04 नवंबर, 2017

 सिद्धार्थ वल्लभ की कविताएं

 सिद्धार्थ  वल्लभ , आरा, (बिहार ) में रहते हैं। पोस्ट ग्रेजुएट है। सिद्धार्थ सजग कवि-लेखक हैं। उनके पास महीन, मखमली भाषा का टोंटा है।
वल्लभ सिद्धार्थ
तल्ख और तीखी भाषा में अपनी रचनाएं और टिप्पणियां व्यक्त करते हैं। उनके पास हवा भी हरामी है। चुभने और छिलने वाले अंदाज में कविताएं कहने वाले सिद्धार्थ साहित्यिक पत्रिका- मणिका , का संपादन भी करते हैं। हाल ही में मणिका के प्रवेशांक ने अपनी उपस्थिति मजबूती से दर्ज़ करायी है। आइए सिद्धार्थ वल्लभ की कविताओं से रूबरू हुआ जाए।


कविताएं


आदिवासिन

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नाकबाली पहने आदिवासिन

आईना नहीं रखतीं,

सूरज को आँखों में लिए फिरती हैं ।


ब्रश नहीं होने के बावजूद

अपनी हंसी के बीच

अपने दाँतों को छुपाती नहीं हैं

उनके पास वर्जित/ संकटग्रस्त

ठिकाने भी नहीं हैं

जिनको किताबों में कमरा कहा जाता है

टैप खुला छोड़ने की

गवाँरु आदतों से दूर

दुधमुँहे छौने को पीठ पर टाँगे

सिर्फ जिजीविषा की चौकसी करती हैं।

चित्र: विनीता कामले
उनके पास

भविष्य की भंगिमाएं नहीं होती

ना ही विमर्श का पट्टा

उनके गले में होता है

उनके पास

वैसा कुछ भी नहीं होता

कि सिग्नल की लालबत्तियों पर

उनको घूरा जाय


वो तो शहर में आयीं भी नहीं थीं

शहर उनके जंगलों में

कुश्ता दलीलों से घुस गया था

अब शहर के सभागार में

वही औरतें छिप छिप कर झाँकती हैं

मानों शहर की हथेलियों पर

थूक दिया हो किसी ने।

००


सीरिया

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अब जबकि सूख चुकी है धरती

 इंसानियत की आँखों में

कहाँ से आएगा पानी ?


प्यास से बिलबिलाती नदियाँ

लौटकर वापस आ रही हैं

हरामी हवाओं के दस्ते

समंदर के उबाल को घेरे बैठे हैं

इस फाकाकशी से घायल

दुनिया भर के ग्लेशियर

पिघल रहे हैं धीरे-धीरे ।


चुल्लू भर पानी में डूबने की

विलुप्त होती आदतों के बीच

छोटे छोटे कस्बों के इर्द-गिर्द

हरियाली के नाम पर

जलाये जा रहे हैं रिहायशी दस्तावेज


घटनाएं अब संगीन नहीं होती

मिसाइल के धमाकों से रंगीन होती हैं

खोखले घमण्ड का विकृत चेहरा

सीखा रहा है सुबकते बच्चों को गद्दार होना


माँ की देह का पसीना चाटते हुए

दुधमुँहे के मुंह से लार का टपकना

कभी दर्ज नहीं होगा इतिहास में

इधर बुद्ध घोषित हो चुका विध्वंस

रासायनिक हमलों से रोक रहा है

मृत तानाशाहों की अराजकता


दीवार से लटकी मकड़ी

कीड़ों की सरज़मीन पर

खुफिया तरीके से बुन रही है जाले

और छत से चिपकी छिपकली

बगावत तथा व्यवस्था के बीच

चकमा देने का विकल्प तलाश रही है


बारूदी गंध से बौखलायी

दोगली मक्खियों का समूह

शान्ति के इन आदिम प्रयासों के बीच

नवजात की सड़ती लाश पर

कर रही हैं गुप्त सभायें


इस कदर चिलचिलाते माहौल में

पेड़ों की कंदराओं से प्यासे कबूतर

झांक रहे हैं आकाश के गिद्धों को

जिन्होंने तफ्शीश के लिए

वहां छोड़ रखे हैं होशियार तेलचट्टे ।

००
चित्र: अवधेश वाजपेई

बौद्ध मठों के वृक्ष

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वो उसी सरलता से

पैदा हुए

जिस सरलता से

गर्भ में मौजूद थे

ऊंच-नीच के भेद से अछूते

निर्भय निर्द्वन्द !

कोई तृष्णा , कोई आवेश

कोई आवेग नहीं...

