19 सितंबर, 2017

मार्क्‍स की स्‍मृतियाँ

लेखक - विलहेम लीबनेख्‍ट


अनुवादक

हरिश्‍चन्द्

1. मार्क्‍स से पहली भेंट

मार्क्‍स की दोनों बड़ी लड़कियों के साथ जिनमें एक छ: और एक सात बरस की थी मेरी दोस्‍ती सन 1850 की गर्मियों में स्विजरलैण्‍ड से लंदन आने के बाद शुरू हुई। सच पूछिये तो मैं ''स्‍वतंत्र स्विजरलैण्‍ड'' के एक कारागार में से आया था क्‍योंकि मुझे निर्वासन का 'पार्सपोर्ट' देकर फ्रांस के रास्‍त्‍ो बाहर भेज दिया गया था। मैं मार्क्‍स के परिवार से कम्युनिस्ट मजूदरों के शिक्षात्‍मक संघ की एक गर्मियों की यात्रा में लंदन के पास कहीं मिला था, मुझे याद नहीं ग्रीनिच में या हैम्‍पटन कोर्ट में। 'बाबा मार्क्‍स' ने, जिन्‍हें मैंने पहली बार देखा था, तुरंत मेरा पूरा निरीक्षण किया, मुझे घूर कर देखा और ध्‍यान से मेरे सिर की जाँच की। इस बात की तो मुझे पहले से ही गस्‍टाव स्‍टूव के कारण आदत थी। वह मेरी नैतिक दृढ़ता के बारे में बहुत दिनों तक शक करते रहे इसलिये मेरे ऊपर विशेष रूप से वह दिमाग की बनावट के विज्ञान के सिद्धांतों का उपयोग किया करते थे। खैर, परीक्षा सफलता से समाप्‍त हुई। मैंने काली भुजंग गरदन के शेर जैसे सिर वाले मार्क्‍स की दृष्टि को सह लिया। अब परीक्षा का स्‍थान सजीव और हँसी की बातचीत ने ले लिया। थोड़ी देर में हम लोग मनोरंजन में लग गये। मार्क्‍स सबसे ज्‍यादा खुश थे। तभी श्रीमती मार्क्‍स, युवावस्‍था से परिवार की वफादार नौकरानी लेन्‍चन और बच्‍चों से मेरा परिचय हुआ।

उस दिन से मैं मार्क्‍स के घर में घुलमिल गया। मैं उस परिवार से मिलने का दिन कभी नहीं भूलता था। मार्क्‍स उस समय आक्‍सफोर्ड स्‍ट्रीट के पास की एक सड़क, डीन स्‍ट्रीट पर रहते थे और मैंने भी पास ही चर्च स्‍ट्रीट पर घर ले रखा था।



