06 जुलाई, 2016

कविता : सर्वेश सिंह

नमस्कार मित्रो,
   आज आपके समक्ष समकालीन कवि की दो कविताएँ प्रस्तुत हैं। इन पर अपने विचार अवश्य रखियेगा।

कविता:

1.   लौट जाओ बेटी   

 

गुरुत्त्व था तुम्हारा बचपन

इस घर के लिए  

हाथों से पकड़ जिसे

घूम लिया पृथ्वी और आकाश

पर लपेट हर बार तुमने खींच लिया  

अपने मोंह के परेते में

 लेकिन घर जीवन की हद नहीं है मेरी बेटी

 और इसीलिए अब जबकि तुम बड़ी हो गयी हो

तो मैं चाहता हूँ की तुम्हें दूं

एक लम्बी हरी धरती

और एक असीम खुला आसमान

बढ़ने के लिए

उड़ने के लिए

 पर दुविधा में हूँ

कि तुम्हे भेजूं कहाँ मेरी बच्ची ?

 देखता हूँ इस शहर में हैं कड़कड़ाती हड्डियों सी सड़कें

और आवारा सांड से चौराहे

मोक्ष की इस नगरी में

स्वर्ग को जाता हर रास्ता

बजबजाते कीच और फूलमालाओं के लोथड़ों से होकर गुजरता है

मुक्ति की चाहना को किसी की आँख में देखते ही

यहाँ ईश्वर के दूतों की देह में उग आते हैं खूनी पंजे

और वे शरीर ही नहीं

आत्मा को भी नंगी कर

अपनी धार्मिक वासना की प्यास खोज लेते हैं

 पत्थरों की बिसात पर खुरची गई हर सुकुमार देह को देख

मैं सिहर उठता हूँ मेरी बच्ची   

 हालाँकि हो सकता है की इन रास्तों से बच बचाकर

तुम अपनी मरजाद लेकर निकल भी आओ

पर इसी शहर की उन उन्मादी रातों को कैसे भूल जाऊं

जिनमें आदमी, भेड़ियों में तब्दील हो जाता है

और मासूम बच्चियों तक को दबोच कर

गंगा की तलहटी में विलीन हो जाता है

कहते हैं की वे भेडिए उन तलहटियों में

उन बच्चियों की हड्डियों से भी मिटा लेते हैं

अपनी जीभ और उँगलियों की तृष्णा

और फिर उन्हें उसी गंगा में बहा देते हैं.

फिर सुबह उन्ही पानियों में नहाकर

लोग स्वर्ग के रास्तों पर बढ़ जाते हैं

 मंदिरों का यह शहर मुझे मुफीद नहीं लगता तुम्हारे लिए बेटी

 तो क्या तुम्हे राजधानी दिल्ली भेज दूं ?

जहाँ डीयू और जेएनयू हैं !!

 यह ख़याल अक्सर मुझे उत्साहित करता है बेटी  

पर इधर दिल्ली की बसों, चलती कारों, मेट्रो, और कैम्पसों

और यहाँ तक की संसद से भी डर लगने लगा है मेरी बेटी

सुनते हैं की दिल्ली के भेड़िये अब दिन के उजालों में भी शहर में घुस आते हैं

चलती कारों, बसों या किसी भी जगह को ये बिस्तरों में तब्दील कर देते हैं

वे लोहा लेकर शिकार को उतरते हैं

और सिखाते हैं मादाओं को मुक्ति और स्वतंत्रता को सहने का पाठ

और जिस्मों पर वे उन हथियारों से करते हैं वार

जिनका जिक्र पेनल कोड और संविधानों में कहीं नहीं है

और विडंबना देखो की पेट से खून की शिराएँ तक निकाल लेने वाले वे भेड़िये

अंत में बेदाग़ बरी हो जाते हैं

और चौसठ योगिनियों के मंदिर की भोंडी अनुकृति

वह संसद

करती रहती है, करती रहती है

जाति और मजहब पर बहसें

 यह सब देख मुझे लगता है

कि तुम्हे दिल्ली भेजना

किसी इंद्रजाल में तुम्हे फंसाने जैसा है मेरी बच्ची

 और इसीलिए इधर कुछ दिनों मैंने यह भी सोचा  

कि तुम्हे देश से बाहर कहीं भेज दूं

उधर, उत्तरी गोलार्ध की पश्चिमी हवाओं में

जैसे की मध्य पूर्व

जहाँ कुरआन की आयतें और इस्लाम की शांति है

खुदा की निगाहबानी में

गुनाहगारों का साया भी

शायद तुम्हारे नजदीक न आ पाए

 पर उन खजूरी रेगिस्तानों में आजकल

यह न जाने क्या पागलपन चल रहा हैं मेरी बच्ची ?

