03 अक्तूबर, 2017



ज्योति देशमुख की कविताएं

 ज्योति देशमुख: देवास में रहती है। शिक्षिका है। कविता लेखन में ताज़ा नाम है। हालांकि कुछ कविताएं पत्र -पत्रिकाओं में छपी भी है।
ज्योति देशमुख




 कविता के क्षेत्र में अपनी राह खोजती ज्योति की कुछ कविताएं हम बिजूका के मित्रों के लिए साझा कर रहे हैं ।






कविताएं

1

गौरी लंकेश तुम्हारी हत्या की खबर से

दिल दहल गया

बहुत देर तक सोचती रही

कैसे समय में जी रहे है हम

कैसे समाज का हिस्सा है

जहाँ सच बोलना गुनाह है

अधिकार नहीं सच बोलने वाले को जीने का

शहरों कस्बों में

हो रही है

बैठके गोष्ठियां शोक सभाएं

तो हम कैसे पीछे रहते

हमे भी लगा है उतना ही गहरा आघात

तो झट से एक मेसेज टाइप किया

और सेंड कर दिया अपने ग्रुप में

समय शाम चार बजे

वहीँ उसी कम्युनिटी हॉल में

फिर निकाली अलमारी से

सफ़ेद पर गुलाबी बूटों वाली शिफोन की साड़ी

और भिजवा दी रोल प्रेस के लिए

कि ऐसे ओकेशन पर

कांजीवरम, बनारसी, मैसूर सिल्क

सूट नहीं करती

ब्यूटिशियन से टाइम लेकर उसे ओकेशन बताया

और मैचिंग सैंडल निकाल कर रखी

हमेशा की तरह करीब-करीब सभी

पांच बजे तक पहुँच गए

और तुम्हारे बारे में चर्चा शुरू हुई

लगता था आज कोई क्रांति हो कर रहगी

कितना दुःख

कितना संताप था सबके शब्दों में

और कितनी जानकारी तुम्हारे बारे में

छ: बजे सभा के औपचारिक समापन के बाद

पुरुष और स्त्रियाँ अलग अलग गुटों में बट

हो गए मशगूल अपनी बातों में

और थोड़ी ही देर बाद

जैसा कि करते है पुरुष

रवाना हो गए

सब के सब शहर से बाहर

एक ढाबे की ओर

अब हम स्त्रियाँ तो पुरुषों की तरह

किसी ढाबे में खाट पर बैठ

सिगरेट फूकते

चखने के साथ घूंट-घूंट कर गिलास खाली करते

मुर्गे की टांग नहीं चबा सकती

सो हम सब निकल गई शौपिंग करने

और देखो न मैंने बिलकुल वैसा ही टॉप ख़रीदा

जैसा तुमने उस फोटो में पहना है

जो इन दिनों बहुत वायरल है पब्लिक मीडिया में
००

2



संभल कर रहना उन लोगों से

जिनके हांथों में नहीं

ज़ेहन में बंदूके होती है

वे जानते है थमाना

बंदूकें उन हांथों में

जिनमे रोटी नहीं होती

आँखों में रोटी का ख्वाब होता है

संभल कर रहना उनसे

जिनके रगों में नहीं

इरादों में लहू बहता है

वे जानते है बहाना लहू की नदी

भरे शहर में

अपना गला तर करने के लिए

संभल कर रहना उनसे

जो कहते है तुम्हे दोस्त

और लगाते है बेवजह गले

इन्हें हासिल है काबिलियत

पीठ में

अदृश्य खंजर

घोपने की
००


3

कहते है

हजारों में से कोई एक स्पर्म होता है

जो जीतता है जिन्दगी की रेस

और मिलाता है उसे सौभाग्य

मनुष्य योनि में धरती पर जन्म लेने का

लेकिन अब

हजारों में से एक भी स्पर्म

नहीं जीतना चाहता वो पहली रेस

कि पता है उसे

इस धरती पर पहले से ही

फन फैलाये बैठे है हम

जो ज्यादा दूर तक नहीं जाने देंगे उसे

और फिर भी जोर मारा उसने

तो तैयार कर रखा है

दोज़ख उसके लिए

यहीं इसी ज़मीं पर
०००


3

चालीस पार स्त्री

नहीं साबित होती अच्छी प्रेमिका

कि उसकी आँखों में नहीं होती है

किसी और के सपनों के लिए जगह

चालीस बसंत औरों के सपनों में सुर्ख रंग और नमक भरने वाली

बचे हुए दशक में तराश कर देना चाहती है

आकार अपने सपनों को

स्टोर रूम में पड़े

गर्त की चालीस परतों में दबे सपनों को निकाल

