23 नवंबर, 2017

अर्पण कुमार की कविताएं
अर्पण कुमार:  हिन्दी में स्नातकोत्तर है। जनसंचार में स्नातकोत्तर है। अंग्रेजी-हिन्दी अनुवाद की पढ़ाई भी की और पत्रकारिता की भी पढ़ाई की है। लेकिन आप बहरहाल बैंक में काम कर रहे हैं।

आपके दो कविता संग्रह- नदी के पार नदी। मैं सड़क हूं। प्रकाशित है। पिछले दिनों आपक उपन्यास' ' पच्चीस वर्ग गज ' चर्चा में रहा है। आप कहानियां व लघुकथाएं भी लिखते हैं। आप के कुछ सुदीर्घ आलोचना परख लेख भी प्रकाशित हैं। आकाशवाणी व दूरदर्शन पर रचनाएं प्रसारित होती रहती है। अर्पण कुमार ने पिछले दिनों अनेक कवि व कहानीकार के रचना पाठ के वीडियो यूट्यूब पर अपलोड किए हैं। आइए आज अर्पण कुमार की कविताओं से रूबरू होते हैं।
००


कविताएं


मासूमियत

मासूमियत
मेरी हो या तेरी
एक विश्वास है
हरी दूब में
स्निग्धता और
कोमलता
के बचे रहने की
नोकभर,
मासूमियत है
तभी कायम है
महताब की महताबी,
दीवाने की दीवानगी,
आँखों की नमी,
और मन की निर्दोष
और ख़ुद को सँवारती आवारगी
इसके होने से बचा है
हारिल की चोंच में
पड़ा तिनका,
दिल में जब तब
उठ पड़ती कौंध,
तेज चलते जिस्म से
विद्रोह कर
पीछे की ओर
सहसा मुड़ जाती गर्दन

मासूमियत है
तो मैं, मैं हूँ
तुम,तुम हो
किसी आडंबर
या पूर्वाग्रह से मुक्त
बावस्ता हैं हम
एक दूजे से

यह मासूमियत ही है
जो ढूँढ़ते हैं
दो महबूब
एक दूसरे से
प्रेम करते हुए,
दो क़ौम भी अगर
ढूँढ़ने चलें इसे
तो बंद हो सकता है
घृणा और हिंसा का
राजनीति-जनित खेल

कितने बदनसीब हैं वे लोग
जिनके चेहरे से गायब है
मासूमियत
और कितने खूँखार हैं
वे लोग
जिन्होंने पहन रखे हैं मुखौटे
मासूमियत के
अपने आक्रामक चेहरों पर
......

बदनसीब होना दुःखद है
मुखौटाधारी होना घातक

मासूमियत सीखी
नहीं जाती है
किसी पाठशाला में
(हालाँकि इस दिशा में किसी कोशिश को ग़लत नहीं ठहराया जा सकता)
वह सहज होती है
खड़िया की सफेदी सी
प्रार्थना की बुद्बुदाहट सी
मासूमियत नहीं है
कोई हासिल,
हृदयवृत्ति है यह तो

हमारी मासूमियत
किसी का दिल
जीत सकती है
हमारे दिल के छज्जे से
टँगी रह सकती है
किसी की मासूमियत के
शहद का भंडार
बरसों बरस तक

मगर जाने क्यों
हमने छोड़ दिया
मासूम रहना
हमने घुला लिए
अपने रक्त में
अवसरवादिता के विष
हम हो गए
घोर व्यावहारिक
हम इतराने लगे
अपनी चालाकियों पर
हमने खूब रौंदा इसे
अपने अट्टहासों से

हमने खोटा कर दिया
मासूमियत की रेजगारी को
आधुनिकता के बाज़ार में

मासूम और मूर्ख
दिखते हैं कई बार
एक जैसे
मगर मासूम होना
मूर्ख होना नहीं है
फिर भी जो सुजान
समझते हैं ऐसा
वे कायल हैं मूर्खता के
और विरोधी
मासूमियत के,
सावधान!
ख़तरा है उनके
वाक्चातुर्य से
देश की सादगी को

दिख जाती है मासूमियत
जब कभी तेरे चेहरे में
देखना,
आँखों का उत्सव
बन जाता है
उस दिन।
................

