से, कभी-कभी तो हंसते हुए जोशी सर भी पुकारते। कोई मिस्टर जोशी कह देता तो चेहरे पर दंत पंक्ति को छिपाती मुस्कान की लंबी- सी रेखा चेहरे पर चस्पां हो जाती और इसीके साथ उनकी छोटी-छोटी आंखें सिमटकर दो छोटी पंक्तियों में तब्दील हो जातीं। ऐसा लगता जैसे उनके सारे चेहरे में नाक के अलावा केवल तीन पंक्तियां ही हैं। पर नए नियुक्त हुए अधेड़ उम्र के इन  सज्जन ने जब निष्ठुरतापूर्वक जोशी के ‘जी’ की निर्मम हत्या कर डाली और बात-बेबात सार्वजनिक रूप से उन्हें नीचा दिखाना शुरू कर दिया तब जोशी जी भी सचेत हो गए।  अपना काम जीवन भर उन्होंने लगन से किया था और कुछ वर्ष ही बाकी थे सेवानिवृत्ति के, तो दबने का कोई कारण नहीं था। शुरू -शुरू में तो उन्होंने नए लेक्चरर की आदत को बच्चा समझकर नज़रअंदाज किया पर पानी जब हद से गुज़र गया तो जोशी जी ने उसकी शख्सियत को समूचे नकार दिया। कल दंभ में भरकर जोशी से जी भरकर लड़ा और आज उनके न आने को ‘डर गया’ कहता हुआ विजय का सेहरा बांधे घूम रहा था।
कैंटीन की कसैली चाय एक ही पत्ती में और- और पत्ती झोंककर बनायी जा रही थी। फिर डिस्पोज़ेबल कप में चाय का स्वाद भी नहीं आ रहा था। मात्रा कम थी सो अलग। एक ही घूंट में सबको रह-रहकर जोशी जी याद आ रहे थे। चाय की तरह लड़ाई का किस्सा भी तमाम कोनों में घूम रहा था। कुछ को तो इससे जैसे कोई लेना-देना नहीं था पर कुछ इसे बेकार की बात मान रहे थे। बकौल फतेहसिंह  ‘‘ये कोरी बकवास है, जोशी इतनी- सी बात से डरकर बैठ जाए--इम्पॉसिबल।’’ और फिर मानवाधिकार पढ़ाने वाली डॉ. राजश्री ने तो सबके सामने उस नए लेक्चरर को कास्टिस्ट कहकर जोशी की ही तरफदारी की थी। ’’ अब बारी उनकी थी। और किस्सा भी एकदम नया था। ‘‘अरे जोशी कुछ दिन पहले अलमोड़ा से अपने किसी रिश्तेदार को नहीं लाया था यहां लगवाने? वही बात है और क्या?’’ रसज्ञ लोगों ने कान खोल लिए। हिस्टरी पढ़ाने वाली  अध्ययनरत मिस चैतन्या ने आंखें तरेरकर जब फतेह सिंह को घूरा तब जाकर उनका रोमांचित स्वर स्थिर हुआ।
फतेह सिंह का किस्सा चालू था और मुझे नरेंद्र से जुड़ा एक दूसरा ही प्रसंग याद आ रहा था। कॉलेज का सालाना जलसा था उस दिन । सभी मुख्य अतिथि आ गए थे। कर्मचारी भाग-भागकर रह गई तैयारियों को अंजाम दे रहे थे । स्वागत समिति के बच्चे अपनी नृत्य-प्रस्तुति दे रहे थे इतने में जोशी जी का भतीजा नरेंद्र नशे में न जाने कहां से मंच पर चढ़ गया।  उतारने की कई कोशिशें कीे पर वो तो चौकड़ी मारकर मंच पर ही बैठ गया। आयोजन समिति में शामिल शिक्षक हटाने गए तो शिक्षकों से झगड़ने लगा। मामला सुलटाने को जोशी को बुलाया गया तो झगड़े ने दूसरा ही रंग ले लिया। बात मुंह के बजाय हाथ -लात पर आ गई।  कार्यक्रम तो चौपट हुआ ही बीच-बचाव कर रहे कुछ अस्थाई शिक्षक भी शिकार हो गए। एक तो बिना वजह मार-पीट फिर  सीनियर्स की कड़ी नज़रें। पर वो अपना दुख किससे कहते? 
दरअसल जोशी जी अपने भाई के लड़के को अपना सहयोगी बनाकर ले आए थे। चाहत ये भी थी कि लड़का  ढंग की जगह लग जाएगा तो नशा छोड़ देगा और कुछ वर्ष बाद उनकी जगह यही काम संभाल लेगा। वैसे भी अब स्थायी नियुक्तियों का ज़माना लद रहा था और जहां देखो अस्थाई श्रमिक ही काम पर  लगाए जा रहे थे। जोशी जी के सम्मान की एक वजह उनका स्थाई नौकरी पर होना भी था। कई बार स्टाफ रूम में ही आहत स्वर में कहते ‘‘मैडम जी  साफ-सफाई के काम पर रखे ये नए लड़के क्या जाने पक्की नौकरी का सुख। ये तो आज यहां कल कहा कौन जाने।...और इन पढ़े-लिखे लड़के-लड़कियों को ही देखता हूं जो सालों से पक्के नहीं हो रहे तो बड़ा तरस आता है। न जाने कब पक्के होंगे? कब शादी-ब्याह होगा? कब बाल-बच्चे?’’ वाकई अस्थाई शिक्षकों और कर्मचारियों सभी की स्थिति एक समान थी।
