21 सितंबर, 2017


संजीव कौशल की कविताएं


संजीव कौशल का पहला कविता संग्रह ‘उँगलियों में परछाइयाँ’ साहित्य अकादेमी, दिल्ली से प्रकाशित।
हंस, वर्तमान साहित्य, नया पथ, अनभै साँचा, मंतव्य, लोकविमर्श, लोकमत, उम्मीद, वरिमा, यथास्तिथि से टकराते हुए, दैनिक भास्कर आदि में कविताएं, लेख, समीक्षाएं प्रकाशित। विश्व साहित्य से शुनतारो तानिकावा, कार्लोस ड्रुमंड दी आंद्रादे, एड़म जगेएवस्की, चाल्र्स वकोस्की की कविताओं के अनुवाद ’उम्मीद’ में प्रकाशित। बीसवीं शताब्दी के प्रमुख पोलिश कवियों की कविताओं का हिंदी में अनुिदत संग्रह शीघ्र प्रकाश्यहिंदी के वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना की कविताओं का अंग्रेजी में अनुवाद। मुक्तिबोध की ’एक साहित्यिक की डायरी’ के अंग्रेजी में अनुवाद के साथ ही हिंदी के समकालीन कवियों की कविताओं का अनुवाद भी कर रहे हैं।
यहां संजीव कौशल की चंद कविताएं प्रस्तुत है ।



1. चूल्हे


आग के घर हैं चूल्हे

जहाँ घरेलू बनती है आग

चूल्हे जहाँ भी होते हैं

घरों में तब्दील हो जाती हैं वे जगहें

दीवारों के बगैर

कि घरों की नींव होते हैं चूल्हे

जिनके कंधों पर जन्म लेता है समाज


दुनिया में ऐसी कोई जगह नहीं

जहाँ चूल्हे न हों

कि इंसानों के पहले दोस्त हैं वे

भूख से बंधे हुए

जहाँ जहाँ जाते हैं लोग

चूल्हे जाते हैं वहाँ

ख़ानाबदोश आँखों में

फूलती रोटियों के ख्वाब संभाले हुए


सरहदों के उस तरफ

सुबह शाम जब उठता है धुआँ

रोटी की खुश्बूू  में खोया हुआ

घर उतर आता है सैनिक की आँखों में

मीलों दूर माँ की हथेलियाँ

बेलती हैं मक्का की चँदियां

हर पल उठती हूँक को दबाए

प्यार के चूल्हे पर सेंकने के लिए


माँएं ऐसे ही बेलती हैं चँदियां सब जगह

प्यार में गुँथी हुईं

सरहदों के इस तरफ हो या उस तरफ

कैद नहीं रहती खुशबू रोटियों की कहीं

फिर क्यों चलती हैं गोलियाँ

क्यों बुझा देती हैं वे

धड़कनें चूल्हों की


खुशी  के हर उत्सव में पूजे जाते हैं चूल्हे

चूल्हों पर कभी नहीं रखता कोई पैर

और जो उजाड़ते हैं दूसराें के चूल्हे

छोड़कर चले जाते हैं चूल्हे उन्हें


एक चूल्हा हमें भी चाहिए अपने भीतर

कि बचायी जा सके चारों तरफ फैली हुई आग

बचाया जा सके जीवन का स्वाद

आँखों की नमीं

ज़ुबाँ की मिठास

कि जब नहीं रहते चूल्हे हमारी कल्पनाओं में

तभी लगती है आग

कि चूल्हे ही हैं जो करते हैं अलग

इंसानी बस्तियों को जानवरों के झुण्ड़ों से


2. उजालों के पार


कितने उजालों में खोए हो तुम

कि तुम्हें जब भी छूता हूँ

मेरी उँगलियों में

परछाइयाँ भर जाती हैं


कभी मिलो

इन उजालों के पार

कि सुना है

रात में

परछाइयाँ सो जाती हैं


3. ग़ुब्बारे


डंडे से बँधे-बँधे उड़ते

ग़ुब्बारों सी

उड़ रही थी बाहें उसकी

उड़ते बाल

उड़ते साल

उड़ते कदम

उड़ते स्वप्न

सब कुछ उड़ रहा था

टूटे बटनों की शर्ट के साथ


उड़ते ग़ुब्बारों के बीच ठहरी

उसकी आँखों का रंग भी

उड़कर

छितर गया था

रंगीन ग़ुब्बारों पर

‘पाँच रुपए में एक’ की

आवाज़ में उड़ उड़ कर


4. झील के चेहरे पर


झील के चेहरे पर

दौड़ती लहरें

हँसी है मेरी आँखों की


देखो!

तुम्हारी नज़रें

उछालती रहती हैं

बातें

दिन-रात


5.  गुज़ारिश


रोज़ ही छूट जाता है

मेरा कुछ न कुछ

तुम्हारे आस पास

कि मैं हो रहा हूँ ख़ाली ख़ुद से


कभी कभी लगता है

कि यूँ होते होते

हो जाऊँगा ख़ाली एक ​दिन

पूरी तरह से मैं

तब ख़ुद को ढूढ़ूँगा

तुममें मैं

कि ज़रा बचा कर रखना मुझे

थोड़ा सा अपने आप में


6. सलाह


याद रहते हैं तुम्हें

​दिन मुलाक़ातें, तारीख़ें

चेहरे,उनकी हँसी

एक एक तफ़सील सलवटों की


क्यों रखती हो

इतनी चीज़ें

संभालकर तुम

कि लोग अलमारी समझने लगते हैं तुम्हें


7. पुल


नन्ही तुमसे ज़्यादा मिलता है

या मुझसे

मालूम नहीं

शायद दोनों ही से मिलता है

उसका कुछ न कुछ


कभी कभी लगता है

जैसे हम दोनों का चेहरा है नन्ही

एक साथ मिला हुआ

जैसे काटकर चिपकाई हों

आँखें नाँक और कान

जैसे उसकी हँसी में घुली हो

हम दोनों की ख़ुशी

जैसे उसकी चाल में शामिल हो

हम दोनों की चाल

जैसे वो एक पुल हो

हम दोनों के दरमियाँ

जिस पर पहुँच

मैं पहुँचता हूँ तुम तक


8. नाव


किताबों से धूल झाड़ते हुए

कल एक नाव मिली

नन्ही की

विचारों के भँवरों में फँसी

जूझती हुई

मैंने ज़रा सा सहलाया उसे

और वो

मेरी हथेलियों पे तैरने लगी


9.  माँएं होती हैं चींटियाँ


चींटियों को देखकर

माँ की याद आती है मुझे

वो भी ऐसे ही उतार लेती थी

कढ़ाई में जमी रह गई सब्ज़ी की परत

रूखी रोटी से


सबको खिलाने के बाद

यही लिपटी हुई

बची रह जाती थी सब्ज़ी

सब्ज़ी का अहसास दिलाती हुई

और हमें यह झाँसा

कि वो रूखी नहीं खा रही

सब्ज़ी से खा रही है रोटी


माँएं वास्तव में चींटियाँ होती हैं

लगातार चलती रहती हैं वे

इस कोने से उस कोने

कामों को जैसे सूँघती चलती हैं

और दबा कर अपने मज़बूत हाथों में

लिए चलती हैं उन्हें यहाँ से वहाँ


वे चींटियों की तरह ही होती हैं ताक़तवर

तभी तो उठा लेती हैं

अपने से कई गुना बड़ा घर

अपने छोटे से सर पर


चींटियाँ होती हैं माँएं

बचाकर रखने की अपनी आदत में

चीज़ें

मुश्किल वक़्त के लिए


चींटियाँ होती हैं वे

अपने शरीर में

कि हड्डियों के सिवाय

कुछ नहीं होता उनमें


चींटियाँ होती हैं माँएं

कि ज़रा-सी आहट से मुश्किल की

फैल जाती है खलबली उनमें

और निकल पड़ती हैं वे

अंडी-बच्चों की हिफाज़त में


चींटियाँ होती हैं वे

लड़ते हुए अपनी रक्षा में

कि दाँतों को गहरा गाड़ देती हैं

कि मरकर भी नहीं छूटती उनकी पकड़

घर के दुश्मन से


चींटियाँ होती हैं माँएं

रास्ते में बतराते हुए

रुककर हालचाल पूछते हुए

दूसरी चींटियों से


ये ज़्यादातर लकीरों में चलती हैं

और भटककर

फिर से मिल जाती हैं उन्हीं लकीरों में

कि माँएं लकीरों में रहती हैं सारी जि़ंदगी

अपनी हथेलियों की


चींटियों को मरते नहीं देखा है मैंने

और ना हीं देख पाते हैं हम

माँओं को मरते हुए

​दिन-रात खपते हुए

ईंधन-सी

घर भट्टी में


माँएं होती हैं चींटियाँ

कि जाने अनजाने कुचल दी जाती हैं

बेख़बर पैरों से

चींटियों की तरह


10. धूल होते पिताओं के लिए


जब से देखा कुछ इस तरह देखा

कि पिता और धूल साथ साथ ​दिखे