नौनिहालों के हाथों से बरस रही हैं एके-४७ की गोलियां

आत्मघाती बमों से सिसक रही है रेत

जंजीरों में बाँध बाजारों में बिक रही हैं सुंदर देह

और फिर उन्हें चींथा जा रहा है

अमेरिका और रूस से बदले के नाम पर।

 मैं सहम रहा हूँ मेरी बेटी

तुम्हे जिहाद के रैम्प पर क्या कैटवाकर बनाना है मुझे ?  

या धरती की बहत्तर हूरों में से एक बनता तुम्हे देखता रहूँ मैं ?

 नहीं मेरी बेटी

तुम्हे वहां भी भेजना दरअसल तुम्हे जिन्दा मार देना है

क्योंकि खुदा वहां किसी आत्मघाती हमले में जमींदोज हो चुका है

और पवित्र कुरआन की आयतें

धमाकों के बीच

मृतपाय मनुष्यता के शोक गीत गा रही हैं

 खोजते-खोजते अब थक गया हूँ मेरी बच्ची

लगता है कोई शहर,कोई देश

अब नहीं बचा

कि जहाँ मैं तुम्हे भेज सकूँ

उड़ने को

बढ़ने को   

चाहे दिल्ली हो या मद्रास

चाहे अमेरिका हो या फ़्रांस

 तुम्हे एक हरी धरती

और एक साफ़ आसमान देने में

तुम्हारा यह पिता शायद अक्षम है 

 पर हाँ,

एक सम्भावना अब भी बची है मेरी बच्ची

भले ही थोड़ी सी ही  

पर अभी भी शायद एक जगह

हमेशा की ही तरह  

आदमी से बची रह गयी है

और वह है- गर्भ

तुम्हारी माँ का  

सजल और स्निग्ध

 अच्छा होगा कि लौट जाओ मेरी बच्ची

उसी अँधेरी कोख में

लौट जाओ मेरी तितली

उसी हिरण्यगर्भ में

लौट जाओ मेरी आत्मजा  

सृष्टि के उसी अधिष्ठान में

जहाँ की पवित्र शांति में

तुम्हारी प्राण-नाल जुडी है

तुम्हारी माँ के पेट से

ह्रदय से

मन से

 लौट जाओ बेटी

स्वतंत्रता और गरिमा के उसी निर्जन में

जहाँ आदमी

उसका समाज

उसका धर्म

उसकी आसमानी किताबें

और उसके खुदा भी पहुँच नहीं सकते

कभी भी नहीं पहुँच सकते  

 लौट जाओ मेरी बेटी

कि यहाँ धर्म,धर्म नहीं,अनाचार है

न्याय,न्याय नहीं, बलात्कार है

खुदा, खुदा नहीं

धरती पर होता हुआ सनातन व्यभिचार है

 लौट जाओ मेरी बेटी 

कि पिता, अब पिता नहीं

एक निरीह कविता है

और कविता, कविता नहीं

बस, एक बेबस तर्पण है- 

 ॐ, न तातो न माता न बन्धु: न दाता |

न पुत्रो न पुत्री न भृत्यो न भर्ता ||

न जाया न विद्या न वृत्तिर्ममैव |

गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ||
_____________________________

