कविताएं
1 सिर पर हरी घास का गट्ठर लिए
सिर पर हरी घास का गट्ठर लिए स्त्रियाँ
सड़क से गुजर रही हैं
यह व्यस्त सड़क है
एक मिनट में यहाँ से दर्जनों गाड़ियाँ
गुजर जाती हैं
उनके शोर के बीच मंथर मंथर
चलती हैं स्त्रियाँ
सिर पर हरी घास का पहाड़ लिए
वे उड़ रही हैं
उनका इधर से आना अच्छा
लगता है
वे हमारे दिनों को ताजा और हरा
बनाए हुए हैं
गर्मी हो या बारिश वे इधर से
गुजरती हैं
उनकी भीगी देह की एक एक धारियाँ
दिखाई देती है
कमर में बजती है करधन
जंगल से वे घास और प्रकृति का
खिलदड़ापन लाती हैं
वे मानसून लाती है और अपने टोले में
बरसने के लिए छोड़ देती हैं
शोख और चंचल इन स्त्रियों को जंगल की
तरफ से आते हुए देख यह अनुभव होता है
कि जैसे वे किसी नृत्य उत्सव से
लौट रही हों थकी हुई फिर भी थोड़ी सी
अलमस्त
2 परिंदे कम होते जा रहे हैं
परिंदे कम होते जा रहे हैं
शहरों में तो पहले नहीं थे
अब गाँवों की यह हालत है कि
जो परिंदे महीने भर पहले
पेड़ों पर दिखाई देते थे
वे अब स्वप्न में भी नही दिखाई देते
सारे जंगल झुरमुट
उजड़ते जा रहे हैं
कहाँ रहेंगे परिंदे
शिकारी के लिए और भी सुविधा है
वे विरल जंगलों में परिंदों को
खोज लेते हैं
घोंसले बनने की परिस्थितियाँ नहीं हैं
आसपास
परिंदे सघन जंगलों की ओर
उड़ते जा रहे हैं
खोज रहे हैं घने घने पेड़
ऐसे आदमी भी कम होते
जा रहे हैं गाँवों में
वे उड़ते जा रहे हैं
कलकत्ता-बंबई-दिल्ली
अपने चारों की तलाश में
गाँव में उनकी स्त्रियाँ हैं
जिनके घोंसले खतरे में हैं
3 राष्ट्रपति के कारण ये घोड़े महान हैं
मुझे घोड़े अच्छे लगते हैं
वे अपनी पीठ पर पुराने दिनों को
लादकर जिंदगी की पथरीली सड़क पर
बेलाग दौड़ते हैं
उन्हें दूर से देखकर पाता हूँ कि वे
मेरी स्मृति के करीब हैं
वे मेरे न भूलने वाले दिनों में
मेरे साथ दौड़ते थे
घोड़े चारागाहों में कम
और उससे कम अस्तबलों में हैं
जो बचे हुए हैं वे
बारी बारी राष्ट्रपति की बग्घी में
नधते हैं
और राष्ट्र के इतिहास की किसी
अविस्मरणीय तारीख में दिखाई देते हैं
राष्ट्रपति के कारण ये घोड़े महान हैं
अन्यथा मुल्क की किसी गरीब सड़क पर
टूटे हुए ताँगे में जुतते और कराहते हुए
नजर आते
घोड़ों की संरचना में सबसे ज्यादा
ध्यान देने योग्य है उनकी पीठ
जिसपर तानाशाह या सामंत के चाबुक
निरंतर बरसते हैं तथा अपने
निशान छोड़ जाते हैं
घोड़ों को आपने देखा होगा
सुनसान घास के मैदान में
अपने अच्छे दिनों को चरते हुए
अपने अकेलेपन में धीमे से
हिनहिनाते हुए
उनकी हिनहिनाहट में किसी तरह की
अश्लीलता की खोज नही होनी चाहिए
हिनहिनाना उनका मूल स्वभाव है
जैसे तानाशाह की मूल प्रवृत्ति है निरंकुशता
कुछ लोग इस निरंकुशता के पक्ष में
तर्क देते हैं