एक अजीब रिश्ते में बंधे हुए

एक दूसरे के साथ

एक दूसरे को मात देते हुए


बालों पलकों कपड़ों पे

समान रूप से बैठी ये धूल

जमी रहती थी उनकी हथेलियों पे

भाग्य की रेखाओं को जैसे पाट देना चाहती हो

अपनी कालिख़ से


ये थी

उनके हर प्रयास में

परेशानियों पे मुस्कुराती हुई

सांसों को ज़रा तेज करती हुई

चुअते पसीने में किरकिराहट भरती हुई


पानी के दो चार छपकों में ही

निकल जाती थी बहुत सी धूल

और कुछ को, झाड़ पोछ कर निकाल देती थी माँ

बाहर घर से

फिर भी रात में उठते पिता के ठोंसे

सबूत थे, सीने में बैठी धूल के

जहाँ नहीं पहुँच सकती थी माँ

जहाँ बेकार थे सारे नुस्खे़ उसके


घर में ऐसी कोई जगह न थी

जहाँ एक क़तरा धूल न मिले

पिता का जैसे अहसास कराती हुई

जो धीरे धीरे धूल हो रहे थे

च़ीजों को बनाने बचाने के प्रयास में


धूल में बसा पिता का चेहरा

इतना आम हो गया था

कि वही पहचान बन गया था अब

और वह हर जगह होता

गेहूँ के साथ चक्की के पाटों में पिसने से लेकर

हमारी किताबों की इबारतों में दबने तक


यही था जो भर रहा था जोश हममें

उस धूल भरे माहौल में

धूल होता हुआ

आँधियों हवाओं से जूझता हुआ

फिर भी अड़ा हुआ

जुता हुआ अपनी कोशिशों में


उनके आते ही घर की दीवारें

ज़्यादा सुरक्षित हो जाती थीं

कि उनका वज़ूद, मज़बूत घर था

दीवारों सा उठा हुआ

ऐसी दीवारें, जो घट बढ़ सकती थीं

हमारी ज़रूरतों के हिसाब से


जाड़ों में इस तरह झड़ती थी धूल

ख़ुद-व-ख़ुद उनके शरीर से

जैसे पता बताती हो

कि किस मिट्टी के बने थे वो


ख़ैर मिट्टी जो भी रही हो

इतना ज़रूर सोख लेती थी पानी

कि नमीं बनी रहती थी साल दर साल

कि पसीने की एक एक बूँद

बारिशों की तरह सींचती थी हमारी प्यास


रास्ते में चलते हुए

जब भी मेरी आँखों में धूल आ जाती है

मेरा ध्यान

पिता की ओर चला जाता है

जैसे धूल हस्ताक्षर हो उनका

जैसे लिखी हो एक एक कर में

एक एक दास्तान

उनकी मेहनत की


11.  क़ुतुबमीनार


नूतन का पीछा करते

देव आनन्द के साथ

पहली बार गया था

क़ुतुबमीनार में मैं

कि बड़ी रोमांचक लगी थीं

वो सीढ़ियाँ

जो घूम घूम कर ऊपर को चढ़ती जाती थीं

और वो झरोखे

जो खुले थे हर तरफ

देख रहे थे इस शहर को

सदियों से बड़ा होते हुए

और ये शहर

बड़ा और बड़ा होता रहा

और होती रहीं ऊँचीं

इमारतें इसकी

कि इन इमारतों से अब

छोटी नज़र आती है मीनार

और वहाँ से देखने पर

रेंगता-सा नज़र आता है आदमी


वहाँ सीढ़ियाँ उतरती चढ़ती तो हैं

मगर किसी का पीछा करता

कोई गुनगुनाता नहीं है वहाँ



12.  हंडे वाले


अपने सरों पे लादे रहते हैं ये

हंडे रोशनी के

फिर भी

कितने ओझल हैं इनके चेहरे

कि ये दिखते ही नहीं

एक से लगते हैं सभी

चेहरे अँधेरे के


कहने को सर पे है

मगर नहीं छलकती

कोई बूूँद रोशनी की इनके चेहरों पे

कि चलते रहते हैं ये गुमसुम

खुशी के गीतों में छूटे सुरों की तरह

बारातियों के साथ-साथ

दमकते चेहरों पे

रोशनी मलते हुए


जैसे धोकर निखारी हो रात

हंडों के शीशों की तरह

ऐसे पेरते हैं रोशनी रात भर

फिर भी कितने काले हैं इनके हाथ

