02 नवंबर, 2017


आशीष सिंह की कविताएं:

आशीष सिंह: लखनऊ में रहते हैं । सामाजिक-राजनीति परिवर्तन पर नज़र रखते हैं और कई बार उसमें अपनी भागीदारी भी शिद्दत से दर्ज़ कराते हैं। समय-समय पर सोशल मीडिया पर साफ़ सुथरी राय और स्पष्ट पक्षधरता भी जाहिर करते हैं।
आशीष सिंह
आशीष सिंह की कविताएं वागर्थ और बया में प्रकाशित हुईं है। हमें उनकी कविताएं घनघोर कलात्मक अरण्य में नहीं ले जाती है, बल्कि त्वरित काव्यात्मक प्रतिक्रिया के रूप में भी नज़र आ सकती  हैं। आइए आशीष सिंह की इन्हीं कविताओं से रूबरू हो लें।


       
कविताएं





तुम    सुदंर   हो

बिन   बोले

सुंदरता    के    बारे     में   ,

तुम    खूबसूरत   हो

बिना   खूबसूरत    होने    का

लेबल   चस्पा    किए

तुम     जरुरत    हो

प्रकृति   की

पुरुष   की

आत्मिक  सुख   की।

इतना   एकाकी      होता  है  क्या    सुख

कि   महज   बयां   कर

कुछ    शब्दों   में

हम  मुक्त    हो   जाएं   ।





मेरी     कलम    की   नोक  पर

ठिठके    अक्षरों

बिना    सकुचाये

बिना   झिझके

बोलो  !

ताकि   न  बोलने   से

बोलने   की   आदत

चुप्पी     में   न   बदल   जाए

और    चुप्पी

"सबसे     बड़ा    खतरा    है

जिन्दा    आदमी     के     लिए    ।



चित्र: अवधेश वाजपेई


(३)


आवाज की ताकत

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अंधेरे में

धुप्प अंधेरे में

आवाज़ की ताक़त

ताकत बनकर नहीं

साथी बनकर आती है

तमाम आवाजों में

पहचान में आ ही जाती हैं

अपनों की आवाजें ,

अंधेरे की दुश्मन

आवाजें हैं

रोशनी नहीं !

हर रोशनी

अपनी रोशनी में खो जाती है

हर रोशनी अपनी पीठ पर

अंधेरा बांधे आती है

अंधेरा छुपाये  -छुपाये

हमसे रोशनी की कहानी कहती हैं

इसीलिए दोस्त

अंधेरे की वजह समझो

वह घनघोर उजाला बनकर भी

हम पे छा सकती है


अंधेरे की दोस्त है रोशनी

हम सफर है रोशनी

अंधेरे की सच्ची दुश्मनें  तो

आवाजें  हैं

आवाजें महज ध्वनियां  नहीं हैं

शक्ल -सूरत लिए

आती है अंधेरे में

आवाजें

अपनी पहचान बताये बगैर

आहिस्ता -आहिस्ता

बावजूद तमाम चुप्पी के

और

हम पहचान लेते हैं

आहटों  की हरकत

आवाजों  की मंशायें

'जो नहीं देती दिखाई '

  फिर भी  दिखती है

पहचानती  है

आवाजें ,  आवाजों को

आवाजों को हम

अंधेरे में ही जान पाते हैं अधिकतर

बाकी समयों में कम

आवाज की ताक़त अकेले होने में

अंधेरे में होने में

पता चलती है

एक आवाज़

सत्ता को डगमगाती सी है

एक आवाज़ हमारे

अन्दर के अन्धेरे को

चीरते हुए आगे ले आती है

हमारे लोगों को

आवाज़ कभी अकेला नहीं करती

भले अकेले से आरही हो

रोशनी अक्सर अकेला कर देती है

भले वह अकेले न लग रही हो

इसीलिए रोशनी नहीं

आवाज़

सच्ची दुश्मन है

धुप्प अंधेरे की ।
००



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'अब वे '