2. पहली बातचीत

कम्युनिस्ट मजदूरों के शिक्षात्‍मक संघ की उपरोक्‍त यात्रा में भेंट के अगले दिन मार्क्‍स के साथ मेरी पहली लम्‍बी बातचीत हुई। उस दिन तो खुलासा बातचीत का मौका न मिलना स्‍वाभाविक था और मार्क्‍स ने मुझसे संघ की बैठक की जगह पर अगले दिन आने को कहा जब कि शायद एंगेल्‍स भी वहाँ होंगे। मैं निश्चित समय से कुछ पहले पहुँच गया। तब तक मार्क्‍स वहाँ नहीं थे। परन्‍तु मुझे कई पुराने जान पहिचान वाले मिल गये और मैं उनके साथ खूब मजे से बातचीत कर रहा था जब मार्क्‍स ने मेरे कन्‍धे पर हाथ रखा। उन्‍होंने बड़ी मित्रता के भाव से अभिवादन किया और कहा कि एंगेल्‍स अपने निजी कमरे में हैं और वहाँ ज्‍यादा एकान्‍त रहेगा। मुझे मालूम नहीं था कि निजी कमरा क्‍या होता है और मुझे खयाल आया कि अब मेरा इम्तिहान होने वाला है। फिर भी मैं उनपर भरोसा करके पीछे-पीछे चला। पहले दिन की तरह आज भी मुझ पर मार्क्‍स का अनुकूल प्रभाव पड़ा था। उनमें कुछ ऐसा गुण था जो लोगों को दिल खोलकर बात करने के लिये प्रेरित करता था। उन्‍होंने मेरी बाँह पकड़ी और मुझे निजी कमरे में ले गये यानी मकान मालिक या शायद मकान मालकिन का वह कमरा जहाँ एंगेल्‍स ने तुरन्‍त हंसी मजाक से मेरा स्‍वागत किया। उन्‍होंने अपने लिये गहरी बादामी रंग की शराब का गिलास मँगा रखा था। जरा सी देर में वहाँ की फुर्तीली नौकरानी एमी को हमने खाने-पीने का सामान लाने का आदेश दिया। हम भगोड़ों में पेट का सवाल बड़ा महत्‍वपूर्ण होता था। जल्‍दी ही बीअर (शराब) आ गयी और हम बैठ गये। मैं मेज के एक तरफ और मार्क्‍स तथा एंगेल्‍स मेरे सामने। काले पत्‍थर की विशाल मेज, धातु के चमकते हुए गिलास, झागदार शराब, असली अंग्रेजी खाने का आगमन, मिट्टी के लम्‍बे-लम्‍बे पाइप जिन्‍हें देखकर पीने को जी करता था-यह सब मिलाकर इतना आरामदेह था कि मुझे बौज की अंग्रेजी तसवीरों में से एक की प्रबल याद आयी। परंतु इस सबके होते हुए भी वह इम्तिहान था। पर मैंने सोचा कि आखिर उससे डरने की क्‍या बात है। बातचीत का जोर बढ़ने लगा। साल भर पहले जेनीबा में एंगेल्‍स से मिलने के पहले मेरा उन दोनों से कोई घनिष्‍ठ परिचय नहीं था। मैं मार्क्‍स के सिर्फ पैरिस के 'यार बुशर' अखबार के लेखों और ''अर्थशास्‍त्र की दरिद्रता'' को और एंगेल्‍स के केवल ''इंग्‍लैण्‍ड में मजदूर वर्ग की दशा'' को जानता था। कम्युनिस्ट घोषणापत्र के बारे में मैंने सुना था और जानता था कि उसमें क्‍या लिखा है। तब भी सन 1846 से कम्युनिस्ट होने पर भी, ''कम्युनिस्ट घोषणा पत्र'' की पहली प्रति मैंने विधान-विरोधी आंदोलन के बाद एंगेल्‍स के साथ भेंट होने से कुछ पहले ही देखी थी। नया ''राइनिश जाइटुंग'' तो मुझे बहुत कम देखने को मिलता था क्‍योंकि उसके ग्‍यारह महीने के जीवन के समय में मैं विदेश में या जेल में या स्‍वयंसेवकों के अनिश्चित जीवन के तूफान में फँसा हुआ था।