अवधेश वाजपेई

सह-अस्तित्व

मैं एक कवि हूँ
तो क्या कविता करने भर तक
ख़ुद को सीमित कर लूँ
कविता के लिए तो
एक जीवन भी कम है
मगर क्या एक जीवन
सिर्फ़ कविता करके
बिताया जा सकता है
मैं एक कवि के साथ
और बहुत कुछ हूँ
और मुझे लगता है कि
मेरी विविधता
मेरे काव्यकर्म को
एक  विपुलता ही
प्रदान करती है

मैं एक पुरुष हूँ
दूर्वासा का सा क्रोध
और विश्वामित्र की सी विचलन
है मुझमें
मगर संभव तो यह भी है
कि जनक का सा धैर्य
और कृष्ण की सी निर्दोष
मुस्कुराहट भी
हो मुझ में
मैं एक पुरुष की ज़िंदगी जी रहा हूँ
लिपटे हैं जिससे दंभ के कई पहाड़
और उगी हैं जिनपर
वासना की अनगिनत झाड़ियां
मगर सच तो यह भी है कि
उसी पहाड़ के साथ
कल कल करती
हर काल को सींचती और पालती
एक नदी भी बह रही है
कोमलता और उदारता की
संगीत और तरलता की
सहजता और प्रसन्नता की
तो क्या मैं सिर्फ एक पुरुष भर हूँ
या फिर स्त्री की युगों संचित भावनाएं भी
मुझमें चुपके से कहीं रहती हैं
मेरी पलकों पर आते आते
रह जाते आंसुओं को
मेरा पुरुष रोक लेता है
मगर भीतर के भीतर कहीं
बनती और जमा होती
दृग धाराएँ
क्या मेरे ममत्व
की निशानी नहीं हैं

मुझे पसंद है सुविधाएँ और वैभव
जिनमें से कई विशुद्ध
भौतिक रूप लिए हुए हैं
मगर इन सब के साथ या
इन सबके ऊपर
मैं रखता हूँ
कुछ अभौतिक रूपाकारों को ही
आखिर मेरे लिए
इससे बड़ी सुविधा
क्या हो सकती है कि
मैं जो महसूस करूँ
उसे कह सकूं और
आप उसे सुनते हुए
मुझे महसूस सकें हू-ब-हू
मैं आप में विलीन हो जाऊँ
और आप मुझमें
संचार के ऐसे अद्वैत से बड़ा
क्या हासिल हो सकता है
मेरे अद्वैत को

संसार मे आख़िर
इससे बड़ी भी कोई और सुविधा
क्या होती है भला!
अर्जित और संचित भंडारों से
दमकती मानव सभ्यताएँ
क्या एकांगी नहीं रह जाएंगी
अपनी संस्कृतियों के बग़ैर
फिर वे कौन हैं
जो मार दे रहे हैं लोगों को
जिन्हें पसंद नही है बोली-बानी
जिन्हें स्वीकार नहीं हैं अलग अलग रंग
जो नहीं चाहते हैं
क्षितिज पर खिले कोई इंद्रधनुष
युद्धों और उन्मादों से
चोटिल, कराहती कई संस्कृतियाँ
दम तोड़ चुकी हैं
और जो बची हैं
चौतरफ़े होते हमलों से
वे कबतक बची रहेंगी
मुझे एतराज़ नहीं है
सभ्यताओं के वैभव से
मगर मैं चाहता हूँ
बचे रहें संस्कृतियों के
अपने-अपने 'इग्लू'
अलग अलग वक्रताओं को
आवाज देती भाषाओं
हमें विशिष्ट बनाते
जुदा-जुदा हमारे वस्त्र सज्जाओं
हमारी आत्मा तक को तृप्त करते
हमारी रसना को दुलारती
स्वादों को संपोषित करती
हमारी पाक कलाओं से
बड़ा वैभव कैसे हो सकता है
मैं अपील करता हूँ
हथियारों के सौदागर
अपने भाइयों और बहनों से
तुम इन्हें छोड़कर
कोई और व्यवसाय क्यों नहीं करते