अपनी जन्मजात वृतियों के साथ

नयी हवाओं से स्पंदित

नयी किरणों से हुलसित

ठीक उतने ही ऊपर

नीचे जितना गहरे ...

अपने वसंत की प्रतीक्षा में

खड़े बौद्ध मठों के वृक्ष

बुद्ध के पहले से ही बौद्ध थे

समय के शत खण्डों से

अड़िग इन वृक्षों को

एक नयी सुबह ,एक नयी व्यवस्था ने

सतत् प्रयत्नों

तथा अपने अजेय पराक्रम से

गुनाहगार घोषित कर दिया

काट दी गयी

इनकी उपलब्धियाँ

और बना दिया सलीब

प्रत्येक जीसस को टांगने के लिए

आज की उनकी कोपलें

डहकी रहती हैं

उस पुराने अभियोग से

उस अदने फैसले से

जिसके छलावे में

सांस के ज़हर को

रोज-रोज

बेख़ौफ़ पी रही है

सरगुज़श्त मानवता ।

००



सेमल के फूल

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जिस वक़्त तुम लिख रहे थे

मुंह में बंदूक की नली ठोकने को

ठीक उसी वक़्त अपनी हीर की गोद में

 एक अलसाया रांझा गन्ना चूस रहा था


ठीक उसी वक़्त धानी खेत में

लाल फूलों से गदराया सेमल

अपने रोमान में लहरा लहरा कर

अभिव्यक्त कर रहा था अपनी तृप्ति


तुम समझ ही नहीं पाये

तुम बिलकुल नहीं समझ पाये उसकी अभिव्यक्ति

तुम्हारी वृति में सिर्फ लाल रंग समा पाया

तुम महसूस ही नहीं पाये कि

इश्क़ में भी भूख नहीं लगती

जो बात जाननी थी ,

वो भी कहाँ जान पाये तुम ?


प्रीत तो इंकलाब से बहुत बड़ी चीज़ होती है

काश !   परंपरागत बौद्धिकता कह पाती

क्रांति प्रीत से सुलगती है , खून से नहीं ।

००


निज़ार अली बद्र 

दरवाजा

................


बंद गली के

आखिरी मकान तक

अनचीन्हे दरवाजे लगे हैं

जहाँ अंधा मन कई वर्षों से

बुद्ध होने की लालसा में

तरह-तरह से भिक्षाटन करके

जीवनचर्या की पुनरावृति करता है


इसमें अस्वभाविक बात नहीं

कि शांति के खोजी

किसी भी तरह के दरवाजे को

इजोटेरिक ढंग से खोलने में

एक दूसरे से भिड़ते आये हैं


इधर दुनिया भर के

पुस्तकालयों में

संरक्षित प्रेमग्रंथों की सुरक्षा के लिए

फिलॉसफिकल दरवाजे लगे हैं

वहां कोई जिज्ञासा नहीं है

सिर्फ खजुराहो मंदिर जैसी

अज्ञात शांति है


लेकिन किसी भी तरह के

दरवाजा को

खोलने की लालसा से

पूर्णतः मुक्त हो कर

खुद को झकझोरने पर

गिर पड़ते हैं पुराने पत्ते

किसी भी श्मशान पर

कोई दरवाजा नहीं होता !

००



शतरंज का खेल

..................................


सवाल मत पूछो , शोर मत मचाओ

बहाना ढूंढो खामोशी का

अभी अभी सोया है वियतनाम

अभी अभी शंघाई को जम्हाई आयी है

देखो , ऊँघ रहे हैं मार्क्स कौटिल्य के पास

खेल देखो खेल!

शोर मत करो, अंदाजा लगाओ

कौन जीतेगा शतरंज की बाज़ी

लेनिन या गांधी ?

चुप्पी साधे सीखो...

ब्रिज कैसे खेलते हैं क्राइस्ट राम के साथ

बुद्धिजीवियों की तरह

शोर बिलकुल भी नहीं करना है ...

ये कुम्भकरण के जागने का वक़्त है।

००

विनीता कामले

सुनो शोना


सीरीज से चार कवितायें ( जनवरी 2018 में प्रकाशन)


1.

 सुनो शोना !


इधर इस वीरान कोने में

खूब सारे लम्हे जमा कर रक्खे हैं

सब बुलाते हैं तुमको

कि उनका हक है आख़िर तुम पर !


नींद से उलझी हुई आंखों में

घड़ियां बीत रही हैं

पर, हम मिलेंगे ..जरूर मिलेंगे

आखिरी चराग़ के

बुझने से ठीक पहले-पहले ।



2.

तहरीर-ओ-गुफ़्तगू में

हर दफे

बात की खुशबू

मद्धम पड़ जाती है ..

