09 अक्तूबर, 2016

लेख: मानव  ज्ञान  का चरित्र और  विकास : सनी

आज आप सभी के लिए प्रस्तुत है यह लेख

पढ़कर सभी साथी अपने विचार अवश्य रखें ।

मानव  ज्ञान  का चरित्र और  विकास

सनी

इंसान ने अपने जीवन की संघर्षपूर्ण यात्रा की शुरुआत आज से लगभग 2,50,000 साल पहले की थी। उसने इस दौरान धरती पर हो रही अद्भुत गतिमान परिघटनाओं को समझा, उनमें से कुछ को अपने काबू में करना सीखा है। समुद्री यात्राओं से लेकर अन्तरिक्ष तक में कदम रखे। विश्व के अपने संवेदनों द्वारा वर्णित चित्रों को नये रूप तथा नयी परिभाषाएँ दीं। वैज्ञानिक विश्लेषण तथा कलात्मक नज़रिये से उसने दुनिया को अपने रहने लायक बनाया। प्रकृति तथा सम्पूर्ण जगत के रूपों तथा उसकी ख़ूबसूरती को नियमबद्ध कर, चित्रित कर ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में व्याख्यायित किया है। भौतिक विश्व लगातार प्रक्रियामान है, बदल रहा है, इसके साथ ही हर क्षेत्र में हमने प्रकृति को तार्किक सूत्रों में व्याख्यायित करने की कोशिश की है। पर क्या मानव ज्ञान भी परिवर्तनशील है या यह सिर्फ हमारे तार्किक विचारों का समुच्चय है, दिव्य-प्रदत्त है जो कि अपरिवर्तनशील है? इस सवाल की चीर-फाड़ करने पर हम यहाँ दो काम कर सकेंगे, पहला –  हम ज्ञान-सिद्धान्त (एपिस्टेमोलॉजी) की अलग व्याख्याओं को रख सकते हैं, दूसरा – हम ज्ञान-सिद्धान्त की तार्किक व्याख्या सकेंगे। ज्ञान सिद्धान्त पर पहुँचने से पहले हम प्रमुख धाराओं का विश्लेषण व तुलना (comparison) करेंगे। अपनी बात को सहज, सरस और सम्‍प्रेषणीय बनाने के लिए हम कुछ सवालों से शुरुआत करेंगे।

मुर्गी पहले आयी या अण्डा?

‘‘मुर्गी पहले आयी या अण्डा’‘ यह सवाल तो आपने सुना ही होगा। फ्रांस में पुनर्जागरणकालीन महान भौतिकवादी दार्शनिक दिदेरो समकालीन भाववादी दालम्बेयर से इस पर कहते हैं कि यह सवाल पूछना ख़ुद में बेवकूफ़ी भरा है। वे समझाते हैं कि हम यह सवाल पूछकर इस विचार से प्रस्थान करते हैं कि भौतिक जगत अपरिवर्तनशील है। मुर्गियाँ, अण्डे, इंसान आदि सदा से मौजूद हैं। इस समय तक (इस वार्तालाप के समय तक) डार्विन का उद्विकास का सिद्धान्त आया नहीं था जिसने आगे चलकर इस सवाल के आधार को ख़त्म कर दिया। आगे दिदेरो कहते है कि ‘‘अण्डा क्या है? एक संवेदनहीन पिण्ड पर यह पिण्ड विविध संघटन, संवेदन तथा जि़न्दगी तक कैसे पहुँचता है?” इस सवाल के दो जवाब हो सकते हैं – पहला, संवेदन शक्ति बाहर से उसमें (संवेदनहीन पिण्ड में) प्रवेश करे और दूसरा ‘‘संवेदनशक्ति पदार्थ का एक सामान्य गुण है, यह उसके संघटन का परिणाम है।” ये आधुनिक दर्शन की दो मुख्य शाखाओं के अन्तरविरोधी जवाब हैं। एक शिविर है जो मानता है कि मानव संवेदन पदार्थ के विशिष्ट संघटन का गुण है। यह भौतिकवादी शिविर है। दूसरा शिविर विचारों को पदार्थ जगत से अलग मानता है, ईश्वरपरक, भाववादी, (Metaphysical) आदि इस शिविर में आते हैं। दिदेरो भौतिकवादी शिविर के विशिष्ट दार्शनिक थे। वे भौतिक जगत को परिवर्तनशील तथा चेतना को पदार्थ का विशेष गुण मानते थे। आज यही धारा विज्ञान की धारा है। भौतिकवाद ही चेतना तथा पदार्थ के रिश्ते को, ज्ञान सिद्धान्त को समझा सकता है। अगला सवाल यह है कि चेतना तथा पदार्थ, चिन्तन और अस्तित्व, ज्ञान तथा मस्तिष्क के बीच क्या सम्बन्ध है?

क्या हम मस्तिष्क से सोचते हैं?

यह कैसा विचित्र प्रश्न है!? न्यूरोसाइंस का कोई वैज्ञानिक हमें हंसकर इसका सीधा जवाब देगा, हाँ! न्यूरोसाइंस तथा न्यूरोसाइकोलॉजी जैसे विषयों में प्रगति के बाद यह सवाल बड़ा बेतुका लगता है। दरअसल मानव की चेतना तथा बाह्य संसार के बीच का पुल हमारी संवेदनाएँ (इन्द्रियों द्वारा होने वाली अनुभूतिद्ध हैं और एक क्रान्तिकारी व्यवहार करने वाला दार्शनिक इसमें यह जोड़ेगा कि इन संवेदों से पैदा चेतना से प्रेरित व्यवहार के ज़रिये मनुष्यों की बाह्य विश्व के साथ अन्तक्रि‍या वह दूसरा पुल है जिससे मनुष्य का आत्मगत जगत वस्तुगत जगत से जुड़ता है। इस सच्चाई के प्रथम हिस्से को एक दूसरे छोर पर पहुँचाकर और सिर के बल खड़ा कर दार्शनिकों की एक टोली यह कहती है कि सिर्फ संवेदनाएँ ही सम्पूर्ण दुनिया में मौजूद हैं; कोई भौतिक विश्व और चिन्तनशील मस्तिष्क मिथ्या हैं। सम्पूर्ण ज्ञान, तथा ख़ुद सम्पूर्ण विश्व हमारी संवेदनाओं का सम्मिलन है, हमारे आस-पास मौजूद वस्तुएँ और कुछ नहीं बल्कि विभिन्न प्रकार की संवेदनाओं का सम्मिलन हैं। परन्तु इन दार्शनिकों से यह सवाल पूछा जा सकता है कि ये संवेदनाएँ किस मनुष्य की हैं? क्या यह किसी एक मनुष्य की हैं? अगर यह करोड़ों मनुष्यों की हैं तब आप अपनी पाँच संवेदनाओं के सम्मिलन से इतर मौजूद करोड़ों संवेदनशील मनुष्यों की मौजूदगी मानते हैं। आप संवेदना के इतर अस्तित्व को मानते हैं। यह दर्शन का मस्तिष्कहीन सिद्धान्त है। यह दुनिया हमारी संवेदनाओं के बाहर भी मौजूद है। आँखें बन्द करने पर दुनिया ख़त्म नहीं होती। और अगर सम्पूर्ण विश्व सिर्फ संवेदनाओं का सम्मिलन है तो मानव के अस्तित्व में आने से पहले, मानव संवेदन के अस्तित्व में आने से पहले क्या दुनिया मौजूद नहीं थी? भू-विज्ञान, उद्विकास के सिद्धान्त इस लक्ष्य तथा विचार के बिल्कुल उल्टे खड़े हैं। विज्ञान तथा भौतिकवाद के अनुसार पृथ्वी के विकासक्रम में विशेष परिस्थितियों में उत्पन्न हुए जैविक पदार्थ ने उद्विकास की प्रक्रिया में मानव तथा उसके मस्तिष्क को बनाया। मस्तिष्क में ही चेतना मौजूद होती है। हमारी इन्द्रियाँ बाह्य जगत के संवेदन से हमारी चेतना का विकास करती हैं। मानव मस्तिष्क भौतिक विश्व का ही हिस्सा है, जहाँ भौतिक जगत का प्रतिबिम्बन होता है। इस भौतिक विश्व में मनुष्यों का सामाजिक व्यवहार ही उनके ज्ञान का स्रोत होता है। उपरोक्त विचारधारा को सॉलिप्सिज़्म कहा गया है। धारा मानती है कि विश्व और कुछ नहीं बल्कि संवेदनों का एक समुच्चय है। यह भौतिक तौर पर है या नहीं इसकी पुष्टि नहीं हो सकती है। जो कुछ है संवेदन है। न तो उसके आगे कुछ है और न ही उसके पहले कुछ है। लेकिन आधुनिक विज्ञान के विकास ने दिखलाया है कि मनुष्यों के आविर्भाव से पहले भी पृथ्वी थी और विकासमान थी। भौतिक जगत मनुष्य के प्रेक्षण की पैदावार नहीं है, बल्कि यह उससे स्वतन्‍त्र एक वस्तुगत यथार्थ है। वह अपने मस्तिष्क से जो सोचता है वह और कुछ नहीं बल्कि इसी भौतिक जगत के अंग के तौर पर अस्तित्वमान एक मनुष्य के मस्तिष्क में इन्द्रिय-संवेदों के ज़रिये इस भौतिक जगत के कुछ सीमित यथार्थों का प्रतिबिम्बन है।

अबूझ, अज्ञेय ज्ञान या व्यावहारिक ज्ञान?

ज्ञान सिद्धान्त को समझने के लिए यह तीसरा महत्त्वपूर्ण सवाल है। अठारहवीं सदी के प्रबुद्ध दार्शनिक काण्ट ने सवाल उठाया था कि हमारा सम्पूर्ण ज्ञान हमारी संवेदनाओं पर टिका हुआ है, परन्तु हमारी संवेदनाएँ उस वस्तु को पूर्णतः चित्रित नहीं करतीं; इसलिए अपूर्ण चित्रण के कारण हम विश्व के नियमों को जान ही नहीं सकते। हम अपने सामने रखी किताब के हर गुण को नहीं जान सकते इसलिए हम कुछ नहीं जान सकते। यह सम्पूर्ण विश्व अबूझ व अज्ञेय है। हम हर वस्तु को अपने सिर पर प्रश्नचिन्‍ह लगाकर देख सकते हैं, जवाब मिलने की गारण्टी नहीं है। पर अगर ऐसा है तो हमारा सारा इतिहास, विज्ञान, हमारी कला बांझ बन जाती है। इस अबूझ पहेली का सीधा हल है – व्यवहार। किसी भी वस्तु के बारे में हमारा ज्ञान व्यवहार में अपूर्णता से पूर्णता की तरफ़ बढ़ता है। काण्ट यह मानते थे कि वस्तुगत जगत है। वह किसी भाववादी के समान वस्तुगत जगत को मस्तिष्क की पैदावार नहीं मानते थे और यह समझते थे कि वस्तुगत जगत मस्तिष्क के होने न होने से स्वतन्‍त्र है। अब सवाल था इस वस्तुगत जगत को मस्तिष्क के ज़रिये समझने और उसकी अवधारणा विकसित करने का, उसके विज्ञान को समझने का। काण्ट का दर्शन यहीं आकर रुक जाता है। काण्ट के अनुसार हर प्रेक्षण अपूर्ण और त्रुटिपूर्ण है। ऐसे में, प्रेक्षण आपको वस्तुगत यथार्थ की सही-सही जानकारी और समझ कैसे दे सकता है? इसलिए आप वास्तविक विश्व को कभी जान या समझ नहीं सकते। इसी को काण्टीय अज्ञेयवाद कहा जाता है। लेकिन इस सवाल का जवाब भौतिकवाद ने व्यवहार के सिद्धान्त के ज़रिये दिया।

आपकी इन्द्रियाँ प्रेक्षण के ज़रिये आपको बता रही हैं कि सामने सेब रखा है। पर आप इस बात की पुष्टि कैसे कर सकते हैं? आप अपनी इन्द्रियों के प्रेक्षण पर तो निर्भर नहीं रह सकते! भौतिकवादी द्वन्द्ववाद इसका सीधा-सा उत्तर देता है : मान्यवर! सेब उठाइये और खा लीजिये; अज्ञात सेब ज्ञात हो जायेगा! पूरा मानवीय ज्ञान व्यवहार पर टिका है। जंगल युग में जंगलों में लगी आग को लम्बे व्यवहार से अर्जित अनुभव और उन अनुभवों के समुच्चय के सामान्यीकरण के ज़रिये निकलने वाले ज्ञान के आधार पर ही काबू किया जा सका। यान्त्रिकी गति का पूर्ण इस्तेमाल करने के लिए व्यवहार में ही सीखते हुए पहिये की खोज हुई। जानवरों की ताकत का खेती में इस्तेमाल किया, यातायात के लिए भी जानवरों की शक्ति का प्रयोग किया। बैलगाड़ी की अवधारणा को ही आगे बढ़ाकर जब वाष्प ईंजन की खोज हुई तो मोटर गाड़ी भी अस्तित्व में आयी। संख्यायिकी से गणित, लॉजीकल गेट्स से लेकर कृत्रिम कोशिका मानवीय व्यवहार की ही देन हैं। व्यवहार से अर्जित अनुभवों के समुच्चय का मनुष्य अपने विवेक और तर्कशक्ति के आधार पर सामान्यीकरण करता है। यह सामान्यीकरण ही मनुष्य को इन्द्रियानुगत ज्ञान से अवधारणा तक ले जाता है। मनुष्य का ज्ञान यदि अनुभवों के समुच्चय पर ही रुक जाता है तो भी वह पूरा नहीं हो सकता। अगर वह अनुभवों की अवहेलना कर सिर्फ विवेक और तर्कशक्ति पर भरोसा करता है, तो वह किताबी, अव्यावहारिक और शेखचिल्लीनुमा होगा। अगर वह सिर्फ अनुभव पर भरोसा करता है तर्कशक्ति और अवधारणात्मक ज्ञान पर नहीं, तो वह अनुभववादी के समान एक ही चक्रीय व्यवहार के गोले में घूमता रहेगा और गतिमान विश्व के लिए जल्दी ही अप्रासंगिक बन जायेगा। इसलिए अनुभवसंगत ज्ञान से बुद्धिसंगत ज्ञान तक की यात्रा अनिवार्य है। लेकिन यहीं पर यह यात्रा ख़त्म नहीं होती। यदि बुद्धिसंगत ज्ञान पलटकर वापस व्यवहार में नहीं उतरता तो इस बात की कभी पुष्टि नहीं हो सकती है कि अनुभवों के समुच्चयों का जो सामान्यीकरण तर्कशक्ति और विवेक के आधार पर किया गया वह मुख्य रूप से सही है या नहीं, क्योंकि बचकाने किस्म के सामान्यीकरण भी हो सकते हैं! इसलिए ज्ञान की पूरी यात्रा व्यवहार से सिद्धान्त और फिर व्यवहार, और फिर सिद्धान्त के अन्तहीन सिलसिले के ज़रिये आगे बढ़ती रहती है। यही ज्ञान का द्वन्द्ववादी भौतिकवादी सिद्धान्त है।

विविध व्याख्याएँ

चलिये ऊपर दिये गये तीनों सवालों को समेट लेते हैं। दरअसल सम्पूर्ण मानव-इतिहास के दर्शन का प्रश्न चिन्तन तथा अस्तित्व के सम्बन्ध का प्रश्न है। मूल जंगल युग के समय से मौजूद इस सवाल का जवाब चिन्तनशील आत्मा को अस्तित्वमान शरीर से पृथक कर और उसका मानवीकरण करके दिया गया। तब के अलग हुए आत्मा और शरीर आज तक व्यापक तौर पर मौजूद तमाम धार्मिक शिक्षाओं में अलग ही हैं! प्राकृतिक विज्ञान के स्पष्टीकरण के बावजूद जनता को कूपमण्डूकता में बनाये रखने के चलते यह पृथक्कीकरण नहीं मिटा है। इसके कारण की तलाश करना अलग से एक लेख की माँग करता है। इस सवाल को हम आगे ज़रूर उठायेंगे। प्राकृतिक शक्तियों के मानवीकरण द्वारा विभिन्न देवता पैदा किये गये, सामाजिक ढाँचे और धर्म के विकासक्रम में ये देवता अधिक लौकिक रूप ग्रहण करते गये। अमूर्तीकरण द्वारा ही ये एकत्व तक पहुँचते हैं। अल्लाह, ब्रह्मा, गॉड का आविष्कार होता है। चेतना तथा पदार्थ के बीच की रेखा को भी इसी दौरान धूमिल किया गया है। मुख्यतः तीन प्रमुख नुक्तों को समझ लेना यहाँ ज़रूरी है – पहला, आज दो मुख्य दार्शनिक शाखाएँ मौजूद हैं; एक पदार्थ को प्रमुख मानती है तो दूसरी चेतना को। दूसरा सवाल विश्व के नियमों को हमारी संवेदनाओं और विवेक पर रखकर परखने का है। तीसरा यह कि क्या किसी भी वस्तु को हम जान सकते हैं या नहीं? इन तीनों सवालों की हमने सिलसिलेवार व्याख्या की तथा यह दिखाया कि मानवीय चेतना पदार्थ का ही विशिष्ट गुण है तथा व्यवहार ही सम्पूर्ण ज्ञान सिद्धान्त को सत्यापित करता है। भारत में भी दर्शन के दोनों शिविरों के बीच संघर्ष शुरू से जारी रहा है। ऋग्वेद में याज्ञवल्क्य अपनी पत्नी को समझाते हुए कहते हैं – “जिस प्रकार नमक का ढेला पानी में फेकने पर पानी में घुल जाता है और तुम उस ढेले को नहीं पकड़ सकती हो, किन्तु पानी जहाँ कहीं से भी लो वह निश्चय ही नमकीन होता है, ठीक उसी प्रकार यह महान, यह अनन्त, यह असीम, विज्ञानधन आत्मा केवल इन भूतों से ऊपर उठकर उनमें ही लीन हो जाती है। वह जब उसमें लीन हो जाती है तो संज्ञा का अस्तित्व नहीं रहता’‘। याज्ञवल्क्य एक महान भाववादी दार्शनिक थे। उस समय तक याज्ञवल्क्य को यह ज्ञान नहीं था कि उस नमकीन पानी को उबाल देने से हमें नमक वापस मिल जाता है, वरना वे इन भूतों से आत्मा को वापस उबालकर प्राप्त कर लेते! ख़ैर, अब हम ज्ञान के वैज्ञानिक सिद्धान्त को पेश करेंगे।

ज्ञान सिद्धान्त

ज्ञान भौतिक जगत के प्रतिबिम्ब के रूप में

ज्ञान एक वैज्ञानिक वस्तु होता है। चिन्तन की प्रक्रिया में मनुष्य की चेतना पर भौतिक जगत के विभिन्न हिस्सों तथा प्रक्रियाबों का प्रतिबिम्बन होता है। यह दुनिया हमारे सिद्धान्तों, तर्कों या विज्ञान के हिसाब से नहीं चलती बल्कि हम व्यवहार द्वारा प्राकृतिक तथा सामाजिक परिघटनाओं तथा प्रक्रियाओं के अनुसार अपने विज्ञान, सिद्धान्त तथा तर्कों का निर्माण करते हैं। यह भौतिक विश्व विकासमान होता है, इसलिए हमारा ज्ञान भी विकासमान होता है। वस्तुएँ हमारी चेतना से स्वतन्‍त्र अस्तित्वमान होती हैं। हमें पिछली सदी तक यह ज्ञात नहीं था कि आँख में लगने वाले काजल में कार्बन नैनोट्युब्स मौजूद होती है। काजल के अन्दर कार्बन नैनोट्यूब्स पहले से मौजूद थी न कि तबसे जब वैज्ञानिकों ने प्रयोग कर इनकी मौजूदगी प्रस्थापित की। किसी वस्तु के कुछ गुण ज्ञात होते हैं तो कुछ अज्ञात। व्यवहार से अज्ञात ज्ञात में बदलता है, नये निश्चित व अनिश्चित पैदा होते हैं।

हमारा ज्ञान लगातार अज्ञानता से ज्ञान की ओर बढ़ता है; यह बना-बनाया अपरिवर्तनशील नहीं होता बल्कि सतत गतिमान और विकासमान भौतिक विश्व का लगातार प्रतिबिम्बन करता हुआ विकासशील होता है। सम्पूर्ण ज्ञानयुक्त ब्रह्म कुछ नहीं होता। ज्ञान लगातार उथलेपन से गहरेपन की तरफ़ बढ़ता है, एकांगी से बहुमुखीपन की तरफ़ बढ़ता है। भौतिकी का न्यूटन के सिद्धान्तों से क्वाण्टम भौतिकी तथा सापेक्षिता सिद्धान्त, कॉस्मोलोजी तक विकास यही दिखाता है। हर विज्ञान तथा कला के क्षेत्र में ज्ञान एकांगी से बहुमुखी तथा उथलेपन से गहरेपन की ओर बढ़ता है। इंसान का व्यवहार ही बाहरी जगत के बारे में ज्ञान की कसौटी होता है। हमारी संवेदनाओं द्वारा अनुभूत वस्तुओं के गुणों को हम वस्तुओं के इस्तेमाल के दौरान ही परीक्षण में लाते हैं। अगर वस्तु के बारे में हमारा बोध सही है तो व्यवहार में वस्तु के गुण हमारे विचारों को पुख्ता करते हैं। जब हम व्यवहार में असफल होते हैं तो हम संवेदना के बोध पर पुनः विचार करते हैं तब हम वस्तु के असल रूप या बदले हुए रूप के सार के अनुसार विचारों में बदलाव करते हैं। यही ज्ञान के प्रतिबिम्बन का सिद्धान्त है।

ज्ञान तथा व्यवहार

ज्ञान मूल रूप से व्यवहार पर टिका होता है। व्यवहार के दौरान ही इंसान ख़ुद के संवेदनाबोध को परखता है तथा संवेदनाबोध द्वारा पैदा हुई धारणाओं का भी व्यवहार में ही निर्माण करता है। व्यवहार का तात्पर्य सामाजिक व्यवहार है। ज्ञान सिर्फ सामाजिक व्यवहार से ही पैदा होता है। सामाजिक सम्बन्धों में रहते हुए सामाजिक इंसान का व्यवहार। अगर कोई इंसान किसी वस्तु को जानना चाहता हो तो उसको वस्तु के वातावरण में आना ही होगा। कोई भी विद्वान किसी वस्तु या प्रक्रिया का ज्ञान घर बैठे नहीं प्राप्त कर सकता है। हालाँकि आज के वैज्ञानिक तथा इण्टरनेट के युग में यह बात चरितार्थ लगती है कि विद्वान सचमुच ही घर बैठे-बैठे कम्प्यूटर पर क्लिक करके ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। परन्तु सच्चा व्यक्तिगत ज्ञान उन्हीं लोगो को प्राप्त होता है जो व्यवहार में लगे होते हैं। यह ज्ञान विद्वानों तक (लेखन तथा तकनीक द्वाराद्ध तभी पहुँचता है जब व्यवहार में लगे लोग वह ज्ञान प्राप्त करते हैं। इसलिए मानव ज्ञान के दो भाग होते हैं – प्रत्यक्ष ज्ञान व अप्रत्यक्ष ज्ञान। अप्रत्यक्ष ज्ञान दूसरों के लिए प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। इस तरह सम्पूर्ण ज्ञान भी सामाजिक होता है। यह मुख्यतः इंसान की उत्पादक कार्यवाही पर निर्भर करता है।

इंसान की उत्पादन कार्यवाही

मनुष्य का ज्ञान उसकी उत्पादन की कार्यवाही पर निर्भर करता है। उत्पादन कार्यवाही से तात्पर्य इंसान की उसके खाना ढूँढ़ने तथा बनाने की कार्यवाही, रहने के लिए घर, कपड़ों तथा जीवन के लिए ज़रूरी अन्य उत्पादन से है। इंसान की इन ज़रूरतों या संक्षेप में जीवन के संघर्ष से ही उत्पादन कार्यवाही निर्धारित होती है। खाद्य संग्रह व शिकार द्वारा प्राक् मानव अपना खाना जुटाता था। इस दौरान उसने पत्थरों से, फिर धातुओं से हथियार बनाये। शिकार के दौरान ही उसने भाला, तीर-धनुष हथगोला आदि हथियार विकसित किये। इसी दौरान इंसान ने भौतिकी के यान्त्रिकी व गतिकी की शाखा का आधार रखा। जानवरों को डराने तथा ख़ुद को गर्म रखने के लिए इंसान ने आग की शक्ति पर काबू किया। शिकार में कुशलता (Efficiency) के लिए भाषा ईजाद की। शिकार के जानवरों, कन्द-मूल के पेड़-पौधों के गुणों का उसने अध्ययन किया। गुफाओं में आज भी जानवरों के झुण्डों व उनकी तमाम गतिविधियों के चित्र मिलते हैं। यही आगे चलकर जीव-विज्ञान का आधार बना। प्रकृति की नकल करके ही लम्बी प्रक्रिया में खेती की कला सीखी गयी।

खेती के लिए खेत के बँटवारे के चलते ज्यामिति विज्ञान विकसित हुआ। फ़सल व अन्य महत्त्वपूर्ण उत्पादन प्रणाली को विकसित करते हुए उसने ज्ञान को नये आयाम दिये। जानवरों को सिर्फ खाने के अलावा यातायात व खेती के लिए भी इस्तेमाल किया जाने लगा। बैलगाड़ी में से बैल को हटाकर ईंजन आया था। आधुनिक विज्ञान ने भी तमाम सामाजिक चेतना व सामाजिक तर्कों से ऊर्जा प्राप्त की। नृत्य, संगीत तथा गायन की कला जादुई विश्व-दृष्टिकोण के युग के उत्सवों से निकलते हुए अलग कला के रूपों में स्थापित हुई। उस दौर के ये उत्सव भी उत्पादन को बढ़ाने के लिए किये जाते थे। मूल बात यह है कि ज्ञान की हर शाखा का उद्भव उत्पादन की कार्यवाही में हुआ है। उत्पादन कार्यवाही के अलावा सामाजिक स्तर पर वर्ग-संघर्ष एवं सामाजिक क्रान्तियाँ भी ज्ञान को गहराई से प्रभावित करते हैं।

वर्ग-संघर्ष

इंसान का पिछले 4,000 सालों का इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास है। समाज में इंसानों के उत्पादन सम्बन्ध वर्गों पर आधारित सामाजिक सम्बन्ध हैं। विभिन्न रूपों में वर्ग-संघर्ष ने मानव-ज्ञान के विकास पर गहरा प्रभाव डाला है। वर्ग समाज में रहते हुए इंसान किसी न किसी वर्ग के सदस्य के रूप में जीता है और बिना किसी अपवाद के प्रत्येक विचारधारा पर किसी न किसी वर्ग की छाप होती है। भारत का इतिहास ख़ुद इसका बड़ा उदाहरण है। मनुस्मृति, उपनिषद्, गीता आदि में ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों, शासन करने वाले वर्गों का पक्ष रखा गया है। इसके प्रतिरोध में खड़ा चार्वाक दर्शन शोषितों का दर्शन है। प्लेटो का रिपब्लिक राज्य के प्रति वफ़ादार है और उसका गुलामों से कोई मतलब नहीं है। पुनर्जागरण काल में हर ज्ञान क्षेत्र में, कला में, विज्ञान में, सामन्तवाद-विरोधी तत्व मौजूद हैं तथा नये सृजन, नये बुर्जुआ वर्ग की वैज्ञानिक ज़रूरत के अनुरूप था। रूस और चीन में समाजवाद के प्रयोगों के दौरान और क्रान्ति से पहले प्रतिरोध और क्रान्ति की संस्कृति ने पूँजीवाद और पूँजीपति वर्ग के विरोध में ही रूप ग्रहण किया। प्रायः ज्ञान के क्षेत्र के रूप तथा विकास को वर्ग-संघर्ष निर्धारित करता है।

वैज्ञानिक प्रयोग

सामाजिक व्यवहार के अन्तर्गत वैज्ञानिक प्रयोगों का मतलब सामाजिक क्रान्तियों व जन-संघर्षों और विज्ञान के क्षेत्र में होने वाले नये आविष्कारों से है। इस दौरान मानवीय चेतना का स्तर छलाँग लगाकर ऊँचा उठ जाता है। मानव ज्ञान नये स्तरों तथा संज्ञान के नये धरातल पर पहुँच जाता है, सामाजिक सम्बन्धों में हुआ बदलाव मानव चेतना पर प्रतिबिम्बित होता है। सामन्तवाद से पूँजीवाद में संक्रमण के दौरान हुई सामाजिक क्रान्तियों ने सम्पूर्ण विश्व का नक्शा बदल दिया। सदियों के बन्धन एक झटके में टूट गये। पुनर्जागरण-धार्मिक सुधार-प्रबोधन के पूरे दौर में परिवर्तन और प्रगति की रोशनी से सारा यूरोप झिलमिल हो उठा। औद्योगिकीकरण इसी संघर्ष के दौरान उत्पन्न हुआ। स्टीम इंजन, धरती का गोल होना, उद्विकास का नियम, ब्रह्माण्ड का असल रूप, कोशिका की खोज आदि वैज्ञानिक खोज व बीथोवन, बाक, मोज़ार्ट, डा विंची, माइकलेंजेलो, वाल्तेयर, दिदेरो जैसे महान बुद्धिजीवी, दार्शनिक, कलाकार, वैज्ञानिक और संगीतकार भी इसी उथल-पुथल भरे समय की उपज थे। 1917 में हुई रूस की समाजवादी क्रान्ति ने सदियों से पिछड़े रूस को दुनिया के विकसित देशों की कतार में खड़ा कर दिया (जो एक मायने में उनसे भिन्न था : यहाँ का विकास करोड़ों मेहनतकशों के शोषण पर नहीं, बल्कि उनके साझे मालिकाने और निर्णय शक्ति पर टिका था) व महाशक्ति सोवियत रूस बना दिया। मज़दूरों के अधिनायकत्व में सोवियत रूस विज्ञान, कला, दर्शन हर मायने में नये-नये सृजन करने लगा तथा ख़ुद जनता के बड़े हिस्से ने इसमें भागीदारी भी ली थी। ये वैज्ञानिक प्रयोग ही हैं जो विज्ञान, कला को सदियों के बन्धन से मुक्त कर सृजनात्मकता के अनन्त आसमान में नयी ऊँचाइयाँ छूने की ऊर्जा देते हैं। परन्तु व्यवहार के द्वारा मानव ज्ञान उत्पन्न कैसे हुआ? आइये ज्ञान के विकास की प्रक्रिया पर एक नज़र दौड़ा लेते हैं।

इन्द्रियग्राह्य-बुद्धिसंगत ज्ञान तथा व्यवहार

व्यवहार की प्रक्रिया में इंसान भिन्न-भिन्न वस्तुओं को देखता है, उनके भिन्न पहलुओं, बाह्य सम्बन्धों को देखता है। यहाँ उदाहरण के लिए हम अपने देश के भिन्न आँकड़ों, बातचीत व आसपास की परिस्थितियों को देखते हैं। यहाँ की भौगोलिक परिस्थिति, आवासीय स्थिति देखते हैं, व्यापक स्तर पर लोगों से बातचीत करते हैं व राजनीतिक पार्टियों के दस्तावेज़ पढ़ते हैं; देश का आर्थिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक अध्ययन करते हैं; यह सब पूरे देश की जनता के जीवन, यहाँ के समाज, अर्थव्यवस्था और राजनीति के हालात का चित्र प्रस्तुत करते हैं। यह प्रत्यक्ष अनुभव से प्राप्त होने वाला आनुभविक ज्ञान है जो यथार्थ का प्रत्यक्ष रूप हमारे सामने रखता है। इसे ज्ञान की इन्द्रियग्राह्य मंजि़ल कहते हैं, यह इन्द्रिय संवेदनाओं और संस्कारों की मंजि़ल है। इस देश की विशिष्ट भौतिक परिस्थिति तथा उनके रूप हमें प्रभावित करते हैं। ये संवेदनाओं को जन्म देते हैं और दिमाग़ में बहुत से संस्कार छोड़ देते हैं। यह बिखरे हुए संवेदनों/अनुभवों/चित्रों का एक समुच्चय होता है। अभी हमने इनके आपसी सम्बन्धों, प्रकृति और चरित्र को नहीं समझा होता है। न ही हम इनके बारे में कोई सार्वभौमिक या सामान्य बयान दे सकते हैं। अभी यह अनुभवों और संवेदनों का एक अव्यवस्थित समुच्चय मात्र होता है। यह ज्ञान प्राप्ति की पहली मंजि़ल होती है। जब सामाजिक व्यवहार की प्रक्रिया आगे चलती है, ये अनुभव बार-बार दोहराये जाते हैं। अनुभवों के बार-बार दोहराये जाने से हमारा मस्तिष्क अपनी स्वाभाविक प्रक्रिया से इन अनुभवों का सामान्य सूत्रीकरण करने लगता है। यहाँ हमारी ज्ञान-प्राप्ति की प्रक्रिया में एक आकस्मिक छलाँग लगती है और हमारे मस्तिष्क में धारणाओं का निर्माण होता है। ये धारणाएँ वस्तुओं के बाह्य सम्बन्ध नहीं रह जातीं, ये वस्तुओं के सारतत्व, समग्रता तथा आन्तरिक सम्बन्धों तक जाती हैं। धारणाओं तथा इन्द्रियग्राह्य ज्ञान में गुणात्मक भेद होता है। यह ज्ञान प्राप्ति की दूसरी मंजि़ल है। जब हम अपने देश की आर्थिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक परिस्थितियों का गहन अध्ययन कर लेते हैं तथा अनुभव से दोनों का मिलान करते हैं तो यह निर्णय कर पाते हैं कि यहाँ हर वस्तु बिकने योग्य है, बाज़ार की ताकत अर्थव्यवस्था को चलाती है, इंसान की मेहनत, रोटी, कपड़ा और मकान से लेकर फूल तथा पहाड़ भी बिकाऊ हैं। हमारा समाज वर्गों के आधार पर बँटा है। सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था पूँजीवादी है, जिसमें हर चीज़ का आधार मुनाफ़ा और फ़ायदा है। उत्पादन की प्रेरक शक्ति सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं बल्कि निजी मुनाफ़ा है। कुछ मुट्ठी भर पूँजीपति व उनकी चाकरी करने वाले नौकरशाह आम मेहनतकश मज़दूरों की मेहनत पर ही अपने लिए अय्याशी के अड्डे खड़े कर पाते हैं। मज़दूरी की लूट को जारी रखने के लिए पूरा तन्‍त्र, मीडिया, सेना व पुलिस उनकी सेवा में हाजि़र है। यह किसी भी वस्तु या परिघटना के ज्ञान की प्रक्रिया में धारणा, निर्णय व तर्क की मंजि़ल है। यह बुद्धिसंगत ज्ञान की मंजि़ल है। ज्ञान का वास्तविक कार्य इस मंजि़ल तक पहुँचना है; वास्तविक वस्तुओं के आन्तरिक अन्तरविरोधों, नियमों और विभिन्न प्रक्रियाओं के आन्तरिक सम्बन्धों को समझ लेना है। तर्कसंगत ज्ञान वस्तुओं का उसके वातावरण के साथ अन्तर्विरोध तथा उसके सारतत्व तक जाता है। तर्कसंगत ज्ञान सम्पूर्ण विश्व के इतिहास तथा विकासक्रम को समग्र तथा विशिष्ट रूपों में भी ग्रहण करने में समर्थ होता है।

ज्ञान विकास का यह सिद्धान्त पहली बार मार्क्‍सवाद ने दिया था। इसे ज्ञान का द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी सिद्धान्त कहते हैं। यह पूरी तरह व्यवहार पर आधारित होता है। माओ ने कहा था कि – “इन्द्रियग्राह्य ज्ञान और बुद्धिसंगत ज्ञान के बीच गुणात्मक अन्तर होता है, लेकिन वे एक-दूसरे से अलग नहीं होते, व्यवहार के आधार पर उनमें एकता कायम होती है।” रसायनविज्ञान में फलोगिस्तीन से आक्टेट थ्योरी से मोलिक्यूलर ऑरबिटल थ्योरी तक विकास इसी प्रक्रिया को दर्शाता है। ज्योतिष से खगोलशास्‍त्र बनने की प्रक्रिया, भौतिकी में इथर थ्योरी से सापेक्षिकता सिद्धान्त तक विकास, विज्ञान की हर शाखा में हम इन्द्रियग्राह्य ज्ञान को तर्कसंगत ज्ञान में बदलते हुए देखते हैं। जापान के भौतिकी के मार्क्‍सवादी वैज्ञानिक ताकेतानी ने इसी सिद्धान्त पर आधारित थ्री स्टेज थ्योरी दी है। जादू की आदिम अवस्था से धर्म व विज्ञान में बदलाव भी इन्द्रियग्राह्य ज्ञान से बुद्धिसंगत ज्ञान के विकास को दिखलाता है। इस विषय पर हम आगे विज्ञान के स्तम्भ में अवश्य लिखेंगे।

ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया के क्रम में इन्द्रियग्राह्य ज्ञान के बाद ही तर्कसंगत ज्ञान आता है। पहले इंसान किसी भी वस्तु का इन्द्रिय संवेदन ज्ञान हासिल करता है। बुद्धिमान से बुद्धिमान इंसान जंगल में बैठकर अवधारणा नहीं सृजित कर सकता, जो कि वास्तविक ज्ञान है। ज्ञान व्यवहार से पैदा होता है – ज्ञान सिद्धान्त का भौतिकवाद यही है। ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया इन्द्रियग्राह्य ज्ञान से तर्कसंगत ज्ञान तक आगे बढ़ती है। यह ज्ञान प्रक्रिया का द्वन्द्ववाद है। पर यह प्रक्रिया यहाँ आकर भी रूक नहीं जाती। ज्ञान सिर्फ प्रक्रियाओं तथा वस्तुओं के ठोस रूप तथा उनके आन्तरिक सम्बन्ध जानने तक नहीं जाता। ज्ञान व्यवहार से शुरू होता है और उसे फिर व्यवहार के पास वापस लौट आना होता है। इन्द्रियग्राह्य ज्ञान व्यवहार से पैदा होता है जो पुनरावृत्ति और विवेक से तर्कसंगत ज्ञान तक पहुँच जाता है। विवेक और तर्कशक्ति से आनुभविक ज्ञान से निकली अवधारणाओं का सत्यापन व्यवहार के दौरान होता है। हम समाज की पूँजीवादी तथा वर्ग समाज की व्याख्या तक पहुँचने के बाद, तथा यह जानने के बाद कि यह सामाजिक बदलाव मज़दूर वर्ग के द्वारा ही सम्भव है, जब समाज को बदलने व्यवहार के धरातल पर उतरते हैं तो पहले तो हमारी धारणा पुख्ता हो जाती है। पर कुछ नये सवाल भी खड़े हो जाते हैं। नया व्यवहार नये इन्द्रियग्राह्य ज्ञान को जन्म देता है, जिसमें से कुछ पुराने व्यवहार से जन्मे अवधारणात्मक ज्ञान को पुष्ट करते हैं तो कुछ उसमें संशोधन या परिवर्तन की माँग करते हैं। इस प्रकार व्यवहार एक बार फिर से अवधारणात्मक ज्ञान को उन्नत करता है। उन्नत अवधारणात्मक ज्ञान को पुष्टि के लिए फिर से व्यवहार तक ही आना होता है। अपुष्टि वास्तव में अवधारणात्मक ज्ञान के विकास की प्रेरक शक्ति होती है। यह असफलता एक प्रकार की रिडेम्प्टिव प्रक्रिया होती है, जिसके ज़रिये ज्ञान सतत् विकासमान होता है। यानी, व्यवहार-सिद्धान्त-व्यवहार -सिद्धान्त…. यही है द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी ज्ञान सिद्धान्त।

ज्ञान : सापेक्ष व निरपेक्ष

ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया सम्पूर्णता तथा असम्पूर्णता के बीच अन्तर्विरोधपूर्ण होती है। चिन्तन में वस्तुगत प्रक्रिया को प्रतिबिम्बित कर इंसान अपने ज्ञान को इन्द्रियग्राह्य तथा बुद्धिसंगत ज्ञान के क्रम में विकसित करता है तथा व्यवहार में यह सतत् उन्नत धरातलों पर पहुँचता जाता है। वास्तविकता के अनुरूप किये गये प्रयोग हमारी ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया के एक चरण को पूरा करते हैं। हम पूर्वकल्पित धारणाओं के अनुरूप प्रयोग को वस्तुगत रूप देते हैं। परन्तु कई बार ऐसा होता है कि सिद्धान्त सच्चाई को अधूरा या ग़लत ढंग से निरूपित करते हैं। यह सिर्फ हमारी वैज्ञानिक एवं तकनोलॉजिकल सीमा के कारण नहीं बल्कि वस्तुगत प्रक्रिया के विकास पर भी निर्भर करता है। यह इस पर भी निर्भर करता है कि वस्तुगत प्रक्रिया अपने को किस हद तक प्रकट करती है। इसके अनुसार, वस्तुगत प्रक्रिया की अभिव्यक्ति के अनुसार हमें ज्ञान को फिर से ठीक करना होता है। जहाँ तक प्रक्रिया की प्रगति का ताल्लुक है, इंसान की ज्ञान प्रप्ति पूरी नहीं होती है। अगर और ठोस रूप में कहें तो ‘‘विश्व के विकास की निरपेक्ष और आम प्रक्रिया में प्रत्येक ठोस प्रक्रिया का विकास सापेक्ष होता है तथा इसलिए निरपेक्ष सत्य की अनन्तधारा में विकास की हर विशेष मंजि़ल पर ठोस प्रक्रिया का मानव ज्ञान सापेक्ष रूप में सत्य होता है।” (माओ)

इसका सीधा मतलब है कि विश्व में परिवर्तन की प्रक्रिया कभी समाप्त नहीं होती है। इंसान के दिमाग़ में पैदा हुआ भौतिक जगत का प्रतिबिम्बन ऐतिहासिक परिस्थितियों द्वारा सीमित होता है तथा उस इंसान की भौतिक व दिमाग़ी क्षमता पर भी निर्भर करता है। परन्तु इसका यह मतलब नहीं होता कि विश्व में सारे सत्य सापेक्ष हैं तथा ये अराजकतापूर्ण तौर पर संसार में पैदा होते हैं। जैसा कि लेनिन ने कहा है, ‘‘अनगिनत सापेक्ष सत्यों का समुच्चय ही निरपेक्ष होता है।” दिक् व काल में अलग इंसानों द्वारा सम्‍प्रेषित सत्य एक-दूसरे से जुड़कर निरपेक्ष सत्य बनाते हैं जो ख़ुद भी सामाजिक विकास के साथ विकसित तथा गहन होता जाता है। अन्तरविरोध की सार्वभौमिकता निरपेक्ष है। इंसान द्वारा सत्य को प्राप्त करने की प्रक्रिया कभी समाप्त नहीं होती। क्वाण्टम भौतिकी का सिद्धान्त ‘‘अनसर्टेनिटी प्रिंसिपल’ (अनिश्चितता का सिद्धान्त) यही स्थापित करता है, हालाँकि इसे प्रतिपादित करने वाले वर्नर हाइज़ेनबर्ग स्वयं इसकी एक अज्ञेयवादी नवकाण्टीय व्याख्या करते हुए इस नतीजे पर पहुँच जाते हैं कि वस्तुगत यथार्थ नामक कोई चीज़ नहीं होती और कि प्रेक्षक ही यथार्थ का निर्माता है। लेकिन चूँकि विज्ञान किसी नवकाण्टीय अज्ञेयवादी के प्रेक्षण की निर्मिति नहीं है, इसलिए अनिश्चितता के सिद्धान्त का एक सही विश्लेषण हमें दिखला देता है कि यह सिर्फ ज्ञान प्राप्ति के सापेक्षता के पहलू को उजागर करता है और इसके ज़रिये ज्ञान की सतत् गतिशीलता पर बल देता है। अनिश्चितता सिद्धान्त के मार्क्‍सवादी विश्लेषण और व्याख्या के लिए रुचि रखने वाले पाठक ताकेतानी, सकाता और युकावा नामक जापानी वैज्ञानिकों के आधुनिक भौतिकी पर लेखन को पढ़ सकते हैं। इसके अलावा भी विश्व के कई देशों के मार्क्‍सवादी वैज्ञानिकों ने अनिश्चितता के सिद्धान्त को मार्क्‍सवाद के सामान्य सिद्धान्तों की पुष्टि के रूप में प्रदर्शित किया है। हर नये प्रयोग के साथ हमारे प्रेक्षण (observation) गहरे होते हैं। अनिश्चितता की समस्या वास्तव में ताकेतानी के शब्दों में प्रेक्षण की समस्या है। आज मानवीय प्रेक्षण का स्तर जिस धरातल पर है उस धरातल पर सूक्ष्म विश्व की कई चीज़ों का हम सटीक तौर पर निर्धारण नहीं कर सकते। लेकिन भविष्य में ये प्रेक्षण और उन्नत होगा और गहरे धरातलों पर जायेगा। उस समय पुरानी अनिश्चितताएँ निश्चितताओं में तब्दील हो जायेंगी। लेकिन तब तक अनिश्चितता का एक नया क्षितिज उजागर हो चुका होगा। विज्ञान के पास हमेशा कुछ अनुत्तरित प्रश्न रहेंगे। क्योंकि विज्ञान धर्म नहीं होता। यह द्वन्द्वात्मक रूप से सतत् गतिमान व्यवस्थित विशिष्ट ज्ञान का समुच्चय है। धर्म एक भी सही प्रश्न नहीं पूछता, इसलिए उसके पास हर प्रश्न का जवाब होता है! विज्ञान सही प्रश्न पूछता है इसलिए वह कभी सभी प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सकता। वह जितने प्रश्नों का उत्तर देता है, उन उत्तरों से ही वह नये प्रश्नों को खड़ा भी करता है। यह एक सतत् अन्तहीन प्रक्रिया है।

ज्ञान प्राप्ति के लिए ठोस अध्ययन

मार्क्‍स ने कहा था कि ‘‘विज्ञान में कोई सीधा-सपाट रास्ता नहीं है। प्रतिभा के शिखर पर केवल वही पहुँच सकते हैं जो सीधे खड़े पहाड़ी रास्तों पर चढ़ने में डरते नहीं है।” यह कथन मार्क्‍सवाद के कर्म सिद्धान्त, ज्ञान सिद्धान्त की मूलवस्तु है। ज्ञान को एकांगी या छिछले ढंग से नहीं प्राप्त किया जा सकता है। न अनुभवादी या विज्ञानवादी तरीके से प्राप्त किया जा सकता है। यह सिर्फ व्यवहार तथा सिद्धान्त के तालमेल, ईमानदारी, विनम्रता, धैर्य तथा हिम्मत की माँग करता है। इसके इतर कोई भी रास्ता हमें अहंवाद, कठमुल्लावाद तथा अनुभववाद के गड्ढे में ले जाता है। यह कठोर अध्ययन की माँग करता है। हर वस्तु में निहित अन्तरविरोध को जानना होता है। अन्तरविरोध को विशिष्ट तथा सार्वभौमिक रूप में पहचानने की ज़रूरत होती है। सबसे पहले विशिष्ट का अध्ययन करते हुए हमें वस्तु-विशेष के अन्तरविरोध के दोनो पहलू को समझना होता है। वस्तु के विकास की प्रक्रिया में मौजूद अन्तरविरोध के दोनों पहलुओं को चिन्‍हित करना होता है। वस्तु के विकास की प्रक्रिया की मंजि़ल के अन्तरविरोध को चिन्‍हित करना होता है तथा मंजि़ल के अन्तरविरोध के दोनों पहलुओं को समझना होता है।

यहाँ हम किसी अकादमिक या किताबी ज्ञान की बात नहीं कर रहे हैं; न ही हम यहाँ महज़ बेहद विशेषीकृत विज्ञान की शाखाओं की बात कर रहे हैं। हम यहाँ आमतौर पर मानव ज्ञान की बात कर रहे हैं। एक समाज वैज्ञानिक के तौर पर हमें समाज के भी मूल अन्तरविरोधों की पहचान करनी चाहिए, उनके दोनों पहलुओं की पहचान करनी चाहिए और उनके आधार पर समाज के बारे में अपने ज्ञान को विकसित करना चाहिए। इस प्रक्रिया से विकसित ज्ञान ही वापस पलटकर समाज को बदल सकता है। आज मुनाफ़े और लूट पर टिके पूँजीवादी समाज को भी अगर बदलकर किसी नये समतामूलक, अन्यायमुक्त समाज की रचना करनी है, तो हमें मौजूदा समाज का एक द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी अध्ययन करना होगा। चूँकि ज्ञान व्यवहार से पैदा होता है, इसलिए हमें व्यवहार में उतरना होगा। आज के समाज के बारे में भी हम सिर्फ पुस्तकालयों में बैठकर और किताबों का अध्ययन करके नहीं जान सकते। हमें सामाजिक व्यवहार में प्रत्यक्षतः उतरना होगा।

प्रस्तुति-बिजूका समूह
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टिप्पणियां:-

संजीव:-
कठिन और ऊबाउ प्रस्तुति. विषय गंभीर है उसके अलग अलग हिस्सों पर स्वतंत्र विचार करना चाहिये. प्रस्तुति की भाषा स्पष्ट और बोधगम्य हो तो सार्थक हो सकेगी.

ज्ञान का चरित्र और विकास नामक विषय मेरे लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है और इस पर बात करना मेरे लिए रुचिकर भी है. पर इस लेख ने इतना कुछ एक साथ खिचडी की तरह प्रस्तुत किया कि दिमाग झनझना गया है.

कांट के ज्ञान की अवधारणा ही इतनी विस्तृत और बहुआयामी है कि अकेले उस पर पूरी सीरिज में बात की जानी चाहिये. इसी तरह मार्क्स  की चेतना और भौतिक पदार्थों के बीच के द्वंद्वात्मक संबंध को भी बहुत साफ तरीके से समझने की आवश्यकता है ताकि उसके संबंध में जो जाले दिमाग में लगे हैं वे साफ हो सके. इस लेख से किसी तरह की समझ विकसित नहीं हो पा रही है. सब कुछ गड्मड हो गया है.

लेख का आरंभ भी तर्क संगत नहीं है. जिस इंसान के बारे में बात की जा रही है वह 250000 साल पहले नहीं आया था. मानवता के उद्विकास में वर्तमान मानव लगभग १००००. ईसा पूर्व से २५००० वर्ष पूर्व ही पृथ्वी पर आया है.

कांट के समक्ष मूल समस्या थी ज्ञान की। ज्ञान कैसे संभव है? मानव विवेक की सीमायें क्या हैं? वह कहता है कि ज्ञान सदैव निर्णयों में प्रकट होता है, जिनमें किसी बात की पुष्टि की जाती है या उसका खंडन, परन्तु प्रत्येक निर्णय ज्ञान नहीं होता। ज्ञान होने के लिए संश्लेषित निर्णय को अनिवार्य होना चाहिए, उसे सार्वभौमिक होना चाहिए अर्थात् उसमें कोई विकल्प नहीं होना चाहिए। इस तरह वे कहते हैं कि सार्वभौमिकता तथा अनिवार्यता का स्रोत संवदेन अथवा प्रत्यक्ष ज्ञान में नहीं, बल्कि विवेक, स्वयं समझ में है।
उसका कहना है कि ‘‘इंद्रियगोचर वस्तुएं तथा धारणायें हमारे ज्ञान के सभी तत्वों का निर्माण करती हैं’’  गोचर वस्तुएं धारणाओं के बिना अस्पष्ट तथा धारणायें गोचर वस्तुओं के बिना खोखली हैं। संवेदनशक्ति हमें जो कुछ प्रदान करती है, बुद्धि केवल उसे प्रतिपादित करती है।
वह ज्ञान कैसे संभव है इसे दो भागों में विभाजित करके विवेचित करता है, एक इंद्रियगत ज्ञान कैसे संभव है और दूसरा समझ कैसे संभव है। प्रथम प्रश्न का उत्तर है ‘ट्रांसेंडेंटल एथिक्स’ और दूसरे का उत्तर ‘ट्रांसेंडेंटल लॉजिक’ में दिया।
प्रथम में संवेदना और इंद्रिय ज्ञान की पूर्व शर्तांे की विवेचना की गई है। मसलन महसूस करने के लिए हमारे पास संवेदन शक्ति होनी चाहिए, परंतु केवल संवेदन शक्ति ही ज्ञान नहीं हो सकती। संवेदना, चेतना का संशोधन, चेतना के अंदर एक परिर्वतन, एक आत्मपरक स्थिति है जो हमारे अंदर किसी अन्य चीज द्वारा उत्पन्न की जाती है। संवेदना का संबंध स्थान, और समय, समय तथा स्थान में एक निश्चित स्थान से होना चाहिए। हमारी संवेदनायें स्थानीय तथा भौतिक क्रम में व्यवस्थित होती हैं। इसलिए प्रत्यक्ष ज्ञान के लिए पदार्थ अथवा अंतर्वस्तु (अनुभूति) और रूप (स्थान और समय) की आवश्यकता होती है। संवेदनायें कच्चे माल - रंग, ध्वनि, भार - से मिलकर बनती हैं, जिन्हें संवेदनशक्ति स्थान तथा समय के ढांचे अथवा रूप में व्यवस्थित करती है।

वे आगे कहते हैं कि - समय आंतरिक अनुभूति का रूप है, अर्थात् हमारी मानसिक अवस्थाओं को केवल भौतिक क्रम में ही समझा जा सकता है। जबकि स्थान बाह्य इंन्द्रियों का रूप है। हम स्थानीय रूप से केवल उसी चीज को समझ सकते हैं, जो हमारी ज्ञानेन्द्रियों को प्रभावित करती हैं। परंतु, चूँकि इंद्रिय के समक्ष प्रस्तुत प्रत्येक चीज चेतना का संशोधन है, और उसका संबंध आंतरिक अनुभव से है, इसलिए समय समस्त विचारों अथवा परिघटनाओं की अनिवार्य शर्त है।
स्थान तथा समय ऐसी वास्तविकतायें अथवा चीजें नहीं हैं, जिनका स्वतंत्र अस्तित्व है। न ही वे ऐसे गुण अथवा विशेषतायें हैं, जिन्हें इस रूप में चीजों से संबंधित किया जा सके। वे ऐसे तरीके हैं जिनके द्वारा हमारी संवेदन शक्ति चीजों को समझती है। वे ज्ञान इंद्रियों के रूप तथा कार्य हैं। यदि इस संसार में स्थान तथा समय के अंतर्जात अथवा अनुभव से संपन्न प्राणी न होते, तो यह संसार कभी भी स्थानीय और भौतिक नहीं होता: चिंतनशील प्राणी को हटा दीजिये, समस्त भौतिक संसार लुप्त हो जायेगा, क्योंकि वह हमारे विषय की संवेदनशीलता में प्रकटन के अतिरक्ति कुछ और नहीं है।

दुनिया में सब अपने चेहरों के साथ अपने आइने भी साथ लेकर चलते हैं. यह सबसे बडी दिक्कत है मेरे लिये. मैं चेहरे के नकाब उतार सकता हूं पर उन आइनों का क्या करूं जो दूसरी छवि देखना ही नहीं चाहते हैं.

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