मेरे दोनों परीक्षकों को यह संदेह था कि मुझमें निम्‍न-पूंजीवादी जनवाद की भावना और दक्खिनी जर्मनी की भावुकता है। मनुष्‍यों और वस्‍तुओं के बारे में मेरे अनेक विचारों की कड़ी अलोचना की गयी। सब कुछ देखते हुए परीक्षा का फल बुरा नहीं रहा और बातचीत का क्षेत्र विस्‍तृत हो गया। थोड़ी ही देर में हम लोग प्राकृतिक विज्ञान के विषय पर आ गये और मार्क्‍स ने विजयी प्रतिक्रियावादियों की हँसी उड़ायी जो यह समझते थे कि हमने क्रांति का गला घोंट दिया और उन्‍हें यह संदेह भी नहीं था कि प्राकृतिक विज्ञान एक नयी क्रांति की तैयारी कर रहा है। पिछली सदी में दुनिया में क्रांति मचाने वाले राजा भाफ (भाप) का राज्‍य खतम होने वाला था और उससे कहीं ज्‍यादा महान क्रांतिकारी चीज उसकी जगह लेने वाली थी और वह थी बिजली की चिनगारी। फिर उत्‍साह और जोश से भरे हुए मार्क्‍स ने मुझे बतलाया कि पिछले कई दिन से रीजेन्‍ट स्‍ट्रीट में एक बिजली की मशीन दिखायी जा रही है जो रेलगाड़ी को खींचती है। ''अब समस्‍या हल हो गयी है। इसके परिणामों को बताना असंभव है। आर्थिक क्रांति के बाद राजनीतिक क्रांति होगी क्‍योंकि दूसरी क्रांति तो पहली की ही अभिव्‍यक्ति मात्र है।'' जिस ढंग से मार्क्‍स ने विज्ञान ओर यन्‍त्र विद्या की इस प्रगति के बारे में, अपने दुनिया के प्रति दृष्टिकोण के, और विशेष रूप से जिसे इतिहास का भौतिकवादी दृष्टिकोण कहते हैं, उसके बारे में बातचीत की वह इतना स्‍पष्‍ट था कि अभी तक जो मेरी शंकाएँ थीं वे बसन्‍त की बातचीत की धूप में बर्फ की तरह पिघल गयीं। उस शाम को मैं घर लौटा ही नहीं। अगले दिन सुबह तक हम लोग बातचीत, हँसी-मजाक और शराब पीने में लग रहे और जब मैं सोया तो सूरज खूब चढ़ चुका था। परंतु बड़ी देर तक मैं सो नहीं सका। मैंने जो सुना था उस सबसे मेरा दिमाग बहुत ज्‍यादा भरा था। अंत में इधर-उधर भटकते हुए अपने विचारों के कारण मैं फिर बाहर निकला और जल्‍दी से इस मशीन को देखने रीजेन्‍ट स्‍ट्रीट गया। यह मशीन आधुनिक युग के ''ट्रोजन घोड़े'' के समान थी जिसे पूंजीवादी समाज ने ट्रायवासियों की तरह घातक मोह से खुशी अपने महल में घुसा लिया था और जो उसी तरह निश्‍चय उनका सर्वनाश करेगी। वह दिन आवेगा जब पवित्र इलियन (यानी पूंजीवाद) नष्‍ट हो जावेगा।

बाहर की घनी भांड से मालूम हो रहा था कि मशीन किस खिड़की में रखी हुई है। मैं भीड़ में घुस कर आगे जा निकला और सचमुच मेरे सामने इंजिन और गाड़ी दोनों मजे से चल रहे थे।

उस समय जुलाई सन 1850 का प्रारम्‍भ था।



3. क्रांतिकारियों के अध्‍यापक और शिक्षक के रूप में मार्क्‍स



''मूर'' (मार्क्‍स) को हम युवकों से पांच छ: बरस बड़े होने का फायदा था। वह अपनी विकसित अवस्‍था के लाभों के सब लाभों को समझते थे और हर मौके पर हम लोगों की और खास कर मेरी परीक्षा लेते थे। अपने विस्‍तृत अध्‍ययन और अद्भुत स्‍मरणशक्ति के कारण वे जल्‍दी ही हमे मुश्किल में डाल देते थे। जब किसी तरुण विद्यार्थी को किसी मुश्किल में डालकर उदाहरण से वह यह साबित कर देते कि हमारे विश्‍वविद्यालय में किताबी पढ़ाई की कैसी शोचनीय दशा है, तो वह बड़े खुश होते थे।

