25 अक्तूबर, 2017

रचना त्यागी का लेख:
                     
                                                     टेढ़ा तराज़ू

                                                       रचना त्यागी

इस वर्ष मई के पहले सप्ताह में बहुचर्चित बिल्क़ीस बानो केस का निर्णय आ गया। इत्तेफ़ाकन उसी सप्ताह में एक अन्य चर्चित केस निर्भया कांड का निर्णय भी सुनाया गया । एक ओर जहाँ निर्भया ( ज्योति सिंह पाण्डेय ) के केस के निर्णय ने पूरे देश को राहत दी और लोगों का न्याय प्रणाली में विश्वास पुनर्स्थापित हुआ, वहीं दूसरी ओर बिलकीस बानो के केस का निर्णय विवादास्पद रहा । इस पर दो तरह की प्रतिक्रियाएँ आईं |
रचना त्यागी

 एक उस वर्ग की, जो इस निर्णय से संतुष्ट है, दूसरी उस वर्ग की, जो इस निर्णय की तुलना निर्भया केस के निर्णय से कर रहा है। निर्भया के दोषियों को सुप्रीम कोर्ट ने फांसी की सज़ा सुनाई, जबकि बिलकीस बानो के केस में मुंबई हाईकोर्ट ने दोषियों को मृत्युदण्ड न देकर उनकी उम्र क़ैद की सज़ा को बरक़रार रखा, हालाँकि इस लंबे अंतराल में बिलकीस के कुछ दोषियों की मृत्यु भी हो चुकी है। कहते हैं कि न्याय का देर से मिलना न मिलने के बराबर है । बात भी सच है।  जब तक पीड़ित के मन में पीड़ा की कड़वाहट घुली है, उसके ज़ख्म हरे हैं, उसी दौरान अगर उसे न्याय मिल जाए तो उसे एक  संतुष्टि होती है, एक भरोसा होता है न्याय प्रणाली  पर । लेकिन यहाँ ऐसा नहीं हुआ। उपरोक्त दोनों मुक़दमों के निर्णय में लगने वाले समय के भारी अंतर से ही  इन फ़ैसलों के बीच असमानता की खाई दीखनी शुरू हो जाती है । जहाँ  एक ओर निर्भया केस का फैसला  घटना के साढ़े चार वर्ष बाद आया, वहीं बिलकीस बानो केस में फैसले को आने में पन्द्रह साल लग गए।  सर्वविदित है कि निर्भया कांड देश की राजधानी दिल्ली में हुआ और रातों-रात देशी, विदेशी अख़बारों की सुर्खियों में छा गया। घटना कुछ ही घंटों  के भीतर प्रकाश में आ गयी और पुलिस पर तफ्तीश का इतना दबाव बना कि कुछ ही दिनों के भीतर उन्होंने सभी आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया।
चित्र: अवधेश वाजपेई


इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने भी इसमें अपनी भूमिका बहुत तत्परता से निभाई। बार-बार टीवी चैनल्स पर निर्भया के साथ होने वाली घटना को एनिमेटेड करके दिखाया गया, देश -विदेश में इस घटना के विरोध में हो रहे प्रतिरोधों को प्रमुखता से दिखाया गया। निर्भया की हालत और इस केस की पल-पल की ख़बर पर देश भर की और विदेशों की भी नज़रें टिकी थीं।  घटना  के प्रकाश में आने से लेकर उसका अंतिम निर्णय आने तक जनता ने इस केस की छोटी -बड़ी ख़बर, मुक़दमे के हर चरण की प्रगति में बहुत संलग्नता दिखाई। पूरा देश एकजुट होकर निर्भया के समर्थन में खड़ा था। राज्य और केंद्र सरकार की ओर से निर्भया के परिवार को आर्थिक सहायता  प्रदान की गयी , 'निर्भया फंड' बनाया गया ताकि ऐसे अन्य मामलों में पीड़िता के  पक्ष में उसका उपयोग किया सके।  इस मुकदमे ने देश की संसद को भी इस क़दर हिला दिया कि दोनों सदनों ने संसद की नियमित कार्यवाही को स्थगित करके इस मुद्दे पर गंभीर चर्चा की ताकि जल्द से जल्द निर्भया को न्याय दिलाया जा सके और नारी सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए जा सकें, जिससे ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो।  दोषियों को तुरंत और सख्त से सख्त सजा दिलवाने के लिए बहस हुई। तत्कालीन विपक्ष नेता सुषमा  स्वराज ने अपराधियों के लिए फांसी की माँग की। २२ दिसंबर २०१२ को निर्भया को न्याय दिलाने के लिए दिल्ली के इंडिया गेट पर कैंडल मार्च निकाला गया। विदेशों में भी अलग -अलग समय पर कैंडल मार्च हुआ। इस घटना का जन-आक्रोश इतना प्रभावशाली था कि जनता के दबाव के चलते पहली बार बलात्कार के किसी केस में  'फास्ट ट्रैक कोर्ट' का निर्माण किया गया। निर्भया के साथ बलात्कार और हिंसा करने वाले छ: आरोपी थे जिनमें से एक को अवयस्क होने के कारण कोई  सज़ा न देते  हुए  बाल सुधार गृह में भेजा गया। जनता के मन में घटना के प्रति इतना रोष था कि वह उस नाबालिग़ अपराधी को भी अन्य अपराधियों की तरह क्रूरतम दंड दिलवाने के पक्ष में थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस केस को वीभत्सता और नृशंसता के आधार पर 'रेयरेस्ट ऑफ रेयर' ( क्रूरतम से भी क्रूर) मानते हुए अपराधियों को मृत्युदंड की सज़ा सुनाई।
              अब एक नज़र बिलकीस बानो के केस पर भी डालते हैं । ३  मार्च २००२  को उन्नीस वर्षीया  बिलकीस याक़ूब रसूल पटेल और उनका परिवार गोधरा दंगों के  बाद की सुलगती आग से खुद को बचाने के लिए अपने गाँव रणधीकपुर ( जिला दाहोद, गुजरात ) से  निकलकर पनिवेल से होते हुए सरजमी गाँव की ओर जा रहे थे जिसमें बिलकीस के परिवार व कुनबे के  १६ अन्य सदस्य भी थे। बिलकीस बानो पाँच महीने के  गर्भ से थी और उसकी गोद में उसकी साढ़े तीन वर्षीया बेटी  भी थी। अभी वे गाँव दर गाँव बचते-बचाते, छुपते-छुपाते चारों और फैली सांप्रदायिक लपटों की पहुँच से बाहर निकलने की कोशिश में ही थे जब अचानक    २५-३० लोगों की एक हिंसक हथियारबंद भीड़ ने उनके