  जोशी जी जिस लड़के को लाए थे वह उनके जितना मेहनती न था। एक बार उसके हाथ की चाय पीकर हर कोई जोशी जी को पुकारता-‘‘ अरे जोशी जी नरेंद्र को कई साल लग जाएंगे आप जैसा बनने में’’-संकेतों में ही लोग अपने मन की बात कह ही डालते।  नरेंद्र का तो एक ही मंत्र था- ‘बने रहो पगला काम करेगा अगला’ फिर उसने जोशी जी का नाम भुनाकर कुछ लोगों से उधार मांगना शुरू कर दिया जिसको लौटाने की उसकी मंशा नहीं थी। जाहिर है जब उधार जोशी जी के नाम से मांगा जा रहा है तो लौटाने की ज़िम्मेदारी जोशी जी की समझकर लोग निश्चिंत हो गए। पर ये बात जोशी जी के कान में जैसे ही पड़ी उन्होंनंे साफ कहा ‘‘ आप नरेंद्र को उधार मत दो। और दो तो मैं जिम्मेदार नहीं हूं।’’ इसके बाद नरेंद्र, जोशी की सारी भलमनसाहत भूल गया और कल शाम नशे में जोशी से भरे स्टाफ रूम में गाली-गलौंच करने लगा।  जोशी जी काफी शर्मिंदा थे और उस घटना के बाद उन्हें किसी ने नहीं देखा था। फतेह सिंह का किस्सा वज़नदार था और विश्वसनीय भी। सब विश्वास कर ही लेते अगर गणित पढ़ाने वाली मिसेज़ अवस्थी ने हस्तक्षेप नहीं किया होता। सौम्य व्यक्तित्व वाली विदुषी डॉ.अवस्थी ने कहा ‘‘दरअसल बात इतने व्यक्तिगत स्तर की नहीं है जितनी आप लोग समझ रहे हैं। ये ज़रूर है कि जोशी इन सब कारणों से दुखी और परेशान है आजकल। मैं ही नहीं डॉ. सुरेखा, डॉ. बनर्जी और अभिजीत सभी को तो अंदाज़ा था इसका।
हम सबको हैरत में डालने वाले जिस तथ्य को डॉ. अवस्थी ने उजागर किया वो ये था कि ‘‘कॉलेज में कुछ महीनों पहले कई लोगों ने चाय के विकल्पों की बात उठायी है। कुछ ने तो चाय की ज़रूरत को ही नकार दिया है, जिसके चलते जोशी जी की ज़रूरत समाप्त सी होने वाली थी। ‘‘गर्मी में यूं भी चाय कोई पीता नहीं और सर्दी में कैंटीन से प्रबंध हो ही जाएगा।’’ किसी का नाम लिए बिना मिसेज़ अवस्थी ने हवाला दिया।  ‘‘जोशी को ये बात पता  चल गई थी या बता दी गई थी। पर फिलहाल जोशी जी का कोर्इ्र्र्र्र्र्र्र्र्र्र नुकसान नहीं होना था लेकिन आने वाले चंद वर्षाें में उनके स्थान पर अस्थाई कर्मचारी भी नहीं रखा जाएगा--यही बात उन्हें परेशान कर रही थी।’’ उसने मिसेज़ अवस्थी से कहा भी ‘‘ एक अलमोड़ा ही नहीं हर जगह अशिक्षित या अर्द्धशिक्षित  और अब तो शिक्षित बेरोज़गार भी ऐसी नौकरी की तलाश में रहते हैं। अस्थाई कर्मचारी की मांग भी खत्म! ये कैसा माहौल है? वे समझ नहीं पा रहे थे कि कैंटीन के कर्मचारी सबके मनमाफिक चाय कैसे बनाएगें और कैसे वो चाय उनके प्यार का विकल्प बन पाएगीै जो जोशी जी  चाय के साथ परोसते हैं? या इसकी किसी को ज़रूरत ही नहीं?’’
