01 जुलाई, 2016

कहानी : नशे में बहकी विदाई : रतन चन्द

आज आपके लिए प्रस्तुत है एक कहानी।  इस पर आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा।  रचनाकार का परिचय कल आपसे साझा किया जाएगा।

कहानीः

"नशे में बहकी विदाई"

निरंजन सिंह की भतीजी सन्नो की शादी है। नाम तो उसका संजना है, पर हम सब उसके करीबी लोग उसे सन्नो ही कहते। सन्नो निरंजन के किसी भाई की बेटी नहीं, वह उसकी पत्नी प्रभा की भाई की बेटी है। अपने मां-बाप के लिए निरंजन अकेला ही इस दुनिया में आया था, वह भी ढेर सारी मिन्नत-मनौतियों के बाद। किसी के सलाह पर उसके पिता ने गुरूद्वारे में मत्था टेका था तब कहीं जाकर वह पैदा हुआ था। इसी एवज में माता-पिता ने उसे सरदार बनाने का निर्णय ले लिया और इस तरह अपने सगे-सम्बंधियों, नाते-रिश्तेदारों में निरंजन सिंह एकमात्र सरदार है। आगे उसके दोनों बेटे भी सरदार नहीं बने।
सन्नो की शादी में मैं और मेरी पत्नी ही शामिल हुए। वह भी एक रात और आधे दिन के लिए। दोनों बच्चों की परीक्षाएं चल रही थीं। हम शाम सात बजे तक लुधियाना पहुंच गए। लुधियाना में उनकी कोई रिश्तेदारी नहीं थी, आस-पड़ोस ही था या फिर दफ्तर के सहकर्मी और उनका परिवार। गांव से सन्नो के भाई और मामा-चाचा जैसे दूसरे नजदीकी आ चुके थे पर कुल मिलाकर बीसेक से अधिक लोग नहीं जुटे होंगे तब तक। पुरोहित को भी पहाड़ से ही साथ लाया गया था। पता नहीं अपने रीति-रिवाज से शादी कराने वाला कोई पुरोहित यहां मिले या नहीं। विवाह विधि-विधान से सम्पन्न न हो तो वैवाहिक जीवन में समरसता नहीं आ पाती है। ऐसा इन पहाड़वालों का मानना है।
सन्नो जब अभी छोटी-सी थी कि उसके पिताजी गुजर गए। अतः वह बचपन से बुआ के पास ही पली-बढ़ी है। पहाड़ उसकी स्मृति के किसी कोने में जाकर छुप गया है पर बुआ शहर की है तो क्या, पहाड़ में पली-बढ़ी है और अपनी बिरादरी के लोगों के बिना विवाह की कल्पना ही कैसे की जा सकती है। अभी पिछले साल सन्नो की मां का भी देहान्त हो चुका था।
निरंजन मुझे लेकर छत पर आ गया।
‘‘अपन यहाँ खुली हवा में बैठते हैं। नीचे उन्हें अपनी कार्रवाई करने दो।’’ कहते हुए उसने मोबाइल पर किसी का नंबर मिलाया।
  ‘‘चोपड़ा, तू कहां रह गया यार ? तुझे मैंने छः बजे आने के लिए कहा था।’’
फिर निरंजन मुझे इस शादी के बारे में बताने लगा—
  ‘‘भाई साब, आजकल लड़कियों के लिए रिश्ता ढूंढना बड़ा मुश्किल है। कहां-कहां बात नहीं चलायी। कभी उधर से मनाही हो जाती, कभी हम रिजेक्ट कर देते। आप को तो पता ही है कि सन्नो को हमने बेटी की तरह पाला है। अब उसे यों ही कहीं धकेल तो सकते नहीं थे।’’
मैं उसकी बातें सुनकर ‘हां-हूं’ करता समर्थन दे रहा था, पर मन का पंछी अतीत की उड़ान में था, जब हम और निरंजन मोहाली में किराये के मकानों में आस-पास रहते थे। जैसे सन्नो को इन्होंने पाला, मुश्किल के दिनों में हमारी तीन-चार साल की बेटी भी कई बार उनके घर में पली। आतंक के वे दिन कभी नहीं भूलते जब कफर्यू, बंद के दिनों में गर्भावस्थाके दौरान पत्नी को चंडीगढ़ के पी.जी.आई. में दाखिल होना पड़ा था। लगभग महीने भर पत्नी अस्पताल में रही और मैं भी बिटिया को उनके हवाले छोड़कर पी.जी.आई. के दिन गुजारता रहा। जब बेटा सीजिरियन से हुआ, मैं चिंतामुक्त पत्नी के पास था। ऐसी ही कई घटनाएं फ्लैश-बैक होती रहीं और उसमें निरंजन की बातें घुलती-मिलती गईं।
थोड़ी देर में चोपड़ा भी आ गया, निरंजन का सहकर्मी। निरंजन ने पूछा, ‘पहचाना इन्हें ? चंडीगढ़ से.....।’’
