नमस्कार साथियों। आज प्रस्तुत है समूह के साथी ओमप्रकाश कुर्रे की रचनाएँ। आप पढ़ें और अपनी प्रतिक्रिया दें।
1
एक वक़्त था जब लिखने वाले को कलम का सिपाही कहतें थे पर अब परिस्थितियां कुछ ऐसी है-
एक दफा मैं अपने काम से
किसी न्यूज़ स्टूडियो में गया
वहां एक सीनियर रिपोर्टर ने
दस्तखत करने के लिए
मुझसे मेरा पेन माँगा
जबकि एक पत्रकार की ताकत
उसकी कलम है,मगर उस वक़्त
वो निहत्था था.......
देख कर मेरा पेन उसके चेहरे से
अकड़ की हंसी छूट गयी
अकड़ कर उसने कहा- वाह!इतना गरीब पेन
इतना गरीब पेन
मैं स्तब्ध रह गया की क्या
एक कलम के सिपाही के लिए
पेन,अमीर या गरीब होता है
मुझे उस अमीर पेन वाले की सोच पर
ताज्जुब हो रहा है शायद वह अपने शब्दों को सोने की श्याही से लिखता हो
2
का गोठ सुनावव छत्तीसगढ़ के
जीहांI
कोला म होत बिहान हे
आँगन म बइठे सियान हे
पाताल चटनी संग म
चाउर के चीला पहिचान हे
सब ल चूल्हा के अंगाकर के ध्यान हे
धर कुदारी दिन खेत म पहाथे
तभो ले सब डहर मुस्कान हे
मंझनिया के बासी संग म
आमा के अथान हे
सँझा रमेशर के चौरा म
परत पंडाल हे
मुछु मंजीरा ठोकत हे
अउ बोदलहा देवत ताल हे ।
रात होवत माची म चोंगी सजे
गुड़ी म बैठे किसान हे
किसा सुने सब ज़माना के
फेर कोला म होवत बिहान हे
लोक कला के धनि हमर
राज के अलगे पहिचान हे
3
बदलते बदलते वक़्त ने
कितना कुछ बदल दिया
जनम जनम का रिश्ता
लिव इन रिलेशन शिप सिस्टम में बदल गया
सात जन्मों के कसमो की
अब कोई परवाह नही
यहाँ तो अब एक जनम
बीता पाना भी मुश्किल हो गया
आधुनिकता ने
पाश्चात्य को सिर पर
और भारतीयता को
ताक पर रख दिया
अब न पति सुनाता पत्नी की न
पत्नी सुनती पति का
अब तो अर्धाग्नि परमेश्वर का
रिश्ता ही अलग हो गया
न शांति रही मन में
और न ही ऐतबार जीवन में रहा
पहले तो साथी के कन्धे पर
सर रख कर रो सकते थे
अब तो एक दूजे का चेहरा भी नागवार रहा
बदलते बदलते जीवन में वक़्त ने
कितना कुछ बदल दिया
4
रुह्मनियता का दौर
आँखे नम थी तेरी
और चेहरे पर उदासी छायी थी
कुछ तो बात जरूर थी आज
तभी तो अचानक बरसात आयी थी
लग रहा था ऐसे जैसे रूठी है आज
तू खुद से तभी तो अम्बर में बदली छायी थी
हंसी भी फीकी बेमौसम लग रही थी
क्योंकि आँखे नम थी तेरी और चेहरे पर .......
5 दर्द-ऐ-दिल
कुछ बून्द अश्क के मेरी आँखों में है.
कुछ बून्द अश्क के तेरी निगाहों मे हैं।।
मायूसी की सिकंद तेरे चेहरे पे झलक रही है
और बेबसी का आलम मुझमें भी है
थोड़ी उदास तो तू भी है
थोडा हैरान तो मैं भी हूँ
मुड़ कर देख जरा पीछे
रास्ते में अकेला मैं भी हूँ
और सफ़र में तनहा तू भी है ।।
आज ज़ुबा खामोश मेरे भी है
और लब शांत तेरे भी हैं
हाँ धड़कन तेज़ तो तेरी भी है
सासों में आज रफ़्तार मेरी भी है।।
सीने की जलन तुझमे भी है
और धुएं की महक मुझमें भी ,
इसका अहसास तुझे भी है
इसका अहसास मुझे भी है
हा थोडा प्यार तुझे भी है
और थोडा प्यार मुझे भी है
6
क्यों कुरेद दिया तूने....
मेरे भरे जख्मों को...
नाम उसका पूछ कर....
अंदाजा तो था न,
तुझे मेरे गम का......