बहुत साल से वे किताबों के साथ थे ,

बहुत साल से वे किताबों के बीच रहे

बहुत साल से वे किताबों के दबाव में थे

बहुत साल से वे किताबों के लिये रहे

बहुत साल से वे किताबों  में आने के लिए थे

बहुत साल वे   किताबों को लिए   रहे

अब वे महज किताबों मे हैं

अब उनके पास महज किताबें  ही हैं

अब वे खुद एक किताब ही हैं

अब उन तक महज किताब की ही पहुंच है

अब उनकी खुशी   महज किताबी   खुशी है

अब वे हैं

अब वे हैं नहीं

अब वे किताब है्

अब वे किताब भी  नहीं हैं

वे  हैं

वे   नहीं हैं

वे इस किताब में नहीं  हैं

वे कहीं आपके पास तो नहीं हैं  !!
००


    5


लौटना

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लौटने पर

आप वहीं नहीं पहुंचते

जहाँ लौट रहे होते

लौटने पर

आप वही नहीं होते

जो हो चुके होते हैं

मेरे दोस्त ने कहा

ये भी  कोई लौटना है

जब आपकी आत्मा

दाग धब्बे रहित हो

इतना साफ लौटना

भी  कोई लौटना है

लौटने पर

छिल जाते हैं

रिश्ते हैं

टूट ही  जाते हैं

सतही भरोसे

यह जानकर

लौटना होगा

एक बार

नये भरोसे

नयी चाहत से लैस होकर

पिलपिली चाहतों की गठरी

फेंककर

लौटते हैं जैसे

पर्वतारोही

एक बार भेंटने के लिये

हवाओं से

बादलों से

उम्मीद भरी आशंकाओं को

सचमुच समझने के लिये

क्या लौटना

हर बार

महज लौटना होता है !

नहीं  ।

हूबहू और साबुत

नहीं लौटती हैं चीजें

कभी  भी

जैसे लौटती पत्ती

हवा

पानी

जैसे

तुम ।


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एक दोस्त की कविता  पढ़ते हुये
००

