आज, जबकि शनि शिंगणापुर मंदिर के ट्रस्ट ने अपनी अतिशय उदारता का परिचय देते हुए चार सौ साल पुरानी परंपरा को तोड़कर महिलाओं को मंदिर के गर्भ गृह में प्रवेश और पूजा की अनुमति प्रदान कर उन्हें कृतार्थ किया है, समूह के एक साथी का यह लेख अनायास ही प्रासंगिक हो गया है।
कृपया इसे पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया दें कि क्या वास्तव में देश के सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक आडंबर इस क़दर बेपर्दा हो चुके हैं कि साधारण जनमानस भी इनकी अधोगति का सहज पूर्वानुमान लगाने में सक्षम है! आप सुधिजनों से एक गंभीर विमर्श की अपेक्षा है
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"शनि शिंगणापुर और हाजी अली में प्रवेश पर महिलाओं के संघर्ष का सच"
-- संजीव खुदशाह
सन 1645 के आस पास शिंगणापुर गांव के पारस नाले में एक शिला बहकर आई और एक दिवा स्वप्न के आधार पर उस शिला को शनि के रूप में पूजा जाने लगा जो बाद में शनि शिंगणापुर के नाम से प्रसिध्द हुआ। इसी प्रकार स्वप्न को आधार बताते हुए मूर्ति मिलना, उस पर मंदिर निर्माण होना भारत में कोई नई घटना नहीं है, सत्यकथा एवं टीवी चैनलों में ऐसे समाचार आते रहते हैं। शनि शिंगणापुर इस लिए चर्चा में नहीं है कि उसकी शिला किसी पारस नाम के नाले में मिली, बल्कि वह इस वजह से चर्चा में है क्योंकि उसकी पूजा करने की चेष्टा एक महिला ने की है। चर्चित होने का कारण भी किसी आश्चर्य से कम नहीं, उस पर भी चर्चा का मुद्दा ये.... कि बराबरी के लिए महिलाएँ शनि मंदिर में प्रवेश का प्रयास करना चाहती हैं। जो अधिकार उन्हें संविधान ने दिया है। कोई ये नहीं बता रहा है कि देश में उससे भी प्राचीन शनि मंदिरों में महिलाओं के प्रवेश -पूजा पर कोई रोक टोक नहीं है।
ठीक यही कहानी हाजी अली दरगाह की भी है। पूरा देश जानता है कि ज्यादातर दरगाह में महिलाओं का प्रवेश एक आम बात है। मगर इसके पहले यह जानना दिलचस्प है कि दरगाह के संचालकों ने इस बात की साफ अनदेखी की है कि अजमेर शरीफ का बहुचर्चित दरगाह- जहाँ पर हिंदू और मुसलमान, दोनों लाखों की तादाद में हर साल पहुंचते हैं- वहां पर ऐसी कोई पाबंदी कभी नहीं रही है और न ही मुंबई के माहिम में स्थित मखदूम शाह की दरगाह पर ऐसा कोई प्रतिबंध है। यहाँ बनी मजार तक महिलाएं बिना रोक-टोक पहुंचती हैं। लेकिन हाजी अली दरगाह में महिलाओं को प्रवेश पर पाबंदी है। कुछ मुस्लिम महिलाएँ प्रवेश हेतु आंदोलन कर रही है। यहाँ भी मुद्दा वही बराबरी का है। मजेदार बात ये है की दोनों संघर्ष एक ही समय में चालू किये गये। दोनो संघर्षो में कुछ समानताएं भी है।
शनि शिंगणापुर की घटना को कतिपय प्रगतिशील हिन्दु इसे महिलाओं का ऐतिहासिक आंदोलन बता रहे हैं। वे कहते हैं कि महिला अपने हक के लिए लड़ रही है। वे उनकी पीठ थप-थपाने का कोई भी मौका हांथ से गंवाना नहीं चाहते।
दरअसल शनि शिंगणापुर में इस आंदोलन से पूर्व एक रोचक घटना घटी। एक महिला ने 28 नवंबर 2015 को शनि चबूतरे पर चढ़कर शनि की पूजा अर्चना की थी। CCTV फुटेज से ये मामला सामने आया और विवाद बढ़ने लगा। मंदिर ट्रस्ट ने अपने सेवादारों को निलंबित कर दिया और ये माना की शनि शिला अशुध्द हो गई। दूसरे दिन कई टन दूध से उस मंदिर को धोकर पुन: अभिषेक किया गया। यह भारत की हिन्दू महिला के लिए सबसे शर्म का दिन था। यहाँ बताना अत्यंत जरूरी है कि 28 नवंबर को महात्मा फुले की पुण्यतिथि भी है। प्रश्न उठना लज़मी है कि क्या वह महिला महात्मा फुले के विचार से प्रेरित थी। या ये सिर्फ एक इत्तेफ़ाक है!
