07 अक्तूबर, 2016

कविता : ज्योति देशमुख


सुभोर साथियो ,

साथियो आज आप सभी के लिए प्रस्तुत है समूह के साथी की कुछ रचनाएँ इन्हें पढ़कर
अपने विचारों से अवगत कराएं ।
साथी का नाम ज्योति देशमुख है।

1."मुट्ठी भर धुप”

सर्दी की दुपहरी में

एक मुट्ठी धुप चुरा के रख ली थी 

सारा दिन मुट्ठी बांधे-बांधे फिरते रहे 

चोरी पकडे जाने के डर से 
डरते रहे 

शाम ढले जब ठिठुरन बढ़ी 

एक कोने में दुबक के बैठ गए 

इस आस में के मुट्ठी में से 

धुप निकाल के तापेंगे

लम्बी-लम्बी ठंडी रातों को 

सूरज की किरणों से नपेंगे 

मुट्ठी खोली तो हैरां थे 

ना किरणे थी ना धुप थी 

काली स्याह राते 

जैसे बिन पानी के कूप थी 

दांत रहे थे किट-किटा 

काँप रही थी पसलियाँ

दिन भर मुट्ठी बांधे-बांधे 

अब तो जैसे ऐंठ गई थी 
उँगलियाँ 

डबडबाई आँखों से 

फिर से देखा अपनी हथेली को 

रगड़ के दोनों हाथ सुलझाया 

इस अनसुलझी पहेली को 

दिखी नहीं थी धुप 

समा गयी थी मेरे हांथो में 

रगड़ हथेली धुप निकाली

हमने ठंडी रातों में l

 
2. “औरत -1” 

औरत डोरमैट होती है 

और छत पर लटकता मकड़ी का जाला

चकला और बेलन के बीच 
बिलती रोटी 

कड़ाही के गर्म तेल में फूटती
 राई

मोगरी से कूटे कपड़ों से 
निकलता मटमैला झाग 

नाली में फसा हुआ बालों का 
गुच्छा 

बिस्तर पर बिछी सिलवट भरी चादर 

उतार कर फेका गया कंडोम 

बच्चे की बहती नाक 

बदबू मारता डाइपर 

गुटके का खाली रैपर 

सिगरेट की मसली ठूठ

मर्दानगी की निशानी कोई 
गाली

गाल पर उभरे उँगलियों के 
निशान

सरे बाज़ार फेंकी गई फब्ती

या सीने पर लगा कोई टल्ला

अंडरवियर के रंग तलाशती 
नज़र 

या मुँह दबा कर आजमाया 
गया ज़ोर 

और भी बहुत कुछ होती है 
औरत 

बस इंसान नहीं होती ।
 

3.“औरत- “2 

औरत इंसान क्यों नहीं होती ?

वही दो हाथ दो पैर 
दो आँखे एक मुँह 

नसों में बहता खून 
रोम छिद्रों से निकलता पसीना 
एक अदद धड़कता दिल 
अच्छी खासी सूझबूझ वाला 
दिमाग 
वही भूख वही प्यास वही 
ज़रूरते 
फिर क्यों औरत महान होती है 
इंसान नहीं 

परिभाषा के खूटे पर 
महानता की रस्सी से बंधी 
घूमती रहती है कोल्हू के बैल सी 
सतत एक वृत में 
अपनी त्रिज्याओ का मान 
रखती 

सीता सावित्री लिख गई औरत की परिभाषा 
और भुगतना पड़ता है मुझ 
जैसी को 
जिसे महान नहीं होना 

क्यों होना है महान ? 
ताकि मुझे महान बनाकर 
तुम मुँह दबाकर हँसो और कहो 
उल्लू बनाया बड़ा मज़ा आया 
और लूट लो अकेले ही सारे 
मज़े इंसान होने के 

तुम करो तो गलती 
मैं करू तो पाप 
तुम्हारे लिए जो मौजमस्ती 
मेरे लिए दुराचार 

ये अलग अलग परिभाषा क्यों
एक हो स्याही एक कलम हो 
साझे कागज पर 
पुनः लिखूँ खुद को 
तुमको
तुम भी लिखो खुद को
मुझको
जो सर्वमान्य सत्य हो।
 