परिवार पर हमला कर दिया। भीड़ के हाथ में तलवारें, हँसिया और लाठियाँ थीं और वे  "मुसलमानों को मारो"  के शोर के साथ  उस समूह पर टूट पड़े जिसमें बिलकीस व उसका परिवार शामिल थे। हमलावरों ने  बिलकीस के हाथों से उसकी साढ़े तीन वर्षीया नन्हीं बच्ची को छीनकर ज़मीन पर पटककर उसकी हत्या कर दी, बिलकीस समेत अन्य सभी महिलाओं का बलात्कार किया और सभी सदस्यों की हत्या कर दी, जिनमें एक नवजात बच्ची भी थी।

 पर बिलकीस निर्भया नहीं थी। उसे न केवल अपने न्याय की लड़ाई ख़ुद अपने दम पर लड़नी पड़ी ,  बल्कि न्याय माँगने में पहले क़दम से ही बहुत मुश्किलों का सामना भी करना पड़ा। मसलन - पुलिस स्टेशन में उसकी प्राथमिकी ठीक से दर्ज़ नहीं की गयी।  अपराधियों के नाम बताने के बावजूद पुलिस रिपोर्ट में नहीं लिखे गए। अलबत्ता उसे इस बात की धमकी ज़रूर दी गई कि मेडिकल जाँच के समय वह किसी को यह घटना न सुनाए, अपराधियों के नाम न बताए वरना उसे वहाँ ज़हर का इंजेक्शन दिया जा सकता है। जाँच के बाद बिल्क़ीस को गोधरा रिफ्यूजी कैंप में भेज  दिया गया जहाँ पहली बार उसकी शिक़ायत सुनी गयी और उस पर कार्यवाही हुई। कैंप में जब जिला कलेक्टर जयंती रवि और एग्ज़ीक्यूटिव मेजिस्ट्रेट गोविंदभाई आये, उन्हें  बिलकीस ने पूरी कहानी बताई।  जयंती रवि ने उसका बयान दर्ज़ करवाया और दाहोद के पुलिस सुपरिंटेंडेंट को इस मामले में त्वरित  कार्यवाही के लिए पत्र लिखा। कार्यवाही शुरु हुई, पर न के बराबर। फ़रवरी २००३ में लिमखेड़ा पुलिस ने निचली अदालत में अर्ज़ी दी कि अपराधियों का पता नहीं चल पाया, जिससे जाँच में दिक्क़त आ रही है अत: केस बंद  दिया जाये।  अदालत ने भी बहुत सहजता से उनकी अर्ज़ी स्वीकार करते हुए केस बंद कर दिया। तब मानव अधिकार आयोग के सहयोग से  बिलकीस ने उच्चतम न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया और अपील की कि पुलिस की जाँच को ख़ारिज करते हुए मामले की जाँच नए सिरे से केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) से कराई जाये, जिसका  परिणाम आज हमारे सामने है।  इस केस में क़दम-क़दम पर जिस तरह से तथ्यों को बदलकर और बिलकीस के परिवार को लगातार जान की धमकियाँ  देकर सच को छिपाने और मुज़रिमों को बचाने की कोशिशें की गयीं, वह अब जगज़ाहिर है। गुजरात में  लगातार मिल रही जान से मारने की धमकियों के चलते बिलकीस को पुलिस, वक़ीलों और यहाँ तक कि न्यायधीशों से भी इन्साफ़ की उम्मीद न रही थी, इसलिए उसने सुप्रीम कोर्ट में अपील की कि उसका मुक़द्दमा गुजरात से बाहर स्थानांतरित किया जाए, जिसकी गंभीरता को समझते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह केस महाराष्ट्र के मुम्बई की अदालत में शिफ्ट कर दिया। मुंबई कोर्ट में जो मुकदमा दायर किया गया था उसमें कुल बीस अभियुक्त थे, जिसमें बारह हमलावरों के अलावा छ: पुलिस अफसर और दो सरकारी  डॉक्टर (दम्पति) थे, जिन्होंने पंचनामे में झूठी रिपोर्ट प्रस्तुत की और सोलह में से केवल आठ लाशों का  पंचनामा दर्ज़ किया।

