30 अक्तूबर, 2017


प्रभात की कविताएं:


प्रभात: राजस्थान में करौली जिले के रायसना गाँव में जन्म। शिक्षा के क्षेत्र में स्वतंत्र कार्य। अपनों में नहीं रह पाने का गीत’ (कविता संग्रह) साहित्य अकादमी, नई दिल्ली से प्रकाशित। बच्चों के लिए गीत, कविता, कहानी, नाटक की बीस से अधिक किताबें प्रकाशित।

प्रभात
विभिन्न पाठ्यक्रमों में समय-समय पर रचनाएं शामिल। साहित्यिक एवं शैक्षिक विषयों पर कई लेख। बैगा, अवधी, बज्जिका, छत्तीसगढ़ी, भीली, धावड़ी, मारवाड़ी, माड़, जगरौटी आदि कई लोक भाषाओं में बच्चों के लिए बीस से अधिक किताबों का सम्पादन। लोक कवि धवले के जीवन और गीतों पर लेखन। ‘युवा कविता समय सम्मान, 2012, सृजनात्मक साहित्य पुरस्कार, 2010


कविताएं


दूर-दूर तक फैले हैं ज्वार के खेत

दूर दूर तक फैले हैं ज्वार के खेत
पकी ज्वार के पेड़ों में
भुट्टों के दानेदार दूधिया फल लगे हैं सफेद-सफेद

जहाँ तक पहुँचती है दृष्टि
ज्वार ही ज्वार खड़ी है जंगल में
ज्वार के खेतों में डोल रहे हैं
जंगली चूहे साँप नेवल और सियार
हिरनियाँ बच्चे जन रही हैं अपने यहीं
चकरी सेंध फूट की गंध है फैली हुई
हवा बह रही है ज्वार के पेड़ों के खेतों में
संगीत बज रहा है वन का निर्जन का
अरअराट फैला हुआ है सब ओर
ओ ओ ओ की भागती हुई आवाज
पुकारती हुई फैली हुई है सब ओर
सूर्य गिर गया है ज्वार के दूर-दूर तक
फैले हुए खेतों के उस तरफ

खेतों के ऊपर उड़ रहा है एक पक्षी
ज्वार के खेतों के ऊपर
थके पाँखों से जाता हुआ कोई पक्षी
००

सारस

सारस का जोड़ा
डोल रहा है खेतों में
औरतें लगी हैं खरपतवार हटाने में
युवतियाँ भी हैं कई इनमें
जो होंगी ही किसी न किसी के प्यार में
उनकी यह उम्र ही ऐसी है
बार-बार खड़ी रह-रह कर
देखती है दूर-दूर तक

थोड़ी ही दूरी पर
चरागाह में चरती भेड़ों के बीच खड़े
गड़रिए से बातों में लगने की कोशिश करता
जाने किसका प्रेमी है यह
जाने कौन है
जो आयी नहीं है
००




नीरव

सूखी पीली घासों की गंध
हवा में हिलते फूल और खूँटों से बँधे पशुओं की साँसों के सिवा
कोई शब्द नहीं गाँव में

कृषक पिता और पुत्र
आए हैं गाँव के अपने सूने घर में
खेतों से थके हारे आए हैं वे
रोटी तलाष रहे हैं
पत्थर के बर्तन के नीचे
चार रोटियाँ हैं

पता था कि भाजी नहीं होगी
आते हुए मूँगफली उखाड़ लाए थे रास्ते के खेत से
पिता छील रहा है कच्ची मँूगफली
पुत्र को मिल गई है जाँवणी के तल में एक खौंच छाछ

पिता मूँगफली के दाने और दो सूखी लाल मिर्च पीसता है सिलबट्टे पर
पुत्र एक खौंच छाछ मिलाता है उसमें
दोनों दो-दो रोटी खाते हैं इस लगावन से

सुस्ताते नीम तले की खाटों में अगर फुर्सत होती
चड़ु की और चल दिए पैरों में जूतियाँ डालते हुए खेतों की ओर
००