परन्तु वह नियमानुसार शिक्षा भी देते थे। इन शब्दों के विस्तृत तथा संकीर्ण दोनों अर्थों में मैं कह सकता हूँ कि वह मेरे गुरु थे। हरएक विषय में उनका अनुसरण करना पड़ता था। अर्थशास्त्र के विषय में मैं कुछ न कहूंगा। पोप के महल में पोप के बारे में बात नहीं की जाती। कम्युनिस्ट लीग में अर्थशास्त्र पर उनके भाषणों के बारे में आगे मैं कुछ कहूँगा। मार्क्स प्राचीन और नवीन दोनों तरह की भाषाओं को अच्छी तरह जानते थे। मैं भाषाशास्त्री हूँ और मेरे सामने जब वह अरस्तू् या एसकाइलस का कोई ऐसा कठिन उद्धरण पेश कर पाते जिसको मैं तुरन्त नहीं समझ सकता था तो उन्हें बच्चों जैसी खुशी होती थी। उन्होंने मुझे एक दिन खूब डाँटा क्योंकि मैं स्पेानिश भाषा नहीं जानता था। फौरन उन्होंने किताबों के ढेर में से 'डॉन क्विक्सो‍ट' निकाल ली और मुझे पढ़ाना शुरू कर दिया। डाइज के लैटिन भाषाओं के तुलनात्मक व्याकरण से मैं शब्द विन्यास और व्याकरण के मूल तत्वों को जानता था। इसलिये मेरे अटकने या रुकने पर मूर की योग्य सहायता और कुशल शिक्षा से मेरा खूब काम चल गया। वह वैसे तो बड़े उग्र और तूफानी स्वभाव के थे परंतु पढ़ाने में उनका धैर्य अटूट था। एक मिलनेवाले के तूफानी आगमन ने पाठ को समाप्त कर दिया। रोज मेरी परीक्षा ली जाती थी। और मुझे 'डॉन' क्विक्सोट' या स्पैनिश भाषा की किसी और किताब से अनुवाद करना पड़ता था। जब तक मैं योग्य साबित नहीं हो गया तब तक यही चलता रहा। मार्क्‍स बड़े अच्‍छे भाषाशास्‍त्री थे यद्यपि यह सच है कि पुरानी भाषाओं की अपेक्षा आधुनिक का ज्ञान उन्‍हें ज्‍यादा था। उन्‍हें ग्रिम के जर्मन व्‍याकरण का विस्‍तृत ज्ञान था और ऐसा मालूम होता था कि वह मुझ भाषाशास्‍त्री से ज्‍यादा अच्‍छी तरह ग्रिम भाइयों के जर्मन शब्‍दकोश को जानते थे। यद्यपि यह ठीक है कि बोलने में वह कुशल नहीं थे फिर भी वह अंग्रेज की तरह अंग्रेजी और फ्रांसवालों की तरह फ्रांसीसी भाषा लिखते थे। न्‍यूयार्क ट्रिब्‍यून के उनके लेख शुद्ध अंग्रेजी में हैं। प्रूधों की पुस्‍तक 'दरिद्रता का दर्शनशास्‍त्र' के जवाब में लिखी हुई 'दर्शनशास्‍त्र की दरिद्रता' उत्तम फ्रेंच में है। जिस फ्रांसीसी मित्र से उन्‍होंने छापेखाने के लिये अपनी पुस्‍तक पढ़वाई थी उसे बहुत ही कम गल्तियाँ मिली थीं। चूंकि मार्क्‍स भाषा का सार जानते थे और उसका उद्गम, विकास व रचना शैली जानने में मेहनत कर चुके थे, इसलिये उन्‍हें भाषाएँ सीखने में कठिनाई नहीं होती थी। लंदन में उन्‍होंने रूसी भाषा भी सीखी और क्राइमिया की लड़ाई के जमाने में अरबी व तुर्की तक सीखने का इरादा था परन्‍तु यह पूरा नहीं हो सका। वह पढ़ने पर ज्‍यादा जोर देते थे। जो व्‍यक्ति किसी भाषा को अच्‍छी तरह जानना चाहता है उसे यही करना चाहिये। मार्क्‍स की ऐसी असाधारण स्‍मरण शक्ति थी कि वे कभी कुछ नहीं भूलते थे और जिसकी अच्‍छी स्‍मरण शक्ति होती है वह खूब पढ़ने से भाषा का शब्‍दकोश और मुहावरे जल्‍दी हो जान जाता है। इसके बाद उनको उपयोग करना तो आसानी से सीखा जा सकता है।

