31 अक्तूबर, 2017

विनोद पदरज की कविताएं

विनोद पदरज: 13 फरवरी 1960 को सवाई माधोपुर जिले के एक गाँव-मलारना चौड़ में जन्म। इतिहास से एमए। हिन्दी साहित्य की सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित साथ ही समय-समय पर दूरदर्शन एवं आकाशवाणी से प्रसारित।
विनोद पदारज

‘बाहर सब शांत है’, ‘रेत पर नंगे पाँव’ आदि विभिन्न संग्रहों में संकलित।

कृतियाँ-
कोई तो रंग है (कविता संग्रह)
हिन्दी कवि अम्बिका दत्त पर केन्द्रित मोनोग्राफ का सम्पादन।
प्रौढ शिक्षा के लिए साहित्य सृजन। सम्प्रति- बैंककर्मी



कविताएं

फूल

फूल इतने नाजुक
कि षमषेर कहें-
‘‘कोमल सुख की कराह सी पंखुड़ियाँ’’
और इतने कठोर
कि लपलपाती आग में भी जेठ की
खिलिखलाये अमलतास

रंगों के मुताल्लिक
वो ऽ ऽ फिदा हुसैन
और गंध के मामले में
वे कन्नौज होते हैं

तितलियाँ मँडराती हैं उनके चारों ओर
भँवरे मँडराते हैं
एक फूल से दूसरे तक
उड़ता है पराग

समूची पृथ्वी पर फूल ही फूल
समूची पृथ्वी पर रंग ही रंग
समूची पृथ्वी पर खुशबू टहलती है

पर उस पिता के दुःख की क्या कहूँ
जिसने बिलखते हुए कहा था-
‘‘अरे उन हत्यारों ने
मेरी फूल सी बेटी को जलाकर मार दिया’’
००


लाठी और दराँती

तलवार एक हथियार है
जबकि दराँति एक औजार
जिससे वक्त जरूरत
हथियार का काम लिया जा सकता है
जैसे कि लाठी
मूलतः सहारा है
और कभी कभार हथियार
जबकि बंदूक
मात्र एक हथियार है प्राणघाती

मुझे तलवार भी अच्छी लगती
यदि उससे साग बिनारा जा सकता
या लावणी की जा सकती
और बंदूक भी
अगर कोई अंधा
उसे छड़ी की तरह ठकठकाता
रास्ते से गुज़रता
और मन, प्रसन्न हो कहता
यह अंधे की बंदूक है

मगर तलवारें तो
खून पीकर ऊँघ रही है म्यानो में
ओर बंदूकें
नरमेघ की प्रतीक्षा में
जवानों के कंधे छील रही हैं

जबकि लाठी
हमारे इतने क़रीब
कि कल ही एक वृद्ध ने
विहृाल होकर
अपने पोते के लिए कहा-
‘‘बहुत छोटा छोड़ गया था इसका बाप
बड़े जतन से पाला है
अब यही मेरे बुढ़ापे की लाठी है।’’
००

चित्र: अवधेश वाजपेई

पंख

वहाँ घास पर एक पंख पड़ा है

हो सकता है
बहुत ऊँची उड़ान के दौरान
ढाीला होकर निकल गया हो यह
और लहराता, चक्कर काटता
यहाँ चला आया हो
वहाँ
डार में उड़ते पक्षी ने सोचा हो
अरे!बाँई तरफ की हवा कम क्यों कट रही है

किंवा सम्भव है
कि उड़ान से पूर्व ही
खिर गया हो यह
और वंचित रहा हो
आकाश नापने के किसी भी रोमांच से

जैसे पाँव होने पर भी
चलते नहीं कई लोग
ऐसे ही किसी लद्धड़ पक्षी का पंख भी
हो सकता है यह
जो लम्बे समय निष्क्रियता के बाद
अंततः झर गया हो
या उस पक्षी का भी
जिसने स्वयं ही
दीमकों की एवज़ में
अपने पंख को देना तय किया था

क्या पता
यह उस पक्षी का पंख हो
जिस पर दागी गई हो बंदूक
साँझ के झुटपुटे में
घर लौटते समय
और घायल होकर उड़ा हो वह-बदहवास
छर्रे की मार से
पंख टूटकर गिर गया हो