मैं एक कवि हूँ
मुझमें कई कई ज़िदगियाँ प्रविष्ट हैं
मानव और मानवेतर कई प्राणियों के
दुख दर्द को उजागर करना चाहता हूँ
मैं एक पुरुष हूँ
इस वैश्विक सृष्टि को
भरपूर जीना चाहता हूँ
इसे अक्षय रखने के अपने संकल्प के साथ
कि पौरुष यही है कि वह अंकुरित हो
आशा और विश्वास के
छोटे-छोटे पौधों का रूप धरकर
कि पुरुषत्व कुचलना नहीं है
किसी उर्वरता को
कि पुरुष होना बंजर होना नहीं है
कि पुरुष होना
कर्कश होना नहीं है
कि पुरुष का
स्त्री के समर्थन और सहयोग में होना
सृष्टि के नव निर्माण की परंपरा में खड़ा होना है

मैं इस दुनिया में जीते हुए
स्थूल रूप से
महसूसता हूँ कुछ ऐसी सूक्ष्मताओं को भी
जो हमें बचाए रखेंगी और जिनसे
मैं स्वयं भी बचा रह सकूंगा
मुझे लगता है परस्पर विरोधी दिखती
कुछ चीज़ें
कुछ विचार रह सकते हैं
साथ-साथ
कि विरोध है
तो सहअस्तित्व की संकल्पना है
कि हमें किसी के
अस्तित्व को नष्ट करने
का कोई हक़ नही है
कि किसी और को मारकर
हम खुद को भी
बचाए नहीं रख सकते देर तक।
 .......................

जीवन से क्या-क्या...

कैसा हो यह एकमात्र जीवन
पूछती है मेरी हँसी
पूछती  है मेरी ख़ुशी
संग आ जाते हैं दुख
प्रश्न हैं उसके भी यही
क्या चाहिए मुझे
इस जीवन से
ज्ञान और मित्रता
स्वास्थ्य और संपदा
परिवार और ढेर सी किलकारियाँ

ख़ूब ऊँचा पद
और सैंकड़ों कामयाबियां
मेरा लोभ बढ़ता है जाता
मुझे कुछ समझ नहीं आता
अपेक्षाओं के पहाड़
ऊँचे होते हैं जाते
बौना करते और
मुझे हैं दबाते जाते
मैं चौंक जाता हूँ
यह मेरे क़द को क्या हुआ
होना चाहिए था कुछ और
और यह है क्या हुआ
तभी धरने पर बैठ जाती हैं
कुछ परछाइयाँ
हमें कोई नहीं स्वीकारता
जिसे देखो, वही है दुत्कारता
हम कहाँ जाएँ
हम हैं दुश्वारियाँ

मैं चुप हो जाता हूँ
शून्य में कहीं तकता हूँ
मेरा विवेक है जागता
अपने तर्कों से है समझाता...
ख़ुद को ज़रा सँभालो
ज़िंदगी को पहचानो
सात रंगों से बनते हैं इंद्रधनुष
हर रंग को प्यार करो
हर रंग में तुम ढलो
अच्छा बुरा चुनना छोड़ दो
अपना पराया गिनना छोड़ दो
सुख दुख दोनों को एक जानो
बेमतलब तमाशा करना छोड़ दो
जीवन से क्या क्या नहीं
जीवन से सबकुछ पाओ
ख़ुद तक क्यों हो सिमटते
संसार मात्र को अपना जानो
...... ..... ............

