22 जनवरी, 2017

अनुज लुगुन की कविताएँ

मित्रो कविता के क्षेत्र में जाना-पहचाना और लोकचतना से संपन्न...प्रतिबद्ध नाम- अनुज लुगुन..आज उन्हीं कविताएँ पढ़ते हैं ....

1. महुवाई गंध : अनुज लुगुन 

(कामगरों एवं मजदूरों की ओर से उनकी पत्नियों के नाम भेजा गया प्रेम-संदेश)

ओ मेरी सुरमई पत्नी !
तुम्हारे बालों से झरते हैं महुए।

तुम्हारे बालों की महुवाई गंध
मुझे ले आती है
अपने गाँव में, और
शहर के धूल-गर्दों के बीच
मेरे बदन से पसीनों का टपटपाना
तुम्हें ले जाता है
महुए की छाँव में
ओ मेरी सुरमई पत्नी !
तुम्हारी सखियाँ तुमसे झगड़ती हैं कि
महुवाई गंध महुए में है।

मुझे तुम्हारे बालों में
आती है महुवाई गंध
और तुम्हें
मेरे पसीने में

ओ मेरी महुवाई पत्नी !
सखियों का बुरा न मानना
वे सब जानती हैं कि
महुवाई गंध हमारे प्रेम में है।

2. अघोषित उलगुलान 

अल सुबह दांडू का काफिला
रुख करता है शहर की ओर
और साँझ ढले वापस आता है
परिंदों के झुंड-सा,

अजनबीयत लिए शुरू होता है दिन
और कटती है रात
अधूरे सनसनीखेज किस्सों के साथ
कंक्रीट से दबी पगडंडी की तरह
दबी रह जाती है
जीवन की पदचाप
बिल्कुल मौन !

वे जो शिकार खेला करते थे निश्चिंत
जहर-बुझे तीर से
या खेलते थे
रक्त-रंजित होली
अपने स्वत्व की आँच से
खेलते हैं शहर के
कंक्रीटीय जंगल में
जीवन बचाने का खेल

शिकारी शिकार बने फिर रहे हैं
शहर में
अघोषित उलगुलान में
लड़ रहे हैं जंगल

लड़ रहे हैं ये
नक्शे में घटते अपने घनत्व के खिलाफ
जनगणना में घटती संख्या के खिलाफ
गुफाओं की तरह टूटती
अपनी ही जिजीविषा के खिलाफ

इनमें भी वही आक्रोशित हैं
जो या तो अभावग्रस्त हैं
या तनावग्रस्त हैं
बाकी तटस्थ हैं
या लूट में शामिल हैं
मंत्री जी की तरह
जो आदिवासीयत का राग भूल गए
रेमंड का सूट पहनने के बाद।

कोई नहीं बोलता इनके हालात पर
कोई नहीं बोलता जंगलों के कटने पर
पहाड़ों के टूटने पर
नदियों के सूखने पर
ट्रेन की पटरी पर पड़ी
तुरिया की लावारिस लाश पर
कोई कुछ नहीं बोलता

बोलते हैं बोलने वाले
केवल सियासत की गलियों में
आरक्षण के नाम पर
बोलते हैं लोग केवल
उनके धर्मांतरण पर
चिंता है उन्हें
उनके 'हिंदू' या 'ईसाई' हो जाने की

यह चिंता नहीं कि
रोज कंक्रीट के ओखल में
पिसते हैं उनके तलवे
और लोहे की ढेंकी में
कुटती है उनकी आत्मा

बोलते हैं लोग केवल बोलने के लिए।

लड़ रहे हैं आदिवासी
अघोषित उलगुलान में
कट रहे हैं वृक्ष
माफियाओं की कुल्हाड़ी से और
बढ़ रहे हैं कंक्रीटों के जंगल,

दांडू जाए तो कहाँ जाए
कटते जंगल में
या बढ़ते जंगल में।

3. उलगुलान की औरतें 

वे उतनी ही लड़ाकू थीं
जितना की उनका सेनापति
वे अपनी खूबसूरती से कहीं ज्यादा खतरनाक थीं
अपने जूड़े में उन्होंने
सरहुल और ईचाः बा की जगह
साहस का फूल खोंसा था
उम्मीद को उन्होंने
कानों में बालियों की तरह पिरोया था
हक की लड़ाई में
उन्होंने बोया था आत्मसम्मान का बीज,

उनकी जड़ें गहरी हो रही हैं
फैल रही हैं लतरें
गाँव-दर-गाँव
शहर-दर-शहर
छहुरों से
पगडंडियों से
गलियों से बाहर,
आँगन में गोबर पाथती माँ
सदियों बाद
स्कूल की चौखट पर पहुँची बहन
लोकल ट्रेन से कूदती हुई
दफ्तर पहुँची पत्नी
और भोर अँधेरे
दौड़-दौड़ कर खेतों की ओर
चौराहें की ओर
आवाज उठाती
सैकड़ों अपरिभाषित रिश्तों वाली औरतें
खतरनाक साबित हो रही हैं
दुःस्वप्नों के लिए
उन्होंने अपने जूड़े में
खोंस रखा है साहस का फूल
कानों में उम्मीद को
बालियों की तरह पिरोया है
धरती को सर पर घड़े की तरह ढोए
लचकती हुई चली जा रही हैं
उलगुलान की औरतें
धरती से प्यार करने वालों के लिए
उतनी ही खूबसूरत
और उतनी ही खतरनाक
धरती के दुश्मनों के लिए।

1 टिप्पणी:

  1. असली मिट्टी की खुशबू... अनुज जंगल की आवाज, जल की लहरें और जमीं की कराह अपनी कविताओमें लाये हो... बधाई हो I

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