03 अगस्त, 2016

कहानी : ट्रॉफी : पल्लवी

कहानी : ट्रॉफ़ी 

शाश्वत सरस्वती विद्यालय! इस सब-डिविज़न का यह सबसे बड़ा और पुराना विद्यालय है। आपको यहाँ शायद ही कोई शख़्स मिलेगा जो यहाँ से न पढ़ा हो या जिसके बच्चे यहाँ न पढ़ रहे हों। लिहाज़ा, यदि कहा जाये कि यह विद्यालय समाजवाद का परचम है, तो बात ग़लत न होगी। स्कूल के वृहद परिसर में बनी जुदा इमारतों में नर्सरी से ले कर जूनियर कॉलेज की कक्षाएँ लगती हैं, जहाँ लड़के-लड़कियाँ साथ पढ़ते हैं। स्कूल के दो गेट हैं, पश्चिम और पूर्वी दिशाओं में। यूँ, खेलने का मैदान पार कर, कच्चे रास्ते से भी बच्चे आवाजाही कर लेते हैं।

हाल ही में स्कूल परिसर के पश्चिमी छोर पर चार कमरों की श्रृंखला का निर्माण हुआ है। इन कमरों में टीचर के लिये बोर्ड, मेज़, कुर्सी और बच्चों के बैठने के लिये बेंचों की व्यवस्था है। कमरों की रंगाई-पुताई बाक़ी है, बत्ती-पँखे भी नहीं लगे हैं। बाहर लगी तख़्ती कहती है - 'शाश्वत सरस्वती कॉन्वेंट स्कूल'। 'कॉन्वेंट' का स्थानीय अर्थ हुआ इंग्लिश मिडियम। नयी पीढ़ी के लोग अपने नौनिहालों को 'कॉन्वेंट' स्कूलों में भरती करा कर चौड़े हो जाते हैं...आजकल इलाक़े में कई छोटे-मोटे कॉन्वेंट चल पड़े हैं। शाश्वत सरस्वती संस्था शैक्षणिक क्षेत्र का पुराना मँजा खिलाड़ी है। जवाब में उसने भी यह कॉन्वेंट स्कूल खोल दिया है। हालाँकि इन स्कूलों में कितनी अँग्रेजी पढ़ाई जाती है, इसकी चर्चा शेष रहेगी। 

बहरहाल, माध्यमिक शाला के शेल्के सर कॉन्वेंट के इंचार्ज हैं। स्कूल में नर्सरी से ले कर हायर के.जी. तक की चार कक्षाएँ हैं, पर्याप्त एडमिशनें हुई हैं। प्राइमरी की दो टीचरों को यहाँ भेज दिया गया है। अन्य दो टीचरों को नियुक्त करने के लिये इंटरव्यू रखा गया है। - सुचेता सरदेसाई की शाश्वत सरस्वती कॉन्वेंट स्कूल में नौकरी लग गई है। पिछले साल उसकी बेटी प्रिया यहाँ लोअर के.जी. में पढ़ती थी। इस साल वह हायर के.जी. में जाएगी। पहले सुचेता बेटी को रोज़ छोड़ने-लेने स्कूल आया करती थी। अब वह भी यहीं टीचर लग गयी है। एक और टीचर बहाल हुई है - सुकेशिनी सावले। इंटरव्यू के दिन जो बहुत ही डरी-सहमी सी नवयुवती थी...वही है सुकेशिनी सावले।

दिन के बारह बज गये हैं। स्कूल की घंटी बज गई है। इस घंटी का दो मतलब है - एक, सुबह चलने वाली कक्षाएँ छूट गई, दूसरा, कॉन्वेंट की कक्षाएँ अब शुरू होंगी। इस समय पश्चिमी गेट पर बड़ी अफ़रा-तफ़री मचती है। कुछ बड़े बच्चे इस तरफ़ से ही अपने घर लौटते हैं। परंतु ज़्यादा भीड़ कॉन्वेंट में आने वाले छोटे बच्चों और उनके अभिभावकों की है। कई बच्चे अपनी माँओं का हाथ थामे, कई अपने पिता के साथ दुपहिये वाहनों पर या फिर ऑटो में बैठ कर स्कूल आ रहे हैं। दादी...नानी...बहन-भाई भी बच्चों को छोड़ने आते हैं। बच्चे अपनी कक्षाओं में जाते हैं...कोई ख़ास जगह पर बैठने की ज़िद करता है, कोई दूसरे बच्चे की शिकायत, फ़ैसला करवाता है...। टीचर को आते देख, उनके अभिभावक उन्हें छोड़ कर कक्षा से बाहर जाने लगते हैं। तब...बच्चों की आँखों में एक ही याचना होती है, 'मुझे जल्दी लेने आना?'