यह कुछ ऐसा है जैसे कि कहा जाय
कि घोड़े चारागाह की बची हुई घास को
बचा रहे हैं
4 कमीज
आज आलमारी से मैंने
तुम्हारे पसंद की कमीज निकाली
उसके सारे बटन टूटे हुए थे
तुमने न जाने कहाँ रख दिया
मेरी जिंदगी का सुई धागा
बिना बटन की कमीज
जैसे बिना दाँत का कोई आदमी
मैं कहाँ जाऊँगा बाजार
कौन सिखाएगा मुझे कमीज में
बटन लगाने का हुनर
चलो इसको यूँ ही पहन लेता हूँ
जैसे मैंने तुम्हारे न होने के दुख को
पहन लिया है
5. 'इक्कीसवी शताब्दी में हाथी'
जुलूसों के पेट भरने के काम
आते हैं हाथी
बाकी दिन जंगल की हरियाली
और महावत की कृपा पर
निर्भर रहते हैं
शहर में बच्चों के लिए कौतुक
व्यवसायियों के लिए कीमती दाँत हैं
वे इतिहास के किसी प्रागैतिहासिक गुत्थी की
याद दिलाते हैं
हाथी दुर्लभ होते जा रहे हैं
उन्हें देखते ही खुशी होती है
मन चिंघाड़ने लगता है
वे बचपन की अविस्मणीय घटना की तरह
समय के अँधेरे अस्तबल में
छिपे हुए हैं
इक्कीसवीं शताब्दी में क्या वे
बचे रहेंगे ?
या उनके सूँड झड़ जाएँगे ?
या इस नाम का जानवर नहीं
बचा रहेगा पृथ्वी पर
या वे चिड़ियाघर की वस्तु बन
जाएँगे ?
बताइए माननीय प्रधानमंत्री जी !
6. 'ईश्वर एक लाठी है'
ईश्वर एक लाठी है जिसके
सहारे अब तक चल रहे हैं पिता
मैं जानता हूँ कहाँ कहाँ दरक गई है
उनकी कमजोर लाठी
रात को जब सोते हैं पिता उनके
लाठी के अंदर चालते हैं घुन
वे उनकी नींद में चले जाते हैं
लाठी पिता का तीसरा पैर है
उन्होंने नहीं बदली यह लाठी
उसे तेल फुलेल लगा कर किया
है मजबूत
कोई विपत्ति आती है दन्न से तान
देते हैं लाठी
वे हमेशा यात्रा में ले जाते रहे साथ
और बमक कर कहते हैं
- क्या दुनिया में होगी किसी के पास
इतनी सुंदर मजबूत लाठी
पिता अब तक नही जान पाए कि ईश्वर
किस कोठ की लाठी है।
7. 'सोने की खदानों की खोज में'
हम उन लोगों के बीच रहते हैं
जो हमेशा सोने की खदानों की खोज में
लगे रहते हैं
पुराने संग्रहालयों में तलाशते रहते हैं
खजाने का नक्शा
वे उन दुर्गम जगहों पर आसानी से
पहुँच जाते हैं जहाँ सामान्यतः जाना
होता है कठिन
वे खोदते रहते हैं जमीन
तोड़ते रहते हैं पहाड़
समुद्र की अतल गहराइयों में
पीतल के घड़े में रक्खे प्राचीन सिक्कों
की खनक सुनते हैं
वे दुनिया में इस तरह रहते हैं
जैसे उन्हें अनंतकाल तक जीना हो
वे सात पुश्तों के लिए वैभव का
इंतजाम करते हुए एक दिन मर जाते हैं
वे कभी नही सोचते कि पृथ्वी
सबसे सुंदर जगह है
यहाँ गर्व करने लायक बहुत सी
चीजें हैं
वे पहाड़ों समुंदरों नदियों चाँद सितारों के
बारे में कोई बात नहीं करते
वे नहीं जानते कि पक्षियों के कलरव
के सामने धीमी पड़ जाती हैं
संगीत की ध्वनियाँ
वे दुनिया को धीरे धीरे नरक
