18 दिसंबर, 2016

कविता: गोडसे ‘गौड’ से / विनोद शाही

मित्रो, विनोद शाही जी हमारे समय के महत्त्वपूर्ण आलोचक हैं. उनकी आलोचना रचनात्मक व विचारोत्तेजक है. वे जितने महत्त्वपूर्ण आलोचक हैं,  उतने ही ख़ास चित्रकार और भले इंसान भी.....आज उन्हीं की एक कविता पढ़ते हैं. यह कविता श्री देश निर्मोही, आधार प्रकाशन की फेसबुक वॉल से साभार है.....              

कविता: गोडसे ‘गौड’ से / विनोद शाही

इतिहास की तरह मारे जाते रहे हम
रामधुन की तरह जीते रह सकने की खातिर

इतिहास की तरह खुल रहा चिट्ठा
दिल की तरह लहुलुहान होने का
उन की गोलियों की तरह धडकनों के पार होने का
और फिर भी रामधुन की तरह बजते हुए
मौत के बाद भी बजते सुने जाने का

रामधुन ऐसी कि जो रहती है
ठहरी हुई शिद्दत की तरह
मिलती है बेशक जो बस एक
आग से जलते पल की तरह
पल जो होता है हमेशा हमारा

इतिहास की तरह जैसे जब जब
दम तोड़ती सी दिखी वह रामधुन
कहते हे राम
ईस्वर से ले कर अल्लाह तक
फिरती रही मारी मारी
बाहरी तौर पर मौन हो जाने जाने से ठीक पहले तक
तब तब कहा दुनिया ने कि देखो !
कोई भी हो सकती है कहीं भी दुनिया भर में
कि जिसे कहा जा सकता हो यीशु की ज़ुबान
जैसे कोई ‘गौड’ से निकला फरमान

आ गए तभी दूसरे इतिहास की तरह
उसी इतिहास के खिलाफ
जो थे गोडसे की तरह

मौन हो गयी लगती थी रामधुन
लेकिन जो बचे रहे
अपने अपने गौड से
पाए फरमानों की तरह
गोलियां बरसाने के लिए
रामधुन की मद्धम पड़ती जाती लय को
दबाने के लिए
भूकम्पी नारे बुलंद कर
जय श्री राम  के

और फिर गोडसे की तरह
सलाखों के पीछे डाल दिए जाने पर भी
पूरे देश को हवालात बनाते
माफिया डौन की तरह
आम कैदियों पर हुक्म चलाते, राज करते

हालांकि जब कि एक तीसरे इतिहास की तरह
पूछते रहे देशवासी
किस जुर्म की सज़ा है जो खत्म नहीं होती
हवालात के बाहर की
कोई और दुनिया क्यों नहीं होती
और कैद की अवधि उम्र से छोटी
कभी भी क्यों नहीं होती

यों चौथे इतिहास की नाईं
उठे सवाल तो सुने गए पहली दफा
दफ्न कर गाड़े गए बोल भस्मीभूत से
कि जिन को रहे थे बोलते
उन्हीं के बीच मौजूद गांधी रामधुन में

कि छोड़नी होगी हमें
दूसरों की वकालत से मिली अपनी हिफाज़त

कि होना पड़ेगा हमें खुद अपने लिए भी
आप अपनी बात कहने को खड़ा

कि आप अपना वैद हो कर
खुद अपना ईलाज करने के लिए
मौत का भी दांव चल कर जीतना होगा

और यह कि आप अपना हो नुमांयदा
अब स्वयं को चुन कर जिताने के लिए
मैदान में आना ही होगा
और वो भी इस तरह
कि नेताऔं की कमी से जूझते
इस देश को राहत मिले

सुन रहे धै देशवासी अगन-वाणी
बंद करते कान उन के नज़र आए
गोडसे ऊद्धम मचाते
कि जैसे करते आए थे वे आज तक
संसद को ठप्प
रोकते इतिहास को
इतिहास बनने की किसी संभावना से

एकबारगी तो लगा कि वाकई उनका
इतिहास पर हो गया कब्ज़ा मुकम्मल
कि अचानक भेदती निस्तब्धता को
फूटती दी सुनाई रामधुन
लोक की तकलीफ सी
देखते ही देखते लो वह गयी फिर छोड़ पीछे
जेल को
जेल की दुर्भेद्य सुरक्षा पट्टियों को
रह गयी फिर देखती
इस्पाती प्राचीरों पर चमकती
जेल के अधीक्षकों की महा-पुछल्ली
नाम-पद की पट्टियां भी