अवधेश वाजपेई


वह जो कल्पना है

जो मेरी कालिमा को
किसी ख़य्याम सा पीती है,
वह कल्पना है
जो मेरी वासना को
अनुष्ठान मान भरपूर निभाती है,
वह कल्पना है

आकाश बेपर्दा है
चतुर्दिक और धरती ने
लाज छोड़ रखी है
जो इस मनोहरता को
मेरी दृष्टि में भरती है,
वह कल्पना है
मेरे रचे को किसी
कादंबरी सा
जो गुनगुनाती है,
वह कल्पना है
रख अपने मान को
परे जो मुझे मानती है,
वह कल्पना है
जिसका ताउम्र ऋणी रहूँगा,
उस विराट ह्रदया को
पहुँचे मेरा सलाम
जो मेरे एकान्त को
किसी कलावंत सा दुलारती है,
वह कल्पना है
कंपकंपाते कँवल
को जो झट अपना
शीतल गोद सौंपती है
अपराध कैसा भी हो,
जिसकी कचहरी मुझे
रिहा कर देती है
जिसकी कटि से
लग मेरे सपने कल्पनातीत
उड़ान  भरने  लगते हैं
ख़ुद काजल लगा जो
मुझे बुरी नज़रों से बचाती है,
वह कल्पना है
हर सच में कुछ कल्पना है,
हर कल्पना का अपना भी सच है
कुछ लिखे गए
और प्रेषित हुए,
जो अनलिखा रहा,
वह भी तो ख़त है
उससे मुझे मिलना न था,
उसे मेरे पास आना न था,
जानते थे हम इसे
जिसे मैंने फिर भी दुलारा
और जो मुझको ख़ूब है सही,
हासिल यही वो वक़्त है
उसे बस घटित होना है,
सच में हो या झूठ में,
गली में हो या हो बीच अँगना
प्यार तो बस हो जाता है,
खुली आँखों से हो या
देखें हम कोई सपना
पक्षी कलरव करते हैं,
पेड़ों के पत्ते सरसराते हैं
और संध्या गीत कोई गाता है
तुम चुपके से
मेरे पास चली आती हो,
सजनी हो या हो कि कल्पना।
.................

दिन को अब जो लगने
लगा विराम है
दुविधा भरी आई
सुरमई यह शाम है
परदे पीछे थके हारे
मेहनतकश सूरज के
हाथों में ये नशीला जाम है
ये शाम कहो किसके नाम है
तुम्हें भला इससे क्या काम है
बचना है तो बच जाओ प्यारे
क़ातिल का काम अब तमाम है
रहीम है या कि राम है
हर कोई यहाँ बेकाम है
कवि हो कि हो कोई नेता
जिसे देखो वो बदनाम है
सीख बैठे ग़र चाटुकारिता
आगे तो आराम ही आराम है
किन गली से आते हो मियां
क्या कहते हो आराम हराम है
...................

डर

मैं अपने डर पर
क़ाबू पाना चाहता हूँ
जब से होश संभाला है
यही कोशिश करता आ रहा हूँ
मगर डर है कि
मेरे सोच के दर से
भाग ही नहीं रहा
उल्टे कभी ऐसी तो
कभी वैसी
शक़्ल बनाकर मुझे
अपनी गिरफ़्त में
रखना चाहता है
उम्र और अवस्था के
अलग अलग पड़ावों पर
इसने अपने नए नए रूप गढ़े
ख़ुद को और परिवार को
सुरक्षित कर लेने की
जद्दोजहद जितनी बढ़ी
डर उसी अनुपात से बढ़ा
जब जो पाया
उसके छूटने के डर ने
कुछ पाने के सुख को
बेमज़ा नहीं
तो कमतर अवश्य किया
सोचता हूँ
हमारी खुशियों के
अथाह जल को
नियंत्रित करनेवाला
डर कोई डैम है
या फिर यह कोई बिजूका है
जो अभिमान की उड़ान को
अपने पास फटकने नहीं देता
क्या पता
डर का यह अंकुश अगर न हो
तो मनुष्य
किसी मतवाले हाथी सा अनियंत्रित
जाने क्या क्या कुचल डाले
समय के साथ
और कई बार
समय से पहले भी
कई सुंदर चीज़ें नष्ट होती हैं
काल के साथ
जब डर का ख़याल आता है
तो यह गठजोड़
गले पर किसी फंदे सरीखा
महसूस होता है
हमारी उपलब्धियों से
हमें वीतरागी बनाने का
काम करता है यह डर
मौत का कोई प्रकरण हमें डराता है
शवगृह में किसी शव को देखते हुए
हमारा अवचेतन भी
बेशक कुछ देर के लिए ही सही
हमें निष्प्राण अवश्य करता है
हम झटपट वहाँ से
उठ खड़े होते हैं
स्नान कर स्वयं को
उससे मुक्त रखने का
प्रयास करते हैं