बनाते रहते हैं और अपनी नृशंस खुशी
से आबादी के बड़े हिस्से को बदहाल बना देते हैं
8. 'बाँसुरी'
मैं बाँस का एक टुकड़ा था
तुमने मुझे यातना दे कर
बाँसुरी बनाया
मैं तुम्हारे आनंद के लिए
बजता रहा
फिर रख दिया जाता रहा
घर के अँधेरे कोने में
जब तुम्हें खुश होना होता था
तुम मुझे बजाते थे
मेरे रोम रोम में पिघलती थीं
तुम्हारी साँसें
मैं दर्द से भर जाया करता था
तुमने नुझे बाँस के कोठ से
अलग किया
अपने ओठों से लगाया
मैं इस पीड़ा को भूल गया कि
मेरे अंदर कितने छेद हैं
मैं तुम्हारे अकेलेपन की बाँसुरी हूँ
तुम नहीं बजाते हो तो भी
मैं आदतन बज जाया करता हूँ।
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कवि परिचय -
नाम - स्वप्निल श्रीवास्तव
जन्म : 5 अक्तूबर 1954 (मेहनौना, सिद्धार्थनगर, उत्तर प्रदेश)
विधाएँ : कविता, कहानी, यात्रा संस्मरण
कविता संग्रह :
ईश्वर एक लाठी है, ताख पर दियासलाई, मुझे दूसरी पृथ्वी चाहिए, जिंदगी का मुकदमा, जब तक है जीवन
सम्मान - भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार, फिराक़ सम्मान
संपर्क - 510, अवधपुरी कालोनी, अमानीगंज, फैजाबाद – 224001
फोन - 09415332326
ई-मेल- swapnil.sri510@gmail.com
प्रस्तुति: बिजूका
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टिप्पणियाँ:-
ब्रजेश कानूनगो:-
नष्ट होती चीजों को बचाने की जद्दोजहत करती खूबसूरत कविताएँ।जंगल,वनवासी,पक्षी,घास-घोड़े,और बटन टांकने आदि के बिम्बों से कविताओं में विलुप्त होती चीजों को बहुत संवेदनशीलता से याद किया गया है।सुंदर दृश्य,सुंदर कवितायें।बधाई।
परमेश्वर फुंकवाल:-
शहरों में बची हुई हरियाली, जंगलों में बचे हुए परिंदे, गाड़ियों की भीड़ में बचे हुए घोड़े और पसंद की कमीज में बचा रह गया दुख। अतीत के सुनहरे पृष्ठों को पलटती इन कविताओं में अच्छाइयों को बचाने की जिद है। बहुत सुन्दर कविताएँ। रचनाकार को बधाई।
परमेश्वर फुंकवाल:-
बेहतरीन कविताएँ। स्वप्निल जी की कविताओं में सादगी की उंचाई है। वे वह सब समेट लाते हैं जो जीवन से गायब हो गया है। उन्हें बहुत बहुत बधाई।
मज़कूर आलम:-
संपादन कौशल की दृष्टि से बहुत कसी हुई कविता। ....घोड़े... और कमीज अपनी तरफ खिंचती है।
प्रदीप कान्त:-
गाँव में उनकी स्त्रियाँ हैं
जिनके घोंसले खतरे में हैं
काफी हद तक मुद्दों को सही सही व्यक्त करती कवितायेँ
वसंत सकरगे:-
स्वप्निल जी की कविताएं जीवन के यथार्थ से भरी होती हैं।यहाँ कल्पना और सृजन का ह्दयस्पर्शी समागम मिलता है।बेशक ये कविताएं पहले पढ़ चुका हूँ लेकिन फिर पढ़ना और अच्छा लगा।बधाई स्वप्निल जी।इन कविताओं की साझेदार रचना जी का आभार।
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