हर दफे

पै -ब-पै ये आलम

आँखों की जलन बनकर

चुपके से नर्म तकिये में

सूख जाते हैं ..

हर दफे

गोश-ए-दिल के

नाक़ाबिले-गिरफ़्त से

निकलकर ज़ख़्मी इश्क़

चाँद में दाग़ ढूंढता है...

हर दफे

मा'हूद इस ख़ुश-फ़हमी को ही

बेरया, बेतगइयुर, जाविदाँ

मोहब्बत कहते हैं क्या शोना ?



3.

उलझे उलझे दिन

वक़्त उलझा उलझा

एक सिरा ढूंढो तो

दूसरा भटक जाता है

ये पेचीदा सफ़र अब तय नहीं होता शोना..


4.

ये जो पोशीदा-से

गिले-शिकवे हैं तेरी निगाहों के

चोट बहुत लगती है इनसे शोना!

जुबाँ से फेंक दो तो चुन कर रख लूँ

बुझती नज़्मों को मुआवजा दे दूँ ।
००



बिजूका ब्लॉग पर रचनाएं भेजिए: bizooka2009@gmail.com
सत्यनारायण पटेल

25 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. बेहद उम्दा, अपने ही अंदाज़ में शानदार भाव्याभिव्यक्ति,👌👌👌

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  2. शानदार कविताये,मन को छूती कविताये
    अमर त्रिपाठी

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  3. कविताओं में विविधता कवि की दृष्टि और व्यवहार का पता दे रही है। एक मात्र विचारधारा की लकीर पीटने के बजाय कवि विभिन्न आयामों से संवाद का मार्ग प्रशस्त कर रहा है। घर-गाँव जैसी सबसे छोटी इकाई से लेकर विश्व पटल तक की सजगता दिखती है।
    सुनो शोना वाली कविताएं, स्वयं में प्रेम का बेहतरीन आख्यान हैं।

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    1. सारी कविताएं बिम्बों और शब्दों के खास प्रयोग से अपने अर्थ को विशेष रूप में प्रस्तुत करती हैं। जो कि कवि की सफलता है।

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  4. हमेशा की तरह सभी खुबसूरत रचनाएं👌👌

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  5. सभी कवितायें बहुत बढ़िया । शोभा सीरीज प्रेम की अभिव्यक्ति

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  6. बेहद उम्दा रचनायें..

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  7. अच्छी, भावपूर्ण कविताएँ

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  8. सभी रचनायें बढ़िया हैं.. सुनो सोना अच्छी हैं पर परिचय में हरामी शब्द के प्रयोग ने असमंजस में डाल दिया कि क्योंकर ऐसे शब्दों का प्रयोग ऐसी शालीन रचनाओं के साथ हुआ । खैर रचनाकार को बधाइयाँ

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  9. कवि के साथ-साथ चित्रकार विनीता कामले, अवधेश वाजपेई और निजार अली बद्र को भी बधाई.

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  10. बेहतरीन रचनाएँ!मेरी पसंदीदा शोना!

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  11. सिद्धार्थ वल्लभ जी की सभी कविताएँ बहुत बहुत उम्दा हैं ,, सीरिया और शतरंज के साथ आदिवासिन बाला आदि सभी कविताएँ बहुत बेहतरीन हैं ,, सुनो शोना सीरीज की सभी कविताएँ मेरी पसंदीदा कविताएँ है ।। कविताओं के साथ कविताओं के कथ्य को सार्थक करते रेखाचित्र बेहद आकर्षक हैं ।। सिद्धार्थ जी के साथ साथ चित्रकार महोदय को भी बहुत बहुत शुभकामनाएं ।।

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  12. बहुत सुंंदर बिंबों से सजी कविताएँ। सुंंदर व आकर्षक चित्रांकन। शुभकामनाएँँ

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  13. राजनीतिक वातावरण और वैश्विक पर्यावरण के सूक्ष्म और आपातकालीन बिन्दुओं को अभिरेखित करती हुई,दिल और दिमाग़ से लिखी गई कविताएं।इन प्रबुद्ध कविताओं पर खूबसूरत चित्रकला ने चार चांद लगा दिये हैं।कलाकारों को साधुवाद और कवि वल्लभ को असीम हार्दिक शुभकामनाएं।

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  14. अपने अनोखे अंदाज में वल्लभ जी की अनोखी रचनाएं... आदिवासिन बाला मुझे बेहद पसंद है। शोना सीरीज के तो क्या कहने अपने आप में एक अनूठा सीरीज... वल्लभ जी को हार्दिक शुभकामनाएं... यूँ ही लिखते रहिए

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