चित्र: अवधेश वाजपेई

जनवरी २००८ को मुंबई की निचली अदालत ने अपना निर्णय दिया जिसमें उपरोक्त १२ हमलावरों में से फ़ैसला आने तक जीवित बचे ११ को सामूहिक बलात्कार और हत्याओं  के लिए उम्रक़ैद की सज़ा दी गई थी। इस फ़ैसले के खिलाफ़ सभी ११ अभियुक्तों ने हाईकोर्ट में अपील की। ग़ौरतलब है कि मामले की गहनता से जाँच के बाद सीबीआई ने आरोपी सँख्या एक, दो और तीन अर्थात जसवंतभाई नाई, गोविंदभाई नाई और राधे श्याम शाह के लिए मृत्युदंड की माँग की थी, जिनका इस पूरे हादसे की योजना में और उसे अंजाम देने में महत्वपूर्ण  योगदान था। सीबीआई के अनुसार यह केस 'रेयरेस्ट ऑफ रेयर' श्रेणी के अधीन आता है, अतः इसमें  प्रथम  तीन अभियुक्तों को मृत्युदंड मिलना चाहिए ताकि अपराधियों को एक कड़ा संदेश दिया जा सके। ४ मई २०१७ को मुंबई हाईकोर्ट का निर्णय  आया जिसमें  सीबीआई द्वारा प्रस्तावित तीन मुख्य आरोपियों को मृत्युदंड दिए जाने के प्रस्ताव को  मानने से इनकार कर दिया गया। बहरहाल  ११ अभियुक्तों की उम्र क़ैद की सज़ा बरक़रार रखी गयी है।
       अब यदि निर्भया और बिलकीस के मामलों की तुलना की जाये, तो हम देखते हैं कि बिल्क़ीस को न्याय मिलने में जो सबसे बड़ी बाधा आती रही है, वह है अभियुक्त पक्ष को मिलने वाला समर्थन। उसके अभियुक्त मात्र वे चंद बलात्कारी या हत्यारे नहीं, जिन्होंने उसके परिवार और कुनबे की हत्या की, बल्कि उसका दोषी एक सम्पूर्ण राज्य, एक सम्पूर्ण सम्प्रदाय, एक सम्पूर्ण मानसिकता है, जो साबरमती एक्सप्रेस की घटना के लिए एक समुदाय विशेष को ज़िम्मेदार मानती है और जो किसी भी सूरत में किसी भी हद तक जाकर इन्हें 'सबक़ सिखाना' चाहती थी। इस लड़ाई में बिलकीस के अकेलेपन का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उसे केस को गुजरात से बाहर शिफ़्ट कराने के लिए गुहार लगानी पड़ी क्योंकि गुजरात की न्याय व्यवस्था पर उसे भरोसा नहीं रह गया था। आख़िर वो कौन लोग हैं जो उसे केस वापिस लेने के लिए जान से मारने की धमकी दे रहे थे ? क्यों पुलिस ने उसकी रिपोर्ट ग़लत लिखी, क्यों पंचनामे में हेरा-फ़ेरी की गयी ? इन सब प्रश्नों का उत्तर एक ही निकलकर आता है कि  न्याय प्रणाली की सबसे छोटी इकाई, पुलिस से लेकर अदालत तक कोई उसके साथ नहीं था, बल्कि उसके विपक्ष में थे, अपराधी पक्ष के साथ। अपराधी पक्ष के साथ थे, तो ज़ाहिर है कि वे स्वयं भी अपराधी हुए। ऐसी परिस्थितियों में बिलकीस के लिए पन्द्रह साल लम्बी ये लड़ाई कितनी तक़लीफ़देह, कितनी दुरूह रही होगी, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं। जीवन का एक बड़ा हिस्सा उसने इस उम्मीद में गँवा दिया की उसे न्याय मिलेगा, उसके दोषियों को सज़ा मिलेगी। इन पन्द्रह सालों में कितनी बार उसका हौंसला पस्त हुआ होगा, कितनी बार उसका मनोबल टूटा होगा और लड़ाई बीच में छोड़कर क़दम पीछे हटाने का ख़्याल उसके मन में आया होगा ! आर्थिक मदद की तो बात ही क्या, बल्कि उसे हर पल एक तलवार महसूस होती रही होगी अपनी और अपने बचे -खुचे परिवार की गर्दन पर। निचली अदालत के फ़ैसले को चुनौती देते हुए जब आरोपियों ने हाई कोर्ट में अपील की, तब भी बिलकीस का डरा सहमा मन ज़रूर काँपा होगा, मुश्किल से जीती हुई बाज़ी हार जाने के डर से ! इस मामले पर आरम्भ से अब तक नज़र रखने वाले किसी भी निष्पक्ष व न्याय पसंद नागरिक के मन में कुछ प्रश्न अनायास ही उठना स्वाभाविक है -- ऐसा क्यों हुआ कि मुंबई हाई कोर्ट को आरोपियों की वह बर्बरता दिखाई नहीं दी, जो सीबीआई को दिखाई दी ? क्यों उनके मृत्युदण्ड की सिफ़ारिश  को अनदेखा कर उम्र क़ैद की सज़ा बरक़रार रखी गयी ?  क्या  इस निर्णय के पीछे कोई राजनैतिक दबाव रहा ? क्या यह तथ्य ने इस निर्णय को प्रभावित किया कि  जिस राज्य सरकार  के शासनकाल  में यह घटना हुई,  बिलकीस को इन्साफ़ से दूर रखने की पुरज़ोर कोशिशें हुईं, जिनके चलते उसे अपना केस गुजरात से  बाहर स्थानांतरित करने के लिए सुप्रीम कोर्ट से आदेश लेना पड़ा, वही तत्कालीन राज्य सरकार अब केंद्र में है और उसका संरक्षण किसी न किसी  रूप में आरोपियों को प्राप्त है ? इन सब प्रश्नों का उत्तर किस से पूछा जाये ? व्यवस्था से प्रश्न नहीं पूछे जाते। व्यस्वस्था से प्रश्न करना देशद्रोह है। बहरहाल, इस केस में 'रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर' वाले पहलू की समीक्षा हम बाद करेंगे।    

                   इसी कड़ी में एक और केस की बात करते हैं, जो देश की न्याय प्रणाली की निष्पक्षता और विश्वसनीयता को एक बार फिर कटघरे में खड़ा करता है - पच्चीस वर्ष पुराना भँवरी देवी बलात्कार कांड, जिससे न्याय आज तक कोसों दूर है। २२ सितंबर १९९२ की घटना है। राजस्थान में जयपुर से पचास किलोमीटर दूर भटेरी गाँव में रहने  वाली भँवरी देवी अपने पति के साथ अपने खेत में काम कर रही थी, जब उसी गाँव के पाँच व्यक्तियों ने उनके पति मोहनलाल प्रजापत पर हमला किया और उनके साथ मारपीट करने लगे। भँवरी देवी अपने पति की मदद के लिए दौड़ी। उनमें से दो लोगों ने मोहनलाल को  बाँधकर गिरा दिया और अन्य तीन ने भँवरी देवी का सामूहिक बलात्कार किया। वे हमलावर उसी गाँव के प्रभावशाली गुज्जर जाति के थे, जबकि भँवरी देवी और उनके पति मोहनलाल प्रजापत गाँव की पिछड़ी जाति 'कुम्हार' से थे। भँवरी राज्य सरकार के 'महिला विकास कार्यक्रम'  के अन्तर्गत १९८५ से 'साथिन' के तौर पर काम कर रही थी। उनका काम गाँव के हर घर में जाकर  सामाजिक बुराइयों के खिलाफ अभियान चलाना व महिलाओं को साफ़सफ़ाई ,परिवार-नियोजन, स्त्री-शिक्षा के फ़ायदे बताना और भ्रूणहत्या, दहेज और बाल विवाह जैसी कुरीतियों से अवगत कराना था। इसी अभियान के तहत उन्होंने अपने गाँव के सरपंच के परिवार की नौ माह की बच्ची के बाल-विवाह को रोकने की कोशिश की, जिसके कारण उन पर यह कहर टूटा। अपने दबंगई अभिमान के आहत होने से सरपंच इतना तिलमिला गया कि उसने अनेक प्रकार से भँवरी देवी को तोड़ने की कोशिश की। गाँव में उनका सामाजिक बहिष्कार करवाया और अंततः जब वह इस पर भी न झुकी, तो उनका मनोबल तोड़ने के लिए एकमात्र पुरुषोचित रास्ता  अपनाया गया -- 'बलात्कार' ! भँवरी देवी पढ़ी -लिखी नहीं थी, लेकिन उनमें जज़्बा था अन्याय के  ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने का और उसकी उन्होंने  कोशिश भी की। वो पुलिस में शिकायत लिखवाने गईं , पर पुलिस वालों ने शिक़ायत लिखने की बजाय  उन्हीं का मज़ाक़ उड़ाया, उन्हें अपमानित किया। उनकी शिकायत को गंभीरता से नहीं लिया गया और  शिकायत होने के बाद मामले की तफ्तीश में भी लीपापोती की गई। उनकी मेडिकल जांच बलात्कार के बावन घंटे बाद हुई, जबकि  बलात्कार पीड़िता की मेडिकल जाँच घटना के चौबीस घंटे के भीतर होना कानूनी व मेडिकल दृष्टि से  अनिवार्य है। उनके ज़ख्मों का ब्यौरा दर्ज नहीं किया गया और उनकी दर्द और पीड़ा की शिकायत को  नज़रअंदाज़ किया गया। भँवरी देवी को 'साथिन' के रूप में नियुक्त करने वाली अधिकारी ने उनका साथ दिया। उन्होंने शहर ले जाकर उनकी मेडिकल जांच कराई और पुलिस में शिक़ायत दर्ज कराई, भँवरी के  क्षेत्र के विधायक के पास उन्हें लेकर पहुँची। विधायक ने उनके मुँह पर तो मदद का पूरा वायदा किया , पर दुर्भाग्यवश  विधायक भी आरोपियों की ही जाति का था। उसने दबंगों का ही साथ दिया। धीरे-धीरे जब घटना की ख़बर फैलने लगी  तो स्थानीय अखबारों ने भँवरी देवी की घटना को कवर किया और राष्ट्रीय स्तर के कुछ महिला संगठनों के हस्तक्षेप के बाद इस मामले की गूंज दिल्ली तक पहुँची, तब प्रशासन नींद से  जागा और यह मामला केंद्रीय जाँच ब्यूरो को सौंपा गया। घटना के पाँच साल बाद पाँचों आरोपी गिरफ्तार किये गए। लेकिन दबंगों के राजनीतिक और रसूख़दार संबंधों के चलते बिना किसी कारण पाँच बार जज बदले गए और अन्तत: नवंबर १९९५ में अभियुक्तों को बलात्कार के आरोपों से बरी कर दिया गया। उन्हें केवल मामूली अपराधों में दोषी क़रार दिया गया और वे मात्र नौ महीने की सज़ा पाकर जेल से छूट गए।  इस केस की अन्तिम सुनवाई के दौरान जज ने  बहुत ही हास्यास्पद और कमज़ोर दलीलें देते हुए आरोपियों को रिहा किया, जो इस प्रकार हैं –