2. प्रेम के आइनों-सी तुलसी की पत्तियाँ

 
आजकल रोज रात सोने से पहले

सिरहाने पानी से भरा

शीशे का एक गिलास रख लेता हूँ

और सुबह आँख खुलने पर

उसे तुलसी पर चढ़ा देता हूँ

 पता नहीं बासीपन से

या शीशे में रखने से

या अँधेरे में रात भर रखे रहने से  

या सिरहाने पड़े रहने से

या मुझ से कुछ पानी में मिल जाने से

पर ध्रुव है की पानी से ही

होता यह है कि 

दिन ढले तुलसी की पत्तियाँ

आइनों-सी दिखने लगती हैं  

उनमें झलकते हैं चाँद सितारे

आकाश और आकाशगंगाएँ

देवियों और देवताओं के चेहरे

अमृत और विष के कलश

आसमानी किताबों के फड़फड़ाते पन्ने

 और सूरज को मुट्ठियों में दबाये पृथ्वी के चक्कर लगाता मैं  

 यह सब धार्मिक-सा लग सकता है

पर मैं साफ़ दिल से कहता हूँ

कि यह अजूबा देखकर

मेरा यकीन इस बात पर बढ़ने लगा है

कि मैं किसी से प्रेम करने लगा हूँ 

3.  डूबना सिर्फ मरना नहीं होता

  मुझे चाहते हो !
बिलकुल ! कोई शक ?
क्या कर सकते हो मेरे लिए ?
किस में ? चाहत में ?
हां, चाहत में !
कुछ भी, जो तुम कहो 
गंगा में कूद सकते हो ?

 "हाँ !"

और वह गंगा में कूद गया

गंगा उसे अपने में समाता देख 
पहले बेचैन हुई
फिर मुस्कुराते हुए वहीं ठहर गई

वह उदासीन उत्सुकता से गंगा में देखती रही
और जब वह चिल्लाने को ही थी कि तभी 
वह पानी को चीरते उतराया
मध्यमा और तर्जनी से अंग्रेजी का ‘वी’ बनाते बाहर आया
और उसकी बगल में आकर बैठ गया

उसे देख वह जोर से हंसी 
फिर अजीब व्याकुल नजरों से उसे घूरा 
और फिर तमतमायी उठी और चप्पल पटकते लौटने लगी

वह भाग कर पीछे से उसके आगे आया 
बोला- अब क्या हुआ !

वह लगभग चिल्लाई- ‘लेकिन तुम डूबे नहीं ?’

धीरे से वह बोला- 
‘तुमने सिर्फ कूदने के लिए कहा था, 
और मैं तैरना जानता था, 
और अगर डूबता तो मर नहीं जाता !
क्या तुम मझे मारना चाहती हो’ ?

‘यही तो तुम्हारी मुश्किल है’, 
वह बोली-
‘मैं चाहती हूँ कि तुम मरो नहीं 
बल्कि डूब जाओ
मुझ में
खुद में 
इस गंगा में 
और हर उस जगह जहाँ हम हों 
लेकिन हर जगह, हर बार 
तुम तैर कर बाहर निकल आते हो 
आखिर तुम्हारी दिक्कत क्या है ?’

‘तैर कर बाहर निकल आने की इतनी हड़बड़ी क्यों रहती है तुम्हें’

‘देखो, तुम्हे जानना चाहिए कि 
डूबना सिर्फ मरना नहीं होता’

यह सुन 
उन्हें देख ठहरी गंगा 
भीतर तक काँप उठी 
और अनमने, सागर की राह चलीं 

4. प्रेमेतर

 
इतर प्रेम कोई पाप नहीं है

चाह भरे दिल में

उसका पलना

केवल दैहिक ताप नहीं है

 गलत नहीं उस खिड़की को गह लेना

जो घरनी की सूनी आँख बनी हो

नहीं बेतुका वहां बैठना

जहाँ ठिठक कर बैठि दिखे

प्रियतमा कोई उदास

 वह सब पुनीत है

जितना इनमें बचा हुआ है प्रेय

होने को दाह..

 नहीं बुरा है वह चौर्य-भाव

जब खोजे कोई

उनके तन-मन में   

यदि बची हुई हो

कहीं भी कोई राह

 भले ही उस पर छाप पड़ी हो किसी राग की 

या फिर जो ना चली गई हो   

 उतर कर उन राहों पर चलना

किसी किनारे हौले से

उस रस को भर लेना

भर देना  

नहीं नारकीय अघ जैसा

ना शाप देव का

ना क्रोध ऋषि का  

ना शब्द विरोधी मंत्र विरोधी

ना ही ऐसा कुछ है उसमें

जो हो शास्त्र-असम्मत लोक-असम्मत  

 मत पूछो आसमानों से  

प्रेम कोई अजपा जाप नहीं है.