सन 1850 और 1851 में मार्क्स ने अर्थशास्‍त्र पर कुछ भाषण दिये। उन्‍होंने अनिच्‍छा से यह करना तय किया। परंतु मित्र मंडली को थोड़ी शिक्षा देने के बाद उन्‍होंने हमारा कहना और समझाना मानकर ज्‍यादा बड़ी मंडली को शिक्षा देना स्‍वीकार कर लिया। यह भाषण माला सब सुननेवालों के लिये प्रसन्‍नता तथा सौभाग्‍य की बात थी क्‍योंकि मार्क्‍स ने इस समय ही अपनी शिक्षा के मौलिक सिद्धांतों का उसी भांति पूरा ब्‍यौरा दिया जैसा कि ''कैपीटल'' में मिलता है। कम्युनिस्ट संघ के भरे हुए हॉल में या कम्युनिस्ट मजदूरों के शिक्षात्‍मक संघ में, जो उस समय ग्रेट विन्‍डयल स्‍ट्रीट में था (उसी हॉल में जहाँ ढाई साल पहले 'कम्‍युनिस्ट घोषणापत्र' का लिखना तय किया गया था), मार्क्‍स ने किसी सिद्धांत को लोकप्रिय बनाने के अपने अद्भुत गुण को दिखाया। विकृत करने को अर्थात् विज्ञान को असत्‍य, छिछला और नीच बनाने से उन्‍हें बहुत ही भारी चिढ़ थी। परंतु स्‍पष्‍ट अभिव्‍यंजना की योग्‍यता भी किसी में उनसे अधिक नहीं थी। साफ विचारों का फल साफ भाषण है और साफ-साफ सोचने से अवश्‍य साफ अभिव्‍यंजना शैली बनती है।

मार्क्‍स एक नियम के अनुसार चलते थे। पहले वह छोटा हो सकता था उतना छोटा वाक्‍य कहते थे और फिर कुछ विस्‍तार से उसे समझाते थे। परंतु इसका खास ध्‍यान रखते थे कि ऐसा कोई मुहावरा न हो जिसे मजदूर न समझ सकें। इसके बाद वह सुननेवालों से सवाल पूछने को कहते थे। यदि कोई सवाल नहीं पूछा जाता था तो वह परीक्षा लेना शुरू करते थे और यह काम इतनी होशियारी से करते थे कि न तो कोई बात छूटती ही थी और न कोई गलतफहमी बाकी रहती थी। उनकी योग्‍यता की प्रशंसा करने पर मुझे मालूम हुआ कि वह ब्रूसेल्‍ज के मजदूर संघ में राजनीतिक अर्थशास्‍त्र पर भाषण दे चुके थे। जो कुछ भी हो, उनमें कुशल अध्‍यापक बनने के लक्षण थे। पढ़ाने में वह एक ब्‍लैक बोर्ड का भी प्रयोग करते थे जिस पर वह सिद्धांतों के सूत्र लिख दिया करते थे-वे सूत्र भी जिन्‍हें कैपीटल के शुरू के हिस्‍से से हम अच्‍छी तरह जानते थे।

यह अफसोस की बात हुई कि पाठ छ: महीने या इससे भी कम चला। संघ में ऐसे लोग आ गये जिनसे मार्क्‍स संतुष्‍ट नहीं थे। जब लोगों के बाहर जाने की बाढ़ रुक गयी तो संघ छोटा हो गया और उसका स्‍वरूप बड़ा संकुचित हो गया। वीटलिंग और केबेट के चेले फिर प्रमुख होने लगे और मार्क्‍स ने कम्युनिस्ट लीग से अलग रहना शुरू कर दिया क्‍योंकि उनके लिये इतना छोटा कार्यक्षेत्र था और उनका पुराने जालों को झाड़ने से ज्‍यादा अच्छा काम करने का इरादा था।

उन्‍हें भाषा की शुद्धता इतनी पसंद थी कि कभी-कभी यह दिखावा मालूम होता था। और अपनी ''ऊपरी हेस'' की बोली के कारण जो बराबर मेरे पीछे लगी रही-या मैं उसके पीछे लगा रहा-मुझे अनगिनती उपदेश सुनने पड़े।