सूना घर

गाँव के इस आगळ लगे सूने घर के रहने वाले
अब नहीं आएँगे

धूल आती है यहाँ और यहीं की होकर रह जाती है
दिन-ब-दिन और विशाल होते जाले हैं
हर दिन कुछ और ज्यादा ढहते खिड़की के पल्ले
यहाँ जो सब कुछ सूखा हुआ है
और ज्यादा सूख रहा है
छप्पर को थामे थी जो लकड़ियाँ
गलकर सूख गई हैं
अब वे टूटेंगी नहीं
झरेंगी बेआवाज

पानी का पीतल का लोटा
किसी गड़े हुए धन की तरह अनाथ पड़ा है
उसमें पड़ा ज्वार का कत्थई फूस
हवा से हिलता है
चूहों ने इसके आँगन को
किसी खलिहान की तरह खोद दिया है
झाड़ की बाड़ की चारदिवारी थी इस घर की
जो कुछ हट गई कुछ उड़ गई कुछ रह गई है
बाड़ के इस बचे कुछे हिस्से के नीचे
एक सियार और सियारिन ने रहने की जगह देख ली है

इस घर से जंगल की ओर जाती थी एक पगडण्डी
अब जंगल यहाँ आ गया है
गाँव में साँझ के समय
कहीं आसपास ही सियारों का जो रोना सुनते हैं गाँव के लोग
रुदन का वह स्वर यहीं से उठता है

इस आँगन से धुँआ उठता था कभी
जो चाँदनी में देर तक दिखाई देता था
खेलते बच्चों की हँसी सुनाई देती थी
जो दूर तक पीछा करती थी
एक स्त्री के चलने-फिरने पर उसके कपड़ों से उठती आवाज
संगीत की तरह उभरती और मंद होती थी

गाँव के इस आगळ लगे सूने घर के ये रहने वाले
अब नहीं आएँगे
००




बच्चे की भाषा

रेस्त्राँ में सामने की मेज पर
एक यूरोपियन जोड़ा
खाना और पीना सजाए हुए था
मैं चौंक गया जब उनका छह महीने का बच्चा
हिन्दी में रोने लगा
उसका युवा पिता उसे अंग्रेजी में चुप कराने लगा
उसे बहलाते-खिलाते हुए बाहर ले गया
बाहर खुली हवा में बच्चा
दिल्ली की फिज़ा में मिर्जा गालिब के
सब्जा-ओ-गुल औ अब्र देखते हुए
उर्दू में चुप हुआ

तब वह युवा फिर से रेस्त्राँ में भीतर आया
मैं एक बारगी फिर चौंक गया
जब वह बच्चा उराँवों की भाषा बोलते हुए
चम्मच गिलासों से खेलने लगा
००


गुम बच्चे की याद

मेरी गरीब चचेरी बहन
षादी भी जिसकी ठीक से की नहीं जा सकी
बस भेज दी गई
कुछ औरतों के गाए गीतों के साथ हुई उसकी विदाई

दो-एक ही साल बाद विवाह के गीतों के शब्द निष्प्रभ हो गए
उनकी ध्वनियों की चिड़ियाएँ सदा के लिए सो गईं
उसके पति ने एक हत्यारे की हत्या कर दी
वह भारत की जेलों के उन लाखों अभिषप्त कैदियों के बीच जा बैठा
जिनकी जामानत नहीं होती
टलती जाती है जिनकी सुनवाई

ससुराल में वह रहने नहीं दी गई
गोद के बच्चे के साथ वह लाचार आ गई यहीं
उसे रहने के लिए एक पाटोर बता दी गई
हल्ला-मूजरी करके अपना और बच्चे का पेट पालने लगी