‘‘हां-हां पहचान गया। बहुत दिनों बाद मिले भाई साहब.........क्यों निरंजन पांच साल तो हो गए होंगे जब हम इनके साथ बस-स्टैंड वाले ठेके में बैठे थे।’’
  ‘‘हां, इतने तो हो ही गए होंगे।’’ कहकर निरंजन उठा और नीचे से दो कांच के गिलास और ठंडे पानी की एक बोतल उठा लाया। उन्हें हमारे मंजे पर रखकर वह छत पर बने एक छोटे से स्टोरनुमा कमरे के अंदर गया और हाथ में रेड-नाइट की बोतल उठा लाया। फिर उसे चोपड़ा को थमाते हुए कहा, ‘तुमलोग शुरू करो...मुझे अभी वक्त लगेगा। पंडत का पूजा-पाठ हो जाय। मुझे भी उस के पास थोड़़ी देर बैठना पड़ेगा। फुफ्फड़ की रस्म जो निभानी है।’’
फिर निरंजन मेरी ओर मुखातिब होकर कहने लगा, ‘‘ऐमईं यार, सब साला ढकोसला है। हिन्दुओं की फार्मल्टियां ही मार जाती हैं। सिक्खों का बढ़ि़या है। न कोई टिपड़ा मिलाने का चक्कर और न लम्बी-चौड़ी राम-कहानी। बस एक दिन में निपट जाते हैं।’’
मेरे और चोपड़ा के जाम टकराते ही निरंजन अधीर हो उठा। उसका लगभग हर रोज का काम है पर शरीर में थोड़ी-भी गड़बड़ का अंदेशा हो तो हफ्ते-महीने के लिए तौबा कर लेगा और जैसे ही तबीयत सुधरी कि गाड़ी फिर से अपनी पटरी पर आ जाती है।
एक घूंट सिप करते हुए मैंने कहा, ''हमारे यहाँ लड़कों की शादी पर तो खूब पीया-पिलाया जाता है पर लड़कियों की शादी में कोई नहीं पीता।’’
  ‘‘पीते हैं भई पीने वाले जरूर पीते हैं, पर लुक-छिपकर। लड़की की शादी में लुक-छिपकर और लड़कों की शादी में खुल्लमखुल्ला।’’ चोपड़ा ने कहा।
निरंजन भड़क उठा, ‘‘भैण के........लड़का-लड़की में कितना भेद करते हैं। कुुड़ी का ब्याह न हुआ, कोई सोग हो गया। मैं तो कहता हूं कि लड़की के ब्याह में भी जमकर दारू चलनी चाहिए, ताकि...ताकि...’’  वह आगे कुछ और कहना चाहता था, पर बौखलाया-सा यह देखने सीढ़ि़यां उतर गया कि पंडत कहां तक पहुंचा है।
  ‘‘साले को इस बार बोलकर आऊंगा, मेरा काम सबसे पहले निपटा, फिर चाहे जो मंत्र पढ़ना हो सारी रात पढ़ते रहना।’’ वह जाते-जाते कह गया.
  ‘‘बिल्कुल सच्चा-कोरा आदमी है निरंजन अपना।’’ चोपड़ा कहने लगा, ‘‘दूसरों की मदद करनी हो तो कभी पीछे नही हटता। भाई साब, आजकल के जमाने में ऐसे लोग कम ही मिलते हैं। हमारे दफ्तर में इतनी ऊंची पोस्ट पर है, लेेकिन बो (घमंड)जरा भी नहीं।’’
इसके बाद चोपड़ा किसी टेंडर की बात करने लगा जो उनकी दफ्तर की ओर से जारी हुआ था। मुझे उसमें कोई दिलचस्पी नहीं होनी थी, सो नहीं हुई और वह शायद इस बात को भांप गया, इसलिए उसे अधिक खींचा नहीं। अभी हमारा पहला पैग ही कहां समाप्त हुआ था।
इसी बीच निरंजन भी पंडत से पिंड छुड़ाकर अपना गिलास लिये ऊपर आ गया और खुद पटियाला पैग बनाकर एक सांस में चढ़ाते हुए अपनी पिछली कड़ी में लौट आया, ‘‘भाई साब, अब आप ही बताइए। लोगों का दिमाग फिर गया है कि नहीं। पातड़ां में कुएं से देखो कितने सारे कन्या-भ्रूण मिले। उस मादर....डाक्टर से कोई पूछे कि भैण के......कौन-सी कमाई कर रहा तू ?’’
  ‘‘निरंजन, आज का इन्सान धीरे-धीरे जानवर होता जा रहा है। वह जानवर जो अपने ही नवजात शिशुओं को खा जाता है।’’ यह चोपड़ा था।
निरंजन ने दूसरा पैग बनाना शुरू किया और साथ ही बुड़बुड़ाता रहा, ‘‘इन भैण के डाक्टरों को सरेआम बीच चैराहे पर फांसी दे देना चाहिए। गल सुणो, जजों ने जो कहा है न, बिल्कुल ठीक कहा है। इन भ्रष्टाचारियों को....भैण के इन कुड़ीमार डाक्टरों को खंभे पर, उस लैम्प-पोस्ट पर लटका देना चाहिए।’’
पैग बनाकर वह फिर नीचे चला गया और नमकीन पैकेट और एक स्टील की तश्तरी लेकर ऊपर आ गया। उसके पीछे-पीछे उसका काॅलेज में फस्र्ट-इयर में पढ़ने वाला बेटा आया जिसे निरंजन ने शायद नमकीन लाते समय आवाज देकर ऊपर बुला लिया था।