मिसेज़ अवस्थी के इस रहस्योद्घाटन पर कुछ लोग चौंके ‘‘ भई जोशी क्या केवल चाय ही बनाता है? आज उसकी तनख्वाह इतनी भारी पड़ रही है? उतनी ही तनख्वाह में वो कॉलेज में आए हमारे तमाम खत हम तक पहुंचाता है, छुट्टी की अर्ज़ी देने से लेकर लाइब्रेरी, ऑफिस आदि के काम, बैंक में चेक डालना , अस्थाई कर्मचारियों से स्टाफ रूम की सफाई करवाना और तो और विभागीय बैठकों में बाज़ार की अच्छी दुकान से मिठाई -समोसे से लेकर पान-सिगरेट सभी की फरमाइशों को हंसते-हंसते पूरा करने का काम वो बिना तनख्वाह लिए करता है। कभी सोचा है कितने ठाठ से जी रहे हैं हम उसके भरोसे? करवा के देख लेना अगले किसी आदमी से ये सारे काम?’’ डा.ॅ वर्मा के इस कथन ने अचानक जोशी जी की कर्मठ मुद्रा को मूर्त कर दिया। पर इस मुद्दे को कुछ लोगों ने  अगंभीर मानकर, कुछ ने समय पर छोड़कर तो कुछ ने डॉ. वर्मा की बात को एक राजनीति मानकर खुद को उससे दूर कर लिया। जो थोड़े से लोग उनसे सहमत भी थे वे स्वर अलग-थलग दिशाओं में तो थे पर समवेत नहीं थे।    
दिन के आखिरी दो पीरियड बाकी थे। सुबह आने वाले अब जाने की तैयारी में थे और जिन्हें रूकना था वो इत्मीनान से बैठे थे।‘‘ अरे-अरे संभालकर, गिराएगा क्या? मंहगा सामान है कोई खिलौना नहीं है। आंख खोलकर चल और मजबूती से पकड़। पैर जमाकर रख। कोई गड़बड़ हुई तो नुकसान तू भरेगा। अबे! ध्यान से दरवाजा देखकर...’’ अचानक कुछ लोग दो नई पैकिंग के वज़नदार डिब्बों के साथ कमरे में दाखिल हुए। पीछे-पीछे एक आदमी  लंबे से पाइप को कंधे पर डाले और डस्टबिन जैसी कोई चीज लिए चला आ रहा था। हम सब हैरत में पड़ गए। जिज्ञासा भी थी आखिर क्या है इन डिब्बों में? डॉ.वर्मा ने स्टाफ एसोसिएशन के सेक्रेटरी से आंखों ही आंखों में पूछ डाला -‘‘क्या मंगाया गया है?’’ जिसका उत्तर उन्होंने कंधे उचकाकर दिया। स्टाफ रूम में रहस्य का माहौल बन गया। कॉलेज केयर टेकर ने जोशी जी के किचन का दरवाज़ा खोला तो लगा शायद नए मग, बर्तन का स्टैंड आदि सामान आया होगा जो अक्सर आया करता है। पर इतने बड़े बक्से में ? और वो भी दो-दो? सबका ध्यान वहीं लग गया। आखिर डिब्बे खोलकर दो चमचमाती वेंडिग मशीनें निकाली गईं। एक चाय के लिए और एक कॉफी के लिए। दूसरे डिब्बे में फिटिंग संबंधी कुछ सामान और डिस्पोज़ेबल कप्स थे। खटखट की ध्वनि के साथ दीवार पर हथौड़ा बजा और फिर गिर्र-गिर्र करती ड्रिल मशीन चलने लगी। दीवार पर मशीनें टांगी जा रही थीं। दीवार में तेज आवाज के साथ निर्ममता से सूराख करती जा रही ड्रिल मशीन जैसे जोशी जी के मन में घिर आए बड़े-से शून्य को उजागर करती जा रही थी। 
इस शोर में और बहुत-सी आवाजें़ दबे-मुखर स्वर में शामिल थीं-‘‘ जोशी तो सिर्फ चाय बनाता है और वेंडिग मशीन से चाय-कॉफी दोनों की सुविधा होगी। फिर नए लोग चाय नहीं कोल्ड डिंªक, जूस और शेक पीना चाहते हैं। हमारी मांग है कि एक नया फ्रिज खरीद लिया जाए और कैंटीन वाले को रोज़ का हिसाब बता दिया जाए कि क्या लाना है । कमीशन कंपनी उसे दे ही देगी। इस तरह जोशी की तन्ख्वाह भी बचेगी और अपनी पसंद के पेय भी मिलेंगे। और चाय जिसे पीनी है उसके भी मज़े। उठो और खुद अपनी पसंद की चाय बनाओ। और रही बात मशीन की तुलना में जोशी के प्यार की तो भाई सुना नहीं है ‘प्यार से क्या पेट भरता है?’ और प्यार-व्यार की ज़रूरत किसे है इस ज़माने में? प्यार... वो भी किससे ?... बी प्रोफेशनल। सीधी और साफ बात-कम लागत अधिक मुनाफा।’’
अगले दिन सुबह कॉलेज पहुंची तो धूप सुबह से ही चढ़ आई थी। गाड़ी पार्क कर जैसे ही बाहर आई तेज़ गर्मी का एहसास हुआ। पीछे से आवाज़ आई- ‘‘मैडम जी नमस्ते’’। 
पीछे मुड़ी तो पसीने से तरबतर कमीज़ में जोशी जी पार्किंग में ड्यूटी करते दिखाई दिए।