ऐसी मेरी गरीब चचेरी बहन का बच्चा था वो
सात साल का हो गया था
बड़ी उम्मीद से बड़ा कर रही थी उसको
पढ़ने भेज रही थी
स्कूल नाम के सरकारी बाड़े में रोज बैठता था जाकर
बच्चों के साथ खेलता था स्कूल से आकर
उस खेलते हुए को
मुर्गी के चूजे की तरह गायब कर ले गया कोई

लिखने में भी तकलीफ होती है कि पुलिस,
सरपंच, विधायक, देवी-देवता
सबके दरवाजों पर ढोक दे चुकी है
सबके पैरों में सर पटक चुकी है

अब तो यही सोचने-बिचारने को रह गया है
आखिर कौन था वह जो ले गया खेलते बच्चे को
क्या वह खुद दरिद्रता, भूख और कुशिक्षा का शिकारकार था कोई
क्या उसने कहीं सुनसान में ले जाकर बलि या कुर्बानी दे दी बच्चे की
या उसने खाये पिये अघाये सभ्य-बर्बरों को बेच दिया उसे

क्या उसे अरब भेज दिया ऊँट पर बाँधकर मारे जाने के लिए
क्या किसी आधुनिक साधु या पर्यटक को बेच आया वह उसे
क्या किसी मेज पर तष्तरी में रखा गया उसे

इतने बच्चे गायब होते हैं हर साल
लेकिन बिजली-पानी की माँग जैसा
छोटा-मोटा मुद्दा भी नहीं बनती यह बात

तीन महीने भी याद नहीं रखा गया एक बच्चे का गायब होना
जिस दिन से गुम हुआ है वह
मेरी चचेरी बहन भी गुम है
वह नहीं जानती कि न मरे न जीवित
बच्चे के साथ कैसे जीना चाहिए
इसी दुनिया में कहीं
और कहीं भी नहीं बच्चे की सुध कैसे रखनी चाहिए
कैसे उसे सुलाना चाहिए
कैसे उसे जगाना चाहिए
कैसे उसे समझाना चाहिए अपना ध्यान रखने के लिए
लापरवाही करने पर कैसे सख्त हिदायत दी जानी चाहिए

अगर उसके अंगों को खोलकर
अलग-अलग षरीरों में नहीं लगा दिया गया है
अगर स्त्री-लोथों से ऊबे विकृतों ने उसे रिहा कर दिया है
अगर दासों की तरह उसके पुट्ठों पर थाप दे-देकर
उसे कई बार बेच और खरीद लिया गया है
तो अब वह कहाँ और क्या कर रहा है
कैसा दिखने लगा है वह हाड़ मांस पुतला सालों बाद

क्या वह ब्रेड पर आयोडेक्स लगाकर खा चुका है
क्या दुनिया की सभी लड़कियों के लिए डरावना हो चुका है
क्या वह किसी महानगर की बत्ती गुल करने निकल पड़ा है
क्या वह टेलिफोन लाइन काटने गया है
क्या वह किसी भीड़ भरे इलाके में बम रख रहा है
क्या वह रस्सों से बँधा है
क्या वह अपना फटा-टूटा षरीर लिए न्यायालय में उपस्थित है
क्या उसे जेल में ही फाँसी दे दी गई है
क्या उसे वहीं मिट्टी में मिट्टी, राख में राख कर दिया गया है

मेरी चचेरी बहन
दो पीढ़ी पीछे जायें तो
हम एक ही दम्पत्ति की संतान हैं
एकाध पीढी और पीछे जायें तो
पूरा कबीला ही एक दम्पत्ति की संतान है
अंततः जैसे दुनिया ही एक दम्पत्ति की संतान हैं
इस तरह देखो तो
कोई भी दूर का नहीं है
कोई भी पराया नहीं है
सभी अपने हैं कोई भी षत्रु नहीं है
वास्तव में देखो तो कैसे-कैसे शत्रु हैं चारों तरफ