झाड़-पोछ कर रखती है ड्राइंग रूम में

उत्साह से लबरेज़

जीवन का आखरी अध्याय अपनी भाषा अपने तरीके से लिखने को

अपनी जिम्मेदारियों को करीब-करीब कर चुकी पूरा

नहीं है उसे जल्दी घर पहुँचने की

वो बिताना चाहती है एक पूरा दिन

स्पा या पार्लर में मसाज कराते

किसी और को आकर्षित करने के लिए नहीं

खुद को मोहित करने के लिए

चाहती है बनना-सवरना

बिना बिंदी मंगलसूत्र के

देखती है खुद को आईने में

और हो जाती है खुद पर लट्टू

सोती है देर तक रविवार को

और दोपहर में मोबाइल साइलेंट पर कर

औंधे लेट पढ़ती है कोई रोमांटिक नावेल

बिताती है खुद के साथ

खुद के लिए पूरा एक दिन

अब नहीं है उसके पास समय न ही शौक

कि किसी पुराने या नए प्रेमी के हाथों में हाथ डाले

घूमें किसी बगीचे में

पिए कॉफ़ी बतियाते हुए किसी कॉफ़ी हाउस में

या जाये देखने कोई फिल्म

लेकिन चूँकि अब

जब वो लुटा चुकी है

अपने तमाम प्राथमिक रंग

औरों के सपने रंगने में

उसके पैलेट में बचे है

कुछ सूखे कुछ बदरंग से रंग

सो

हो यदि किसी में इतनी सकत

कि वो अपने रंग दे सके उसे

उसके सपने पुरे करने को

तो मुश्किल नहीं उसका प्रेमी हो जाना भी
००


4

अब्बू ने नहीं भेजा था मुझे स्कूल

कि स्कूल जा कर बिगड़ जाती है लड़कियां

जैसे सायमा बिगड़ गई

कहती थी इश्क हो गया है उसे

उससे दो दर्ज़ा उपर पढ़ने वाले लडके से

जब पकड़ा गया था

उसकी अंग्रेजी की किताब से ख़त

बंद हो गया उसका कहीं भी जाना

फिर नहीं आती थी वो सिफारा पढ़ने भी

मगर सुना था कि

कांपती थी उसकी टाँगे

पथराई आँखों से जाने क्या तांका करती

लरज़ते होंठों से

बडबडाया करती

और आज बरसों बाद

याद आई सायमा

जब वोही सवाल मुझसे पूछा गया

फर्क बस इतना उसके अब्बू ने पुछा

मेरे खाविंद ने

बौराई सी रहती

किसी और के इश्क में उलझी मै

छिटक के हाथ से गिर जाती पतीली

जब आ जाते है वो

बेसमय घर

नज़रे चुराती घबराती

कांपते हाथों से लाती

पहले चाय फिर पानी

बेतहाशा धड़कते दिल की आवाज़ दबाने को

हंसती जोर से

करती बेवजह बाते

पर्दा ठीक करने के बहाने

झांकती कभी खिड़की कभी दरवाज़े से

उलटती-पलटती अख़बार

कनखियों से पढ़ती उनके चहरे के उतार-चढाव

बेखयाली में सुन नहीं पाती कही हुई बात

अपने ही ज़ेहन में उठते सवालों के देती जवाब

बिना पूछे बताती उस गली का नाम

जहाँ कभी गई ही नहीं

उस शख्स का नाम

जिसे सुनने वाला जानता तक नहीं

छोड़ देती जवाबों के बदले एक सवाल

जिसे पूछे जाने पर

पैर के अंगूठे से

नज़रे झुकाए कुरेदती फर्श

शरीर पर हरे-नीले चकते लिए

आँखों में सुर्ख डोरे लिए

ठूस अपना दुपट्टा मुह में

बंद रखती हूँ अपनी जुबां

दीन-दुनिया के कशमकश में उलझी

कभी भी चुन नहीं पाती किसी एक को
०००


5

वो सोचती है लिखूंगी कविता

घर जाकर फुर्सत से

अपनी अफसरी के रुतबे पर

जिसके आगे झुकता है तमाम महकमा

या अपने सुरों के उतर-चढाव पर

जिसपर झूमते श्रोता करते है वाह वाह

या कॉलेज में लेक्चर के दौरान

डिस्टर्ब कर रहे छात्र को लताड़ने पर

या बैंक में अपनी कुर्सी छोड़

किसी बुज़ुर्ग की मदद करने पर

या 104 सेटेलाइट लोंच करने के

रोमांचित कर देने वाले अनुभव पर

लेकिन घर पहुँचने पर

कमबख्त ये आटा नून तेल पीछा ही नहीं छोड़ता
०००


6

तितिक्षा

जिसपर तुमने ऊँगली रखी

दिलाये गए तुम्हे वो कपडे

अपनी ही पसंद से पहने तुमने हमेशा

जूते चप्पल सैंडल

इतनी लाडली तुम पापा की

कि तुम्हे भेजा घर के पास के ही स्कूल में

कि दूर भेजते घबराता था उनका मन

तुम्हारे भाई को कभी नसीब नहीं हुआ ऐसा लाड

उसे भेज दिया जाता सुबह-सुबह

पीली बस में बैठा

दूर के स्कूल में

जहाँ से लौटने पर

जल्दी-जल्दी दूध गटक

पहुँचना होता था उसे कोचिंग क्लास

जब कि उस समय

मम्मी ढेर सारा प्यार चुपड़ रही होती तुम्हारे बालों में

धीरे-धीरे मालिश करती गूंथ देती

दो लम्बी-लम्बी चोटियाँ

इस उम्मीद से

कि अगले बरस कमर तक झूलने लगेंगी

जब पहुँचोगी तुम सातवी में

तुमसे पांच साल बड़ा तुम्हारा भाई

कर लेगा इस वर्ष

पूरी स्कूली शिक्षा

और भेज दिया जायगा उसे अब और भी दूर

लौट जाना चाहते है अब

तुम्हारे मम्मी-पापा

अपने पुरखों की जमीं पर

गाँव में

लेकिन तुम्हारे लिए उनका दुलार

ज़रा भी कम नहीं होगा

वे रखेंगे तुम्हे अपने पास

और भेजेंगे तुम्हे वहीँ घर के पास किसी स्कूल में

तुम्हारे लिए बनाई जाएगी

छत, दीवारे, चमचमाता फर्श

जहाँ तुम कभी महसूस नहीं कर पाओगी

अपनी ज़मीन की मिटटी की गंध नमी स्पर्श

कि मिट्टी से गन्दा हो जाता है शरीर

और ज़मीन नहीं

तो नहीं देख पाओगी आसमां के बदलते रंग

और आसमां नहीं

तो नहीं गुजरेगा कोई बादल तुम्हे छूकर

सुनो तितिक्षा

ज़मीन ज़रूरी होती है फलने-फूलने के लिए

माना कि बहुत कठिन है

लेकिन फिर भी करों हिम्मत और मानों मेरी बात

खोल दो अपनी इच्छाओं के गैस सिलिंडर का नॉब

और जलाओ केवल एक तीली अपने सपनों की

ब्लास्ट हो जाने दो उस छत और दिवार को

तिड़क जाने दो संगमरमर का फर्श

महसूस होने दो तलवों को

अपनी ज़मीन की छुअन

और फिर देखना कैसे फूटते है अंकुर

कैसे निकलती है कोपले

कैसे हरियाती हो तुम
००

7

परीक्षा हॉल में परीक्षक

खडे हो जाते जब आकर पास

और देखने लगते हमारी कॉपी

सुन्न हो जाते हाथ-पैर

और भूल जाते थे वो भी जो याद होता था

अक्सर होता है ऐसा

जब पाते है हम

कि देखे जा रहे है गौर से

या रखी जा रही है हमपर नज़र

हम हो जाते है और भी चौकस

या कर जाते है कोई गड़बड़ी हडबडाहट में

जब देखते है

कहीं किसी मॉल में लगी सूचना

मुस्कुराइए आप कैमरे में है

तो लुप्त हो जाती है चहरे से मुस्कराहट

और conscious  हो जाते है अपने लुक्स को लेकर

पल्ला ठीक करते, दुपट्टा संभालते, शर्ट को और थोडा इन करते

देखते है चोर निगाह से कैमरे की ओर

कितना सजग रहना पड़ता है हमे

जब लग गए है कैमरे जगह जगह

अब नहीं कर सकते हम रोड क्रॉस

रेड लाइट होने पर

नहीं फेका जा सकता कचरा गली के मुहाने पर

कितने ही बड़े मुकदमों में

होता है हार-जीत का बड़ा आधार

सीसी टीवी फुटेज

पकडे जाते है

चोर रिश्वतखोर कातिल रंगेहाथ

हर चौराहे कार्यलय सार्वजानिक स्थान पर कैमरे होने के बाद भी

कमी नहीं आई लेकिन अपराधों में

साफ बच निकलते है शातिर अपराधी

कैमरे की निगाह से

कि होती है हर कैमरे की एक पीठ
००

8

तुम्हारी कविता

-----------------

वो लगाती है छौक दाल में

और दिखता है असर

पडोसी के घर

छींकते है सभी बेतहाशा

वो बनाती है चाय

और दिखता है असर

तुम्हारे दोस्तों के बर्ताव में

वे रमते है ज़्यादा

तुम्हारी बातों में
वो धोती स्तरी करती है तुम्हारे कपडे

दिखता है असर तुम्हारे व्यक्तित्व पर