टीचर अपना पर्स और रजिस्टर टेबल पर रखती है। एक नज़र क्लास पर डाल कर, बच्चों को हाथ जोड़ कर खड़े होने का आदेश देती है। वह प्रार्थना करना शुरु करती है..." ओ गॉड...।" बच्चे टीचर के पीछे दुहराते जाते हैं।

टीचर नाम पुकारती है। बच्चे अपनी हाजरी दे रहे हैं। वह सबकी जगह पर जा कर होमवर्क चेक करती है। शाबाशी-पुचकार-अनुरोध-झिड़की...कॉपी देख, वह यथा उचित प्रतिक्रिया देती जा रही है। अब आज की पढ़ाई शुरु होगी। कोई ख़ास निर्धारित-सा अभ्यास क्रम या पुस्तकों का सेट नहीं है। स्लेज की पाटी पर बच्चे अक्षरों को चॉक पेंसिल से लिखते हैं। लिखते-लिखते मिटाते हैं, फिर लिखते हैं...। सुचेता बोर्ड पर कोई अक्षर लिखती है, फिर उस अक्षर से शुरु होने वाली चीज़ का चित्र बनाती है। उसकी ड्रॉइंग बहुत ही सुंदर है। बच्चे चित्र को देख कर ख़ुश होते हैं, और बनाने की फ़रमाइश करते हैं। सुकेशिनी को जब से पता चला है, वह भी उसे बुला ले जाती है, " दो मिनट, मैडम, मेरे बच्चों के लिये भी चित्र बना दो? " सुचेता जा कर झट से चित्र बना देती है। बच्चे ख़ुश हो जाते हैं। दोनों हँसती हैं, वह अपने क्लास में लौट जाती है। दोनों क्लासें अग़ल-बग़ल हैं - एल के. जी. ' ए ' और एल के.जी. ' बी '।

छोटे बच्चों को पढ़ाने का सुचेता का यह पहला अवसर है। मन ही मन वह कभी झुंझला जाती है लेकिन ऊपर से सब्र दर्शाती है। बच्चे एक से बढ़ कर एक हैं - कोई हमेशा दूसरे पर गिरा जाता है, कोई हथछुट्टा है, किसी की वॉटर बॉटल बहती है और कई रोते हैं। एक गुजराती लड़का है जो हमेशा बैग-बस्ता लादे खिड़की से बाहर ताकता रहता है। माँ के इंतजार में उसकी भवें तनाव से जुड़ी रहती हैं। उस दिन सुचेता ने एक बच्ची को झिड़क दिया, " तुम्हारे पास वॉटर बॉटल नहीं है? "- बच्ची ने भोलेपन से अपनी बॉटल उठा कर दिखाई। पानी से भरी काँच की बोतल...देसी शराब की। सुचेता - " कौन दिया यह तुम्हें ? " बच्ची - " दादाजी । " स्कूल छूटने पर जब बच्ची की दादी उसे लेने आई तब सुचेता ने उन्हें आड़े हाथों लिया था।

रिसेस होने पर कुछ बच्चे अपना डिब्बा खुलवाने सुचेता की मेज़ पर आ जाते हैं। उनमें एक सिंधी बच्चा आता है...शुभम् कृपलानी। उसके डिब्बे में घी के मोटे पराँठे भरे होते हैं। सब्ज़ी में इतना तेल होता है कि सुचेता के हाथ, मेज़...सब गंदे हो जाते हैं। बड़ी कोफ़्त होती है उसे लेकिन वह क्या करे ? गरम खाने के साथ बंद किया डिब्बा वह ही बड़ी दिक़्क़त से खोल पाती है, बच्चे से तो वह खुल ही नहीं सकता।