किसी अशोभनीय और अप्रिय घटना से
हमारे भीतर का डर
हमें दूर रखना चाहता है
तो क्या डर हमारा कोई पुरखा है!
डर आगाह करता है हमें
डरो नहीं
जो है तुम्हारे पास
उसका उपभोग करो
क्योंकि कल वह
किसी और का होगा

जैसे तुमसे पहले
वह किसी दूजे के पास था
तो क्या डर कोई सरकार है
जो किसी कालाबाजारी को
रोकता है!

डर
किसी अबोध को
बुद्धिमान बनाता है
किसी बेरोज़गार को
रोज़गार दिलाता है
डर हमें हत्यारा होने से भी
रोकता है
डर हमें बलात्कारी होने नहीं देता
तो क्या डर कोई योगी है
जो हमें आत्मनियंत्रण
करना सिखाता है!
फिर आए दिन अख़बारों में
दिल दहला देनेवाली जो
खबरें आ रही हैं
वे क्या हैं
हमारे अपने ही लोग
इतने हिंसक कैसे हैं
और इनका व्यवहार
इतना पशुवत् कैसे है
तो क्या डर-मुक्त होकर
ये इतने ख़तरनाक और
बर्बर हो गए हैं
मैं सोचता हूँ

मैं आजीवन डर को
भगाता रहूँ
और डर मेरी सोच के दुआरे बना रहे
मैं चाहता हूँ
थोड़ा थोड़ा डर
हर किसी के द्वार पर
यूँ ही काबिज़ रहे
डरना ज़रूरी है
अगर हम स्वयं डरेंगे
तो और कुछ हों या न हों
कम से कम औरों के लिए
डरावने नहीं होंगे
डर हमारा बैरी नहीं
हितैषी है
........................


आप जो मानें हुजूर

मैं आपको
अपनी आँखों पर
रखूँगा हुज़ूर
बाक़ी आपकी है मर्ज़ी
मेरे राजन!
आप मुझे
अपने क़द के
बराबर समझो
या समझो
अपने पाँवों की धूल

आप चाहे जो समझो
अपने को जो भी मानो
आपकी पहचान मुझसे है
और मैं आपके मान को
सम्मान देता हूँ भरपूर
आपको अपनी हथेली पर बिठाता हूँ
मगर सच मानिए
ज़रूरत हुई ग़र
आपको अपनी मुट्ठी में भी
रख सकता हूँ

कुछ ऐसी गोटियाँ
अपनी अंटी में मुझे
रखनी होती ही हैं हरदम
आप मेरी विनम्रता को
अपनी जीत समझें
कोई ग़म नहीं

मगर मेरी हार समझने की
भूल न करें मेरे सरकार
आप ऊँची कुर्सी पर
विराजमान हैं
आपके पाँव धरती पर
भला कब पड़ते हैं!
मगर कुर्सी का क्या है
मिलती और छिनती रहती है

मगर आपके लिए
जो इज़्ज़त
मेरी नज़रों में है
वह मेरे चाहे तक
कहीं नहीं जाती है
आप मुझे जो माने
मेरे आका
मैं तैयार रखता हूँ खाका
जिसमें आप हैं और मैं हूँ
जिसमें आपकी हेकड़ी
और हुक़ूमत
दोनों हैं
रिकॉर्ड में मेरे
मैं चुप रहता हूँ

यह हित में है आपके
मेरे साहब!
आप भी ज़रा ध्यान रखें
मुझे मुँह न खोलना पड़े कहीं।
............