4.“औरत- 3” 

औरत गुलदस्ता है 

रहे किसी भी कोने में 

सारा घर महकता है 

और दियासलाई 

साँझ ढले दीपक जलाती 

नन्ही सी सुई 

टाँके लगाती 

वो दाल में हींग की खुशबु है 

स्वाद संग सेहत बनाती

उसकी आवाज़ शंख नाद सी 

पूर्ण सारे काज कराती 

उसके जगने पर सूरज उगता 

उसके सोने पर चाँद 

उसके श्रृंगार से बसंत आता 

देखे से बौराता आम 

कोमल इतनी कि बच्चे की 
छींक से घबराती 

सक्षम इतनी कि

जीवन वैतरणी बिन मांझी तर जाती 

 समय है बदला 

अब उसने अपने पंख पसारे 

दी नई ऊंचाई उड़ान को 

आई है चुम कर चाँद को 

जंग लगी धूल पड़ी 

बरसों से पड़ी म्यान में 

निकली जो बाहर म्यान से 

तो अपनी धार पहचानी 

अब लिखी जाएगी गौरव गाथा 

नए सिरे से ग्रन्थ सभी 

उसके कागज़ पर 

उसकी कलम से 

उसके शब्दों में 

उसकी परिभाषा होगी ।

5 .“सपने”

(1)

सुबह बिस्तर से ज्योही उठी 

कुछ गिरने की आवाज़ आई 

खनक ऐसी जैसे कलदार 

उठा के देखा 

एक सपना था 

हीरे सा चमकीला ठोस 

भींच लिया मुट्ठी में

बना लिया मन 

कुछ दिन का खर्चा-पानी 

अब इससे चलाएंगे 

(2)

सुबह बिस्तर से ज्योही उठी 

जाने क्या आँखों में पड़ा 

आंसू निकल आये 

लाली उतर आई 

शायद बिस्तर में 

टूटे सपनो की धूल थी ।

6 "गिरना”

गिरने को तो गिरता है

आंसू भी आँख से

पत्ता भी शाख से

पकने पर गिरता है आम

और थोड़ा छेटी रख कर कबीट
पर्वत की चोटी से गिरता है

एवलेंच  और जल प्रपात भी

गिरती है ओंस

गिरती है धूप

गिरते है उल्कापिंड

और टूटे तारे भी

गिरता है बाजार भाव

सेंसेक्स भी

गिरते है साम्राज्य

गिरती है सरकारें

गिरती है गाज़

गिरती है साख

लेकिन कोई नहीं गिरता वैसे

जैसे गिरता है आदमी

7 “सुख – दुःख”

दुखो की गठरी बना

फेक आई जंगल में

दुःख वो बहुत पुराने थे

कुछ पिछले बरस के

कुछ उसके भी पिछले

कुछ के रंग उड़ गए थे

कुछ उधड़े फटे थे

कुछ का तो याद भी नहीं

किसी ने दिए थे

या मैंने खुद लिए थे

कुछ ऐसे थे

जैसे उन्हें कभी वापरा ही नहीं

जैसे आये वैसे ही

तह करके पड़े थे

पिछले दिनों सुख आये थे

उनकी खातिर दारी में

समय मिला नहीं इनके लिए

पड़े रहे ये कोने में

होते रहे इकट्ठा

बेमतलब ही घिरा हुआ था

कोना अंदर के कमरे का

अब कमरा खुला खुला है

और कोने में रख दिया है मैंने

एक फूलदान ताज़े महकते
फूलों का

8 “अनसुनी”

एक बार फिर पुकारू तुम्हे

लेकिन दूर जा चुके हो तुम

मेरी आवाज़ की पहुंच से

सुना है कोई आवाज़ होती है

पहुचती है जो बहुत दूर

आवाज़ जिसमे होंठ हिलते नहीं

शब्द होते ही नहीं

बस एक कंपकपी सी होती है

ज्यूँ हलकी सी हरारत हो

यूँ भी तो आवाज़ दी थी मैंने
तुम्हे

सुना था तुमने

पलट कर देखा भी था

एक घुटी-घुटी  सी आवाज़

आई थी मुझ तक भी

अपनी ही आवाज़

जब तुमने दबा दी थी

और चले गए थे तुम

अनसुना करके
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नाम - ज्योति देशमुख

शिक्षा - बी.एस सी. , बी.एड.

पता - स्कॉलर्स एकेडमी

         जयश्री नगर

         देवास (म.प्र.)

फ़ोन न. 9926810581 ; 8982110581

प्रस्तुति-बिजूका समूह

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टिप्पणियां:-

 
पूनम:-
कविताऐ  बहुत मर्मसपर्शी है   विशेषकर दूसरी  तीसरी तथा चतुर्थ कविता । बस एक निवेदन करना चाहती हू कि औरत को बस इसी तरह से क्यों दिखाया जाता है ? इसीलिए क्योंकि सामाजिक ढांचे के साथ चलते हुए वो अपना हक खुलकर मांग नही पाती ??? औरत मेरे हिसाब से किसी शीर्षक मे  निबद्ध क्यों हो ? सामान्य इंसान की  तरह लीजिए । बार बार परीक्षा । बार बार किसी कसौटी पर कसना । बार बार छिद्र अन्वेषण? आपने चतुर्थ शीर्षक पर उसे महिमा के साथ दर्शा दिया है  । भले ही ऐसा भी मत कीजिए । मेरे अनुभव कुछ ऐसे है कि औरत शब्द पर जोर डालने से  ही वो अधिक परेशान होती है ।

गलत कहा होगा तो करबद्ध होकर क्षमायाचना करती हू  ।

सुषमा सिन्हा:-
'मुट्ठी भर धूप' और 'सपने' अच्छी लगीं। 'औरतें' शीर्षक से लिखी तीनों कविताओं से नहीं जुड़ पा रही। व्याकरण की अशुद्धियाँ पर ध्यान दिया जाना अपेक्षित है।

पाखी:-
... लेकिन काेई नहीं गिरता वैसे / जैसे गिरता है आदमी.. बहुत अच्छी लगी कविता,  अनसुनी एवं सुख - दुःख भी मर्म काे छूती हैं.  बधाई ज्योति जी.

आशीष मेहता:-
कविताई से मुझ मूढ़ का नाता न होते हुए भी, इतना कहूँ....ज्योतिजी की रचनाएँ संप्रेषणीय हैं । उन्हें साधुवाद।

कल की रचनाओं और फिर पूनमजी की पोस्ट ने एक स्वाभाविक और पुरातन 'खींच-तान' में उलझा दिया। स्त्री (देवी  / महान या फिर अपवित्र , या आज के  शहरी समाज में 'दोहरी भूमिका' निभाती  super-woman) के विभिन्न अक्स, 'काल' / देश / धर्म से परे, मानो बस एक ही धूरी पर टिके हैं  'जरुरत'.....  आदिम जरूरत जो निस्संदेह पुरुष की अलग हैं और स्त्री की अलग। इन जरूरतों के सार्वकालिक मंथन और सहज घर्षण के फलीभूत, 'एक शोषण'....परस्पर शोषण का पुट होता है । हमारी शिक्षा, नैतिकता हमें सकारात्मक भावनाओं के 'परस्पर' होने को तो जज़्ब कर लेती है, पर 'नकारात्मकता' में 'परस्पर भागीदारी' का संज्ञान लेना दूभर हो जाता है।

आज प्रस्तुत रचना 'गिरना' में 'गिरते आदमी' में 'लिंगभेद' नही लगता है, और इसीलिए यह रचना 'उधेड़बुन' की खूब पड़ताल करती है।

औरत को 'सामान्य इन्सान' मानने में आदमी (स्त्री / पुरुष) का 'गिरना' आड़े आ ही जाता है।
ज्योतिजी को पुनः साधुवाद।

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