अथवा
पहचान नहीं पा रहा हूँ मैं
कि यह मेरे ही मन का पंख है
जो खिसल गया है निश्शब्द
चालीसवें वर्ष में
एक अंत की शुरूआत करता हुआ

पर शायद यह भी गलत है
क्योंकि इस पंख में
मुक्ति की जैसी छटपटाहट
और उड़ान का जैसा स्वप्न निहित है
उससे लगता है
निश्चय ही यह किसी स्त्री का पंख है
जो लौह सलाखों से टकराकर
टूट गया है


श्री अरुण आदित्य की कविता ‘बटन’ के प्रति आभर सहित।
००



मुकुट

सम्राट एडवर्ड अष्टम ने उतार फैंका था इसे
दरअस्ल यह
प्रेमिका के साथ सिर जोड़कर बतियाने में आड़े आता था
और प्रेमिका भी
रानी नहीं थी कोई कि पटरानी बनने की चाह में
मुकुट से प्यार करती
साधारण स्त्री थी और सचमुच ही एडवर्ड से प्यार करती थी

बुद्ध और महावीर ने ठोकरों पर उछाल दिया था इसे
वे दुःख का कारण जानना चाहते थे
और दुःख के कारण का पता
आदमी के पास आदमी की तरह जाने से चलता है

सुनते हैं कि विक्रमादित्य
भटकता था रात बिरात
गली कूचों मुहल्लों में
अपना मुकुट उतार कर
उसका शासन श्रेष्ठ बताया जाता है

और गाँधी ने तो इसे पहना ही नहीं
उन्हें अपनी आत्मा के गहने इतने प्रिय थे
कि मुकुट धारण करने का खयाल तक हिंसा लगता था
वे इसकी तरफ देखकर
एक मासूम बच्चे की तरह मुस्कुराते थे
पूणी कातते थे
चरखा चलाते थे
बकरियों को चारा खिलाते थे
००


भाषा के बाहर

आदमी आदमी से गले मिलता ही नहीं
मुस्कुराता है
कि हाथ मिलाता है
पर स्त्रियाँ-गले मिलती हैं सदैव
जैसे पुष्कर मेले में
उस परदेसी मेम ने
ऊँट की रास थामे खिलखिलाती जाती देसी गोरड़ी को
इशारे से रोका
और फोटो खींचा
फिर बड़ी देर तक
माथे का बोरला
कानों के झाले
खुंगाळी गले की
दाँतों की चूँप
हाथों की मेंहदी
बाहों का चूड़ा
पाँवों की कड़ियाँ
नोकदार जूतियाँ
गोटा किनारी का लहँगा ओढ़नी देखती रही
खिलखिलाती
और जब विलग हुई
गले मिली भींचकर
जैसे एक देश का घनीभूत दुःख
दूसरे देश के मर्मांतक दुःख से
गले मिला हो
००


चित्र: अवधेश वाजपेई

हवा

हवा चलती है तो पत्ते हिलते हैं
पत्ते हिलते हैं तो हवा चलती है

पर पत्तों के हिलने से जो हवा चलती है
क्या यह वही हवा है शुष्क दाहक झकर
जो पत्तों तक चलकर आई थी
पत्तों को छूकर यह प्राणदायिनी, शीतल और गंधवती हो जाती है

पीपल को छूकर पीपल की हवा
शिरीष को छूकर शिरीष की हवा
नीम को छूकर नीम की हवा
और तुमको छूकर ...

तुमने कहा था-हवा चलती है तो पत्ते हिलते हैं
मैंने कहा था-पत्ते हिलते हैं तो हवा चलती है
००


००

मृत पेड़

टेबिल कुर्सी पर बैठकर
पलंग पर लेटकर
कि किंवाड़ भेड़ते हुए
कौन याद करता है पेड़ को

मगर जब बारिशें आती हैं
धरती महमहाती है
सजल हो उठते हैं वे
उनमें से खुशबुएँ निकलती हैं
पुरखों की याद दिलाती हुई
००



सिटी पैलेस में

इतिहास की किताबों में देखा था जिसे
वही चित्र देख रहा था मैं
उस भव्य कक्ष की दीवार पर

महारानी आई थी इंग्लैण्ड की-मलिका विक्टोरिया
जिसके सम्मान में रखा गया था शिकार

बंदूकों के साथ खड़े थे
राजा, रानी, राजकुमार,
मंतरी, संतरी, अहलकार,
ताज़िमी ठिकानेदार,
मरा पड़ा था कदमों में
बारह फुट का न्हार