१ ) गाँव का प्रधान बलात्कार नहीं कर सकता
२ ) अलग-अलग जाति के पुरुष एक सामूहिक बलात्कार में शामिल नहीं हो सकते
३ ) साठ-सत्तर साल के बुज़ुर्ग बलात्कार नहीं कर सकते
४) एक पुरुष अपने भतीजे के सामने बलात्कार नहीं कर सकता
५)अगड़ी जाति का कोई पुरुष किसी पिछड़ी जाति की महिला से बलात्कार नहीं कर सकता  क्योंकि वह  अशुद्ध होती है
६)भँवरी देवी का पति अपनी पत्नी का बलात्कार अपनी आँखों के आगे होते हुए चुपचाप नहीं  देख  सकता था ।
                जज पर आरोपियों को मुक्त करने का दबाव कितना अधिक रहा होगा , यह जज महोदय की बेसिर -पैर की इन दलीलों से समझा जा सकता है। पिछले पच्चीस सालों में इस मामले में केवल एक ही तारीख़ पर सुनवाई हुई है। दु:ख की बात यह है कि इस मामले में राज्य सरकार ने भी यह कहते हुए भँवरी देवी की मदद करने से इंकार कर दिया कि हमला उनके खेत में हुआ था, न कि 'साथिन' के रूप में कार्य के दौरान, अत: वह एक नियोक्ता के तौर पर इसके लिए ज़िम्मेदार नहीं हैं। ( जबकि सच ये है कि भँवरी की ड्यूटी नौ से पाँच बजे वाली नहीं थी। उन्हें तो जिस भी समय किसी  ग़लत घटना या बाल-विवाह की सूचना मिलती थी, उसे भँवरी रोकने पहुँच जाती थीं ) यहाँ यह  बात महत्वपूर्ण है कि इस मुक़द्दमे के बाद से ही सुप्रीम कोर्ट को दफ्तरों में यौन उत्पीड़न के  मामलों से निपटने के लिए दिशा-निर्देश जारी करना पड़ा। इस मायने में यह मुक़द्दमा एक मील का पत्थर साबित हुआ। अभी तक गुनहगारों को उनके दोष  की सज़ा मिलना बाक़ी है। वे खुलेआम घूम रहे हैं। कारण -- वही. . .आरोपियों का सामाजिक ,आर्थिक रूप से शक्तिशाली होना और उनकी पीठ पर प्रशासन का हाथ होना। पुलिस से लेकर न्यायधीश तक अपराधियों से मिले हुए थे, जिसके चलते सभी सुबूत न केवल मिटा दिए गए, बल्कि उन्हें ग़लत दिशा देकर ख़ुद भँवरी के ही चरित्र पर कीचड़ उछालने कीकोशिश की गयी। इस से एक बार पुन: प्रमाणित होता है कि न्याय का अधिकार या तो केवल रसूख़दारों को है, या किन्हीं विशेष परिस्थितियों में जनाक्रोश के दबाव के चलते, जब किसी रसूख़दार के दामन पर छींटें पड़ने का ख़तरा न हो। अन्यथा यदि आप एक पिछड़ी जाति से सम्बद्ध हैं या किसी भी अल्पसंख्यक समुदाय से हैं, तो न्याय मिलने की बात भूल ही जाईये।
              अब हम एक बहुचर्चित केस की बात करते  हैं, जहाँ पीड़िता ने न्याय व्यवस्था से किसी तरह की उम्मीद न करते हुए इंसाफ़ का तराजू स्वयं अपने हाथ में थाम लिया और जिसका नाम एक आतंक की मानिंद  अगड़ी जाति के अपराधियों के ज़हन पर छा गया। न केवल अपराधियों के ज़हन पर,बल्कि इस नाम ने  पुलिस और कानून के भी छक्के छुड़ा दिए। न, न ! मैं उसके द्वारा अख्तियार किए गए रास्ते की पैरवी  नहीं कर रही हूँ ! (पर यदि करुँ भी, तो ग़लत होगा क्या ?)  फूलन देवी आपको याद ही होगी। उत्तर प्रदेश के पुरवा गाँव में एक 'मल्लाह' परिवार में जन्मी फूलन,  जिसकी लड़ाई  ठाकुरों से आजीवन रही। कारण - उसका दलित होना और दलित होते हुए भी हुए भी ठाकुरों की ज़्यादती के समक्ष घुटने टेकने से इनकार कर देना। इसका बदला बार-बार फूलन की इज़्ज़त को तार-तार करके लिया गया। पूरे गाँव के सामने फूलन पर हुए अत्याचार के बावजूद कोई उसका साथ देने आगे नहीं आया। पुलिस ने ठाकुरों के ख़िलाफ़ शिक़ायत लिखना तो दूर, बल्कि ख़ुद फूलन को ही अपनी  ज़्यादती का शिकार बनाया , उसके साथ बलात्कार और मार -पीट की। जब कानून के रक्षक ही भक्षक बन जाएँ, तो  पीड़ित कहाँ जाये ! ऐसे में उसके सामने दो ही  रास्ते बचते हैं - यदि वह हिम्मत हार चुका है तो अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेता है, या फिर कानून को अपने हाथ में ले लेता है और डाकू,आतकंवादी या  नक्सली का तमगा उस पर लगा दिया जाता है । फूलन ने दूसरा रास्ता चुना और जीवन से हार मानने की या इंसाफ़ की प्रतीक्षा में  तिल-तिल कर एक अर्थहीन, सम्मानहीन जीवन जीने की बजाय अपनी लड़ाई ख़ुद लड़ने का रास्ता चुना।  सोचिये, क्या मनोस्थिति रही होगी उस महिला की, जिसे सरे आम निर्वस्त्र करके पुरुषों , बच्चों, महिलाओं के सामने घुमाया गया ! कितना गहरा धंसा होगा पीड़ा और अपमान का वह दंश, जिसे निकालने के लिए फूलन को एक हत्यारिन बनकर उन सभी बाईस ठाकुरों के खून की नदी बहानी पड़ी, जिनके सामने उसकी निर्वस्त्र परेड निकाली गयी थी ! उसे पल-पल सोते -जागते अपने नग्न शरीर को घूरती वे आँखें दीखती होंगी। वह इतनी कठोर बन गयी कि उन सब ठाकुर  परिवारों की महिलाओं की माँग उजाड़ने  से पहले, उनके बच्चों को अनाथ करने से पहले उसके हाथ नहीं  काँपे ! आख़िर वो एक महिला थी। उसके ह्रदय में भी कोमलता का एक झरना था। लेकिन उसके साथ एक के बाद एक हुए अत्याचारों ने उसे इस क़दर पाषाण बना  दिया कि वह हत्यारिन बन गयी! उसे इस रास्ते पर धकेलने के लिए कौन ज़िम्मेदार है ? न्याय व्यवस्था ?  या राजनीति, जो हर समय समाज के शक्तिशाली वर्ग से संबंध रखने वाले अपराधियों की ढाल के रूप में उनके साथ है , चाहे वह अरबों रूपये के घोटाले करके विदेश भागने वाला माल्या हो, फुटपाथ पर सोते बेघर ग़रीबों पर गाड़ी चढ़ाने वाला सलमान खान हो या बिलकीस , भँवरी  और फूलन जैसी अल्प संख्यक तबके की महिलाओं का बलात्कार कर निर्भय घूमने वाला अपराधी हो !
चित्र: अवधेश वाजपेई