रह गए पीछे यों पहली ही दफा
ईशवर, और उन के साथ रहते
अल्लाह से ऊंचे सभी
और वे भी जो यहां थे गौड-से
और दिखते थे बड़े जो गौड से भी

जाओगे सपनों में अपने तो सुनोगे
इतिहास के सीमांत के आते करीब
तुम भी वह
अगनधर्मी रामधुन
संपर्क: ए-563 पालम विहार गुरूग्राम-122017

समूह के साथी की कहानी

नमस्कार साथियों,

आइये आज पढ़ते हैं समूह के साथी की कहानी।

कहानी पढ़कर अपने विचार रखें ।

कान्हा

‘खन्न’ की आवाज सुनते ही झटकें से आँखे खेाली, अलार्म में मोती बिखरने की ध्वनी मुझे बहुत
पंसद है।  दो सैकेन्ड के लिए अपनी  आँखे  मूंदे रात के सपने के बारे में सोचने लगी।
आज फिर वही ‘कान्हा’ का सपना आया,पिछले कई दिन से मैं रोज कान्हा को अलग-अलग रूपों में देख रही हॅूं ।कभी नन्हा सा माखन-चोर रुप तो कभी गोपियों से घिरा अनुपम रुप ।पर माँ को ये बताना तो......कई उपदेश सुनना है।‘नहीं बेटा ,यह शिर्क है,कूफ्र है।ये आयत पढ़,वो कलमा पढ़...।
नमाज ना निकल जाए इस चिंता से मैंने फटाफट उठ वुजू किया और नमाज पढ़ने बैठ गई।
नमाज पूरी होते ही , माँ की चाय की ख़ुश्बू से खींची किचन में आ गई।‘चल,बिस्कीट की प्लेट उठा ले चल’कहते हुए माँ चाय की ट्रे उठा हॉल  में आ गई।अब्बा पहले से ही वहाँ अखबार लिए बैठे थे। सब अपना कप उठा चुस्कियाँ लेने लगे।अब्बा बोले‘देखो,फिर कुम्भ मेले में भगदड़ मच गई है’
‘इतने लोग आखिर इकट्टठें ही क्यों होते हैं?’ का यह सवाल सुन मैं झट से बोल पड़ी - ‘श्रद्धा है  माँ उनकी,उर्स में भी तो इतनी ही भीड़ होती हैकिनहीं?           

अब्बू चशष्में के उपर से घूर कर देखते हुए बोले‘तेरी पढ़ाई कैसी चल रही है आज कल?,यह फाइनल ईयर है। नम्बर अच्छे नहीं आए तो बी.ए. करने का कोई मतलब नहीं।बहुत कम्पीटीशन है आजकल,किसी मुकाम पर पहुचना है तो अपने को साबित करना होगा,बच्चे।’
मैंने पूरे आात्मविष्वास से कहा‘अब्बा फस्र्ट डिविजन तो पक्का है.... डिसटिंगशेन की को शि श है।‘ शबास’ कहते हुए अब्बा फिर अखबार में गुम हो गये। माँ कुछ कहे उससे पहले ही मैं झट बर्तनों को उठा किचन में चल दी।माँ को मेरी पढ़ाई से ज्यादा फिक्र मेरी शा दी की थी। मेरी बढ़ती कक्षाओं की जमात उनकी माथे की लकीरें केा बढ़ा रही थी। ‘मुकाबले का दुल्हा’ ,‘अच्छा द्यर’ वगैरह-वगैरह । पर खुदा का शु क्र है अब्बु मुझे किसी मुकाम पर देखना चाहते है। खुद भी मदरसा बोर्ड के खजांची होने के कारण शि क्षा की अहमियत समझते थे।छोटा भाई अभी लाड-दुलार के कारण अपनी उम्र से भी छोटा था।

     कालेज के लिए जाते समय अपनी स्कुटी को सड़क  के किनारे लगे कचरा पात्र से जैसे ही निकाला मेरी नजर एक छोटे से बच्चे पर पड़ी ,कचरा बीनने में मशगूल ,अपने काम की थैलियों को चुनता,झड़काता और थैलियों में भरता.....। पता नहीं उसको देख कुछ भितर तक उमड़ा और मैनें वहीं स्कुटर के ब्रेक लगाए ।उसे इषारे से अपने पास बुलाया,पहले वह थोड़ा सहमा पर मेरी मुस्कुराहट देख मेरे पास आया ।मैंने अपने बैग से ‘टिफिन’ निकाला ,और उसमें रखे दो आलू के परांठे उसकी ओर बढ़ा दिए। वह खुषी से उन्हे ले पास ही बैठी अपनी छोटी बहन की ओर दौड़ा और दोनों टुकड़े तोड़-तोड़ खाने लगे।उस बच्चे का मुस्कुराता चेहरा मुझे अपने रात ‘कान्हा’ से मिलता-जुलता लगा।मेरा दिल घड़कने लगा ।मैने हेलमेट पहने -पहने स्कुटी स्टार्ट कर,फिर पिछे मुड़ कर देखा ,हुबहु वही मेरा सपने वाला कान्हा ही तो है। मैं आगे बढ़ गई।
कॉलेज प हूँ च  जब मैंने यह किस्सा सविता को सुनाया तो पहले तो वह खूब हॅंसी ,फिर मुझे छड़ते हुए बोली‘क्या बात है मेरी राधा?....लगता है कोई कान्हा आने ही वाला है। वैसे भी कान्हा तो प्रेम का दूसरा नाम है,तो प्रेम होने वाला है मेरी लाडो को?’
मैने तुनकते हुए कहा‘ तेरी तो अक्ल ही छोटी है सविता! कान्हा ‘प्रेम’ का दूसरा नाम है तो, प्रेम की विषालता,गहराई,निष्छलता को भी देख। उनका प्रेम सिर्फ ‘गोपी’ प्रेम नहीं ,वह तो कण-कण में व्याप्तता का प्रतिक है,सर्वव्यापकता...’, बीच में ही रोकते हुए वह बोल पड़ी- ‘बस-बस तेरा यह लेक्चर बाद में सुनूंगी, अभी तो खुराना मैम का पीरियड है,जल्दी चल वो आगई होगी।’
काॅलेज से घर जाने के लिए जैसे ही मैंने स्कूटी उठाई,सविता झट से उस पर बैठते हुए बोली‘आज भाई की बाइक खराब थी,वो मेरा स्कुटर ले गया,चल..आज तुझे ही छोड़ना पड़ेगा।मैं बिना कुछ कहे ,उसे बिठा चल दी। कुछ दूर चलने पर वह विल्लाई‘अरे-अरे रुक-रुक ‘मैंने दोनों हाथों से ब्रेक लगाया और पूछा -‘क्या हुआ?’
सविता ने नीचे उतरते हुए कहा ‘आज मंगल है, बालाजी के मंदिर के आगे से यूॅ ही ले जायेगी?’ कहते हुए सविता उतर कर मंदिर की ओर चल दी।
मुझे भी स्कुटी साइड में लगा अंदर जाना ही था।
तब तक सविता ,सिर पर पल्लू डाल,हाथ जोड़ अपनी फरमाईषों की झड़ी में मषगूल थी।मैंने बालाजी को ‘सलाम’ किया और एक पीर की तरह सिर पर हाथ फेरने की दुआ करते हुए बाहर आ गई। मेरे लिए मंदिर मैं जाना कोई पूजा नहीं ,मैं मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं करती पर मेरी सहेली की दोस्ती में कोई ‘कसक’ ना रहे इसलिए जाना जरुरी था।
द्रवाजे पर घंटी बजाने से पहले मैंने अपने सिर पर लगे तिलक को पौंछा, माँ की खु शी भी मेरे लिए जरुरी थी.
               
दूसरे दिन सुबह जब नींद खुली तो फिर तो फिर से आये कान्हा के सपने की सोच चेहरे पर एक मुस्कुराहट खिल गई।फजर (सुबह)की नमाज में देरी होते देख मैं झट से उठ बैठी। दो दिन बाद ही मेरी परीक्षा शुरु होने वाली थी और आज मुझे अपना प्रवेश पत्र लेने जाना था। नाष्ता जल्दी-जल्दी खत्म कर जैसे ही मैं घर से निकलने लगी माँ ने मुझे 500 का नोट थमाते हुए कहा-‘देख, यह सदका(विे शे ष दान ) है। रास्ते में किसी गरीब मुसलमान को दे देना।’ मेने गर्दन हिलाते हुए नोट पर्स में डाल स्कुटी उठा चल पड़ी। थोड़ी दूर पर जाते ही फिर वही बच्चा मुझे दिखा और मुझे देखते ही एक ‘भोली मुस्कान’ बिखेरता ठिठक गया। मैंने स्कुटी रोकी, वह दौड़ता हुआ मेरे पास आया ,षायद इस आस से कि मैं आज फिर उसे टिफिन में से कुछ दूँगी । ‘तुम्हारा नाम क्या है?’ मैंने हेलमेट उतारते हुए पूछा।
‘कृष्णा’ उसने शरमाते हुए कहा।नाम सुनते ही मेरा हेलमेट वहीं रुक गया।प्यार से उसके गाल पर हाथ फेरते हुए पूछा‘स्कूल जाते हो?’ ‘हाँ’ में उसकी गर्दन हिलते देख मैंने कहा ‘कब’ उसने शरमाते हुए कहा‘कभी-कभी’ ।
पर्स से 500 का नोट निकालते हुए मैंने उससे कहा-‘रोज जाया करो और यह पैसे अपनी माँ को दे देना। उसने सहमते हुए पैसे लिए और खुषी से ‘थैंकु’ बोला और दौड़ गया।मैं मुस्कुराते हुए हेलमेटपहन चल दी।
आज जुम्मेरात है और कल मेरा पहला पेपर है।मैं ख्वाजा जी की दरगाह जाने के लिए सुबह-सुबह नहा-द्यो कर जाने लगी तो देखा अम्मा भी जाने को तैयार है,और जैसे ही हम द्यर से निकलने लगीं पीछे से अब्बा की आवाज आई‘अरे उर्स के महिने में तुम लोग क्यों जारही हो? बाद में चली जाना।’पर हम दोनों ही कान बंद कर निकल पड़े।
दरगाह में भीड़ का आलम देखते ही बनता था। मैं और माँ  जैसे-तैसे दरगाह में अंदर तो  पहूँच  गए पर आस्ताने शरीफ के बाहर इतनी भीड़ थी कि हम तीन चक्कर उसके बाहर ही लगा चुके थे। जैसे ही आस्ताने षरीफ का गेट आता ,तभी भीड़ का धक्का आता और हम आगे निकल जाते । मैंने माँ का हाथ कस कर पकड़ा था,पर इस बार जैसे ही आस्ताने का गेट आया , माँ  ने पूरा जोर लगा,खुद को अंदर धकेल दिया , माँ मेरे हाथ से छूट गई,बस उनका हरा दुप्पट्टा ही नजर आ रहा था,मैं भी पूरी ताकत लगा माँ के पीछे हो ली। माँ का हरा दुप्पट्टा ही मेरी नजरों के सामने था।भीतर प हूँ च बस कलमा बुदबुदाते, माँ का हरा  दुप्पट्टा देखते ,सलाम फेरते भीड़ के द्यक्कों में कब बाहर आगई पता ही नहीं लगा। बाहर निकलते ही माँ का हरा दुप्पट्टा मेरा नजरों से ओझल हो गया ,मैं घबरा गई। माँ को सफोकेषन ना हो जाए,वे बेहोष ना हो जाए,इसी बैचेनी से जल्दी-जल्दी आगे बढ़ने लगी। तभी देखा माँ का पैर अखड़ गया और वेा नीचे गिरने लगी,तभी दो नन्हे हाथेां ने कहीं साइड से आ, उन्हे थाम एक ओर खिंच लिया। माँ ने अपना संतुलन बनाते हुए ,अपने को खड़ा किया। तभी मैं दौड़ते हुए माँ के पास पहुची
‘माँ तुम ठीक तो हो।हाँफते हुए उन्होने ‘हॅूं- कहते हुए गर्दन हिलाई।
मेरी नजर जब उस बच्चे पर गई जिसने माँ को संभाला था, तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना ही नहीं रहा।वो‘कृष्णा’ था। ‘जीजी,यह तुम्हारी माँ है?’

मैंने हाँ  में जबाब देते हुए ही पूछा‘अरे कृष्णा तुम यहाँ ?’
मेरे सवाल को सुन उसने धीरे से कहा‘आज छठी है ना इसीलिए...’
मेरी आँखें डबडबा आई। मेरे सपनों का कान्हा मेरे सामने था.....प्रेम का प्रतिरुप.....ना अल्लाह, ना भगवान...बस प्रेम और प्रेम।

प्रस्तुति-बिजूका समूह
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टिप्पणियाँ:-

राहुल चौहान:-
मुसलमानी कट्टरता की
सच्चाईयो के बीच यह कहानी बदलाव की आशा का करंट उदाहरण बनती है.....
कहानी का स्वागत

विजय श्रीवास्तव:-
ना अल्लाह , ना भगवान ... बस प्रेम . ...   हिन्दू-मुसलमान नहीं बस इंसान ।
बढ़िया कहानी ।

पूनम:-
मानवीय भावना तथा संवेदनशीलता की मौली मे बंधी हुई कहानी से गुजरने के बाद भावुक हुआ मन बार बार पढ़ने योग्य है यह कथा बहुत बधाई और शुभकामनाये

अनुवादित कविताएँ : सर्जिओ इन्फेंते : अनुवाद : रति सक्सेना

साथियो नमस्कार,

साथियों आज प्रस्तुत हैं कुछ अनुवादित कविताएँ कवि सर्जिओ इन्फेंते की जिनका अनुवाद किया है रति सक्सेना जी ने ।

1.पौध-घर 

आसमान में
शैतानी गैसों ने बना ली
अपनी बेहद बेवकूफाना मेहराब
और समय रहते किसी को नहीं मिली खबर?

किसे पता है, आखिर कौन जानता है
कब बजी थी उस समय
गमन-सूचक सीटी।

जल प्लावन और मृत शरीर - निसृत गैसों ने
कोहरे के कफन से
ढक दी हैं सभी मुख्य जगहें,
उष्णकटिबंध, विषुवत,
कुतुबनुमा दर्शित समस्त गुलाबी पटल।

धरती बन गई है एक ममी
जिसकी कामना नहीं करता कोई
जिसे बदल नहीं सकता कोई।

लेकिन यहीं रुको,
देखो इस शून्य में
हमारी सदिच्छाओं से रिसता शाश्वत व्रण,
हमारी नियत का जाया
प्रशंसनीय गलित मांस।

2.नरगिस पुष्प की दूसरी मौत 

मैं सागरी झील की सतह के करीब
खड़ा हूँ।

नजर आती है उसमें
किसी बड़े घपलेबाज की
अप्रत्याशित शक्ल।

अचंभित खड़ा रहता हूँ मैं,
निरंतर उतरता वाष्पित जल
प्रतिबिंबित करता रहता है
मेरी शक्ल,
सूखते, घटते जल में
शेष रह जाते है
सूर्य-विगलित
रोड़ी, शैवाल,
एक सड़ी हुई चिंगत मछली
और घपलेबाज सी मेरी शक्ल,
वही सूर्य जो छेद देता है
ओजोन की परत
किसी स्नेही गिलोटिन सा
सफाई से गिरता है
मेरी गुद्दी पर।
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परिचय:

नाम : सर्जिओ इन्फेंते

जन्म : 1 मई 1947, चिली

भाषा : चिली

विधाएँ : उपन्यास, कविता, आलोचना

मुख्य कृतियाँ

कविता संग्रह : Gray Abysses, On Exiles, Portrait of an Era, The Pariahs’ Love, Day was Dawning, The Leap Waters
उपन्यास : The Flocks of the Cyclops
आलोचना : The Stigma of Falseness

सम्मान:

कोंडोर पुरस्कार 
प्रस्तुति:- बिजूका समूह

पंजाबी से अनूदित कहानी- इंसानियत, अनुवाद कीर्ति केसर

मित्रो आज पंजाबी से अनूदित कहानी- इंसानियत, पढ़ते हैं. इस कहानी का अनुवाद कीर्ति केसर जी ने किया है.

बलौच सिपाही मिल्टरी के ट्रक में मुर्गों की तरह लद गये थे। उनका सामान वैपन-कैरियर में सुबह भेज दिया गया था। हर फौजी के पास सिर्फ अपनी-अपनी बन्दूक थी। समय ही कुछ ऐसा था कि बन्दूकों पर संगीनें हर समय चढ़ी रहती थीं।

बलौच फौज़ियों की इस टुकड़ी का सरदार एक रमजान खान नाम का जमादार था, जिसे सभी 'मौलवी जी, मौलवी जी' कहते थे। चलती लारी में जमादार नमांज पढ़ने के लिए खड़े हो जाते। फसादों में लाशों के ढेर के आगे मुस्सला बिछाकर लोगों ने नमांज के समय उन्हें नमाज पढ़ते देखा था। एक सिपाही उनकी दायीं तरफ बन्दूक लेकर खड़ा होता और एक सिपाही उनकी बायीं तरफ। देश विभाजन के बाद अमृतसर क्षेत्र से मुसलमानों को निकाल-निकालकर वे पाकिस्तान भेजते। जली हुई मस्जिदों के सामने लारी रुकवाकर ये रोने लगते।

और अब उनका काम खत्म हो चुका था। कोई भी मुसलमान ऐसा नहीं रह गया था जिसे मौलवी ने पाकिस्तान की स्वर्ग-सी जमीन पर न भिजवा दिया हो। जो अपने घरबार छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे, उन्हें मौलवीजी इस्लामी राज्य के सुन्दर चित्र दिखाते और कोई भी उनका कहना टाल न पाता।

और आज अब लारी चलने लगी तो मौलवीजी को अचानक खयाल आया भगवान तो सभी का एक है। अमृतसर के हरिमन्दिर की नींव एक मुसलमान फकीर ने रखी थी, गुरु नानक को अहले-सुन्नत भी अपना पीर मानते हैं और मौलवीजी ने दूर गुरुद्वारे के चमकते हुए सुनहरे कलशों को देखकर सिर झुका दिया।

लारी चली तो ठंडी हवा के पहले झोंके साथ ही मौलवीजी की आंखें मुंदने लगीं। मौलवाजी की आंखें मुंदीं तो फसादों के वीभत्स दृश्य उनकी आंखों के सामने उभरने लगे। किस तरह मुसलमानों ने हिन्दू-सिखों के टुकड़े-टुकड़े किये थे और किस तरह हिन्दू-सिखों ने मुसलमानों से गिन-गिनकर बदले लिये थे। कोई कहतापहले हिन्दूओं ने की थी, कोई कहता मुसलमानों ने की थी...।

जमादार रमजान खान ऐसे ही खयालों में खोया हुआ था कि सड़क से एक खौंफनाक चीख के बाद ट्रक में सिपाहियों के हंसने की आवांज आयी। पूछने पर पता चला कि साइकिल पर जा रहे नौजवान सिख के पास से जब लारी गुजरी तो लारी के एक सिपाही ने अपनी संगीन से उसके गले को छलनी कर दिया। वह सिख साइकिल से उछलकर नाली में गिर पड़ा जैसे कोई मेंढक उछलकर गिरता है। इसी घटना पर सिपाही हंस रहे थे। जमादार भी सिख को मारने की इस तरकीब पर हंसने लगा। उसने सोचा चलो एक सिखड़ा और कम हुआ। और अपनी डायरी में दुश्मन के जानी नुकसान के ब्यौरे में उसने एक नम्बर और बढ़ा लिया।

ट्रक से हंसी अभी थमी नहीं थी कि सड़क से फिर एक भयानक चीख सुनाई दी। इस बार आवांज किसी औरत की थी। और लारी में कहकहों की आवांज और ऊंची हो गयी। दूध बेचकर गांव जा रही किसी ग्वालिन को इस बार निशाना बनाया गया था। संगीन की नोक ग्वालिन की चोटी मेंं जाकर लगी थी और उसके बालों की लट संगीन के साथ कट कर आ गयी थी और ग्वालिन का बर्तन एक तरफ गिर गया था और ग्वालिन दूसरी तरफ ढेर हो गयी थी। फिर बलौची सिपाही बारी-बारी से बालों की लट की चुमने लगे थे। जब सभी ने अरमान पूरे कर लिये तो जमादार ने बालों की लट लेकर अपनी डायरी में रख ली। काफिरों के मुल्क की यह निशानी भी अच्छी रहेगी, उसने मन-ही-मन सोचा।

सुबह की ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी। अमृतसर शहर के बाहर सड़क पर कोई इक्का-दुक्का ही आ-जा रहा था। बलौच फौंजियों ने पाकिस्तान की शान में गीत गाने प्रारम्भ कर दिये पाकिस्तान आसमान में चमकता एक तारा हैपाकिस्तान दुनिया में इनसाफ का एक नमूना होगा पाकिस्तान गरीबों और अनाथों का सहारा होगापाकिस्तान में कोई जालिम होगा, न कोई मंजलूम...।

इसी तरह गाते-गाते एक सिपाही ट्रक में ड्राइवर के दाहिने आकर बैठ गया, दूसरा जमादार से इजांजत लेकर उनके बायीं और बैठ गया। और संगीनों को उन्होंने बाहर निकालकर रख लिया जैसे कोई शिकारी की घात में बैठा हुआ हो।

सड़क पर फिर एक औरत नंजर आयी, गले में गातरे वाली कृपाण, कोई सिख नंजर आ रही थी। ड्राइवर ने धीरे-से ट्रक को उसके पास से निकाला और उसके दायीं ओर बैठे बलौच सिपाही ने उस गोल-मटोल गुरु की भक्तिन को जैसे नेजे पर उछाल दिया हो। सुनसान सड़क पर फिर एक चीख सुनाई दी। ट्रक में फिर कहकहे उठे। ड्राइवर ने फिर ट्रक को तेज कर लिया।

और जहां जाकर वह औंधी गिरी, दूर तक सिपाही एड़ियां उठाकर उसे तड़फते हुए देखते रहे।

फिर उसके सम्बन्ध में बातें होने लगीं। कोई कहता गुरुद्वारे से आ रही थी तो दूसरा कहता गुरुद्वारे जा रही थी। कुछ का खयाल था कि खा-पीकर मोटी हो रहीथी।

और जमादार को समझ नहीं आ रहा था कि वह अपनी डायरी में दुश्मनों के जानी नुकसान के हिसाब में एक औरत लिखे या एक औरत और एक बच्चा। कोई एक मील बाद एक बूढ़ा सडक के किनारे बैठा पेशाब कर रहा था। लारी फिर सड़क छोड़कर कच्चे रास्ते पर आ गयी। इस बार जमादार के बायीं ओर बैठे सिपाही ने बूढ़े की पीठ में संगीन को गाढ़ दिया। बूढ़ा गेंद-सा लुढ़कता खाई में गिर गया। फिर एक चीख की आवांज और फिर कहकहे। लारी फिर तेज हो गयी।

जमादार रमजान खान ने सोचा जाते-जाते ये अच्छे शिकार मिल गये। वह बार-बार डायरी खोलता और अपने हिसाब को अप-टू-डेट करता।

शहर से जैसे-जैसे वे दूर होते जा रहे थे, वैसे-वैसे खतरा कम होता जा रहा था। बलौच सिपाहियों के हौसले बढ़ते जा रहे थे और उन्हें इस नए खेल में मजा आ रहा था।

हवा से बातें करता मिल्टरी का ट्रक जैसे उड़ता जा रहा था। सामने सीमा पर पाकिस्तानी झंडा दिखाई देने लगा था। बलौच सिपाहियों ने झंडे को देखते ही'पाकिस्तान जिन्दाबाद' के पांच नारे लगाये और फिर कोई नगमा गाने लगे।

झंडा जरूर नंजर आने लगा था, पर सरहद अभी लगभग तीन मील दूर थी।

थोड़ा ही आगे जाकर बलौच सिपाहियों ने देखा कि तीन सिख सड़क पर जा रहे थे, दो-दो दायीं ओर तथा एक बायीं और। तीनों में कोई पचास-पचास कदमों का अन्तर था।

ड्राइवर के पास अगली सीट पर बैठे बलौच सिपाहियों ने आंखों-आंखों से कोई योजना बनायी। और जब सारा नक्शा इशारों-इशारों से सभी की समझ में आ गया तो तीनों मुस्करा पढ़े।

फिर ड्राइवर ने ट्रक को दायीं और कच्चे रास्ते पर डाल दिया। अगले ही क्षण एक नौजवान सिख संगीन की नोक से बिंध गया। ट्रक तेज हो गया। नौजवान की चीख सुनकर उसी ओर जा रही औरत ने हैरानी और घबराहट से पीछे मुड़कर देखा। ट्रक उस समय तक उसके सिर पर पहुंच चुका था और तेजी से बाहर आती संगीन उसकी छाती में गढ़ गयी। ट्रक और तेज हो गया। अब बायीं ओर जा रहे बूढ़े की बारी थी। बूढ़ा जैसे ऊंचा सुनता हो, उसे कुछ भी सुनाई नहीं दिया था। ड्राइवर बड़े साहस से ट्रक को सड़क पर ले आया और फिर बायीं ओर कच्चे रास्ते पर डाल दिया और पूरी रंफ्तार के साथ ट्रक को बूढे क़े पास से निकाला। बूढ़ा भूखा-प्यासा कोई शरणार्थी लग रहा था। संगीन की नोंक चुभते ही उछला और पहिये के आगे जा गिरा। उसकी खोपड़ी ट्रक के भारी पहियों के नीचे कुचल गयी। ड्राइवर ने ट्रक को और तेज कर दिया।

सामने दिख रहा पाकिस्तान का धर्म, सच और न्याय का प्रतीक चांद-तारे वाला झंडा लहरा रहा था। ड्राइवर ने ट्रक को और तेज कर दिया। अपने देश से आ रही प्यार-भरी तेज हवाएं जैसे बलौच सिपाहियों का स्वागत कर रही थीं और एक नशे में बलौच सिपाही 'अल्लाह हू अकबर' और 'पाकिस्तान जिन्दाबाद' के नारे लगा रहे थे।

सिपाही नारे लगाते जा रहे थे, ड्राइवर ट्रक की रंफ्तार को बढ़ाता जा रहा था। तभी ड्राइवर ने देखा कि अचानक एक जंगली बिल्ली कूद कर सड़क के बीच में आ गयी। ड्राइवर ने बिल्ली को देखा, जमादार ने भी बिल्ली को देखा। ''इनसानियत का तकाजा...'' इस तरह हुक्म उसके मुंह में ही था कि ड्राइवर ने खुद ही ट्रक को एक तरफ करते हुए बिल्ली को बचाने की कोशिश की। बिल्ली तो बच गयी, पर इतनी तेज जा रहे ट्रक कर हैंडल मुड़ा तो फिर सम्भाल न सका। ट्रक कच्चे रास्ते पर आ गया, फिर कच्चे रास्ते से उतर कर एक पेड़ से टकराकर उलट गया। ट्रक ने एक करवट ली, फिर दूसरी।

पच्चीस मिली-जुली चीखें निकलीं। और फिर जैसे सभी के गले पकड़ लिए गयें हों, एकदम सन्नाटा छा गया। इंजन के पेट्रोल से ट्रक को आग लग गयी। सड़क पर कोई भी हिंदुस्तानी नहीं था जो बलौच सिपाहियों की मदद के लिए पहुंचता।

दूर दिख रहा पाकिस्तान का झंडा वैसे ही लहरा रहा था। घबराहट में सड़क के किनारे कीकर के पेड़ पर बिल्ली चढ़ गयी थी और वहीं से का/टों में से आ/खें फाडे ज़ल रहे ट्रक को देख रही थी और हैरानी हो रही थी।
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टिप्पणियाँ:-

सिनीवाली:-
इंसानों की जान की कीमत बिल्ली की जान के आगे कुछ भी नहीं, अच्छी कहानी

डॉ शमां खान:-
मन को उद्वेलित करती,एक संदेश देती कहानी।
यूँ ना नसीब लिख तू खुद तकदीर का
जिस धड़ी तेरा दीदार हो तेरा भी
होगा तू स्याह औ बेपर्दा

अनूप सेठी:-
कहानी के वर्णन बहुत ही प्रकृत यथार्थ वाद जैसे लगते हैं जो किंचित वीभत्सता भी पैदा करते हैं ।  बिल्ली को बचाने की इंसानियत की बात एक भारी विडंबना का निर्माण करती है। लेकिन दुर्घटना में सारे बलोच सिपाहियों का मारा जाना कहानी का भाग्यवादी सा अंत कर देती है।

रेणुका:-
कहानी एक कड़वे सच्च को दर्शाती है। किंतु काफी जगह क्रूरता का विस्तृत वर्णन परेशान करता है।