  ‘‘बन्नी, एक काम कर पुत्तर। थोड़े से टमाटर, गाजर और मूली काटकर बढ़ि़या-सा सलाद बना ला। देख तेरे अंकल आए हैं, चंडीगढ़ से ... और सुन...नीबू के दो टुकड़े और अदरख भी गेर दीं... आज मंगलवार है, नहीं तो तेरे अंकल को चिकन-सिकन बनाकर खिलाते। अब इससे ही काम चलाना पड़ेगा... हां, सुण पनीर ना भुल्ल जाइं, समझेया?’’
बन्नी के जाने पर निरंजन ने अपना अनुभव बताया कि नीबू और अदरख साथ में ले लो तो पेट सैट रहता है। मैं और चोपड़ा ने एक दूसरे का मुंह देखा और अपनी-अपनी मुस्कराहटें बर्फ के क्यूब की तरह बातों में उड़ेल दीं।
  ‘‘चंगा ब्रांड हो तो कुछ नहीं कहती शराब।’’ चोपड़ा बोला.
‘‘ओए, चंगा ब्रांड मिलता कहां है ? मिलावटखोरों ने शराब जैसी घटिया चीज तक को नहीं छोड़ा।’’
  ‘‘एक्सेस आॅफ एवरिथिंग इज़ बैड...हिसाब से चलेंगे तो कोई चीज माड़ी नहीं होती।’’ मैंने अपने उद्गार प्रकट किये। मैं कुछ और कहना चाहता था जो कुछ देर से मेरे माथे में अटकी पड़ी थी कि निरंजन टपक पड़ा।
  ‘‘चोपड़ा तेरे को बताया था न, हमारे ये भाई साब अखबार में लिखते हैं। इस-उस के वश की बात नहीं अखबार में लिखना.............हि इज़ एन इंटेलैक्चुअल। सारे खुशवंत सिंह नहीं बन सकते। बूड्ढे बेल्ले भी पट्ठा लिखी गेया...अपणी पंजाब की हेल्थ मिनिस्टर है न, लक्ष्मीकांता चावला, वह भी अखबार में खूब लिखती है। भाई साब के लेख आते हैं। ‘भारत समाज’ में कहानियाँ छपती हैं।’’
चोपड़ा उछल पड़ा, ‘‘भारत समाज में छपती हैं। फिर तो मान गए भाई साब। ऐरे-गैरों की कहानियाँ नहीं छप सकती हैं भारत समाज में। वह अखबार भी चोपड़ाओं का है। हमारे रिश्ते में हैं। मैं जानता हूँ उन्हें। वाकई, भारत समाज में छपना बहुत बड़ी बात है। नाई से नायब-तहसीलदार तक पढ़ते हैं भारत समाज।’’
मैं चुपचाप मुस्कराता रहा और अपनी प्रशंसा से फूलता जा रहा था। थोड़ी-थोड़ी फुलावट रेडनाइट की वजह से भी हो आयी थी। दिमाग के तंत्र ढीले होने लगे थे। मन ही मन सोचा, अपने को बड़ा साहित्यकार मानने वाले लोग यों ही कहते रहते हैं कि ‘भारत समाज’ का कोई स्टैंडर्ड नहीं है...सालों की छप कहां पाती है। चोपड़ा वापस कर देते होंगे घटिया रचनाओं को यह कहकर कि अखबार में जगह की कमी है।
न जाने क्या सोचकर निरंजन कहने लगा, ‘‘आप भी तो पंडत हो भाई साब। देखो कितने प्यार से हमसे मिलते हो। हमारे संग बैठकर सुक्का-सिन्ना खा-पी लेते हो। एक वो साला अपने दफ्तर का चतुर्वेदी है। साले को वेद का अर्थ ही नहीं पता और यह दूसरा भैण का जो नीचे बैठा है। बिजनेस कर रहा है। दो-दो मिनट के बाद कहता है इक्कीस रुपए रखो, इक्यावन रुपए रखो। इनके बारे में जरूर लिखना। उनके बारे में भी जरूर लिखना जो सबेरे-सबेरे टी.वी. पर मार्केटिंग करने आ जाते हैं। एक बार इनकी मंजी जरूर ठोकना भाई साब।’’
  ''मंजी तो कई बार ठोकी है, पर इशारे ही इशारे में। कोई फर्क नहीं पड़ता उन्हें। खुल्लमखुल्ला लिखो तो साले संपादक नहीं छापते। कहते हैं कि हिन्दू भड़क जाते हैं। विज्ञापन के नाम पर जो कूड़ा-कबाड़ा छापना हो, सब नंगी लड़कियों की फोटो के साथ छाप देंगे।'' मैं अचानक हवा में एक फ्रेम बनाने लगा।
  ‘‘क्या कुछ लिखा था ज़नाब, जरा हमें भी एकाध कथा सुना दीजिए।’’ चोपड़ा कहने लगा, ‘‘हम तो जब से इस नौकरी में आए हैं, पढ़ने की आदत ही छूट गई। बड़ी मुश्किल से हेडलाइन कभी-कभार देख पाता हूं। दिन में यों ही बीजी रहते हैं, शाम को हमारे ये साब बिजी कर देते हैं।’’