रिसेस में चारों टीचर हायर के.जी. के क्लास में एकत्रित होती हैं। तब वह कमरा स्टाफ़ रूम में परिवर्तित हो जाता है। एक रोज़, सुचेता को वहीं पता चला कि इंटरव्यू में जो ट्रस्टी कृपलानीजी बैठे थे, उन्हीं का पोता है शुभम्। " तब तो डिब्बा खोलना बनता है ।" - उसने हँस कर कहा। टीचरों आपस में बातें करती हैं कि बच्चों को कितनी गर्मी लगती है...और उन्हें भी। शेल्के सर से कह कर पँखे लगवाने चाहिये। ...फिर शेल्के सर की सब निंदा करने लगती हैं। साठे मैडम ने सहानुभूति के स्वर में टोका, " बेचारे सर! कितने दु:खी हैं...।" आगे हुए वार्तालाप का निचोड़ यह है - " शेल्के सर की तीन बेटियाँ हैं। चौथी बार बच्चा रहने पर उन्होंने उसका लिंग जाँच करवाया तो सौभाग्य से लड़का ही निकला। लेकिन भाग्य की मार देखो! टेस्ट से भ्रूण के द्रव्य में कमी आ गई। बेटा तो जन्मा लेकिन उसकी रीढ़ की हड्डी में गड़बड़ रहने से न तो उसका मानसिक विकास हुआ है न शारीरिक...निपट पंगु है।" अब निंदा की जगह सामूहिक सहानुभूति के स्वर ने ले ली। सुकेशिनी और सुचेता सिर्फ़ सुन रही हैं।

एक नया बच्चा आया है सुचेता की क्लास में - अमित महाजन। वह सुंदर, स्वस्थ और ख़ुश रहने वाला बच्चा है। लेकिन कॉपी में कोई काम नहीं करता। सुचेता उसके पास खड़े हो कर सिखाती है तो झट बात मान लेता है। उसके पलटते ही पढ़ना छोड़ देता है। घर से भी कोई काम कर के नहीं आता। कभी क्लासें ही टिफ़िन निकाल कर खाने लगता है। मना करने पर समझता नहीं। सुचेता ज़्यादा ध्यान नहीं देती, सोचती है, ' बच्चा है, नया है। धीरे-धीरे कक्षा में बैठने का सलीक़ा सीख जायेगा...।' उसे राहत है कि अमित रोता नहीं, वरना शुरूआत में अनेक रोअंटों ने उसकी जान खाई है।

दोपहर की स्कूल में बिना पँखे दिन काटना दूभर है। निबोले बच्चों की हालत दयनीय है। शेल्के सर ने वादे तो कई बार किये लेकिन पँखे नहीं लगवाए। टीचरें उन से कह-कह कर हार गईं। बर्वे मैडम ठीक ही कहती हैं, " शेल्के सर पुराना घाघ है। किसी बात पर ना नहीं कहता। और जिस बात पर हाँ कहे, वह कभी करता नहीं...बात को मुद्दा बनने ही नहीं देता ।" भारती बर्वे नर्सरी की क्लास टीचर हैं। उम्र ४५ तक की होगी। कुँवारी हैं। गोरी, नाटा क़द, दुहरी काया, काला चश्मा लगाती हैं और पीठ पर मोटी, काली चोटी झूलती है। बच्चों को बहुत प्यार करती हैं। हमेशा ख़ुश दिखती हैं। जिस दिन घर पर उनकी भाभी से खटपट् हो जाती है, उस दिन वे ज़्यादा गप्प करती हैं, हँसी-मज़ाक़ भी...लेकिन सीधे घर न लौट कर राम मंदिर में देर तक बैठी रहती हैं। राम की बड़ी भक्त हैं। मुँहफट भी हैं।

भारती बर्वे से ठीक विपरीत हैं उमा साठे मैडम, हायर के.जी. की क्लास टीचर। उनकी उम्र बर्वे मैडम जितनी ही होगी। ये काले रंग और ऊँचे क़द की छरहरी महिला हैं। यह अपना कोई मन नहीं रखतीं । सबकी हाँ में हाँ मिलाती हैं। किसी की बात नहीं काटतीं । ज़ाहिर है, नौकरी की इन्हें ज़रूरत है। इनके तीन जवान बच्चे हैं। पति बी.ए.एम.एस. डॉक्टर हैं। आस-पास के गाँवों और क़स्बों के मरीज़ों को शहर के डॉक्टर तक पहुँचाने का कमीशन पाते हैं। चाहे बच्चा, अभिभावक, मैनेजमेंट या सह-टीचर हो...उमा साठे किसी से जूझती नहीं।