प्रस्तुति- तितिक्षा

रचनाकार परिचय

नाम- प्रज्ञा
शिक्षा-दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में पीएच.डी ।

प्रकाशित साहित्य -
कहानी संग्रह- ‘तक़्सीम’(2016)
नाट्यालोचना-‘नुक्कड़ नाटक: रचना और प्रस्तुति’ राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से 2006 में प्रकाशित । वाणी प्रकाशन से  नुक्कड़ नाटक-संग्रह ‘जनता के बीच जनता की बात’,2008 ।‘नाटक से संवाद’ अनामिका प्रकाशन, 2016 ।
बाल-साहित्य- ‘तारा की अलवर यात्रा’, एन. सी . ई. आर. टी से 2008।
सामाजिक सरोकारों  को उजागर करती पुस्तक- ‘आईने के सामने’, 2013

कहानियाँ
कथादेश, वागर्थ, पाखी, परिकथा, जनसत्ता, बनासजन, वर्तमान साहित्य, पक्षधर, निकट, हिंदी चेतना, जनसत्ता साहित्य वार्षिकी सम्प्रेषण, हिंदी चेतना, अनुक्षण आदि पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रकाशित।

पुरस्कार -
सूचना और प्रकाशन विभाग, भारत सरकार की ओर से पुस्तक ‘तारा की अलवर ’यात्रा ’को वर्ष 2008 का भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार।
प्रतिलिपि डॉट कॉम कथा -सम्मान, 2015, कहानी ‘तक़्सीम’ को प्रथम पुरस्कार।
सम्प्रति- एसोसिएट प्रोफेसर, किरोड़ीमल कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय।
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टिप्पणियाँ:-

आशीष मेहता:-
प्रज्ञाजी को साधुवाद एवं बहुत बहुत बधाई। कहानी कुछ कठिन एवं सरल मानवीय व्यवहार तथा मूल्यों को, सहजता से टटोलती है। किस्सागोई उत्कृष्ट स्तर पर मिली इस कहानी में।