  ‘‘ओये चोपड़ा, बड़ी जल्दी चढ़ने लगी आज तेरे को।’’ निरंजन का तीसरा पैग बोला।
मैं भी अब सितारों की दुनिया में घूम रहा था। दो पैग अंदर गए नहीं कि हमेशा शांत रहने और बोलने में शब्दों की कंजूसी करने वाला शख्स मैं अपने सामने बैठे शराबियों का मुंह बंद कर देता हूं। बात कहां की चल रही होगी और मैं उसमें अपना आदर्शवाद, सच्चरित्रता, समाजवाद, आध्यात्मवाद, माक्र्सवाद और न जाने कौन-कौन से वाद-विवाद घुसेड़ कर रख देता हूं।
  ‘चोपड़ा साहब, आपको अखबार की झूठी-सच्ची कहानी क्या सुनाएं। एक बिल्कुल सच्ची कहानी सुनाता हूं। इन पंडों की ऐसी-तैसी फेर कर रख दी थी हमने।’’
  ‘‘सुनाइए, भई सुनाइए...साब जी आपका सलाद नहीं आया।’’
  ‘‘ओए बन्नी, बन्नी कहां रह गया तू...?’’ निरंजन छत से उतरती सीढ़ि़यों को चीखा।
  ‘‘डैडी, ला ही रहा था मैं।’’ अचानक बन्नी प्रकट हुआ।
  ‘‘भाई साब, आप चालू रहें।’’
  ‘‘चोपड़ा साहब, हुआ ऐसा कि...’’ मैंने मूली का टुकड़ा उठाते हुए कहा, ‘‘जब मेरा बेटा हुआ था न....... निरंजन ने बहुत मदद की थी। मेरी बेटी उस वक्त बहुत छोटी थी। पत्नी की डिलेवरी होने वाली थी। मैं तो उसके साथ अस्पताल में उलझा रहा। बिटिया इनके पास ही रही... आतंक के दिन थे वे चोपड़ा साहब।’’
निरंजन ने टोका, ‘‘अरे भाई साब, आप भी क्या साधारण-सी बात ले बैठे। उसे छोड़ो, बस इन पंडतों और उन बाबाओं की खाल उतारिए जो टीवी पर रोज-रोज लोगों को मूर्ख बनाते हैं। जगह-जगह भीड़ इकट्ठा करके अपना बैंक-बैंलेंस बढ़ाते जा रहे हैं। हमारे हिन्दू भाई तो निहायत ही भोले हैं, जहां इन बाबाओं को देखा-सुना कि पांव में लोट जाएंगे।  मैं कहता हूं कि किसी मंदिर में देवी-देवताओं का पूजा-पाठ चल रहा हो और ये वहां  पहुंच जाएं  तो लोग देवी-देवताओं की भक्ति छोड़कर इनकी भक्ति करने लग जाते हैं। अब आप ही बताइए शर्मा जी, गुरू बड़ा है कि परमपिता परमेश्वर जिसने यह सृष्टि रची है ?’’
निरंजन को अब चढ़ने लगी थी। मेरे लिये भाई साब का सम्बोधन छोड़कर शर्मा जी कहना इसी बात का सूचक था और यह आज का किस्सा नहीं, वर्षों पुराना किस्सा है। मैं सूफी निरंजन के लिए भाई साब होता हूं और मदमस्त निरंजन के लिए शर्मा जी।
  ‘‘आप की बेटी मेरी बेटी है। दुनिया की जितनी बेटियां हैं, सब मेरी बेटियां हैं। उन साले डाक्टरों की ...भैण के.... कुडि़यों को मार डालते हैं। हरामखोरों को खंभे पर, सच कहते हैं हमारे मान्यवर जज। उनको लैम्प-पोस्ट पर लटकाकर मार डालना चाहिए। सभी भ्रष्टाचारियों की मां की...’’
चोपड़ा साहब को बोरियत महसूस होने लगी थी।  वे धड़ाधड़ मूलियां और गाजर चबाये जा रहे थे। अवसर मिलते ही उन्होंने बीच में फिर से मुझे टोका, ‘‘भाई साब, आपकी वह कहाणी बीच में रह गई ... ‘भारत समाज’ में छपी थी न। सुनाइए, सुनाइए-- मेरी मां, मेरी पत्नी, मेरी बेटी सब भारत समाज बड़े चाव से पढ़ते हैं। मैं जाकर उन सबको कहूंगा,  तुमलोग कहानी अखबार में पढ़ते हो। मैं कहानीकार के मुंह से कहानी सुनकर आया हूं।’’
मुझे अगला घूंट बड़ा कड़वा लगा। झट से नमकीन मुंह में दबायी और मन ही मन सोचा, अब नहीं पिऊंगा। यह गिलास यों ही भरी की भरी रहने   दूंगा ताकि अगले पैग को आने का अवसर ही नहीं मिले।
  ‘‘चोपड़ा साहब, कहानी तो मैं जरूर सुनाऊंगा, पर जरा इस निरंजन को भी पूछ लें कि बार-बार डाक्टरों को गाली क्यों दिये जा रहा है... अब सभी डाक्टर तो ऐसे नहीं होते। इक्का-दुक्का हरामखोर तो हर जगह निकल आते हैं। इसके लिए सबको गाली देना... ? मेरे बाॅस आजकल एक सीनियर मेडिकल आॅफिसर हैं...चोपड़ा साहब को

पता है न कि मैं हेल्थ डिपार्टमेंट का बंदा हूं... हां तो चोपड़ा साहब, मेरा सीनियर है तो छोकरू, नया-नया ट्रांसफर होकर दिल्ली से आया है। वही बता रहा था कि चंडीगढ़ में क्राइम बहुत कम है। दिल्ली में रेप-केसों की मेडिकल करने की ड्यूटी थी उसकी। वह कह रहा है कि वहां लगभग रोज तीन-चार केस उसके पास आते थे जिनमें दो साल की बच्ची से लेकर साठ साल की वृद्धा तक को हैवानियत का शिकार बनाया जाता है। चोपड़ा साहब ने ठीक ही कहा कि इनसान अब जानवर में तब्दील होता जा रहा है...हमारे एस.एम.ओ. साहब चाहते तो ऐसे मामलों में झूठी रिपोर्ट देकर लाखों बना लेते। वे भी एक डाक्टर हैं पर उनमें इनसानियत जीवित है। यह दुनिया सिर्फ अच्छे लोगों की वजह से चल रही है निरंजन।’’ मैंने निरंजन की ओर देखा। उसकी आंखें भारी हो रही थीं। जब इसके आगे उसने कुछ नहीं कहा तो मैं चोपड़ा को अपनी कहानी सुनाने लगा----
  ‘‘चोपड़ा साहब, कहानी यह है कि मैंने कालीघाट के पंडों की चलने नहीं दी। आप काली कलकत्तेवाली के घाट में जाएंगे तो बिना लुट-खसूट के आ नहीं सकते। मैं आया उनकी ऐसी-तैसी करके। हुआ यों कि जब मेरा बेटा हुआ था तो... तो निरंजन ने बड़ी मदद की थी। सच कहता हूं, ईमान से।’’
चोपड़ा अधीर हो उठा, ‘‘मैं जानता हूँ   भाई साब। यह अपना निरंजन है ही यारों का यार। मैं तो इस अफसर का छोटा-सा नौकर हूं पर इसने मुझे कभी नौकर नहीं समझा। हमेशा अपनी बराबरी में बिठाया। आइ नो...आइ नो... आप काली कलकत्तेवाली की सुनाइए कि जब आपका बेटा हुआ...’’
‘‘हां, जब मेरा बेटा दस महीने का हुआ तो पत्नी को यह बताया कि मैंने मनोकामना की थी कि हमारे घर बेटा होगा तो इसके केश मैं कलकत्ते में काली मां को चढ़ाऊंगा.’’
सुनकर निरंजन ठहाका मारकर हंसने लगा और लगातार हंसता चला गया। मुझे खीझ-सी हुई और उसकी पगड़ी पर नज़र गड़ा दी जो उसने मंजे पर उतारकर रख दी थी। अपनी खीझ को मैंने उसकी तह में उसी तरह छिपा दिया जिस तरह कई बार वहां बीड़ी छुपा दी जाती है। चोपड़ा ने ही उसे चुप कराया, ''सर जी, अब कहानी तो पूरी सुन लो।’’
  ‘‘हां भाई साहब, फिर...’’ चोपड़ा ने मुझे आगे कहने का रास्ता दिया।
  ‘‘पत्नी कहने लगी कि बच्चे के केश इसी साल चढ़ा दीजिए नहीं तो बात तीसरे साल में जाएगी। सो हमने उसी वक्त निर्णय ले लिया कि दो महीने के अंदर कोलकाता जाएंगे और काली मां  को पूजकर ही लौटेंगे।’’
गाजर का एक टुकड़ा चबाते हुए मैंने अपनी कहानी जारी रखी, ‘‘सो हम जा पहुंचे कोलकाता। मेरा छोटा भाई कोलकाता से चालीस किलोमीटर पीछे साहागंज में रहता है। उसी के पास डेरा डाला। फिर अगले मंगलवार समय निकालकर जब कालीघाट पहुंचे कि ट्राम से उतरते ही पंडे हमें घेरने लगे।’’
छोटे भाई ने कहा, 'मैं बात करुंगा।' उसने एक पंडे से पूछा, ‘‘भतीजा का चूल चढ़ाना है, कितना लगेगा ?’’
  ‘‘क्या चढ़ाना है, समझ में नहीं आया भाई साब।’’ चोपड़ा ने बीच में टोका।
इस पर निरंजन की जुबान से पंजाबी फूटी, ‘‘यार बंगाली बालां नूं चूल कहेंदे ने।’’(बंगाली बालों को चूल कहते हैं)
मैंने हामी भरी, ‘‘बिल्कुल ठीक.............अच्छा आगे सुनो। जब भाई ने पंडे से पूछा तो उसने कहा, एक हजार एक दे दीजिएगा। बिना कोई झंझट-झमेला के मां का दर्शन भी करा देंगे। फूल, माला, प्रसाद, डोरी, नाई सब उसी में हो जाएगा।’’
भाई ने कहा, ‘‘पंडित जी अपना रास्ता नापो। हमीं लोग मिले बूढ़़बक बनाने को। जाइए कोई और खुद्दर ढूंढिए।’’ छोटे भाई ने उस पंडे को झिड़क दिया।
कुछ कदम अभी चले ही थे कि दूसरा आ गया।
  ‘‘सात सौ इक्यावन में कर देंगे सब।’’

भाई ने उसे भी घुड़क दिया, ‘‘साला, तुमलोग लोकल आदमीए को ही नहीं छोड़ता है तो बाहर के लोगों का क्या हाल करता होगा ?’’
  ‘‘मजा आ गया कहानी सुनकर शर्मा जी।’’ निरंजन के चेहरे पर एक विद्वेष भरी मुस्कान उभर आयी थी, ‘‘इनके साथ ऐसा ही होना चाहिए... इक वो जेड़ा नीचे बैठ्या है, मां दी... अपनी दिहाड़ी बना रहा है।’’
चोपड़ा में जिज्ञासा भाव उछालें मारने लगा था, ‘‘फिर क्या हुआ भाई साब ?’’
मैंने एक घूंट फिर चढ़ाया, मुंह बनाया, अदरख चबाया, सी-सी की और फिर चालू हो गया, ‘‘चोपड़ा साहब, यह ‘भारत समाज’ वाली कहानी नहीं है, सचमुच की कहानी है। किसी साले अखबार के संपादक में इतनी हिम्मत नहीं है कि इसको छाप दे। चलिए छोड़ि़ए, सुनिये आगे।’’
हम आगे बढ़े कि एक और पंडा नमूदार हुआ और उसने मेरे और मेरे गोद में लिये बेटे के गले में लाल धागों की माला डाल दी। कहने लगा, ‘‘चलिए हम कमती में ही निपटा देंगे.’’
  इस पर छोटा भाई भड़क गया, ‘‘कोई जरूरत नहीं है, हम अपने आप सब कर लेंगे। तुमलोग हमारा पीछा छोड़ो।’’    
इस पर वह चिरौरी करने लगा पर भाई अब मानने वाला नहीं था। हारककर पंडे ने अपना हाथ मेरी गर्दन की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘...तो फिर इ डोरवा तो उतारते जाइए।’’
इस बार मैं भड़क गया, ‘‘क्यों बे तूने यह लाल डोरा मेरे गले में पूछकर डाला था।’’
हम आगे-आगे और वह पीछे-पीछे। इस पर पत्नी ने कहा, ‘‘मंदिर जा रहे हैं ऐसे न कीजिए, दे दीजिए उतारकर डोरा।’’
छोटे भाई ने एक नाई को दस रूपए देकर बेटे के बाल उतरवा दिये। वहीं सड़क के किनारे हैंडपंप पर पत्नी ने बेटे को नहलाया और इक्यावन रूपए का फूल, प्रसाद लेकर काली मां के दर्शन किये और केश चढ़ा आए।
  ‘‘ऐसे ही सुधरेंगे ये लोग। सबको ऐसा ही करना पड़ेगा तभी अमुकानंद, तमुकानंद जैसे बाबाओं की खेप आनी बंद होगी।’’
  निरंजन ने जब ऐसा कहा तो चोपड़ा को बहुत बुरा लगा,  ‘‘निरंजन सिंह जी, ये लोग धर्मात्मा हैं।  धर्म का काम कर रहे हैं। लोगों में ज्ञान बांटते हैं।’’
  ‘‘स्वाह बांटते हैं। बांटते नहीं चोपड़ा, कहो कि बेचते फिरते हैं। कौन-सी नई बात सुनाते हैं ये लोग. हमारे धर्मग्रंथों में तो यह सब पहले से ही लिखा हुआ है। ये धर्म नहीं करते, विरोध फैलाते हैं। लोगों को आपस में लड़वाते हैं। गीता, कुरान, बाइबिल के शब्दों में कोई फर्क नहीं है। ये लोग फर्क करने की सोच डालते हैं हम में।’’
  ‘‘अरे छोड़ो निरंजन... चोपड़ा साहब, हम क्यों इन पचड़ों में में पड़ें।’’ मैंने पटाक्षेप करते हुए कहा, ‘‘चलो बहुत हो गई, अब खाना खा लिया जाय।’’
अचानक हम तीनों को ख्याल आया कि खाने के लिये बन्नी और उसकी मां हमें बारी-बारी से बोल गए हैं।

दूसरे दिन विवाह-समारोह एक पैलेस में होना था। बारात वहीं आनी थी। ग्यारह बजे तक सभी सजधज कर वहां पहुंच गए। चलने से पहले निरंजन मुझे फिर छत पर ले गया।
  ‘‘यार मुझे इन सब मौकों पर कुछ झेंप-सी महसूस होती है। ड्राइ-जिन की एक-एक पैग ले लेते हैं। कुछ नार्मल हो जाएंगे।’’
पैलेस में पहुंचकर उसने वहां के मैनेजर से कहकर रसोई के पीछे एक कमरा बुक करा लिया। चोपड़ा पहले से वहां मौजूद था। निरंजन ने उससे कहा कि पीने वालोें का पूरा ख्याल रखे।
फिर वह मुझे लेकर हाॅल में आ गया।
 
‘‘भाई साब, आप मेरे ही साथ रहना। कन्यादान तक मुझे हिसाब से रहना पड़ेगा। आप बेशक बीच-बीच में जाकर अपने हिसाब से लेते रहें।’’
मुझे अब पीने की तनिक भी इच्छा नहीं थी। रात के तीन पैग से ही अंतड़ि़यों में जलन होने लगी थी। उस पर सुबह-सुबह ना करने के बावजूद निरंजन ने ड्राइ-जिन पिला दिया था। कुछ खाने की भी इच्छा नहीं हो रही थी अब। इच्छा हो रही थी तो सिर्फ कोल्ड-ड्रिंक की जो अब तक मैं कई बार पी चुका था। चोपड़ा बीच-बीच में हमसे आकर मिल जाता और बता जाता कि सब ठीक चल रहा है। पैलेस में कोई भी शख्स नशेड़ी नहीं लग रहा था।
विवाह की सारी रस्में पूरी हुई और दुल्हा-दुल्हन सजे-धजे मंच पर रखी शाही कुर्सियों पर आसीन हो गये थे। डीजे की तेज धुन पर तेज नृत्य हो रहा था। पंजाबी गीत ‘दारू पी के, दारू पी...’  के शुरू होने पर नर्तकों का जमावड़ा बढ़ता चला गया। अब तक अपना कोटा पूरा कर चुका निरंजन मेरे बगल में खड़ा इस गीत पर धीरे-धीरे झूमने लगा था।
अंततः विदाई की घड़ी भी आ गई। औरतों से घिरी सन्नो कब पैलेस के बाहर तक आ गई थी, इसका हमें भान तक नहीं हुआ। निरंजन झटपट जाकर सन्नो से मिल आया और एक तरफ मेरे और चोपड़ा के बीच में तीसरे बुत की तरह आकर खड़ा हो गया।
औरतों को रोते और रूमालों से अपने आंसू पोछते देख चोपड़ा बुड़़बुड़ाया, ‘‘भाई साहब, कुदरत ने भी क्या रीत बनायी है। नाजों से पाली बेटी को पराये घर भेजना पड़ता है।’’
मैं और निरंजन चुपचाप पाषाणमूर्ति की तरह खड़े थे। चोपड़ा अपनी रौ में बोले जा रहा था, ‘‘ऐसे समय में दिल पर पत्थर रखना पड़ता है। बड़ा से बड़ा दिलवाला भी...’’
अचानक निरंजन की मूर्ति पीछे मुड़ी और कुछ कदम जाकर फिर अपने ठीये पर लौट आयी। तभी अचानक चोपड़ा बुक्का फाड़कर रोने लगा और सन्नो-सन्नो करता औरतों की भीड़ में जाकर गुम हो गया।
मेरे बुत की आंखों से आंसुओ का बांध टूट पड़ा। गर्दन घुमाकर निरंजन की ओर देखा। उसकी आंखें सुर्ख लाल थीं और सारी दाढ़ी आंसुओं से सन गई थी। उसने जेब से रूमाल निकाल कर आंखों पर रखा और बुदबुदाया, ‘‘इस चोपड़े के बच्चे ने सारी उतार कर रख दी।’’