सुकेशिनी की शादी को छ: महीने हुए हैं। नये ससुराल में वह जैसे रहती होगी, दब कर अनुसरण करती हुई वैसे ही वह स्कूल में भी रहती है। सुचेता के पति नौकरी पेशा वाले हैं। उसे घर पर अकेले रहने से अच्छी यह नौकरी लगती है। वह अपनी बेटी प्रिया को साथ लिये स्कूल आती-जाती है।

शनिवार को ' हाफ-डे ' होता है। स्टाफ़-रूम में चाय चल रही है...गप्प-शप्प भी। आज घर पहुँचने की किसी को जल्दी नहीं है। तभी, एक महिला दनदनाते हुए अंदर प्रवेश कर गई। वह साठे मैडम की परिचिता है। महिला एकदम से लाल-पीली हुई जा रही है, लगभग चिल्ला-चिल्ला कर उन्हें अपनी व्यथा बता रही है। वह गुस्से से लड़के को धक्के, मुक्के मारते जाती है...गालियाँ भी देती है। लड़का ढीठ बना खड़ा है। महिला की दूसरी बाँह पकड़े एक छोटी लड़की खड़ी है - वह प्रिया की सहपाठी है। सुचेता का ध्यान उस लड़की पर है। बच्ची लाचारी से इधर-उधर ताक रही है। सुचेता से नज़रें मिलने पर वह मुस्कुराने की चेष्टा करती है परन्तु उसके चेहरे के भाव क्षमायाचना से बन कर रह जाते हैं। वह लज्जित है माँ के व्यवहार से। बड़े भाई के अपमान से वह भी अपमानित हो रही है। ...वह औरत जैसे आई थी, वैसे लौट गई। 

टीचरों की स्तब्धता टूटी त साठे मैडम बोल उठीं, " यह सौतेली माँ है। इनकी माँ तो जल कर मर गई...। बेचारी परेशान रहती है।" फिर मानो पारी बदल कर कहने लगीं, " ...सगी होती तो क्या इस तरह सबके सामने लड़के को ज़लील करती? बच्चों की कम्पलेन तो जाती ही है स्कूल से। तो क्या हुआ ?" कमरे का माहौल भारी हो गया है। सुचेता उस बच्ची के बारे में सोच रही है। तभी सामने मैदान में उसे अमित दौड़ता हुआ दिखाई दिया। उसकी ऑटो अब तक आई नहीं है इसलिये वह बच्चों के साथ खेल रहा है। सुचेता ने अमित की ओर इशारा कर उसे साठे मैडम को दिखाया और पूछा, " वह मेरी क्लास का अमित महाजन...कौन है ? किसका बेटा है ?" साठे मैडम बोली, " वो ? ...उसकी बहनें यहीं सेकेण्डरी और हाई स्कूल में पढ़ती हैं । महाजन ज्वेलर्स वालों का बेटा है...टॉवर के पास जो सुनार की दुकान है ? वही! " सुचेता ने आश्चर्य से कहा, " अच्छा ? इसकी बहनें यहीं पढ़ती हैं? ...मैंने इतना बुलवाया लेकिन साल भर से इसका कोई अभिभावक मिलने नहीं आया। बहुत परेशान करता है यह। ए-बी-सी-डी..., गिनती, कुछ नहीं आता इसे। कभी भी होमवर्क नहीं करता है। क्लास में किसी की भी कॉपी-पेंसिल ले लेता है...किसी भी बच्चे का टिफ़िन उठा कर खाने लगता है। कभी चालू क्लास से बिना बताये ग़ायब हो जाता है। डाँट-फटकार का कोई असर नहीं होता। कई बार मुझसे पिट भी चुका है...ऐसी भोली आँखों से देखता है कि मत पूछो। अपनी सीट पर लौट कर फिर वही बदमाशी करता है। "

बर्वे मैडम ने सलाह दी, " ऑटो वाले से कह कर इसके माँ-बाप को स्कूल बुलवाओ। " सुचेता चिढ़ कर बोली, " ऑटो वाले से कितनी बार कहलवाया...कोई मिलने आता ही नहीं। उल्टा ऑटो वाला ही इसकी शिकायत करने लगता है। कहता है, दो बार चलती ऑटो से कूद चुका है अमित! "

बर्वे मैडम ने ज़ोर से पुकारा, " ऐई! ...अमित! इधर आ। " अमित आया तो टीचरों ने मिल कर उसकी ख़बर ली। वह मासूमियत से सबको देख रहा है। सुकेशिनी कहती है, " बहुत बदमाशी करता है? चल, मुर्ग़ा बन जा। " वह मुर्ग़ा बन गया। थोड़ी देर बाद बर्वे मैडम बोलीं, " तेरी ऑटो आ गई अमित। जा। अब अच्छा बच्चा बन कर रहना। " वह खिलखिला पड़ीं। अमित भाग गया। सारी टीचर आपस में हँस पड़ती हैं। साठे मैडम कहती हैं, " यह ज़्यादा दुलार से बिगड़ गया है। बड़ी मन्नतों से जो आया है। इसकी बहनें इस से बहुत बड़ी हैं, माँ-बाप की ढलती उम्र में यह रहा तो उन्होंने मुम्बई जा कर टेस्ट कराया। तब यह चार बहनों के बाद हुआ...कितना सुंदर है! "

साठे परिवार यहाँ के मूल रहवासी हैं। चूँकि डॉक्टर साहब ग्रामीण मरीज़ों और शहरी नर्सिंग होम्स की बिचौलिया कड़ी हैं इस नाते यहाँ के प्रतिष्ठित परिवारों की स्वास्थ्य संबंधी अंतरंग बातें वे जानते हैं। बातें पुरानी हो जाने पर उनकी गोपनीयता के प्रति सतर्कता भी नहीं बरतते। सुचेता के मुँह से निकल गया, " यहाँ बड़ा चलन है टेस्ट कराने का ? यह तो ग़ैरक़ानूनी है, कड़ी सज़ा हो सकती है। डरते नहीं लोग ?" फिर क्या था, चर्चा छिड़ गई...क़ानून किसी के घर में थोड़े ही घुसता है। भई, एक लड़का तो ज़रूरी है। पैसे वाले लोग बड़े शहरों में जा कर लिंग पड़ताल करवाते हैं...डॉक्टर भ्रूण से द्रव्य निकाल कर टेस्ट करते हैं पर रिपोर्ट पक्की आती है। जिसे पैसों का हिसाब देखना पड़ता है वे लोग चार माह गर्भ पाल कर सोनोग्राफी से पता लगाते हैं। लड़की निकली तो गर्भ गिरवा लेते हैं। सुना है तकलीफ़ ज़्यादा होती है...वह देशमुख मैडम हैं ना...इसी कारण आजकल छुट्टी पर हैं। पंद्रह दिन पहले तक अस्पताल में थीं...। इस प्रकार देर तक ऐसे ही तथ्य खुलते रहे। नवोढ़ा सुकेशिनी की मन की प्रार्थना तेज़ हो गई, ' हे भगवान ! जब मैं प्रेगनेन्ट होऊँ तो पहली ही बार में मुझे लड़का दे देना...। ' 

दैवयोग से चार रोज़ बाद ही सबकी मुलाक़ात देशमुख मैडम से हो गई । वे काम पर लौट आई हैं। स्कूल के मैदान में ही मिल गईं। दिखने से कमज़ोर मालूम पड़ती थीं लेकिन परिचय की औपचारिकता पूरी होते ही मानो उन्होंने बातों का समाँ बाँध दिया। वे दु:खी नहीं, उत्साहित लगीं। पराक्रम करके लौटने का उत्साह या कहिये कि मुसीबत पार कर लेने की राहत का उत्साह ? पता नहीं। वे हाल में अपने परिवार का आकर्षण केंद्र रही हैं। वे एक-एक डीटेल बता रही हैं, ऐसे, वैसे...कैसे उनकी फोर्स्ड डिलीवरी कराई गई। बड़ा भयावह वाक्या है। वे ख़ास घनिष्ठता से जो सिर्फ़ महिलाओं के बीच होती है, ब्योरा देते जा रही हैं। डॉक्टर ने मुझे दिखाया...समूची थी, इतनी-सी...। वे अपनी ऊँगलियों और अँगूठे से एक छोटा सा इशारा बना कर बताती हैं...अपने गिराये बच्चे का आकार । घनिष्ठता का समां श्रोताओं की हैफ के आगे न टिक सका। ...टूट गया । मंडली तितर-बितर हो गई।