चित्र: अवधेश वाजपेई



    6


कुछ लेखक जो दुखी हैं


कुछ लेखक दुनिया के दुख से  दुखी रहते हैं

दुख का वर्णन करते हैं

कुछ लेखक अपने आप से दुखी रहते हैं

दुख का वर्णन करते हैं

कुछ लेखक दुख की कहानी बताते बताते

दुनिया को दुखी करते हैं

कुछ लेखक दुख को इतना गहरा गहते हैं

दुख  दुख नहीं वर्णन बन जाता है


कुछ लेखक न दुखी होते हैं न सुखी होते हैं

वे लेखक होते हैं जिनका विषय दुख होता है

कुछ लेखक अपने और पराये दुखों को छूते हैं

दुखों के कारणों की तलाश में खपते हैं

जिधर

दुख के कल्ले फूटते हैं

नये सपने सांस लेते  हैं
००

       7


अच्छे  लोग  -- बुरे लोग


अच्छी बातों का बेइन्तिहा दुहराव

हर बार ताकत दे

जरूरी नहीं

अच्छी बातें अच्छे लोगों की छाया है

जिन्हें चटख धूप

हंसती खिलखिलाती नजर आती है

हंसती खिलखिलाती आँखे

क्या कहतीं हैं

वे कहते नहीं  , बताते हैं घूमघूमकर
००
   



अच्छी बातों के सौदागर

किताब और कहानी के पात्रों पर

घंटो बहस कर सकते  हैं

दुनिया बदल देने की हद तक

 अच्छे लोग हमेशा

अच्छे लोगों के साथ रहते हैं

अच्छे लोग हमेशा

अच्छी बातों का प्रचार करते हैं

अच्छी नौकरी अच्छे अच्छे लोगों  के साथ उठना  बैठना

बुरी जगहों पर जाने से

परहेज़ करते हैं अच्छे लोग

हाँ बुरी जगहे महज उनकी अच्छी बातों को और अच्छा साबित करने में काम आती है
००

     स

बुरे लोग

अच्छे लोगों की आलीशान बातचीत

के बाहर के बाशिन्दे  होते हैं

उन्हें अच्छा बनाये रखने में लगे रहते हैं

अच्छे लोगों की अच्छी दुनिया

बड़ी छोटी औ सिकुड़ी दुनिया  है

इस दुनिया में बुरे लोगों का

आना जाना मना  है

महज कुछ एक बुरे लोग

अच्छा दिखने के लिए

अच्छे लोगों तक पहुंच बनाने में भिड़े रहते हैं

ऊबन से बचने के लिये अच्छी दुनिया के

कुछ   अच्छे लोग

बुरे लोगों पर कहानी लिखते हैं

कविता लिखते हैं

लिखते लिखते

अच्छे लोग और अच्छे बन जाते हैं

बुरे लोग और बुरे होते जाते हैं

उनके बुरे दिन में अच्छे दिन

महज नारों में आते हैं

सपनों में आते हैं

बुरे लोग अच्छे लोगों को

कभी पसन्द नहीं करते

जैसे कि अच्छे लोग कभी भी  बुरे लोगों को पसन्द नहीं करते

क्या आप किसी को  पसन्द कर पाते   हैं ?
००

चित्र: अवधेश वाजपेई

        8


तारीफ़ का इक लफ्ज न निकला

जमाने को देख के

तवारीख में डूबे न  डूबे

इस जमाने का क्या करें


तबियत उधर गई नहीं

न निगाहें उठी उधर

जमाने ने जिसकी वाह की

तबियत से डूब के


होता रहा  जश्न ओ शोहरत

जिस कदर

दिल ही नहीं  लगा कभी

ऐसी महफिल में डूब के


खुद को समझा न खुदा समझा

पीर समझेगा  न कोई

जानकर सुबह ओ रात कठिन

देखा जरुर हमने खुद करीब से
००

      9


बनी रहे मूंछों की शान

पूंछियां प  हाथ

फेरावत देखौ

बोल पडे हिंदी -जजमान "


इत्थे जाऊं उत्थे जाऊं

नजर आऊं कि  नाहिन  आऊं

मानत नाहीं  अबिहूं  द्याखौ

हिंदी    देवी के  हमहीं है
   
उन्हुस बढ़कै कदरदान


खांऊ हिंदी बिछाऊं हिंदी

पीपी कर कर गाऊं हिंदी

बाबू लोगन की नजरन मा

मिला नहीं तबहूं सम्मान

अंग्रेज़ी दा   साहिब खातिर

कुरसिप बैठि तेवारी खातिर

अकादमी की दीदी खातिर

खींस निपोरे द्याख्खा कीन

तबौ मिला हमका अपमान


हिंदी दिवस और हिंदी लेखकों की दयनीयता

इधर जाऊं कि उधर जाऊं
००

   
     10

बापू की बकरी

कब चुराओगे बाबू

चश्मा चुराया

चरखा चुराया

चेहरा चुराया


बापू की घड़ी

कब चुराओगे बाबू


कैलेंडर में आये

डायरी  में आये

झाड़ू संग

फोटू खिंचवाये


बापू की सादगी

कब चुराओगे बाबू


त्रिशूल  से प्यार

गोडसे का दुलार

गोलवरकर दमदार


बापू की अहिंसा

कब चुराओगे बाबू
००


चित्र: अवधेश वाजपेई


11


(अ)


कुछ साहित्यिक मोर्चे

पर छाये हुए थे

कुछ  साहित्यिक  मोर्चे से

आये हुये थे

कुछ साहित्यिक

मोरचाये हुये थे

हिंदी के भविष्य

के दमदार पहरुए

साहित्यिक  जीवों को

ललकारने में लगे

जल्दी आओ

जल्दी पाओ

इसी मोर्चे में

नाम लिखाओ
००

     (  ब )


कविता पुरस्कृत होती है

तो कवि कटघरे में

खड़ा मिलता है

ढेर सारे

कवि -अकवि

कविता पर नहीं

कवि पर

कवि के पर पर

अपनी आहें -कराहें

लादते नजर आ जाते हैं

जब वे कवि पर

कवि के पर पर

रख रहे थे बांट

धीरे से बोल भी  रहे थे

हमका मिली न का !

हमको मिल्यो

न मिल्यो तो का !
००    

(स)


'सचमुच बड़ा

कठिन समय है '

एक कवि ने

दूसरे कवि से कहा

'ग ' ने  पूछा

सचमुच !

और वे  दोनों

चुप हो गये

मानो सुना ही नहीं ।
००



     
संपर्क: आशीष सिंह
 E-2 / 653 सेक्टर-F
जानकी पुरम लखनऊ--
   mo  -08739015727

1 टिप्पणी:

  1. बहुत अच्छी कविताएं अब वे ,लौटना, कुछ लिखक जो दुखी हैं बहुत बढ़िया कविताएं हैं।

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