मैं जो ऐसी छोटी छोटी बातें बतलाता हूँ वह यह दिखाने के लिये कि हम युवकों के साथ अध्‍यापक के रूप में मार्क्‍स अपने को कैसा समझते थे।

इसकी एक और तरह से भी अभिव्‍यक्ति होती थी। वह हम लोगों से बड़ी बड़ी आशाएँ करते थे। जैसे ही वह हमारे ज्ञान में कोई कमी देखते थे, वह जोर देकर उसे पूरा करने को कहते थे और उसके लिये आवश्‍यक उपाय भी बतलाते थे। अगर कोई उनके साथ अकेला होता था तब तो उसकी पूरी परीक्षा हो जाती थी। और उनकी परीक्षा कोई मजाक नहीं थी। मार्क्‍स को धोखा देना असंभव था। और अगर वह देखते थे कि उनकी पढ़ाई का कोई असर ही हो रहा है तो दोस्‍ती भी खत्म हो जाती थी। उनका हमारा अध्‍यापक होना हमारे लिये इज्‍जत की बात थी। उनके साथ रहकर हमेशा मैंने कोई न कोई बात सीखी...।

उस समय मजदूर-वर्ग के छोटे से भाग में समाजवाद का प्रचार हो पाया था। और समाजवादियों में भी जो मार्क्‍स के वैज्ञानिक अर्थ में, 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र' के अर्थ में समाजवादी हों, उनकी संख्‍या कम थी, वहाँ वे अधिकांश जनवादी और जीवन की जरा सी चेतना जाग्रत हुई भी थी, वहाँ वे अधिकांश जनवादी और भावुक इच्‍छाओं और नारों के उस कुहरे में फँसे हुए थे जो सन 1848 के आंदोलन और उसकी भूमिका और उपसंहार के विशेष चिह्न थे। सब की प्रशंसा और लोकप्रियता को मार्क्‍स अपने गलत रास्‍ते पर होने का सबूत समझते थे। और दान्‍ते की यह अभिमानी पंक्ति उन्‍हें बहुत पसंद थी - ''लोगों को जो चाहे कहने दो, तुम अपने रास्‍ते पर चलो।''

यह पंक्ति कैपीटल की भूमिका के अंत में है, इसे उन्‍होंने न जाने कितनी बार हमें सुनाया होगा। कोई भी आदमी धक्‍केमुक्‍कों की और कीड़ी-काँटों के काटने की ओर से बिल्‍कुल उदासीन नहीं रह सकता। किन्‍तु मार्क्‍स अपने मार्ग पर निर्द्वन्‍द्व बढ़ते जाते थे। चारों ओर से उन पर आक्रमण होते, रोज के भोजन के लिये चिंता करनी पड़ती, लोग उनकी बात को गलत ढंग से समझ बैठते, यहाँ तक कि वे मजदूर ही अक्‍सर उनको बुरा-भला कहने से न चूकते जिनकी मुक्ति संघर्ष के लिये ही मार्क्‍स एक अद्भुत अमोघ अस्‍त्र रात के सन्‍नाटे में परिश्रम से तैयार किया करते थे। इसके विपरीत ये मजदूर बकवास करने वाले, विश्‍वासघातियों और शत्रुओं तक के पीछे दौड़ रहे थे। पर मार्क्‍स हताश न होते थे। अपने सादे से कमरे के एकांत में उस महान कवि दांते के शब्‍दों को याद करके शायद उन्‍हें प्रेरणा और नयी शक्ति मिला करती होगी।