छोटी जगहों की यह ख़ासियत है, सुख-दु:ख में सारे सहभागी होते हैं। ज़रूरत सर्वोपरि है। उसे पूरी करने के रास्तों की भयंकरता को जैसे सामाजिक मान्यता मिल चुकी है। पुरुष उत्तराधिकारी एक ज़रूरत है। उसके लिये रेस लगी है। इस रेस में जिसने बेटियाँ जनी वह फिसड्डी है - वह 'ऑल्सो रैन' की पंक्ति में जा कर खड़ा होता है। विजेता वह है जो बेटा जनता है। बेटा ट्रॉफ़ी है। इस ट्रॉफ़ी को हासिल करने के लिये मानवता दूर, लोग खुदा से खेल जाते हैं। कभी हाथ लग जाती है फूटी पेंदी की ट्रॉफ़ी भी। यह किसी मेज़ या शेल्फ़ पर सज नहीं पाती । तब इसे हाथों में ही उठाये पूरा जीवन काटना पड़ता है । हाथ दर्द से काँपते हैं लेकिन ट्रॉफ़ी छोड़ी तो नहीं जा सकती ? शेल्के सर का बेटा...भगवान न करे, अमित भी ? 

आजकल सुचेता अमित पर पैनी नज़र रखती है। उसके उत्पात से वह त्रस्त है फिर भी भूल कर उस पर हाथ नहीं उठाती । वह उसको डाँटती नहीं, पास बुला कर बातों का ज़रिया निकालती है। हर तरह से कोशिश कर के देखती है लेकिन पाती है कि यह लड़का बेअसर है । अमित में तार्किक बुद्धि नहीं है, स्वामित्व बोध नहीं है । अपने कारनामों और उनके फल में मिलने वाली सज़ा की कड़ियों को वह जोड़ नहीं पाता है । मेरा-तेरा समझता नहीं। भले-बुरे का उसे कोई ज्ञान नहीं है। कॉपी निकालने कहो तो किसी की भी कॉपी निकाल लायेगा । भूख लगने पर किसी का भी खाना खाने लगता है । उसकी उम्र के साथ ये विसंगतियाँ और उनके दुष्परिणाम भी बढ़ेंगे । ईश्वर कब तक उसकी रक्षा करेंगे ?

ऐसा नहीं है कि अमित के माता-पिता परिस्थिति से बेख़बर हों। उस रोज़ ऑटो वाले ने बताया था कि वे उसे दुगुने पैसे देते हैं - सबसे पहले अमित को घर से उठाने के लिये और उसे सबसे आख़िरी में घर छोड़ने के लिये । यानी चार घंटे स्कूल में बिताने के अलावा जाती डेढ़ और आती डेढ़, जोड़ तीन घंटे अमित ऑटो में घूमते रहता है। उसके अभिभावकों ने कुल सात घंटों की राहत अपने लिये ख़रीद ली है । 

...और एक दिन - सुचेता ने सदा के लिये ख़ुद को अमित की चिंता से मुक्त कर लिया। छुट्टी की घंटी बजने में अब चंद मिनट ही रह जाते थे। कक्षा में बच्चे पीठ पर बैग-बॉटल लादे प्रार्थना बोल रहे थे। सुचेता की नज़र क्लास के सामने के मैदान में खड़ी स्कूल की पीली बस पर पड़ी। ड्राइवर अपनी सीट पर बैठ चुका था और उसने बस घुमाने के लिये बस स्टार्ट कर ली। अनायास ही सुचेता ने देखा, बस के पहियों की आड़ में सफ़ेद शर्ट, भूरी निकर पहने एक बच्चा गुड़मुड़ सोया पड़ा है। ...वह पागलों की तरह चीख़ती हुई बाहर भागी। ड्राइवर ने उसे देख लिया और वह रुक गया। भीड़ जमा हो गई । हो-हल्ले से अमित जाग गया, उस पर ड्राइवर का क़हर बरपा। वह मासूम अपनी डाँट-पिटाई का कारण समझ नहीं पा रहा था। सुचेता को पता भी न चला वह कब क्लास से ग़ायब हुआ, बस की छाँह में सो गया ? एक पल की देर...और वह कुचला जाता। भय और क्रोध से सुचेता की आँखें फटी जाती थीं। उसने अपना निर्णय सुनाया, " अब यह मेरी क्लास में नहीं रहेगा। " बाक़ी लोग भी ' कुचला जाता, तो क्या होता ' के आशय से आतंकित हैं।

अगले रोज़ सुचेता शेल्के सर से मिली । उसने उन्हें सारी बातें समझाईं और अपना फ़ैसला सुनाया। वह मन ही मन मोर्चा बाँध कर गई थी...पूरी तरह से तैयार थी। परंतु यह क्या ? शेल्के सर ने तनिक भी प्रतिकार नहीं किया ? उसकी बातें सहज स्वीकार कर लीं। 

उस रोज़ के बाद नन्हें अमित को स्कूल में फिर किसी ने कभी नहीं देखा।

000 पल्लवी
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टिप्पणियां:-

रेणुका:-
माफ़ कीजिये, किन्तु कहानी की शुरुआत में इतने सारे पात्रों का परिचय समझते समझते कुछ समझ नहीं आया। कहानी किस ओर बढ़ रही है, पता नहीं चला। अंत भी मुझे समझ नहीं आया। यदि कोई समझाये तो आभार।

विनोद राही:-
कहानी में वर्णन अच्छा है| पात्र बहुत हैं परंतु मुख्य कौन सा है, यह स्पष्ट नहीं है| जिस पात्र पर कहानी समाप्त होती है (अमित) अगर शुरू से अंत तक कहानी उस पर केंद्रित रहती तब भी ठीक रहता| हर पात्र का विस्तृत परिचय भी जंचता नहीं| कहानी बार बार दिशा बदलती है| कहानी अपने साथ पाठक को भी भटकाती है| कथाकार ने किसी नए प्रयोग को अम्लीजामा पहनाया है, ऐसा भी प्रतीत नहीं होता| एक विस्तृत संपादन की आवश्यकता है|

डॉ सुधा त्रिवेदी:-
बिजूका के सच्चे साहित्यकार मित्रो ।
नमन ।
यहाँ लगी सारी रचनाएँ रोज़ पढ़ती हूँ -एक-से बढ़कर एक । मगर विद्वानों के बीच बोलने में थोड़ा झिझकती हूँ । आज पल्लवी जी की कहानी पढ़ी तो बोले बिना न रहा गया क्योंकि मैं भी अध्यापिका हूँ और पल्लवी जी की कहानी में कैंपस को ही फ़ोकस किया गया है । उनकी भाषा में प्रवाह है और शैली ऐसी है कि बराबर आगे क्या हुआ इसकी जिज्ञासा बनी रहती है। स्कूलों के अंदर जैसे पल्लवी जी ने कहानी के माध्यम से क्लोज़ सर्किट कैमरे लगा दिए हैं। मगर इस वर्णन के व्यामोह में कहानी का मुख्य केंद्र बिंदु पकड़ में आने से रह गया है -कि लोग ज़माने में ख़ुद को कमतर नहीं रखना चाहते इसीलिए सौ कुकर्मों से भी ट्रॉफी यानि बेटा पैदा करने की कोशिश करते हैं मगर उसी बेटे की परवरिश कैसे हो ,इसकी चिंता करना बिल्कुल ज़रूरी नहीं समझते । ठीक वैसे ही जैसे ट्रॉफी पाने की ललक तो होती है , पा लेने के बाद कलेजा फुलाकर चलते भी हैं मगर वह ट्रॉफी घर में उपेक्षित पड़ी धूल खाती रहती है ।
बहुत अच्छा विषय लिया गया है । साधुवाद । आशा है , सुश्री रेणुका नंदा , भाई श्री विनोद राही आदि के सुझावों पर ध्यान देते हुए लेखिका इसे पुनः संपादित करेंगी ।
बहुत धन्यवाद ।

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