कहते हैं
कभी-कभी
जब आसमान में चमकता है पूरा चाँद
इसी फ्रेम के पीछे से
कुछ आवाजें सुनाई पड़ती हैं
हाँका देने वालों की
मचान बाँधने वालों की
असला उठाने वालों की
बावर्चियों, खानसामों की
और एक एक मरियल मिमियाहट उस बकरे की
जिसे टैणे से अलगाकर बाँधा गया था पेड़ से
उस अपरूप ज्योत्सना में
००

केवल निपजाने से क्या होता है

कपास निपजाने से वस्त्र नहीं आ जाते घर में
अन्न निपजाने से रोटी नहीं मिल जाती
गन्ना निपजाने से मन कड़वा-कडव़ा हो जाता है
यही सोचकर बड़ा बेटा शहर को जाता है
फर्ज़ कीजिए मुंबई
जहाँ जुहू बीच पर भेलपुरी का ठेला लगाता है
और रात गए
दस बाई दस की खोली में
बदरी,लड्डू,रामनिवास के बीच
मुर्दे सा पड़ जाता है
पैसा कमाता है
जिसे होली पर, दीवाली पर
रात-रात भर जागकर
जेबकतरों से बचता-बचाता
गाँव ले जाता है
मगर घोर आश्चर्य
जब तक पहुँचता है वापस मुंबई
पैसा पहले ही मुंबई पहुँच जाता है
००


चित्र अवधेश वाजपेई


बिलौटे के पंजे से छूटी गौरैया जो बस में चढ़ी

मुझसे हटकर बैठी थी वह
चौकन्नी, सतर्क
पर शायद रात भर रोई थी
आँखें रुदनारुण थी
पपोटे सूजे हुए
कि बस चलते ही ऊँघने लगी
और उसका सिर
मेरे कंधे से लग गया

अब वह सो रही थी-बेसुध
बीच-बीच में बच्चे की तरह
हपसे भरती
उसका मुँह मेरी छोटी बहन की तरह थोड़ा खुल गया था

जब कभी बस रुकती झटके से
वह हकबका कर जागती
सजग हो बैठती कपड़े समेटकर
फिर थोड़ी ही देर में
नींद के आगोश में डूब जाती
फिर उसका सिर मेरे कंधे से लग जाता

‘दारी, हरामजादी
देखें कौन कितने दिन रोटी देता है तुझे
आना तो यहीं पड़ेगा’
गूँजता था उसकी नींद में
लात,घूँसा, थप्प्पड़, लाठी के साथ
जिसे मैं सुनता था निस्पंद

यह उस समय का वाक़या है जब मैं
अन्नान अलषेख के एक धधकते वाक्य पर
नंगे पाँव खड़ा था-

‘‘स्त्रियाँ हमारे समाज में
पीड़ितों का वह अकेला समूह है
जो अपने उत्पीड़कों के
निकटतम सानिध्य में रहता है।’’
००

अगन जल

जो स्त्रियाँ आग ढूँढती हैं
वे ही स्त्रियाँ जल ढूँढती है

वे जो आग ढूँढती हैं
दाहक नहीं होती केवल
उसमें जल होता है
वे जो जल ढूँढती हैं
षामक नहीं होता केवल
उसमें आग होती है
इसी आग और जल से वे
सृष्टि में स्वाद रचती हैं
जिससे ऊर्जस्वित होते हैं
योद्धा, योगी, वैज्ञानिक
लेखक और कलाकार
जो बाहर से जल होते हैं
और भीतर से आग
००


वही आदमी

जिसे बाढ़ में बहकर मरते देखा
जिसे ठण्ड में ठिठुर कर मरते देखा
जिसे लू में झुलसकर मरते देखा
वही आदमी बैठा था सामने-अधनंगा

नागार्जुन जैसी बढ़ी हुई दाढ़ी
मुक्तिबोध जैसी उभरी हुई हड्डियाँ
वह प्रेमचंद के जूते पहने था
और रेणु की भाषा में बोलते बतियाते
खिल-खिल खिलखिलाता था

कितना तो चाहा था सबने कि मर जाये
पर मरता ही नहीं था कमबख़्त
००

संपर्क:

विनोद पदरज
3/137, हाउसिंग बोर्ड, सवाई माधोपुर, राजस्थान 322001

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