ऐसे अनेक मामले हैं, जिनमें अल्प संख्यक वर्ग की महिला को सवर्ण वर्ग ने अपने रास्ते से हटाने के  लिए बलात्कार, तेज़ाब फेंकना या अन्य तरीक़ों से प्रताड़ित करने का मार्ग अपनाया और उसके बाद भी वे कानून की पकड़ से बहुत दूर निर्भीक घूमते रहे -- उत्तर प्रदेश का उषा धीमान बलात्कार कांड, जिसमें  एक और दलित महिला उषा धीमान ने शराब जैसी बुराई को जड़ से समाप्त करने के लिए शराबबंदी की मुहिम  छेड़ी थी, जिसकी किरचें  शराब का कारोबार करने वाले ताकतवर वर्ग की आँखों में चुभने लगीं और उन्होंने उषा को सबक सिखाने और अपनी राह के रोड़े को हटाने के लिए उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया और उसे निर्वस्त्र करके घुमाया।
           एक और केस में राजस्थान के टोंक जिले की आदिवासी महिला धापू बाई का सामूहिक बलात्कार इस  कसूर के चलते किया गया कि उसका पति शराब विरोधी आंदोलन से जुड़ा था।
         उपरोक्त सब घटनाओं और ऐसी अन्य हज़ारों घटनाओं से, जो अनसुनी, अनपढ़ी रह जाती हैं, की  कल्पना करके मस्तिष्क में न्याय व्यवस्था की जो तस्वीर उभरती है, वह बहुत डरावनी है। श्लोकों में नारी को पूजनीय माने जाने वाले देश में अलग-अलग नारी के साथ होने वाले एक जैसे हादसों के निर्णय एक से नहीं हैं,  उन में समरूपता नहीं है। यदि हम  इस बात के कारणों की तह में जाएँ , तो ऐसा लगता है कि उन सबके नारी होने से अधिक महत्वपूर्ण कुछ अन्य प्रभावशाली तथ्य हैं, जो न्याय प्रणाली को  प्रभावित करते हैं... यथा --
१)  पीड़िता की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि
२)  जिस राज्य में दुष्कर्म हुआ, वह सुर्खियों के कितना क़रीब या दूर है
३) उस पर अत्याचार करने वालों का सामाजिक-आर्थिक दबदबा कितना है
४)वह घटना कितने कम या अधिक प्रकाश में आती है और फलस्वरूप उसे लेकर कितना जनाक्रोश बनता है और
५)  इस जनाक्रोश का दबाव न्याय प्रणाली को किस हद तक प्रभावित कर पाता है ।
            निर्भया केस की तरह बिलकीस बानो और फूलन देवी केस में मीडिया और सरकारें पीड़िता के साथ नहीं थीं...न राज्य सरकारें और न केंद्र सरकार। भँवरी देवी केस में भी मीडिया तब सक्रिय हुआ जब मुद्दा  राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक पहुँचा और संसद में हलचल हुई। यही फूलन देवी के केस में भी हुआ।  सीबीआई द्वारा बिलकीस बानो के केस को 'रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर' श्रेणी में रखने के प्रस्ताव के बावजूद मुंबई हाई कोर्ट ने इसे इस श्रेणी में रखने से इंकार कर दिया है। इस बिंदु पर सोचकर देखिए -- क्या वास्तव में यह केस 'रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर' है ? क्या देश में अन्य  स्थानों पर अल्पसंख्यक महिलाओं के साथ ऐसे हादसे बहुतायत में नहीं हो रहे हैं ? फिर चाहे वह  मुस्लिम जाति से संबंधित हो, किसी पिछड़ी जाति से संबंधित हो या  आदिवासी महिला हो ! सच तो ये है कि उनके साथ बलात्कार, यौन शोषण और शारीरिक क्रूरता की घटनायें इस हद तक आम हो चुकी है कि हमें सचमुच इसमें कुछ भी रेयर नहीं लगता, दुर्लभ नहीं लगता, असामान्य नहीं लगता। आए दिन  अख़बार ऐसी घटनाओं से पटे रहते हैं। वह बात अलग है कि उन्हें अख़बार की हैडलाइन से दूर किसी कोने में छोटी सी जगह दे दी जाती है। टीवी में तो ऐसी ख़बरें आती ही नहीं  हैं, सोशल मीडिया के  ज़रिये हम तक पहुँचने वाली ऐसी खबरें भी अब चौंकाती नहीं हैं  जिस तरह निर्भया केस ने चौंकाया। शायद इसलिए, कि निर्भया किसी भी मायने में अल्पसंख्यक नहीं थी । बल्कि इस मामले में वे सारे तत्व मौजूद थे जो इसे 'रेयरेस्ट' बनाने में समर्थक सिद्ध हुए, जैसे - सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह, कि यह घटना देश की राजधानी में घटी , सरकार की नाक के ठीक नीचे ; दूसरा - यह किसी बदले की भावना से किसी प्रभावशाली या दबंग वर्ग द्वारा नहीं किया गया, इसलिए इसमें  वर्गीय समानता या असमानता का प्रश्न ही नहीं उठता ।  