कुछ पंक्तियाँ बेहद प्रभावी रहीं, पाठक को सहज भाव से जोड़ने में। "निष्ठुरतापूर्वक जोशी के 'जी' की निर्मम हत्या कर ..." / "एक ही घूंट में सबको रह रह कर जोशीजी याद आ रहे थे"। अच्छी कहानी।

इस कहानी ने एक पुरानी पंक्ति याद दिला दी : इस रंग बदलती दुनिया में क्या तेरा है, क्या मेरा है.... हर शाम के बाद सवेरा है।

प्रफुल्ल कोलख्यान:-
प्रज्ञा रोहिणी की कहानी निजी अनुभव की बारीक बुनावट के साथ "गुड्स एंड सर्विसेज" के मशीनी और मानवीय अंतर्विरोधों और अंतर्विरोधों के माध्यम से हमारे अंतःकरण के सिकुड़ते जाने का सार्वजनिक और मार्मिक संकेत है। अब संकेत तो संकेत है और कहानी तो कहानी! संकेत और कहानी के उपरांत जो बचता है उसके कई समाज आर्थिक पहलू हैं जिन पर अपने अपने तरीके से विचार किया जा सकता है, निष्कर्ष निकाला जा सकता है और कहानी का सूत्र पकड़ पाठक खुद को किसी-न-किसी दिशा में बहुत आहिस्ता-आहिस्ता और बिना किसी शोर के हिलता हुआ हासिल कर सकता है। भीष्म साहनी कहते थे कथाकार घटना को गल्प में बदलता है मुझे लगता है पाठक गल्प को अपने निजी या कभी - कभी आयातित अनुभव के आइने में उसे घटना के रूप में हासिल करता है। कथाकार का यह कौशल होता है और चुनौतियाँ भी कि वह अपनी विचारधारा के दबाव से रचना को यथासंभव बचाये रख सके ताकि वैचारिक विरुद्धता के लिए भी रचना में इतना स्पेस रह सके कि असहमति के मुँह से भी आह निकले, रचना का प्रभाव वाह से परिमित न हो जाए। अभी तो इतना ही और हाँ, बधाई भी।

वनिता बाजपेयी:-
बहुत अच्छी कहानी । मशीन और मनुष्यता , आज बढते एकाकीपन का कारण यही है । परिवार से लेकर संस्थानों तक अब मशीने ही हैं और उसके बीच मशीन बनता आदमी।

उत्पल:-
इसी समस्या के बरक्स ऋत्विक घटक ने अपनी फिल्म अजांत्रिक में यांत्रिकता के भीतर मनुष्यता की तलाश की थी। वह दरअसल मनुष्यता ही है जो यांत्रिकता के बावजूद मनुष्य में संवेदनाओं को जिंदा रखती है। प्रज्ञा रोहिणी जी को बधाई।

आशीष मेहता:-
प्रफुल्लजी का व्याख्यान सुहा रहा है ।
व्यक्तिगत तौर पर मैं कहानी को 'मशीन-मनुष्य' या एकाकीपन से नहीं जोड़ पा रहा हूँ। बदलते रहना, वक्त (जमाने) का प्रारब्ध है। प्रज्ञाजी का अपनी रचना पर प्रकाश डालना रोचक रहेगा।

कैलाश बनवासी:-
प्रज्ञा जी को पहलीबार पढ़ रहा हूँ. जोशी जी के साथ उन्होंने कई संदर्भों को जोड़ दिया है.कॉलेज का अध्यापकीय माहौल/ उनकी जहिनयत पाठकों के लिये नयी नहीं हैंइसलिये नयी उत्सुकता नहीं जाग पाती.प्रफुल्ल जी ने संकुचित होते हृदय के आयतन की चर्चा ठीक ही की है जिसके हम तेजी से आदी होते जा रहे हैं.अच्छी कहानी होने के लिये इसे कुछ कसावट की दरकार लगती है. बधाई प्रज्ञा जी.

राहुल सिंह:-
प्रज्ञा जी की कहानी आज पढ़ी। नाट्य-रूपांतरण के लिए सटीक रचना है, यह कहानी के बिच में ही एहसास हो गया था। 'जोशीजी' का पात्र पूरी कहानी में सशरीर मौजूद न होकर भी अन्य पात्रो पर हावी रहता है और एक जिज्ञासा निर्माण करता है, अंत तक। जोशी जी को पार्किंग में नौकरी करते बताये जाने की कोई जरुरत नहीं लगती, पूंजी के निर्मम चक्र में उनका गायब हो जाना ही कहानी के उदेश्य को शक्ति से स्थापित कर चूका था।
बेहतरीन कहानी

परमेश्वर फुंकवाल:-
अच्छी कहानी। हमारे आसपास बिखरे एसे जाने पहचाने लोगों की कथा जिनका अस्तित्व उनके जाने के बाद ही पता चलता है। कहानीकार को बधाई।

फ़रहत अली खान:-
बहुत ही ख़ूबसूरती से लिखी गयी दिल को छू लेने वाली कहानी है 'इस ज़माने में'। इसमें शक की कोई गुंजाईश नहीं है कि प्रज्ञा जी एक बेहद निपुण अफ़साना-निगार हैं; यही वजह है कि हरेक जुमला अपने अर्थ के साथ कुछ न कुछ नया-पन भी लिए हुए मालूम होता है; और यही वो गुण हैं जो कहानी की रोचकता और मनमोहकता में और इज़ाफ़ा करते हैं। मेरी ओर से बधाई।                                               कहानी से मुझे एक प्राइवेट तकनीशियन की याद आ गयी जो यहाँ बीएसएनएल, मुरादाबाद में कुछ साल पहले तक अपनी कार्य-कुशलता और निपुणता के लिए मशहूर था और इस क्षेत्र में तरक़्क़ी पर था, मगर आज महज़ एक ड्राईवर के तौर पर काम कर रहा है। हालाँकि इसके पीछे कारण ख़ुद उसकी ही कुछ ग़लत आदतें रहीं।

अशोक:-
शिक्षा जगत की पृष्ठभूमि में सामान्य, उपेक्षित चायवाले की मनोदशा को उकेरती कहानी बहुत अच्छी बन पड़ी है.
बधाई.

अंजनी शर्मा:-
कहानी रोचकता और प्रवाह से युक्त है.....
जोशीजी का शब्दचित्र बडी ही खूबसूरती से उकेरा गया है.....
कहानी ने एक शाश्वत समस्या याने कि .....रिप्लेसमेंट.....को बडी गहराई से छुआ है....
मनुष्य का मशीन से रिप्लेसमेंट....
भावनाओं का व्यवहारिकता से रिप्लेसमेंट....

अच्छी कहानी है प्रज्ञा जी.....
 
सुवर्णा :-
प्रज्ञा जी बढ़िया कहानी। सधी हुई, कथ्य शिल्प हर तरह से उत्कृष्ट। आनन्द आया पढ़ने में। आज के समय को और आज की समस्याओं को दर्शाती बढ़िया कहानी

किसलय पांचोली:-
मैंने कहानी देर से पढ़ी। उसने मुझे प्रभावित किया।
ऐसे न जाने कितने कथानक आसपास बिखरे पड़े होते है। कदाचित उनका भी भाग्य होता है कि वे किस की कलम से कहानी में रूपांतरित होंगे।
चाय वाले जोशी जी इस मामले में भाग्यशाली निकले कि उन्हें प्रज्ञाजी की कलम ने साधा। और क्या खूब साधा।
एक सांस में पूरी कहानी मोबाईल पर पढ़ने को विवश कर दिया। अच्छी कहानी के लिए साधुवाद।

प्रज्ञा:-
आप सभी मित्रो का आभार। इस कहानी को आपने पढ़ा और टिप्पणी की। रचना जी, फ़रहत, परमेश्वर जी वासु जी सुषमा जी और सभी का आभार। गरिमा जी आपकी प्रतिक्रिया का आभार। तितीक्षा जी इस कहानी को आपने साझा किया और बिजूका पर जोशी जी जैसे किरदार की कहानी को रखकर क्रूर अर्थतन्त्र और बाज़ार की अंधी दौड़ में खत्म की जा रही मनुष्यता के सच को देखा। जी फ़रहत जी हमारे इर्द गिर्द बहुत सामान्य साधारण लोगों की बड़ी दुनिया है और उसके सच अनेक सवाल खडे करते हैं।

रचना जी , स्वाति जी,प्रगति जी,अशोक जी, सुवर्णाजी , रेणुका जी, कुंदा जी अल्काजी,अंजनी जी
और कथा अग्रज प्रियदर्शन जी और हमनाम प्रज्ञा जी आप सबका आभार।

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