हस्ताक्षर


हम बदलते हैं वक़्त के साथ
वक़्त के हाथों बदलता है
हमारा अपना हस्ताक्षर
बैंककर्मी हमें कम
हमारे हस्ताक्षर को अधिक देखते हैं

जब हम नहीं कर पाते
कोई लेन देन
या बाधा आने लगती है उसमें
कभी अपनी उंगलियों को देखते हैं
तो कभी अपने हस्ताक्षर को
जूझते हैं हम अपने आप से
हम वही रहते हैं
और हमारी पहचान

भटक जाती है कहीं
हम घबरा जाते हैं
ख़ुद की पहचान के लिए
मगज़मारी बढ़ जाती है
कोरे कागज़ कई
काले कर डालते हैं
एक अदद हस्ताक्षर के लिए
मगर हमारा मूल हस्ताक्षर
हमें वापस नहीं मिलता
जैसे हम
दूर दूर छिटके रहते हैं
अपने मूल निवास से

हम भूल जाते हैं
पहचान का संकट
गहराने लगा था
तब से ही
जब हमने पहली बार
अपनी देहरी लाँघी थी
..............

पता

मेरा पता क्या है
पूछते हैं मेरे दोस्त
मेरे आका
मेरे संबंधी
वे सभी
जो कभी नहीं आएंगे मेरे घर
कभी नहीं आएगा
जिनका लिखा कोई ख़त
पूछते हैं मेरा पता
बड़े चाव से

मैं बताता हूँ सोत्साह
और सोचता हूँ
बरस दो बरस बाद
जब फिर पूछेंगे वे मुझसे यह सवाल
मेरा पता बदल चुका होगा
मेरा शहर कोई दूसरा हो गया होगा
मेरी कर्मभूमि कोई और हो गई होगी
बदल चुका होगा मेरा वर्तमान
एक बार फिर से
मगर नहीं बदलेंगे वे
फिर पूछेंगे मेरा पता
मैं एक बार फिर दूंगा
उन्हें अपना नया ठिकाना
सच पूछो तो
उनका सवाल
ठीक वैसे ही बेमानी है
जैसे मेरा पता

मैं कहीं नहीं हूँ
इसलिए हर जगह हूँ
उनका सवाल कोई उत्तर नहीं चाहता
इसलिए उनके सवाल का उत्तर मिलता है

जब एक दिन
मैं और वे नहीं होंगे
इस दुनिया में हमारी रूहें
टकराती रहेंगी एक दूसरे से
उनकी रूह पता पूछेगी
और मेरी रूह पता बताएगी

एक दूसरे के सवाल का जवाब देना
ज़ारी रहेगा
हमारे ज़िंदा ना रहने के बाद भी

हमें नहीं मिलना था कभी
हम नहीं मिले कभी
मगर मेरा पता तो
होना ही चाहिए था
उनके पास
वे हमसे मतलब जो रखते थे
............
सुनीता

वक़्त जिसे कहते हैं

वक़्त
जो एक ही मिट्टी से
हमें गढ़ता है
नाना रूपों और आकारों में
वक़्त
जो कुम्हारों का कुम्हार है
वक़्त
जो थपकी देता दुलार है

वक़्त हमें गाँठता है
ज्यों गांठे कोई मोची
किसी फटे हुए जूते को
जो हमारे तलवे के
उठने से पहले
ख़ुद ही बिछ जाता हो
वक़्त एक ऐसी लंबी
फूलों से बुनी चादर है

देखो जो अगर
वक़्त है एक लुहार
जिसकी भट्ठी कभी
ठंडी नहीं होती
जो स्वयं तपे
और हमें भी तपाए
यूँ किसी लायक
हमको बनाता जाए
गह गह कर जो गहे
वक़्त तो ऐसा परिष्कार है

वक़्त
जो दुनिया का
सबसे बड़ा कारीगर है
वही वक़्त है बेरहम ऐसा
जो कुछ भी
नया नहीं रहने देता
जो पलों में पाहुने को
पुराना कर जाता है
वक़्त हर खेल का जितवार है