झलकने लगाता है आत्म विश्वास

तुम्हारे हाव भाव से

तुम लिखते हो कविता

क्या इसका भी कोई असर होता है
०००

9

जब भी मै तुम्हारे प्रेम में होती हूँ

फड़कती है मेरी बाई आँख

और मै किसी अनिष्ट की आशंका से काँप जाती हूँ

आधी रात को जब खुलती है आँख

बाईं ओर ह्रदय में

उठती है एक टीस

दायें पैर की नस में होता है खिचाव

और एक तीखे दर्द की लहर

अवरुद्ध कर देती है रक्त संचार

ह्रदय चीख कर लेता है तुम्हारा नाम

और ठहर जाता है क्षण भर को

झटके से उठ बैठ

सहलाती हूँ खिची नस

देखती हूँ दाई-बाईं ओर

गहरी नींद में दो अबोध आकृतियाँ

तभी जैसे जागृत होती है चेतना

और हो जाता है मस्तिष्क हावी

आँख के फड़कने

नस के कसकने

और ह्रदय के धड़कने पर

याद आते है वो काम

जो आज पेंडिंग रह गए

खीच जाती है एक रेखा

मेरे माथे पर
००

10

सुनो

मुझे करनी है तुमसे

बहुत सारी बाते

नहीं नहीं

तुम गलत समझ रहे हो

प्यार-व्यार जैसा कुछ नहीं

और अब तो मै तुम्हे याद भी नहीं करती

लेकिन करती हूँ मै क्रॉसवर्ड

जो हम साथ किया करते थे

और कहीं किसी शब्द पर अटक जाने पर

डायल करती हूँ तुम्हारा नंबर

लेकिन रिंग जाने से पहले काट देती हूँ

तुम्हारी दिलाई हुई चप्पल

टूट गई थी उस दिन

जिस दिन मै अकेली ही चली गई थी

दरगाह पर

यूँ तो मैंने चप्पल जुड़वाँ ली थी

लेकिन पहनी नहीं

अख़बार में लपेट रख दी

शू रैक के एक कोने में

और हाँ वो वालेट

जो भूल गए थे तुम

हडबडाहट में

उसमे से हटाया नहीं है मैंने तुम्हारा फोटो

कि तुम्हे लौटना तो है ही

रखा रहता है वो

मेरे पर्स की चोर जेब में

वो प्लास्टिक का चम्मच

जिससे खाई थी तुमने आइसक्रीम

थोडा सा टूट गया है

लेकिन वापरती हूँ मै उसे

नमक के मर्तबान में

व्यस्तता इतनी है कि

सांस लेने की फुर्सत नहीं मिलती

तुम्हे याद करना तो बहुत दूर की बात है

यकीन मानों

अब मै तुम्हे बिलकुल याद नहीं करती

लेकिन अगर तुम मिलो कहीं

तो करनी है मुझे

बहुत सारी बातें तुमसे
०००

11

हम

हम नहीं होते

जब किसी मॉल में

निकालते है अपना डेबिट या क्रेडिट कार्ड

और चुकाते है बिल

बिना तफ्तीश किये कीमत की

हम तब भी हम नहीं होते

जब हम खरीदते है

बाटा के जूते

रे-बेन के सन ग्लासेस

रेमंड्स का सूट

या गार्डन की साड़ी

बिना कोई मोल-भाव किये

प्राइस-टैग पर लिखी कीमत अनुसार

हम तब भी हम नहीं होते

जब हम जाते है किसी आलिशान होटल में

बिल के साथ सर्विस टैक्स चुकाने के बाद भी

छोड़ कर आते है टिप बैरे के लिए

हमारी असलियत तब सामने आती है

जब हम करते है

एक ऑटो-रिक्शा वाले से रिक-झिक

और उसकी गाढ़ी पसीने की कमाई से

काट लेते है दस रूपए

जब हम मांगते है

बीस रूपए की सब्जी के साथ

मुफ्त में धनिया-मिर्च

और आधा किलो अंगूर तुलवाते-तुलवाते

खा जाते है छटाक भर

चखने के नाम पर
 ००


 मोहपाश
-----------

जब मै चुहिया थी
जाल कुतर कर निकल भागती
और उछलती फिरती थी धान के खेतों में

जब मै चिड़ियाँ थी
दरवाज़ा बंद होने पर
उड़ जाती थी रौशनदान से
खुले आसमान में

जब मै गिलहरी थी
नहीं आती थी तुम्हारे छलावे में
फुदकती फिरती थी
एक टहनी से दूसरी पर

मगर अब मै एक स्त्री हूँ
छटपटाती रहती हूँ
लेकिन मुक्त नहीं हो पाती
तुम्हारे मोहपाश से ।
00

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