जैसे आई हो हिस्से में इनके

काली सूखी रात


13. पानी पूरी


ख़्वाब के अरमानों सी फूलती हैं वे

खौलती कढ़ाई के अंदर

और सहेज कर रख लेती हैं

अपने हिस्से का खालीपन अपने भीतर

और चल पड़ती हैं

धुंधियाते दमघौटूं रसोई घरों की चौखटों के पार

तंग गलियों से होतीं

पथरीले चौराहाें की ओर

थोड़े मीठे थोड़े नमकीन थोड़े चटपटे ख्वाब

अनाड़ी आँखों में संजोये

ढकेलों की पुरानी चालों पे हिचकोले खाती हुईं


बाज़ार की सौदेबाज निगाहें

ताड़ती हैं उन्हें हर कदम

फब्तियाँ कसती हैं

गठीले शरीरों के करारेपन पे

मगर चलती जाती हैं वे

इतिहास की फीकी सुरंगों से थोड़ा नमक लिए

कि कड़कड़ाके टूटने से भी नहीं डरतीं

खिलखिलाती हुईं गुम हो जाती हैं

पानी पूरियाँ

हमारे मिज़ाजों ज़ायक़ा बदलने के लिए


14. देश प्रेम के मायने


जब सोचता हूँ

सम्मान और कृतज्ञता से भर जाता हूँ

कि कैसे बनता है मेरा एक एक दिन

हज़ारों हाथों से बुना हुआ


ये मकान जिसे घर बुलाता हूँ मैं

जो दुनिया में मेरे होने का पता है

किसने बनाया था मुझे याद नहीं

ये सड़क जिस पर चलता हूँ मैं

जो बाँधती है सारी दुनिया से मुझे

किसने बनायी थी कुछ पता नहीं

ये सब्जियाँ  दालें अन्न और फल

जिनसे जिन्दा हूँ मैं

मैंने नहीं किसी और ने उगाए हैं मेरे लिए

ये शर्ट ये पैंट ये स्वैटर

जिन्हें पहन हर मौसम से जीत जाता हूँ

न जाने किन हाथों ने सिले हैं मेरे लिए


ये किताबें जिन हाथों ने छापी होंगी

उन्होने ही सोखी होगी सारी कालिख

जादूयी शब्दों की

रातभर जागकर

उन्हीं हाथों ने लगाया होगा खेतों में पानी

थापी होंगी ईंटें, बटे होंगे धागे, चलायी होंगी कैंचियाँ

हथोड़े बजाए होंगे, तोडे़ होंगे पत्थर

दोपहरी भर नंगे सर

उतरे होंगे नालियों में वही

उठायी होगी पूरी दुनिया की गंद

दबे होंगे वही खदानों में, जले होंगे वही कारखानों में

उन्हीं ने निखारे होंगे सोने चाँदी हीरे जवाहरात

गलाया होगा लोहा बंदूकों तोपों के लिए

बनाया होगा बारूद दहकते सपनों से

बिना किसी पेटेंट, किसी कॉपी राइट के


लाखों हैं चीजें जिन्हें गिनकर बता सकता हूँ मैं

जो मैंने नहीं किसी और ने बनायी हैं

और जिन्होने बनायी हैं

उनसे मिला तक नहीं  हूँ मैं

यहाँ तक कि कभी सोचा भी नहीं है उनके बारे में


अगर, मैं बनाता तो क्या बना पाता

घर?

मगर कहाँ से लाता ईंटें बालू बदरपुर सीमेंट रोड़ी सरिया औजार

सौ हाथ और सदियों  का हुनर

अगर न होते ये लोग

और न करते वे हजारों हजारों काम

जीना सम्भव नहीं होता एक भी दिन

चाहे हम कोई भी होते, कितने ही तुम्मन खाँ

ये लोग ही हैं जिन्होने बनायी है सारी दुनिया

यही हैं जो बनाते हैं गाँव शहर देश

यही हैं देश मेरे लिए

कि इनके बिना कोई देश सम्भव नहीं

अगर करना है तो इन्हीं से करो प्रेम

कि देश प्रेम के असली मायने यही हैं

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संपर्क- 160, दूसरी मंजिल, प्रताप नगर, जेल रोड़, हरी नगर, नई दिल्ली -110064

 09958596170

  sanjeev.kaushal@yahoo.co.in

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