वक़्त है
ज्यों हो कोई
सदाबहार बादल
जिसकी बरसात में
सबकुछ धुलता चला जाता है
मिट्टी का माधो
मिट्टी में मिल जाता है
नामचीनों की भारी हस्ती
धनवानों की ढेरों मस्ती
ग़रीबों की हौसलापरस्ती
ज़िंदगी महँगी और सस्ती
सब बह जाए जिसमें
वक़्त वह तीक्ष्ण धार है

वक़्त है
ज्यों हो कोई
सधा औघड़
जिसकी झोली में
यादों के कई चकमक रहते हैं
भरमाते तो कभी हमें चौंकाते हैं
वक़्त
जो रह-रहकर
अपनी झोली
पलटता जाता है
हमें अंदर-बाहर
भरता जाता है
विपर्यय से भरे जीवन में
वक़्त
नित्य एक विचार है

वक़्त
जिसकी मुट्ठी से
हम सभी फिसलते
चले जाते हैं
मगर जिसकी मुट्ठी
आज तक
ख़ुद कभी ख़ाली नहीं हुई
वक़्त वह अकूत भंडार है।
...................

दूसरे परिवारों में अपना बनकर

मेरे अंदर
जाने कितने संसार
रंग-बिरंगे
रल-मल करते हैं
कितने परिवारों की
कहानियाँ बसी हैं
मेरे ज़ेहन में
ठीक मेरे
अपने परिवार की तरह
इस रची-बसी दुनिया मॆं
मेरी संबंधोन्मुख भावना
उमड़ती-घुमड़ती रहती है
और मेरा लेखक
इन ठोस, घरेलू
जीते-जागते ताने-बानों को
सुलझाता रहता है जब-तब
अपने रचाव की उदारता में
दुनियावी व्यावहारिकता के
कसाव से युक्त स्व-कवच से निकल बाहर

इन विविधवर्णी परिवारों मॆं
होकर शामिल
घुसपैठिए तो कभी
किसी निजी सदस्य की तरह
पाया है
बहुत कुछ मैंने

इनके भरपूर प्रेम और
खुले विश्वासों के
निरंतर संयुक्त देय का
कर्ज़ चुकाना
ख़ैर, मेरे बस का क्या है
हाँ, कुछ शब्द
बाहर आ जाते हैं
मेरी तरंगित, उत्फुल
चेतना से उठकर
जिनके स्वर को ये
अपना बनाकर
वापस भेजते हैं
मुझ तक
द्विगुणित गुंजायमान कर उन्हें

इस आवाजाही में
आ जाते हैं अपने आप
कुछ रंग कुछ राग
कविता मैं कहाँ रचता हूँ !
..............

बहनापा

बाल्टी कहती है
रस्सी से
डूबकर गहरे कुएँ में
हर बार
बाहर निकलती हूँ
तुम्हारे सहारे
जुड़ी रहकर तुमसे,
तुम्हारा बंधन ही
आख़िर मेरा बचाव है

अपनी वेणी के
आलिंगन-पाश में भरकर
बड़े ही प्यार से
रस्सी जवाब देती है
धीरे से
बाल्टी को
गहराई, कालिमा
अपशकुन, फिसलन
हर तरह के संशय, जोखिम
को चीरती साहसपूर्वक
तुम उतरती हो
किसी कुएँ के
सोते, सघन जल की
अलसायी, गहरायी
तंद्रा को भंग करने
उसकी सतह पर
छपाक से
हलचल उठाती भरपूर
अपने पदाघात से
और डूबकर स्वयं
सर्वप्रथम
तुम लाती हो
अपने साथ भरकर
ताज़ा, मीठा जल
किसी की तपती, विनीत
अँजुली के निमित्त

तुम्हारे साहस को
मैं सिर्फ खींचती हूँ

दोनों ही अनभिज्ञ हैं
कदाचित
एक-दूसरे के प्रति
अपने बहनापे से
...............

०००

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