मेरी चचेरी बहन
उसके कपड़े जिनमें से झाँकते हैं उसके धूल के बने हाथ पैर
उसके फूस के केश झाँकते हैं
गोली खायी हिरनी की करुण कजल आँखें झाँकती है
मैं पूछता हूँ कभी-कभी उससे
जीजी तुम्हें इस ब्रह्माण्ड की किस हाट पर मिलते हैं इतने फीके
इतना अघिक रंग उड़े कपड़े
क्या तुम आकाष गंगा से लाती हो इन्हें

पागल है तू
कहकर हँस देती है
जीवन की धनी मेरी चचेरी बहन
००

चित्र: अवधेश वाजपेई


गोबर की हेल

क्योंकि स्त्रियाँ इतना ही बताती हैं
इसके आगे पीछे वह क्या था
जिसकी वजह से माँ ने ऐसा किया
क्या ऐसा था कि खून की कमी की वजह से
वह अपना ही वजन नहीं उठा पा रही थी कि उसे
गाय-भैसों का गोबर उठाना पड़ रहा था
बाड़े के गोबर-मूत में घुटनों घुटनों उसका पीछा करते हुए मैं
बहुत रो रहा था और घर के सभी पुरूष बैठे हुक्का पी रहे थे
और मैं भैंस के पेशाब के छींटों में भीग रहा था
वह गोबर फेंकने जाती तो उसके लहँगे से लिपटता मैं भी जाता
उसे जल्दी-जल्दी काम सकेलना होता और मैं घिसटता जाता
या घर के किसी पुरूष ने उसे जेवड़े के सड़ाकों से मारा
कि वह खेत में पहुँचने में बेवजह देर कर रही है
हुआ क्या था आखिर, वे स्त्रियाँ नहीं बताती
वे कहती हैं-जब तू एक डेढ़ साल का था
गुस्से में तेरी माँ ने तेरे ऊपर गोबर की हेल पटक दी थी

यह बात उन्होंने मुझे बहुत बार बता दी है
जबकि एक बार बताना काफी था
पर चूँकि इसमें वे एक क्रूर रस लेती हैं
बार-बार बता कर बार-बार मेरी माँ को अपमानित करती हैं
जबकि उनकी बकवास का जवाब देने के लिए
वह तेईस साला स्त्री अब इस दुनिया में नहीं है

एक तेईस साल की जिस स्त्री के
एक-एक करके तीनों बच्चे दबे पड़ें हों
षमषान में बच्चों को दफनाए जाने वाले गढ्ढों में
वह अपने एक जीवित पर
कैसे औंधा सकती है गोबर की हेल
मगर वह ऐसा करती है
तो उसकी मानसिक यातना का
वह कौनसा चरम रहा होगा
और उस चरम पर उसके प्राण में
कितना विवेक शेष रहा होगा
ऐसी डगमग मानसिक दषा में भी एक वही तो रही होगी
जो न जाने कहाँ से लौटा कर ले आयी होगी अपनी बिलखती ममता को
और मुझ गोबर में लिथड़े को उठा कर छाती से चिपका लिया होगा
फिर मेरे अमरत्व के लिए मुझे दूध दिया होगा

मेरे गालों पर अभी भी हैं मेरी माँ के चुम्बनों के अदृश्य निशान
मैं अभी भी उस पानी को अपने षरीर पर बहता देख सकता हूँ
जिसमें माँ ने मुझे नहलाया
माँ के वस्त्रों की गंध आज भी मेरे नथुनों में भर जाती है
जिनमें लिपट कर मैं चैन से सोया
ये विवरण इतने ममत्व से भरे इतने मार्मिक और इतने सारे हैं
कि इन्हें ही जीवन भर लिखते रहना मैं अपने जीने का मकसद बना सकता हूँ
बुखार में आज भी माँ के आँसू की बूँद मेरे ललाट पर आकर गिरती है

मुझे ढाई-तीन साल बड़ा करने के बाद माँ नहीं रही
वह शमशान में अपने उन तीन बच्चों के पास चली गई
जिन्होंने सोचा न होगा कि माँ मृत्यु का भी पीछा करते हुए
उनके पास आ सकती है किसी दिन
माँ को तो अपने सारे ही बच्चों का ध्यान रखना होता है
वे जीवित हों या मृत
अपनी चेतनाविहीनता में माँ को पता नहीं रहा होगा
कि ऐसा होने पर वह मेरे पास कभी नहीं लौट पाएगी
००

हार

जब-जब भी मैं हारता हूँ
मुझे स्त्रियों की याद आती है
और ताकत मिलती है
वे सदा हारी हुई परिस्थति में ही
काम करती है
उनमें एक धुन एक लय
एक मुक्ति मुझे नजर आती है
वे काम के बदले नाम से
गहराई तक मुक्त दिखलाई पड़ती हैं
असल में वे निचुड़ने की हद
थक जाने के बाद भी
इसी कारण से हँस पाती हैं
कि वे हारी हुई हैं
विजय सरीखी तुच्छ लालसाओं पर उन्हें
ऐतिहासिक विजय हासिल है
००

चित्र: अवधेश वाजपेई


एक सुख था

मृत्यु से बहुत डरने वाली बुआ के बिल्कुल सामने आकर बैठ गई थी मृत्यु
किसी विकराल काली बिल्ली की तरह सबको बहुत साफ दिखायी
और सुनायी देती हुई
मगर तब भी,अपनी मृत्यु के कुछ क्षण पहले तक भी
उतनी ही हँसोड़ बनी रही बुआ

अपने पूरे अतीत को ऐसे सुनाती रही जैसे वह कोई लघु हास्य नाटिका हो
यह एक दृष्यांश ही काफी होगा-जिसमें बुआ के देखते-देखते निश्प्राण हो गए थे फूफा
गाँव में कोई नहीं था
पक्षी भी जैसे सबके सब किसानों के साथ ही चले गए गाँव खाली कर खेतों और जंगल में
कैसा रहा होगा पूरे गांव में सिर्फ एक जीवित और एक मृतक का होना
कैसे किया होगा दोनों ने एक दूसरे का सामना
इससे पहले कि जीवन छोड़े दे
मरणासन्न को खाट से नीचे उतार लेने का रिवाज है
बुआ बहुत सोचने के बावजूद ऐसा नहीं कर सकी
अकेली थी
और फूफा, मरने के बाद भी उनसे कतई उठने वाले नहीं थे
जाने क्या सोच बुआ ने मरने के बाद खाट को टेढ़ा कर
फूफा को जमीन पर लुढ़का दिया

अब रोती तो कोई सुनने वाला नहीं था
बिना सुनने वालों के पहली बार रो रही थी वह जीवन में
इस अजीब सी बात की ओर ध्यान जाते ही रोते-रोते हँसी फूट पड़ी बुआ की
बुआ जीवन में रोने के लम्बे अनुभव और अभ्यास के बावजूद
चाहकर भी रो न सकी
मृतक के पास वह जीवित
बैठी रही सूर्यास्त की प्रतीक्षा करती हुई

इस तरह जीवन को चुटुकलों की तरह सुनाने वाली बुआ के जीवन का चुटुकला
पिच्चासी वर्ष की बखूब अवस्था में जब पूरा हो गया
कुछ लोग हंसे,कुछ ने गीत गाये,कुछ को आयी रुलायी

बूढ़ी बुआ हमारे जीवन में अभी भी है
उतनी ही अटपटी,उतनी ही भोली,उतनी ही गँवई
मगर खेत की मेड़ के गिर गए रूँख सी
कहीं भी नहीं दिखाई देती हुई
यह बात भी अब तो चार बरस पुरानी हुई

चार बरस पहले
एक सुख था जीवन में
००

विदा

यादों को भी विदा कहने का वक्त आएगा
इच्छा और उदासी जैसे पक्के रंग भी छूट जाएँगे
पानी से खाली घासों की तरह सूख जाएँगी जब याद
करुणा के जल को भी विदा कहने का वक्त आएगा
००



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