कि टूट चूका है दिल मेरा
एक बार
बता--अब दर्द कितना होगा
इस वक्त नसों का कतरा कतरा
आंसू बनकर छलकने लगा
और हाथ नही कुछ भी मेरे
चाँद बेबस लकीरों के सिवा
7
का गोठ सुनावव छत्तीसगढ़ के
जीहांI
कोला म होत बिहान हे
आँगन म बइठे सियान हे
पाताल चटनी संग म
चाउर के चीला पहिचान हे
सब ल चूल्हा के अंगाकर के ध्यान हे
धर कुदारी दिन खेत म पहाथे
तभो ले सब डहर मुस्कान हे
मंझनिया के बासी संग म
आमा के अथान हे
सँझा रमेशर के चौरा म
परत पंडाल हे
मुछु मंजीरा ठोकत हे
अउ बोदलहा देवत ताल हे ।
रात होवत माची म चोंगी सजे
गुड़ी म बैठे किसान हे
किसा सुने सब ज़माना के
फेर कोला म होवत बिहान हे
लोक कला के धनि हमर
राज के अलगे पहिचान हे
छत्तीसगढ़ी कविता का अनुवाद
छत्तीसगढ़ अपने
पहचान का मोहताज नही है
इसकी मिहमा का मैं क्या बखान करूँ
जहाँ
गावं में लोगो की सुबह
अपने बाड़ी में कम करते करते होती है
हमारे बुजुर्ग हैं वे अपने नाती पोतों के साथ
आँगन में बैठे खेलते हैं
टमाटर की चटनी और चावल की रोटी(चीला)
यहाँ की पहचान सी बन गयी है
लोग पत्ते की रोटी अंगाकर में ही सब सुख पा लेतें है
सभी सुबह से ही अपने औजार के साथ खेत खलिहान में नज़र आते है मेहनत करते ताप्ती धुप में काम करने के बाद भी लोगो के चहरे पर मुस्कान रहती है
दोपहर में सब यहाँ की स्पेसल डिश बासी खाते है
और किसी पंडाल में जाकर बुजुर्गों से कथा कहानी सुनते है अपने लोक गीत को गाते है और गर्मी की रातों में फिर खुले आसमान के निचे बाह फैलाये सो जाते है और फिर से वो यही कम में लग जाते है ऐसा है हमारा छत्तीसगढ़
परिचय :
नाम - ओमप्रकाश कुर्रे
शिक्षा / संप्रति - विद्यार्थी ( पत्रकारिता)
द्वितीय वर्ष
गुरु घासीदास केन्द्रीय विश्वविद्यालय
छत्तीसगढ़
प्रस्तुति:- बिजूका
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टिप्पणियाँ:-
हनीफ मदार:-
सामाजिक बदलावों से होकर गुज़रती कविता ध्यान खींचती हैं लेकिन जहाँ पहली कविता बाज़ारवाद में संलिप्त वर्तमान पत्रकारिता का असल चेहरा प्रस्तुत करती है वहीँ तीसरी कविता आधुनिकता में परम्पराओं को खोजने जैसी संस्कारी कविता लगती है । दूसरी कविता भाषाई दृष्टि से मेरी समझ से परे है जबकि चौथी और अंतिम रचना बेहतर कविता का उत्कृष्ट नमूना है ।
अनुराधा सिंह:-
रचना जी मुझे लगता है दुआएँ लौट कर ज़रूर आती हैं। आपका स्नेह अमूल्य है मेरी कविताओं के लिए। बहुत आभार आप सबका जिन्होंने मेरी कविताएं पढ़ीं।
दीपक मिश्रा:-
कच्चे मन की प्रारम्भिक रचनात्मक प्रकिया है। इन्हें मुक्कमल कविता नही कह सकते। उच्छ्वास जैसा कुछ।
पूनम:-
आदरणीय
बदलते वक्त ने कितना कुछ बदल दिया ।
एक सच्ची कविता
बहुत मर्मसपर्शी है
शुभकामनाये
पूनम:-
वाह इतना गरीब पेन भी
बहुत सही वयंग्य है
सही संदेश देना चाहती है
सुन्दर ।
मज़कूर आलम:-
अगर लेखक ने अभी लिखना शुरू किया है तो रचना ठीक-ठाक है।
अनुराधा सिंह:-
ओमप्रकाश जी यदि लिखना तय किया ही है तो बंजारा किस्म का नहीं उत्कृष्ट और गंभीर ही करने का प्रयास कीजिये। दो चार साल इतना पढ़िए कि अपने आपको भूल जाएँ, सब यही बतायेंगे, और यही इलाज है। मेरी शुभकामनाएँ हैं आपके साथ।
पूनम:-
वाह
जैसा कि आप अपनी कविता के माध्यम से छत्तीसगढ के निवासियो के जीवन आचरण को छू लेने वाली भाषा मे बयां कर रहे थे
उसे पढ़कर बहुत जलन होती है
ये तो राजा है राजा
ऐसी शानदार दिनचर्या ।
आखो के सामने चित्र बन गए
आशीष मेहता:-
अनुराधाजी एवं ओमजी को साधुवाद एवं हार्दिक शुभकामनाएँ ।
ओमजी को पिछली बार पढ़ना भी रोचक रहा था।
पृथक कारणों से दोनों की ही रचनाओं पर सार्थक टिप्पणी करने में असमर्थ हूँ, पर रसास्वादन कर, आभारी हूँ ।
ओम प्रतिभावान युवा हैं। बुनियादी तौर पर 'स्नेह' अनमोल है, पर व्यवहारिक तौर पर 'जलन' से बेहतर 'प्रशंसा' नहीं।
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