5.   विरह में दो मन्त्र

 
वहाँ जूते उतार कर जाते हैं

जैसे बिस्तरों पर

द्वार पर नंदी है-

उत्तुंग और उत्तेज

 अंगूठे और तर्जनी की योग-मुद्रा से उसे आभार दें

 यहाँ से अब वापसी मुश्किल है 

ध्यानावस्थित मन 

लसलसे रास्तों पर

खुद-ब-खुद आगे बढ़ता जाएगा  

खून में मुक्ति की चाहना के काबुली घुड़सवार 

दौडेगें सरपट 

 एक-सा ही जादू है

यहाँ भी..

और वहाँ भी.. 

कि मन की अज्ञानता में 

गर्भ-गृह के द्वंद्व की सुखद यातना में

एक गति, एक ताल और एकतानता में  

सारी ये कायनात

मंथनमय है 

 और वहां जहाँ गिरता दूध जमा हो रहा है

और गल रहे हैं फूल,बेलपत्र 

वह आकृति, रूप के भवन में दीप की शिखा-सी है 

त्रिभंगी और लसलसी

वह बिस्तरों की सत्यापित प्रतिलिपि-सी है

  देवताओं में सुडौल वे

सनातन काल से वहीं जमें हैं

पत्थर के चाम हो गए हैं

 पर पत्थरों के इस विन्यास में

कितना तो साफ़ है

धर्म का उद्योग

कितना तो उज्जवल है उनका चिर-संयोग    

 कितना तो समान है

कि बिस्तरों में उस कामना के बाद

जागना नहीं

और जागरण इस प्रार्थना के बाद भी नहीं ...

 कर्म के बस दो अलग-अलग तंत्र हैं

आस्था और वासना

श्रेयस और प्रेयस   ...

 बस विरह में दो मन्त्र हैं-

ओह मेरे प्यारे शिवा !

ओम नमः शिवाय !!    

कवि परिचय :

परिचय :
नाम-सर्वेश सिंह
जन्म - उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले के वेदपुर (मांडा) गाँव में जन्म  |
शिक्षा - उच्च शिक्षा भारतीय भाषा केंद्र, जेएनयू, नई दिल्ली से | 
कुछ दिनों केंद्रीय बौद्ध अध्ययन संस्थान,लेह,लद्दाख में अध्यापन कार्य | 2006 से, बीएचयू,वाराणसी के डीएवी कॉलेज के हिंदी विभाग में अध्यापक एवं अध्यक्ष | 
छात्र आंदोलनों में सक्रियता | 
हिंदी की शीर्षस्थ पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित | रामचरितमानस की औपनिवेशिक, कथावाचकीय और तथाकथित प्रगतिशील व्याख्याओं से मुठभेड़ एवं उसके सटीक अर्थायन का निरंतर प्रयास | कहानी ‘ज्ञानक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे’ एवं ‘मसान भैरवी’ को विशेष लोकप्रियता मिली तथा नाट्य रूप में मंचित भी हुईं | कथा साहित्त्य, विशेषकर कथा भाषा के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय शोध कार्य |

प्रकाशन: आलोचना- ‘निर्मल वर्मा की कथा भाषा’ (2012), ‘साहित्य की आत्म-सत्ता’(2015), 
        कविता-संग्रह- ‘पत्थरों के दिल में’(2016) 
पुरष्कार/सम्मान: आलोचना का पहला ‘सीताराम शास्त्री सम्मान-2016’

सम्प्रति: अध्यक्ष,हिंदी विभाग, डीएवी पीजी कॉलेज (बीएचयू), औसानगंज, वाराणसी-1

Email: sarveshsingh75@gmail.com
Mob: 9415435154     

प्रस्तुति:- बिजूका
---------------------------------------
टिप्पणियाँ:-

आनंद पचौरी:-
सारे जहान की पीडा और बेबसी पिता के हृदय में सिमट गई है।यधार्ध का बहुत मार्मिक चित्रण। दूसरी भी बहुत सुंदर।  शुभकामनाएँ आज के सुप्रभात के लिए