रचनाकार परिचय-

नामः रतन चंद ‘रत्नेश’
जन्मः 20 अगस्त 1958
पुस्तकें प्रकाशितः सिमटती दूरियां (कहानी-संग्रह ), एक अकेली (कहानी-संग्रह ), झील में उतरती ठंड (कहानी-संग्रह)
बांग्ला की श्रेष्ठ कहानियां  (अनुवाद)
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लघुकथा हिमाचल (संपादन/ई-बुक(अनुवाद)  
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देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां, लघुकथाएं, कविताएं, व्यंग्य, यात्रावृत, बांग्ला और पंजाबी से अनुवाद तथा बाल-साहित्य का निरंतर लेखन।
संपर्कः म0 नं0 1859, सेक्टर 7-सी, चंडीगढ़-160 019
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प्रस्तुति:- बिजूका
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टिप्पणियाँ:-

दीपक मिश्रा:-: बढ़िया कहानी। अंत कमजोर है। लेकिन भाषा जीवन्त है और क़िस्सागोई सघन। सम्वाद सहज हैं।

पल्लवी प्रसाद:-: भाषा जीवंत है । 'बात' को कहानी से जन्म लेना चाहिये लेकिन वह 'फिट' की गई है ।

1 टिप्पणी:

  1. शीर्षक से कहानीकार का पूरा नाम क्यों छुपाया गया है। यह समझ से परे है।

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