उन्‍होंने अपने को पथ से डिगने नहीं दिया। वह अलिफ लैला के उस राजकुमार के समान नहीं थे जिसने विजय और उसके पुरस्‍कार को खो दिया था क्‍योंकि उसने पीछे के शोर और चारों तरफ की भयानक तसवीरों से घबराकर पीछे देख लिया था। मार्क्‍स आगे बढ़ते रहे, उनकी आँखें सदा आगे देखती रहीं, अपने उज्‍ज्वल लक्ष्‍य पर लगी रहीं, उन्‍होंने लोगों को जो चाहे कहने दिया ''और यदि पृथ्‍वी फूट-फूटकर गिर पड़ती'' तो भी वे अपने मार्ग से पीछे न हटते। अंत में विजय उनकी ही हुई, यद्यपि विजय का पुरस्‍कार उन्‍हें न मिल सका।

सर्वविजयी मृत्‍यु के डँसने से पहले वह यह देख सके कि उनका बोया हुआ बीच मनोहर रूप से उगकर कटने के लिये तैयार हो रहा है। हाँ, जीत उन्‍हीं की हुई और पुरस्‍कार हमें मिलेगा।

यदि उन्‍हें लोकप्रियता से घृणा थी तो लोकप्रियता पाने की कोशिश पर क्रोध होता था। चिकनी चुपड़ी बातें करने वाले को वह विष समझते थे और थोथे नारे लगाने वाले की तो खैरियत नहीं थी। उसके साथ तो वह निर्मम हो जाते थे। नारेबाज उनकी सबसे बड़ी गाली थी और जब एक बार वह किसी को नारेबाज समझ लेते थे तो फिर उससे कोई संबंध नहीं रखते थे। तर्कपूर्ण विचारशैली और विचारों की स्‍पष्‍ट अभिव्‍यक्ति-यही उन्‍होंने प्रत्‍येक अवसर पर हम युवकों को शिक्षा दी और सीखने पर मजबूर किया।

लगभग इसी समय ब्रिटिश म्‍यूजिअम में एक उत्तम वाचनालय बना जिसमें पुस्‍तकों का विशाल भांडार था। मार्क्‍स वहाँ रोज जाते थे और उन्‍होंने हमें भी वहाँ जाने की प्रेरणा दी। सीखो! सीखो! यही आज्ञा वे बराबर चिल्‍लाकर हमें दिया करते थे और यह तो उनके दृष्‍टांत से, बल्कि सच पूछिये तो उनकी तीक्ष्‍ण और अध्‍ययनशील बुद्धि से स्‍पष्‍ट थी।

जब कि अन्‍य निर्वासित दुनिया को उलट-पलट करने की योजना बना रहे थे और दिन पर दिन, और प्रत्‍येक शाम को इस विचार की अफीम के नशे में डूबे रहते थे कि ''यह क्रिया कल शुरू होगी'', उसी समय हम ''डाकू'', ''मानवता के कीड़े'' ''भड़काने वाले'', ब्रिटिश म्‍यूजिअम में बैठे अपने को शिक्षित करने और भावी संघर्षों के लिये अस्‍त्र तैयार करने की कोशिश कर रहे थे।

बहुधा किसी को खाने को कुछ भी नहीं मिलता था। परंतु उससे उसका ब्रिटिश म्‍यूजिअम जाना नहीं रुकता था। वहाँ उसे कम से कम बैठने को एक आराम-देह कुर्सी और सर्दी में सुखदायी गर्मी तो मिलती थी। ये बातें उसके घर में नहीं मिलती थीं, यदि उसकी घर जैसी कोई चीज होती भी थी।

मार्क्‍स कड़े अध्‍यापक थे। वह हमें सिर्फ पढ़ने के लिये मजबूर ही नहीं करते थे बल्कि अपने आपको भी संतुष्‍ट करते थे कि हमने सीखा या नहीं।

अध्‍यापक के रूप में कड़े होते हुए भी मार्क्‍स में हतोत्‍साह न करने का अद्भुत गुण था।

अध्‍यापक के रूप में मार्क्‍स में एक और उत्तम गुण था। वह हमें आत्‍म-आलोचना करने पर मजबूर करते थे और यह नहीं सह सकते थे कि कोई अपने किये से संतुष्‍ट होकर बैठ जाय। अपने व्‍यंग्य के कोड़े से वे कल्‍पना के विलास-प्रिय शरीर को निर्दयता से मारते थे।

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