दरअसल जो लोग महात्मा ज्योतिबा के विचार से परिचित हैं, वे जानते हैं कि ज्योतिबा ने समानता के हक के लिए कभी भी मंदिर जाने की बात नहीं कही, वे समानता के लिए स्कूल जाने की बात कहते थे। शनि शिंगणापुर मंदिर प्रवेश को लेकर आंदोलन कर रही भूमाता ब्रिगेड की मुखिया श्रीमती तृप्ति देसाई के बारे में बता दूँ कि वे अन्ना की शिष्या है और अन्ना के विभिन्न आंदोलनों में उनके साथ देखी गईं। वैसे उनका खास बौध्दिक बेकग्राउण्डक क्या है, बताना कठिन है। लेकिन ऐसे वक्त ,जब छत्तीसगढ़ में सी आर पी एफ के जवानों द्वारा आदिवासी महिलाओं के स्तन निचोड़कर यह देखा जा रहा है की वे शादी शुदा है या नहीं, जब हर घंटे एक दलित महिला के साथ बलात्कार हो रहा हो, द्रोणाचार्य रूपी व्यवस्था द्वारा छात्र रोहित का गला घोटा जा रहा हो, ऐसे समय इन मुद्दों पर मौन रहते हुए कुछेक महिलाओं का मंदिर मजार प्रवेश हास्यास्पद लगता है। उस पर भी इलेक्ट्रानिक मीडिया द्वारा इन्हें हाथों- हाथ लेना प्रायोजित जैसा प्रतीत होता है। ऐसा लगता है कि मंदिर प्रवेश का आंदोलन दरअसल मुख्य मुद्दे से ध्यान हटाने की कोशिश मात्र है। ताकि रोहित वेमुला, आदिवासी महिलाओं, दलितों, अल्पसंख्यकों के मुद्दों से ध्यान भटकाया जा सके। क्योंकि मंदिर आंदोलन इससे पहले भी हो चुके है, खुद डॉ अंबेडकर ने दलितों, शूद्रों के लिए मंदिर प्रवेश आंदोलन किया था.. लेकिन मकसद पूजा नहीं ,समानता का था। दरअसल डॉ अम्बेडर, महात्मा फूले जैसे तमाम समतावादी विचारक यही मानते थे कि जो धर्म तुम्हें नीच और पतित कहे वो तुम्हारा हो ही नहीं सकता। तुम उसका बहिष्कार करो। यदि भू माता ब्रिगेड की महिलाएँ किसी वैचारिक आंदोलन से प्रेरित होतीं, तो इस व्यवस्था का बहिष्कार करतीं। लेकिन वे मंदिर प्रवेश एवं पूजा का अधिकार चाहती हैं। जिसे प्रवेश उन्हे प्रायोजित कार्यक्रम के अनुसार देर-सवेर दिया जाना ही है। वैसे भी बढ़ती वैज्ञानिकता और समतावादी विचारधारा ने महिला वर्ग को जागृत किया है। ऐसे वक्त अपनी तुच्छ परंपराओं को जीवित रखने के लिए प्रवेश देना उनकी मजबूरी है।
बेहतर होता महिलाएँ अपने मानव होने के अधिकार को मांगतीं, उनके स्पर्श से अशुध्द होने वालों का बहिष्कार करतीं, वे उन ग्रंथों पर प्रतिबंध लगाने की माँग करतीं जो उन्हे नरक का द्वार कहते हैं, पशु का दर्जा देने हैं। वे ऐसी किताबों को मानने से इनकार करतीं जो उसे इद्दत की मुद्दत तथा हलाला के लिए मजबूर करतीं।
(प्रस्तुति -बिजूका समूह)
टिप्पणियाँ:-
आलोक बाजपेयी:-
समाज सुधार महिलाओं की बेहतरी दलित प्रश्न और तमाम सामाजिक आर्थिक मुद्दों पर संघर्ष के लिए अंबेडकर फुले पेरियार और अन्य लोगों के नाम लिए जाते हैं लेकिन गांधी का नाम उसी शिद्दत से अब नहीं लिया जाता। जबकि गांधी ने इन सभी मुद्दों को राष्ट्रीय बहस के केंद्र में स्थापित किया और सघन संगठित संघर्ष किये। यदि इन सब मामलो पर बात करते हुए गांधी का नाम भी जोड़ा जा सके तो हमें बहुत प्रभावी अन्तर्दृष्टिया मिल सकती हैं और एक समग्र समावेशी संघर्ष में मदद भी मिल सकती है।
आशीष मेहता:-
लेखक (खुदशाहजी) से आंशिक तौर पर सहमति बनती है, कि शिग्नापुर और हाजी अली मामले प्रायोजित हों। हालांकि, मैं व्यक्तिगत तौर पर दोनों 'तथाकथित' ऐतिहासिक आंदोलनों और जुड़े तथ्यों को follow नहीं कर पाया हूँ, पर आज के राजनैतिक शून्यता के समय में 'यह सब' प्रायोजित हो तो आश्चर्य न होगा।
पर, लेखक के आह्वान (आखरी पैराग्राफ) में भी 'अवाँछित प्रायोजन' स्पष्ट झलक रहा है, जो किसी गंभीर विमर्श की पृष्टमभूमि तैयार नही कर रहा।
स्त्री-पुरुष बराबरी का झगड़ा ही झूठ है, छलावा है। 'शारीरिक बल' के भेदभाव के अलावा प्रकृति ने, बेहतर गुण बक्शे हैं, स्त्री को।
दूसरा, 'यौनिक अपराधों' को स्त्री विमर्श/समानता के साथ घालमेल करना कुछ गलत लगता है (मै 'देवदासी' जैसी गलत प्रथाओं की बात नही कर रहा हूँ।) स्त्री को बल दीजिए, आत्म-रक्षा कौशल/ हथियार दीजिए, फिर देखिए "पौरुष्य" के हाल। बलात्कार जैसे घृणित कर्म हेतु भी 'बल' जुटाने के लिए 'सामूहिकता' का सहारा चाहिए 'बलवान पुरुष' को।
खैर........, आज स्त्री उन्नति को भारतीय परिस्थितियों में जितना भी देख पाते हैं, उसका कारण उनका 'शिक्षा-जनित सामर्थ्य एवं आर्थिक स्वतंत्रता' है। न तो मैं बढ़ती वैज्ञानिक सोच, न ही 'समतावादी' प्रभाव को देख पाता हूं, समाज में।
स्त्री अशुद्ध, दलित अशुद्ध वाकई शर्मनाक है। न सिर्फ हिन्दु स्त्री/समाज के लिए, वरन अन्य सभी के लिए भी। प्रतीकात्मक तौर पर ही सही दो-चार मन्दिरों में स्त्री को, दलित को प्रवेश मिले (या लड़कर लिया जाय) तो यह सकारात्मक ही है 'समतावाद' के लिए। हाँ, मेरे मुद्दे को 'उसने' भुना लिया का दर्द (अगर है, तो) बड़ा उद्देश्य प्रतीत हो रहा है, इस लेख का।
मैं तृप्ति देसाईजी को नहीं जानता, पर सचेतन रूप से लेखक ने उनकी 'बौद्धिकता' पर जिज्ञासा जाहिर की है, सो, मुनासिब समझता हूँ कि एडमिन मैडम से सखेद निवेदन करूँ कि "बौद्धिकता के अभाव" में कोई गंभीर विमर्श या तर्क नही रख पाया हूँ। "ढाई आखर" को मानने वाला हूँ, सो रियायत दें।
पिछले हफ्ते डा लुणावत की वाजिब अपील "बौद्धिक ज्वार" तले दब गई थी। इस हफ्ते समूह की "बौद्धिक सम्पदा" के पास फिर मौका है, मुद्दे की विवेचना 'ईमानदारी' और सरलता- सुगमता से करने का।
एक गम्भीर प्रश्न (मेरे लिए तो) जरूर उपजा है लेख पढ़ कर। शायद, डा लुनावत ही कुछ रोशनी डालें। 1645 के 'नाले', 1945 के और 2015 के नालों में क्या समानता है ?
जय:-
कांख भी ढंकी रहे और मुट्ठी भी तनी रहे की बेईमान कवायद से दूर संजीव खुदशाह ने बहुत सही अपील की है लेखान्त में । मैं उनके इस नैतिक साहस की शंसा करता हूँ । मार्क्स ने धर्म को ठीक ही अफीम कहा है। यह पितृ सत्ता के हाथो एक ideological औज़ार भर है पितृ सत्ता को जस्टिफाई करने के लिए । धर्म चुकी गहरी जड़े जमाये है इसलिए उसपर प्रत्यक्ष चोट counter productive हो सकता है । इसलिए उससे कैसे लड़ा जाये यह बहस का मुद्दा है ।मगर धर्म से लड़ाई अनिवार्य है अगर स्त्री मुक्ति होनी है
रचना:-
ठीक कहा जय जी। स्त्री मुक्ति के भय से पितृसत्तात्मक समाज ने जो अनेक हथियार बनाए, उनमें धर्म सबसे अधिक सशक्त और प्रभावशाली रहा।
आलोक बाजपेयी:-
धर्म का अधिक सम्बन्ध अज्ञानता और प्रकृति की घटनाओ और प्रक्रियाओं को finally न explain कर पाने की विफलता में छुपा है। पितृसत्ता का मुख्य आधार महिलाओं की आर्थिक निर्भरता है जिसमे समस्त संसाधनों और उत्पादन पर पुरुष एकाधिकार है। धर्म इसमें मदद अवश्य करता है ।
रचना:-
जी, आलोक जी। लेकिन आर्थिक निर्भरता का नियंत्रण भी धार्मिक मान्यताओं के ही हाथ में रहा न... कि किस धर्म में महिलाओं को घर की दहलीज़ लाँघने की इजाज़त है, परपुरुष से बात करने की इजाज़त है, स्त्री शिक्षा का अधिकार आदि। इस तरह धर्म की रूढ़ियों हर प्रकार की आत्मनिर्भरता के आड़े आईं ही हैं।
आशीष मेहता:-
जय भाई, बेशक धर्म (कर्मकांड, शुद्ध -अशुद्ध, पोथे पोथियों) के विरुद्ध आह्वान जरूरी है। सामान्यत: शहरी घरों में सकारात्मक बदलाव हैं। सामाजिक तौर पर 'खण्डित ही सही' दिखता है। कस्बे, ग्रामीण इलाकों मे बहुत सुधार की दरकार है।
"धर्म बहुत गहरे / पितृसत्ता" के दीगर, भविष्य के प्रति स्वाभाविक चिन्ता / नुक्सान-हानि का भय 'आमजन' को धर्मावलम्बी बनाता है । बौद्धिक घढ़ा (चिकित्सकों से तात्पर्य है) अपने सचेतन प्रयास को आस्था से (नतमस्तक हो कर) "Rx" लिख कर अज्ञात शक्ति के समर्पित हो जाता है।
आस्था और प्रगतिशीलता के सही मिश्रण से ही धर्माडम्बरों से मुक्ति मिले शायद। और उसके लिए आन्दोलन / माँगों की बजाय, स्वअनुशासन की दरकार है। कौन कह रहा है किससे, कि फलां धर्म को मानो ? फलां पोथी को पूजो।
मन्दिर प्रवेश वर्जित करना (चाहे स्त्री को या दलित को) गलत है। चढ़ावे (शुल्क) के आधार पर अलग अलग लाइनें बनाना भी तो उतना ही गलत है।
सो भगवान मन में खोजिए, करोड़ों मन्दिर मुफ्त पाईये (माफ कीजिएगा, भाषा बाजार वाली हो रही है।) इस बारे में मार्क्स के विचार कुछ सरलता से रखें, तो बेड़ा पार हो।
पितृसत्ताक विचारों को मौजूदा समय में, मैं, दो प्रमुख बिन्दुओं में देख पाता हूँ : (१) बेटे को बुढ़ापा का सहारा मानना। (२) बेटी को पराया धन मानना।
चाहे पुरुष हो, स्त्री हो, हर उम्र का आर्थिक स्वावलंबन उपलब्ध कराईए (जो कि परिवार एवं समाज का कार्य है), फिर 'अफीम' से उपर की 'किक्' चख सकेंगे।
कानूनों के बावजूद मन्दिरों मे प्रवेश वर्जित है, बेटियों को सम्पत्ति मे हिस्सा नहीं है । मार्क्स भी नही हैं, गाँधीजी भी नहीं हैं ।
आलोक बाजपेयी:-
धर्म विमुक्त समाज की वकालत मैं भी खूब करता हु लेकिन क्या यह अभीष्ठ है एक आंदोलन या अभियान के तौर पर। मुझे तो लगता है कि पूँजीवाद से लड़ने के लिए जिस आतंरिक दृढ़ता की जरुरत है उसमे धर्म का कुछ योगदान है। अभी भी वैज्ञानिक नैतिकता के अभाव में धर्म नैतिकता का एक सबसे बड़ा स्रोत है। धर्म और उसकी चेतना को stratify करने की जरुरत है आज । समाज में बदलाव के लिए समाज से संवाद जरुरी है और अगर हम धर्म विरोधी टैग के साथ अपने को पेश करते हैं तो अपने खिलाफ शुरू से ही एक hostile atmosphere बना लेते हैं ।
सोनी पाण्डेय:-
गाथांतर के आजीवन और वार्षिक सदस्यों से अनुरोध है कृपया मुझे अपना पता इनबाक्स कर दें ।पता मिसप्लेस हो गया है ।
आभार
कैलाश बनवासी:-
वैज्ञानिक नैतिकता के अभाव में धर्म नैतिकता का स्रोत आंशिक तौर पर ही हो सकता है क्योंकि देर-सबेर वैज्ञानिक दृष्टि से इसे मात खानी ही है.बल्कि खतरा यह भी कम नहीं है कि धर्म कहीं वैज्ञानिकता / तार्किकता को ही न ले डूबे...जैसा आज का वातावरण है. जनपक्षधर सरोकारयुक्त वैज्ञानिक दृष्टि की हमें हर हाल में जरूरत है और आगे भी बनी रहेगी. बाकी इस मुद्दे के मार्फत बहुत जरूरी चर्चा हो रही है .
जय:-
बाबा साहेब का विचार हो अंतिम सत्य नही है ।लेकिन विचार विमर्श का प्रस्थान बिंदु हो सकता है ।उन्होंने हिन्दू /ब्राह्मण धर्म की खसियत बताई इसमें नैतिकता के संकल्पना का नदारद होना । riddles of honduism में उन्होंने दिखाया कि बिष्णु नामक देवता अरुंधति नाम की स्त्री का बलात्कार करता है फिर भी पूजनीय है । इसमें हिन्दू धर्म कुछ भी अनैतिक नही देखता ।ऐसे में धर्म को नैतिकता का स्रोत किस हद तक माना जा सकता है ?छुआ छूत को धर्म शस्त्र के मान्यता प्राप्त है। हाल में शंकराचर्य ने इसे उचित ठहराया ।यह कैसी नैतिकता है ?
जी तार्किकता ने ही यूरोप को वैज्ञानिक उपलब्धियों का देश बना दिया । भारत में भी तर्क के लिए आंदोलन हुए ।बुद्ध ने तर्क की बात की ।कबीर को ज्ञान/तर्क मार्गी माना गया ।लेकिन यह आंदोलन हार गया । देश भी हार गया । कोई महत्वपूर्ण अविष्कार हमारे यहाँ नही हुआ। पुष्पक विमान पर गर्व करने की झूठी अनैतिक परम्परा चल पड़ी
आलोक बाजपेयी:-
मुद्दा धर्म के साथ जुडी मूर्खता या तर्क हीनता का नहीं है। इस पर सब लोग सहमत हैं। मुद्दा यह है की क्या सामाजिक राजनितिक सक्रियता करते हुए और ठोस आंदोलन करने के लिए हमें धर्म(जो कि बहुआयामी बहुस्तरीय और अपने भीतर विभिन्न मानसिक तरंगे समेटे हुए है) पर in total अटैक करने की जरुरत है।
मेरा स्पष्ठ मानना है कि अगर अपने सह विचारकों के बिच ही अपनी पीठ थपथपाने के अंदाज में कगद को खुश करने के लिहाज से ही चलना है तो धर्म को नेस्तनाबूत करने की बात से ज्यादा सुविधाजनक और कुछ नहीं। लेकिन अगर आम जनता से जुड़ना उसमे तर्कनिष्ठ दृष्टिकोण को प्रेरित करना हमारा अभीष्ट है तो हमें धर्म के विविध रूपों में अंतर करना होगा। धर्म के कर्मकांडी रूप अत्याचारी रूप शाशन सत्ता की चाकरी वाले रूप धर्म की ठेकेदारी के डीओपी आदि की आलोचना करनी होगी और बुद्ध ..... को एक असली धर्म के रूप में जनता को समझाना होगा।
धर्म का असर जो नकारात्मक रूप से तमाम व्याप्त है उसकी बखिया उधेड़नी होगी।
और यह सब हम धर्म को in total reject करके नहीं कर सकते।
हमें अपने डिस्कोर्स को और काम्प्लेक्स करना होगा।
जय:-
धर्म चुकी गहरी जड़े जमाये है इसलिए उसपर प्रत्यक्ष चोट counter productive हो सकता है । इसलिए उससे कैसे लड़ा जाये यह बहस का मुद्दा है ।मगर धर्म से लड़ाई अनिवार्य है अगर स्त्री मुक्ति होनी है
प्रदीप मिश्रा:-
आजकल बिजूका पर जो विमर्श हो तहे हैं। वे आठवें दशक में होकर चूक गैर हैं। वैज्ञानिकता ही अब कठघरे में हैं। आज के तकनीकी अतिक्रमण में बदलते हुए समाज और इसके संकट पर बात होनी चाहिए।
जिन विषयों पर चर्चा करके या केंद्र में रख कर प्रगतिशील और जनवादी मूवमेंट भटक गया और जनाधार खोता चला गया। उसी को दोहराने से क्या हासिल होगा?
सबसे पहली शर्त तो यह है कि हम कठिन और जटिल शब्दावलियों से बचें और ऐसी भाषा में चर्चा करें जो हर आम आदमी को समझ में आए। अन्यथा हमारी अच्छी बातें भी गलत अर्थों में लुप्त हो जाएंगी।
आलोक बाजपेयी:-
अगर आप supremacy ऑफ़ science की बात कर रहे हैं तो कहना चाहूँगा की अब वैगतानिको में भी एक राय बन रही कि साइंस भी एक ख़ास social context से संचालित होता है और absolute science जैसा कुछ नहीं। science technology भी एक ख़ास imperialistic tool की तरह इस्तेमाल होता है।औपनिवेशिक समाज इसे बेहतर जानते हैं।
लेकिन कहना चाहुगा कि इस सोच पर चलना दुधारी तलवार पर चलने जैसा है और बहुत maturity की दरकार करता है। वर्ना साइंस की इस सीमितता को बताते बताते पुनरुत्थानवादी होने का खतरा भी है।
प्रदीप मिश्रा:-
यह बहुत पहले तय हो चूका है। वैज्ञानिक समाज का स्वप्न देखनेवालों ने इसे संप्रदाय की तरह ही स्वीकार किया है।
अलोक भाई शुरू से साइंस गड़बड़ रहा है। पूंजी के गिरफ्त से कभी भी बाहर नहीँ निकाला। और इसको ठीक से समझने के लिए मॉडर्न फिजिक्स और क्लासिकल फिज़िक्स के सन्दर्भों को देखना होगा।
आलोक बाजपेयी:-
थोडा असहमत। तार्किकता, प्रमाणीकरण, सिद्ध करने की सबसे विश्वसनीय पद्धति परालौकिक से भौतिक ज्ञान की ओर रुझान,अनबुझे रहस्यों को सुलझाने की जद्दोजहद, rationality और rationality को मुख्य निर्धारक मानकर जीवन समाज संचालन का संकल्प, कूप मंडूकता,धार्मिक कट्टरपन से मुक्ति, मिथकीय ख्यालबाजी इन सबसे हमें विज्ञान ने ही लड़ना सिखाया।
विज्ञान का जो technologogical aspect है उस पर पूँजीवाद का आधिपत्य है और पिछले 100 साल में ज्यादा हुआ है पर विज्ञान केवल पूंजीवादी कठपुतली है यह कहना गलत है।
एक अंतिम टिप्पणी जान आंदोलनों पर। किसी भी मुद्दे पर सड़क पर उतार आना एक शग़ल भी बन चूका है। फैशन भी है। चर्चा में रहने का व्यर्थ के एक्टिविज्म का भी दौर है। ड्रामेबाजी, असली मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए और हर चीज़ को एक event बना देने का भी दौर है।यह भरा पेट मध्य ऐसे कामो में खूब आगे है। आज जबकि मंदिरो में खिलाफ खड़े होने की जरुरत है तब ऐसे मुद्दे बेकार के हैं। कृपया मेरी बात को सारे मंदिरो के खिलाफ ना लें। वो धर्म प्रतिष्ठान जहा ईश्वर की बिक्री होती है और टनों सोना चढ़ावा चढ़ता हो वहां।
अभियान यह होना चाहिए कि जब हर जगह ईश्वर है तो क्यों ठेकेदारों के जाल में फंसें।
महिलाओं के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण संपत्ति के अधिकार का व्यवहारतः लागू होना है। आत्मनिर्भर बनना है। पुरुष की बैसाखी के बिना भी आराम से स्वतंत्र नागरिक के रूप में सम्मान से जीना है। सेक्स से परे, शारीरिक सौंदर्य से पर उसी प्रकार अच्छी या बुरी होने का पैमाना बनाने की जरुरत है जैसा पुरुषो के साथ है।
शनि मंदिर या कोई भी मंदिर etc में प्रवेश के आंदोलन में ऊर्जा व्यर्थ करना बेवकूफी ही मानी जायेगी। देखना यह होगा की किस आंदोलन से उनका मुस्तकबिल बदलेगा। उसी के साथ खड़ा होना चाहिए। बाकी देश नौटंकी ड्रामेबाजी में तो फंसा ही है।
प्रदीप मिश्रा:-
अलोक भाई के पहल पोस्ट से असहमत और दूसरी पोस्ट से पूरी तरह सहमत। आपसे पूरी तरह तो सहमत नहीं हूँ। फिलहाल विज्ञान जिस गॉड पार्टिकल की बात कर रहा है वह क्या है? वस्तुतः मानवीय जिज्ञासा ने हमें अन्धविश्वास और कुपमंडुपता या दूसरी चीजों से बहार निकाला। जिसको बड़ी चालाकी से विज्ञान की हिस्से में डाल दिया गया। क्योंकि वहाँ पर पूँजी पति ज्यादा सहज थे और इस स्थापनाओं के लिए जिस सत्ता की जरूरत थी वह उनके हाथ में थी। आप इतिहास उठाकर देख लीजिये अंधविश्वास और कूपमंडूपता से हमें वैज्ञानिकों से ज्यादा कवियों ने निकाला है। इस सन्दर्भ कबीर का नाम लेना पर्याप्त है। टेक्नोलॉजिकल आस्पेक्ट्स को विज्ञान से किस तरह अलग करेंगे। खैर यह विषय इतना व्यापक है कि यहाँ पर ठीक से नहीं हो पाएगी।
एक बात जो रह गयी। भविष्य का सबसे बड़ा संकट या विज्ञान और औद्योगीकरण है। हमारी आनेवाली पीढियां इस संकट को उसी तरह से या ज्यादा वीभत्स तरीके से भुगतेंगी। जिस तरह से हम अंधविश्वास और कूपमंडुपता आदि को भुगत रहे हैं। क्योंकि विज्ञान की दिशा और दशा जिन हाथों में है वे बहुसंख्यक समाज नहीं है।
आशीष जी नौकरी के कारण यह समस्या हो जाती है। मेरी बेचैनी सिर्फ इतनी है कि हमें हमारे समय की जरूरत के अनरूप नए तर्क़ तलाशने होंगे। यह तभी होगा जब हम पुरानी अवधारणाओं से मुक्त होकर करेंगे। या कम से कम हज़ारी प्रसाद द्विवेदी क़ी चिंतन प्रक्रिया में आगे बढ़ेंगे। जो भारत की बड़ी समस्या वर्ग विभाजन में देख रहे थे। उनके लिए धर्म और साम्प्रदायिकता छोटी समस्या थी। उनकी इस अवधारणा में समकाल की जरूरत के मुताबिक कुछ संसोधन करना होगा। जो सामाजिक मूल्यों के विकास के क्रम में होगा। आज के सार्थक संवाद के लिए सभी मित्रों का आभारी हूँ।
संजीव:-
राजनीतिक भागीदारी के संस्थागत दायरों के बाहर परिवर्तनकामी राजनीति करने वाले आंदोलनों को सामाजिक आंदोलनों की संज्ञा दी जाती है। लम्बे समय तक सामूहिक राजनीतिक कार्रवाई करने वाली ये आंदोलनकारी संरचनाएँ नागर समाज और राजनीतिक तंत्र के बीच अनौपचारिक सूत्र का काम भी करती हैं। हालाँकि ज़्यादातर सामाजिक आंदोलन सरकारी नीति या आचरण के ख़िलाफ़ कार्यरत रहते हैं, लेकिन स्वतःस्पूर्त या असंगठित प्रतिरोध या कार्रवाई को सामाजिक आंदोलन नहीं माना जाता। इसके लिए किसी स्पष्ट नेतृत्व और एक निर्णयकारी ढाँचे का होना ज़रूरी है। आंदोलन में भाग लेने वालों के लिए किसी साझा मकसद और विचारधारा का होना भी आवश्यक है। क्या ये ख़ूबियाँ राजनीति के औपचारिक दायरों में काम करने वाले किसी राजनीतिक दल या दबाव समूह में नहीं होतीं? दरअसल, सामाजिक आंदोलन अपने बुनियादी चरित्र में अनौपचारिक नेटवर्कों की अन्योन्यक्रिया से बनते हैं। वे ऐसे मुद्दे चुनते हैं जिन्हें औपचारिक राजनीति अपनाने से इनकार कर देती है। साथ ही वे प्रतिरोध और गोलबंदी के ग़ैर-परम्परागत रूपों का इस्तेमाल करते हैं। सामाजिक आंदोलनों ने अल्पसंख्यकों, हाशियाग्रस्त समूहों और अधिकार-वंचित तबकों की राजनीति को बढ़ावा दिया है। इसी कारण से यह भी माना जाता है कि समकालीन लोकतंत्र अपने विस्तार और गहराई के लिए सामाजिक आंदोलनों का ऋणी है।
इस अर्थ में स्त्री विमर्ष का स्वरूप ‘स्त्री मुक्ति’ के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
यहाँ ‘मुक्ति’ शब्द परंपरागत अर्थ में प्रयुक्त नहीं है। ‘मुक्ति’ एक ऐसे संदर्भ से मुक्ति जिसके तहत स्त्री को परिभाषित किया जाता था, यहाँ मुक्ति एक ठोस और वस्तुगत कार्यवाही है, जो स्त्रियों को स्वयं अपने संकल्प और साहस के साथ अंजाम देनी है। मुक्ति कोई धार्मिक कर्मकांड नहीं जो पुरोहितीय पद्धति से आषीर्वाद स्वरूप मिल जाये। यह एक क्रांतिकारी आचरण है जो आलोचनात्मक चिंतन और दूसरे के अस्तित्व को खंडित नहीं होने देकर भी किया जा सकता है। मुक्ति एक ऐसे ‘आचरण’ से मुक्ति है जो स्त्रियाँ करती थीं पर जो उनके अपने संकल्प और निर्णय का परिणाम न होकर दूसरांे के द्वारा संकल्पित और निर्णीत हुआ करता था। ‘मुक्ति’ कर्म से नहीं कर्म के पीछे के चिंतन से है, उस दबाव से है जो उन्हें हांकता था पषुओं की तरह। यह एक शब्द ‘मुक्ति’ नई दुनिया और नये संदर्भों को रचे जाने के लिए किया गया महाभारत है। एक ऐसी दुनिया जिसमें किसी की अस्मिता और अस्तित्व को न तो जुंए में दांव पर लगाया जायेगा और न चोटी पकड़कर भरी सभा में बेआबरू किया जायेगा। यह दुनिया और यह सभा सिर्फ ताकतवरों और अंधों की नहीं होगी। इसमें सब बराबरी से एक दूसरे के बजूद को स्वीकार करेंगे और सम्मान करेंगे सबका सब। ऐसी दुनिया के सृजन के लिए महाभारत से कम संघर्ष का तो सवाल ही नहीं उठता है। अतः मुक्ति एक सकारात्मक आचरण है, एक ऐसा चिंतन है जो ‘प्रत्येक स्वयं’ के द्वारा ‘प्रत्येक दूसरों’ के साथ किया जायेगा और सब सामूहिक रूप से इसे अंजाम देंगे अपनी अपनी अस्मिता और गरिमा के साथ। मुक्ति एक नई महाभारत की इबारत लिखे और अंजाम हो सबके लिए सबकी स्वतंत्रता।
दरअसल स्त्री जो निरंतर दूसरों के सोचे गए को आचरित करती रही है, उसे ‘स्वतंत्रता से भय’ (इस पदबंध का प्रयोग पाओलो फ्रेरे ने अपने ‘उत्पीड़ितों के षिक्षा शास्त्र’ में जिस अर्थ में किया है उसी अर्थ और संदर्भ में यहाँ इसका प्रयोग किया गया है) लगने लगा है। उसे इस ‘स्वतंत्रता के भय’ से मुक्त होना है। यह एक ऐसा भय है जो स्त्री जाति के रक्त में संस्कारों की तरह बह रहा है। स्वतंत्रता के भय से मुक्त होने में खतरे तो बहुत हैं, पर खतरों से खेलने के बाद जो मुक्ति युक्त आचरण होगा, कर्म होगा, वही असली जीवन होगा। स्वतंत्र, निर्भय, स्वयं निर्णीत, साहस और आत्मसम्मान, आत्मगौरवपूर्ण आचरण। ऐसा आचरण जो ‘उपलब्धि के इस क्षण’ के पहले कभी नहीं ‘जिया गया’ था। ‘एक अब तक न आचरित किया गया आचरण’ जिसे जीने के लिए लाखों स्त्रियाँ कोषिष करती रहीं पर उन्हें ऐसा नहीं करने दिया गया और उन्हें आत्मबलिदान देना पड़ा। जोखिम उठाये बिना उपलब्ध जीवन उपहार हो सकता है और उपहारों और कृपा से प्राप्त जीवन (स्वतंत्रता उपहार में नहीं मिलती, संघर्ष में विजयी होने पर मिलती है। उसे पाने का प्रयास लगातार और जिम्मेदारी के साथ करना पड़ता है। स्वतंत्रता कोई ऐसा आदर्ष नहीं है, जो मनुष्य के बाहर स्थित हो।’’ (पाओलो फ्रेरे, उत्पीडितों का षिक्षा शास्त्र, गंथ षिल्पी पृ. 10) में और पशु के समान जीवन में कोई अन्तर नहीं होता। पषु अपने निर्णय स्वयं नहीं लेता, वह अपने जीवन का रूपांतर नहीं कर सकता, वह अपने जीवन के लिए स्वयं उत्तरदायी नहीं होता, विष्व उसके लिए प्रदत्त आवास है जिसमें बिना किसी रूपांतर के उसे जीना है। वह सिर्फ अपने वर्तमान में जीता है, उसके लिए भूत और भविष्यकाल नहीं होता। वह एक अनैतिहासिक प्राणी होता है। यदि स्त्री बिना स्वयं के बारे में निर्णय लिए जी रही है और उसका अपने प्रति कोई उत्तर दायित्वपूर्ण अनुभव नहीं है तो वह अपनी दुनिया स्वयं रचने के लिए संकल्पबद्ध नहीं हो सकती और उसके लिए स्त्री मुक्ति का कोई अर्थ नहीं है, जैसा पषुओं के लिए बाड़े में बंद रहना या खुले जंगल में रहने का कोई विषेष अर्थ नहीं होता क्योंकि वह प्रदत्त भौतिक परिस्थितियों को बदलने के बारे में सोच नहीं सकता, निर्णय नहीं कर सकता और न रूपांतरण के लिए कर्म कर सकता है।
‘स्त्री विमर्ष’ स्त्री मुक्ति के लिए किया गया चिंतनपूर्ण कर्म होना चाहिए। एक उत्तरदायित्व पूर्ण आचरण जिसमें विष्व के रूपांतरण के लिए प्रतिबद्धता हो। यदि सिर्फ विमर्ष के लिए विमर्ष होगा और जैसा कि अक्सर हो रहा है तो यह पदबंध (स्त्री विमर्ष) अपनी प्रामाणिकता खो देगा वह एक सक्रियतावाद में बदल जायेगा। एक ऐसा विमर्ष जो सिर्फ विमर्ष के लिए किया जा रहा है। इसमें वास्तविक रूपांतरण के लिए किये जाने वाले कर्म का नितांत अभाव होगा। यथार्थ का रूपांतरण बिना ‘अयथार्थपूर्ण वास्तविकता’ की भर्त्सना के संभव नहीं होता, परन्तु यह भर्त्सना एक क्रांतिकारी कर्म में तब्दील होनी चाहिए।
अब तक न परखी गई संभावनाओं को परखने का सुख जीवन का अनमोल क्षण होता है। सदा ही दूसरों द्वारा तय किये गए रास्तों पर चलते रहना, दूसरों द्वारा बताई गई दिषा में एक निष्चित गति से चलते रहना, जानवरों की तरह चलने में कोई फर्क नहीं होता। जानवर भी कभी-कभी अपनी मन मर्जी के रास्ते पर चल पड़ता है। भले ही इसके लिए उसे मालिक द्वारा डंडे खाने पड़ें। कभी जब वह बहुत तंग आ जाता है ‘खूंटे से’ तो तोड़ देता है अपना सारा बल लगा कर एक बारगी तो उसे, भले ही पुनः मालिक द्वारा बांध दिया जाये उसी खूंटे से। मगर ‘अन परखी संभावनाओं’ को परखने का मजा कभी कभार तो चख ही लेना चाहिए। मुक्ति का प्रयास भी यदि नहीं होगा, स्वप्न में भी यदि ‘स्वतंत्रता के भय’ से मुक्त नहीं होंगे तो कैसे मिलेगी मुक्ति?
मुक्ति एक विमर्ष है, मुक्ति एक आचरण है जो हम अपने लिए नहीं दूसरों की मुक्ति के लिए सबके साथ दुनिया पर करेंगे, क्योंकि दूसरों के मुक्त हुए बिना हम प्रमाणिक रूप से मुक्त नहीं हो सकते। हमारे इस आचरण से संबंधों का नया संसार बनेगा, अब तक के संबंध अधिकारी और अधीनस्थ के थे, अब जो संबंध होंगे वे ‘सबके साथ सबके’ साहचर्य के संबंध होंगे। कोई किसी का मािलक और कोई दास नहीं होगा। संबंधों का यह नया स्वरूप मुक्ति के इस आचरण में निहित है।
जय:-
संजीव आपने उत्पीड़ितों के शिक्षा शास्त्र का जिक्र कर मन खुश कर दिया । बहुत शक्तिशाली लेख ।बस थोडा दुहराव है इसलिए प्रस्तुति करण को और चुस्त किया जा सकता । कंटेंट वाइज शानदार । अनेकश धन्यवाद ।
मैं रचना जी से सहमत हूँ ।स्त्री की समस्या को मानव मानव एक है के मानववादी अमूर्त रेटेरिक से नही समझा जा सकता ।इसलिए मार्क्स ने एंटी ह्यूमनिस्ट भौतिकवादी दृष्टि अपनाई । स्त्री को इन मुद्दों पर सक्रिय होना है ।बेशक होंगी भी । रचना जी की पुकारती हुई पुकार मुनासिब कार्रवाई है
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