मनचन्दा पानी:-
पहली कविता में पिता की लाचारी का चित्र बहुत बारीकी से उकेरा है, काफी अध्ययन करने के बाद बनी कविता है, जड़ो को कुरेदती, पोलों को खोलती, बख़ियाँ उधेड़ती कविता। अच्छी कविता के लिए बधाई। दूसरी कविता को समझने की समझ अभी शायद मेरे पास नहीं है उसके लिए माफ़ी चाहूँगा।

मैं कवि से निवेदन करूँगा एक कविता और लिखें। उसमे इन सबको शामिल करें। बदलाव यह करें कि बेटी की जगह बेटा हो, कर्म की जगह कर्ता हो। जिसके साथ हो रहा है उसके पक्ष में नहीं जो कर रहा है उसके विरोध में हो।
और उन्हें भी रास्ता दिखाया जाए ऐसी जगह का जहाँ से उनके पंजे, उनके हथियार, न पहुँच सकें हमारी बेटियों तक।
बेटियों को क्यों कोख का रास्ता दिखाया जाये, भेड़ियों को ही ना ठिकाने लगाया जाए।

आशीष मेहता:-
बहुत खूब मनचंदा भाई। हालांकि बेटियाँ तो अपने यहां कोख में भी सुरक्षित नहीं हैं...... कविता में पड़ताल अधिक मिली... कम शब्दों में अधिक कहा जाए, ऐसा कुछ कम रहा। दूसरी कविता पर कुछ भी कहने में असमर्थ

कुमार मंगलम:-
काशी के नव्य नाथयोगी की कवितायेँ... सर्वेश सिंह अपनी बहुआयामी रचना संसार में बहुवस्तुस्पर्शिनी प्रतिभा के धनी हैं । लौट जाओ बेटी कविता समकालीन कविता की विविधताओं में एक नया प्रस्थान बिंदु है । निर्मल और निर्मम व्यक्तित्व के मालिक सर्वेश ऐसे कवि हैं जो पत्थरों के दिल से संवाद तो करतें ही हैं तृष्णा की घाटियों में चाहना का पुल रचते हुए मृषा(असत्य)नहीं सत्य का अन्वेषी हैं । प्रस्तुति बेजोड़ है । कवि अपने सत्य के साथ ऐसे ही बनारसियत मिज़ाज़ में रचते रहें ऐसी मंगलकामनाएं । बिजूका टीम को साधुवाद ऐसी कवितायेँ पढ़वाने के लिये ।

नीलिमा शर्मा निविया:-
जब किसी मंच पर  किसी की भी रचना रखी जाती हैं  तो सम्बंधित लेखक या कवि को इंतज़ार रहता कि उनकी रचना पर सब साथियो के विचार क्या हैं ।आलोचना समालोचना स्वीकार करने को मन  /मस्तिष्क से तैयार  होता हैं  ।लेकिन जब सब आये मंच पर झांके पढ़े और बिनकहे चले जाए तो एक सृजक मन आहत हो जाता हैं ।   अब एडमिन सबके इनबॉक्स जा जा कर तो नही invite कर सकता हर बार कि आये रचनाये पढ़े ।व्यस्तता का बहाना जायज नही जब सब लोग फ़ेसबुक और अन्य ग्रुप में पूरी तरह से एक्टिव हो ।   हो सकताहै मेरी बात पर आपत्ति हो कई मित्रो को ।  लेकिन यहाँ  सब रचनाकार है ।   रचनाकारो को प्रोत्साहन ओरमार्गदर्शन देना तो बनता हैं । कई बार मुझसे भी यह गलती होती मैं पढ़कर चुप  रह जाती। क्योंकि सब इतना कुछ लिख जातेमेरे पास शब्द नही होते । अगर  ऑनलाइन ेहैं और रचनाये पढ़ली गयी हैंतो  दो शब्दों का प्रोत्साहन बनता हैं ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें