नमस्कार साथियो,
आइए आज पढ़ते हैं कुमार अनुपम जी की कुछ कविताएँ
पढ़कर अपने विचार अवश्य रखें ।
1.तीस की उम्र में जीवन
मेरे बाल गिर रहे हैं और ख्वाहिशें भी
फिर भी कार के साँवले शीशों में देख
उन्हें सँवार लेता हूँ
आँखों तले उम्र और समय का झुटपुटा घिर आया है
लेकिन सफर का भरोसा
कायम है मेरे कदमों और दृष्टि पर अभी
दूर से परख लेता हूँ खूबसूरती
और कृतज्ञता से जरा-सा कलेजा
अर्पित कर देता हूँ गुपचुप
नैवेद्य की तरह उनके अतिकरीब
नींदें कम होने लगी हैं रातों कr बनिस्बत
किंतु ऑफिस जाने की कोशिशें सुबह
अकसर सफल हो ही जाती हैं
कोयल अब भी कहीं पुकारती है...कुक्कू... तो
घरेलू नाम...‘गुल्लू’...के भ्रम से चौंक चौंक जाता हूँ बारबार
प्रथम प्रेम और बाँसुरी न साध पाने की एक हूक-सी
उठती है अब भी
जबकि जीवन की मारामारी के बावजूद
सरगम भर गुंजाइश तो बनाई ही जा सकती थी, खैर
धूप-पगी खानीबबूल का स्वाद मेरी जिह्वा पर
है सुरक्षित
और सड़क पर पड़े लेड और केले-छिलके को
हटाने की तत्परता भी
किंतु खटती हुई माँ है, बहन है सयानी, भाई छोटे और बेरोजगार
सद्यःप्रसवा बीवी है और कठिन वक्तों के घर-संसार
की जल्दबाज उम्मीदें वैसे मोहलत तो कम देती हैं
ऐसी विसंगत खुराफातों की जिन्हें करता हूँ अनिवार्यतः
हालाँकि आत्मीय दुखों और सुखों में से
कुछ में ही शरीक होने का विकल्प
बमुश्किल चुनना पड़ता है मन मार घर से रहकर इत्ती दूर
छटपटाता हूँ
कविता लिखने से पूर्व और बाद में भी
कई जानलेवा खूबसूरतियाँ
मुझे पसंद करती हैं
मेरी होशियारी और पापों के बावजूद
अभी मर तो नहीं सकता संपूर्ण
2.दिल्ली में प्रार्थना
इंद्रियों की थकान में
याद आता है अत्यधिक अपना तन
जो आदत के भुलावे में रहा
सगरदिन
जर्द पन्ने की मानिंद
फटने को आमादा होती है त्वचा
रक्त की अचिरावती
ढहाना चाहती हर तट
बेकरारी रिसती है नाखून तक से
अटाटूट ढहता है दिल
माँगता है पनाह
ठाँव कुठाँव का आभिजात्य भेद भी
ऐसे ही
असहाय समय में
दुनिया के असंख्य बेकरारों की समवेत प्रार्थना
दुहराती है रग रग
एक उसी ‘आवारा’ के समक्ष
जिससे अनुनय करता है
कठिन वक्तों का हमारा अधिक सजग कवि
- आलोकधन्वा भी।
कौन
कौन बोला
कि दिल्ली में क्या नहीं है!
3.रोजनामचा
सुबह काम पर निकलता हूँ
और समूचा निकलता हूँ
काम पर जाते जाते हुए
पाँव होता हूँ या हड़बड़ी
धक्के होता हूँ या उसाँस
काम करते करते हुए
हाथ होता हूँ या दिमाग
आँख होता हूँ या शर्मिंदा
चारण होता हूँ या कोफ्त
उफ्फ होता हूँ या आह
काम से लौटते लौटते हुए
नाखून होता हूँ या थकान
बाल होता हूँ या फेहरिश्त
शाम काम से लौटता हूँ
और मांस मांस लौटता हूँ समूचा
(उम्मीद की आँखें टटोलती हैं मुझे मेरे भीतर)
हड्डियों और नसों और शिराओं में रात
कलपती रहती है सुबह के लिए
प्रस्तुति-बिजूका समूह
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टिप्पणियाँ:-
पल्लवी प्रसाद:-
अच्छी कविताएँ।
अनुपम जी तीस की उम्र यौवन है। - कविताओं के लिये बधाई।
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