इस केस में किसी कमज़ोर वर्ग की लड़ाई किसी ताकतवर वर्ग से नहीं थी, यह सिर्फ़ एक स्त्री विरुद्ध पुरुष वर्ग का मामला था। यह उपरोक्त अन्य  मामलों  से अलहदा एक अप्रयोजित, अनियोजित बलात्कार था। तीसरा बिंदु यह, कि निर्भया के दोषियों की पीठ पर पर किसी रसूख़दार वर्ग का हाथ नहीं था। वे आम व्यक्ति थे, निम्न  सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से आने वाले, बस ड्राईवरी और कन्डक्टरी करने वाले। अत: निर्भया का साथ देने में समाज को, मीडिया को किसी प्रभुत्वशाली वर्ग से टकराने का ख़तरा नहीं था, कोई  जोखिम नहीं था। बल्कि इस घटना की वजह से मीडिया की टीआरपी बढ़ी। जबकि उपरोक्त अन्य सभी मामलों में - बिलकीस बानो, फूलन देवी, भँवरी देवी, उषा धीमान, धापूबाई आदि के मामले में रसूख़दारों ने इन  महिलाओं का बलात्कार उन्हें एक सबक सिखाने के तौर पर किया। ये प्रायोजित, सुनियोजित बलात्कार थे उन महिलाओं की बरसों पुरानी दमित आवाज़ को पुरज़ोर करने के दुस्साहस के जुर्म में, रसूख़दारों से  टकराने के जुर्म में इन्हें और इनके जैसी अन्य महिलाओं को सबक सिखाने के लिए।  लेकिन दु:ख की बात यह है कि स्त्री-पुरुष समानता और सामाजिक-आर्थिक समानता के खोखले नारों के बीच समानता की ओर इनके उठते क़दमों को जब कुचला, रौंदा गया तो समाज, सरकार, मीडिया से इन्हें किसी प्रकार का समर्थन नहीं मिला।  नतीजा यह है कि अपने इस दुस्साहस का परिणाम ये आज तक भुगत रही हैं , न्याय की प्रतीक्षा के रूप में। निर्भया केस की 'स्त्री विरुद्ध पुरुष' पृष्ठभूमि से इतर अन्य सभी मामलों की पृष्ठभूमि 'एक विशेष समूह विरुद्ध दूसरे विशेष समूह' की है, जैसे-  हिंदू विरुद्ध मुस्लिम ; या सवर्ण विरुद्ध दलित। और हर केस में पीड़िता कमतर या अल्पसंख्यक (मुस्लिम या दलित) पक्ष से ही थी। निश्चित तौर पर यदि इन मामलों में पीड़ित और दोषी पक्ष आपस में बदल दिए जाएँ, तो न्याय की दशा और दिशा कुछ और ही होती।  तब  पीड़िता  के बहुसंख्यक समुदाय से होने  कारण समाज, मीडिया व सरकारें निर्विवाद रूप से  उसके पक्ष में होते और न्याय की गति व स्वरूप निष्पक्ष होता, जैसा कि होना चाहिए। समाज, मीडिया व प्रशासन की अतार्किक मानसिकता व विवेकहीन पक्षपात पर आधारित न्याय प्रणाली का यह भेदभाव एक बहुत गंभीर मसला है और इसका निदान हमारी न्याय व्यस्वस्था में एक गंभीर, परिपक्व दृष्टि  व  निष्पक्ष विवेकपूर्ण चिंतन की माँग करता है। यह माँग करता है कि किसी भी महिला के साथ हुए इस तरह के हादसों का  निर्णय लेते समय न्यायाधीश या न्याय मंडली को न ही किसी जनाक्रोश की लहर से प्रभावित होना  चाहिए , न ही महिला (पीड़िता) और अपराधियों की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से। कहने को यह सब बातें हमारे संविधान में उल्लिखित हैं, पर वास्तविक रूप में  कितनी कारगर हो रही हैं, उपरोक्त सब घटनाएँ इसका उत्तर देती हैं।
           हमारे देश के संविधान की धारा ३७६ के अंतर्गत बलात्कार जैसे संगीन अपराध की परिभाषा को, उसके दण्ड के प्रावधानों को उल्लिखित करने के बावजूद इसे लागू करने में, उसका पालन करने में पक्षपात की कितनी तहों का इस्तेमाल किया जा रहा है, यह किसी से छिपा नहीं है।  न्याय की तमाम विसंगतियों को दूर करने के लिए और 'न्याय' को मात्र एक सजावटी शब्द के फ्रेम से बाहर, संविधान के मोटे पन्नों से बाहर निकलकर ज़मीनी स्तर पर उसका लाभ पीड़ित तक पहुँचने के लिए  सख़्त आवश्यकता है न्याय प्रणाली के ऐसे कसावटपूर्ण झोलरहित तानेबाने की,  जिसमें किसी भी स्तर के भेदभाव के लिये उस दरार के लिए जगह की गुंजाइश ही न हो, जिसमे सेंध लगाकर प्रभावशाली वर्ग किसी भी रूप में, किसी भी मात्रा में न्याय को प्रभावित कर सके।
 ००


रचना त्यागी

साभार: गांव के लोग 


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें