06 नवंबर, 2017

प्रिया श्रीवास्तव ' गुलमोहर' की कविताएं

काशी में जन्मी युवा कवियत्री प्रिया श्रीवास्तव ' गुलमोहर ' कविता के हल्के में नया नाम है। आप समझती है कि कविता जीवन की सुन्दरता को महसूस करने और जीवन को सुन्दर बनाने का सशक्त माध्यम है....। धीरे-धीरे संवेदहीन होते समाज में कविता ही भाव-संवेदना का संचार करती है ।
प्रिया श्रीवास्तव ' गुलमोहर '
आपकी कविताएं व्यक्तिक फिलिंग और अनुभव से प्रस्फुटित होती है। आपकी कविताओं में तुक-लय सहज बहाव है। प्रिया की कविताओं को अभी सामूहिक चेतना और राजनीति धार हासिल करनी है। जीवन की विडम्बना ओं और विद्रुपता के खुरदुरेपन को कविताओं में घुलना बाक़ी है। प्रिया की कविताओं में स्वाभाविक गति है । बहाव है। ताज़गी और सातत्य है। उनका निरंतर  अभ्यास, अध्ययन एक मजबूत और ख़ूबसूरत काव्य दृष्टि का निर्माण करेगा। इसी उम्मीद व भरोसे के साथ हम उनकी कविताएं साझा कर रहे हैं। आप भी ओस की बूंद सी इन कविताओं से रूबरू होइए।


कविताएं


एक

नेपथ्य.......!
महत्वहीन नहीं.....।
महत्वपूर्ण है
बात नाटक के मंचन की हो
या की जीवन के अभिनय की
नेपथ्य की भूमिका
महत्वपूर्ण है....!
 जीवन मंच पर
सुनहरे प्रकाश संयोजन में
अपनी कला को
व्याख्यायित करते पात्र
साधुवाद और
तालियाँ बटोरते पात्र....!
मंच के पार्श्व में से
झांकता होगा
नेपथ्य
फिर खड़ा होगा कोई
जहाँ न लाईटें होंगी
न तालियाँ.....बस
अन्धकार की सौ घड़ियों का
गुम्फन होगा....!
अन्धकार से किन्तु तुम्हें
पहुँचा जायेगा
उजास की दुनियाँ में
नेपथ्य तुम्हारा.....।
सुनो....तुम अभिनेता हो
अभिनय अपना
सहज निभाओ....!!
नेपथ्य के कन्धों पर
रखकर सर अपना
तुम रो चुके हो....
अब मुस्कुराओ.....!
दुनिया की ज़्यादातर भीड़
तुम जैसे स्वार्थी मानवों से है....!!

००

दो

      सुनो.....!!

ये फिरोज़ी रँग
तुमपर खूब फबता है
जानती हूँ तुम्हें
तुम्हारे मन को
धुले-धुले आसमानों सा साफ़
जैसे अभी-अभी
बरस गए हों सारे बादल
और नीला आसमाँ
बेदाग़ सा.....।
चाहती हूँ मैं
कभी सूरज की बिन्दी लगा के
तुम्हारे नीले विस्तार पर
सज जाना.....और
कभी चाँद का झूमर
पहनकर.....दबे पाँवों से
तुम्हारे स्वप्न में आना...तुम्हारे
नीलाभ मुखड़े पर
ये जो ख़्वाबों सी
गहरी आँखें हैं तुम्हारी....
उसमें तुमने राज़ कितने
हैं छुपाये....!
जानती हूँ.....
मैं तुम्हें
शायद स्वयं से भी अधिक
तुम कहो न......?
क्यूँ नहीं स्वीकारते
कि.... हाँ
मैं ही वो
अरुणिम सवेरा
जो तुम्हारे इस सहज
विस्तृत गगन से
नील-मन पर
छा रहा....!
कहो.....?
क्या से सच नहीं...!
नीलाभ मेरे.....।।
००
 

अवधेश वाजपेई

तीन

मैं तुम्हे स्वांश-स्वांश जीना चाहती हूँ
अपनी कलम से
मैं चाहती हूँ तुम्हें
व्यक्त करना भाव-भाव
अपने शब्दों से
मैं करना चाहती हूँ
श्रृंगार तुम्हारा
अपनी कविता के रसों से
मैं चाहती हूँ
नित नया उपमान
तुम्हारे लिए स्नेहिल
अपनी भावना से
मैं तुम्हारे नाम का
नया एक छन्द
निर्मित करना चाहती हूँ
कि जिस छन्द में मैं
लिखूँ कविता
विरह और संयोग की..।
अस्तु की तुम हो गए हो
विरह और संयोग के
इन मानदण्डों से
कहीं ऊपर और अलग भी
और अपना नेह भी
है आत्मिक
किन्तु हैं फिर भी
मनुज संतान ही हम....!
इसलिए ही भावना का ज्वार
कुछ क्षण के लिए
मुझको बहा ले जाता है
इस कर्तव्य के सँसार के
उस पार......!
सुनो......!
तुम भी कभी विश्राम दो
अपनी संकल्प शिलाओं को
स्वप्न में ही
सँग मेरे.....करो पार
जीवन वैतरणी....।।
००

चार

मैं जाल नहीं बुनती
शब्दों का
मैं ताना-बाना बुनती हूँ
मुझे तुम्हारे गहरे मन के सागर में
तुम्हारे अनगिनत भावों की मछलियाँ
पकड़नी भी नहीं है.....।
मैं रेशम बुनती हूँ
जो तुम्हारी संवेदना को
कर सके स्पर्श
मुलायमियत से....
क्यूँकि कठोर तो हैं ही
चट्टानें यथार्थ की
मैं इसलिए बुनती हूँ
रेशम के ख़्वाब अक़्सर
ताकि.....नींदों में तुम्हारी
पुरसुकुं मुस्कान देख सकूँ.....!
सच कड़वा होता है
सुना होगा न....!
लेकिन मैं सच को ढंकने वाला पर्दा
नहीं बुनती हूँ
अपने ताने-बाने में
मैं ज़िन्दगी की धूप में
खुद को बचाकर
चलने के लिए
छाँव बुनती हूँ......!
मैं मार्ग प्रशस्त करती हूँ तुम्हारा
मैं राह में बिखरी उलझनों के धागे
सुलझती हूँ......और
तुम्हारे लिए
बुनती हूँ.....एक दुशाला
रंगती हूँ नेह के रँग में उसको....
देखो वो उलझनों की सुलझाव वाला दुशाला
तुम्हें देगा गर्माहट...
सर्द ठिठुरती रातों में....
सुभग मेरे....।।
००

     पांच
                                        
रात्रि का तृतीय प्रहर है                      
एक सन्नाटा है....
जागरण से पूर्व का
भौतिकता तन्द्रा में है
आध्यात्म चिर जागरण
के स्वर सजाता है...सृजन
निद्रा से परे है.....हर
सन्नाटे में भी उसी की
गूँज है.....।
आत्मा का मौन
मुखर है....भोर
की पद्धवनि का सँगीत
प्राची दिशा से फूटता है
दिवस के नील श्यामल
मुख पर कुंकुम का तिलक होगा
घड़ी निकट आ गई है....
ब्रह्म -मुहूर्त की...।
आचमन कर प्रकृति का
सूर्य सागर से निकलता है...
वह उसी का अंश है.....
चिर काल से....
अनंत तक......।
ऐसा ही सुखद है
तुम्हारा विचार.....मेरे सुभग
इसी पवित्र प्रभात सा ....कि
जिन विचारों में डूबकर
आत्मा मेरी......
हो जाती है विमल...और
देर तक गूँजते हैं स्वर
मन्दिरों की घण्टियों से ही
 मेरे हृदय में.....जब भी
विचार आता है
तुम्हारे नाम का
सुनो स्नेहिल.....!!!
००

अवधेश वाजपेई


छः

धुले आसमान पर        
चाँद की आभा
भीनी भीनी खुशबू
में लिपटी ..और
सर्द तासीर वाली
हवा की नरमी
हजारों जुगनुओं से
रौशन ख़्वाब में
डूबी आँखें...सन्नाटे
की शागिर्दी करती
सपाट सड़कें
दूर तक घोर नीरवता
की चूनर ओढ़े
धरती....और
एक फूस के घरौंदे में
जलता...आश का दीपक...!
कितना ठहराव है
पूरे वातावरण में
लेकिन...इसी ठहराव में
ध्वनि की गति से भी
तीव्र.......तुम्हारी
स्मृति का आना
और....मन के किवाड़
पर दस्तक दे जाना....
प्रतीक है कि ......शोर
ख़ामोशियों का है
ज़्यादा सबसे
गहन निर्लिप्ति में ही
आत्मा है मुखर.......।
रिश्ते संवाद् के
सूत्र से बँधे हों...ये
जरुरी तो नहीं....!
कहो न....!!!!
कितने बरस बीते
एक-दूसरे की
आवाज सुने हुवे....?
आखिरी बार..
तुम्हारी आँखों का पानी
आत्मा में घुल गया था......और
आज भी उसी से
सींचती हूँ....पौधा
अपनी संवेदनाओं का....।
सुनो.......तुमने
क्यूँ नहीं सोचा....कि
संवेदनाएँ मरती नहीं....!!!
 ००

सात


देखो......एक मुस्कान का
तुम्हारे चेहरे पर खिलना.....और
फिर बिखर जाना
फूलों में.....फिर
फूलों का खिलना....महकना
और अंततः मुरझा कर
मिल जाना मिट्टी में
हर पंखुरी का....!
और फिर मिट्टी हो जाना....।
फिर एक बीज नेह का
बोना.....और उसे
अंकुरित होते देखना....
पहली कोपल...और
पहली कली का आना
तुम्हारा.......मुस्कुराना
और झर-झर जाना
मुस्कानों का....!
दुलराना कलियों का
तुमसे.....और
फूल बन खिल जाना....।
यूँ ही चक्र समय का
भी चलता जाता है
सहज गति से......क्रमागत
मिलना......रुकना
फिर चल देना.....!
जीवन को ये गति देते हैं....
अगर शेष कुछ रह जाता है
वो है कर्म हमारे.....
फूलों की ख़ुशबू के सम ही
वो हैं धर्म हमारे....।
जैसे पंखुरियाँ झरी
खुशबू कहाँ झरती है
माटी में कहाँ मिलती है..
वो तो हवा में लेगी
अपना विस्तार......
रहेगी प्राणवायु सी
साँसों में लेगी स्पन्दन...और
नए फूलों को देगी
नित मुस्काने वाले मौसम.....।
कहो स्नेहिल......सच कहा न...!!
००

अवधेश वाजपेई


आठ


ख़ामोशी से गुज़र जाता है
अक्सर....
बहुत कुछ
खबर नहीं होती
मेरी हसरतें
तुम्हारी चाहतें
हमारी मजबूरियाँ भी
सब ख़ामोशी से
गुजर जाते हैं...।
एक पूरा दिन भी
ढल जाता है
ख़ामोशी से
दबे पावँ आने वाली साँझ भी
रात का चादर ओढ़े
पौ फटने से पहले ही
गुजर जाती है....।
हम भागते हैं
फुर्सतों के लिए
बेसाख़्ता
हासिल फुर्सतों को
खर्च कर...
मोहलत नहीं मिलती
जमीं पर ताकने की
और .....
गुजरते वक़्त के
पावों के निशाँ
मिट जाते हैं
गर्द और आँधियों के नीचे....!
हम साँस खर्च करके भी
नहीं खरीद पाते
पुरसुकुं लम्हे
ज़िन्दगी के !
खर्च बढ़ता जाता है
आमद के मुक़ाबले
ज़िन्दगी होती ही है....
पैदाईशी...
मसरूफ़ियत.....।।
००

नौ

                                 
अब आ
 जाओ.....                                
कुछ तो मेरे हिस्से का भी है
तुम्हारे जीवन में....?
ये इतनी बातें मन की जो
भरती जाती हैं
पन्ने मेरी डायरी के...
आओ तुम्हें बताऊँ
जताऊं तुमको कि मेरा इश्क़
हो तुम.......और
उस शिद्दतन किये गए
इश्क़ की........
वसीयत तुम....!
हाँ सच ही.....जिसे
मैं सिर्फ़ अपने नाम करुँगी
और ले जाऊंगी
सँग ही अपने.....
मरण के बाद भी...।
भूल गए.....??
सम्बन्ध.....आत्मिक हो,तो
निरन्तरता...
रहती है उसमें
सृष्टि सी ही....।
अब कहो मुझसे सहज  ही
 तुम व्यथाएँ व्यस्तता की
हैं तुम्हारी उलझनें अपनी
और कुछ मजबूरियाँ होंगी...!
इसलिये ......मैंने गुना है मौन
अपनी आत्मा में निरंतर....
किन्तु.......वो क्षण भी कभी
आते हैं जीवन में..कि जब
एक स्वर आये कहीँ
भीषण अँधेरे में.....तुम्हारा
और मैं उससे करूँ रौशन
प्रणय-पथ जो हमारा....।
सच ही........मैंने
ओढ़ ली है एक चादर
मौन के रँग में रंगी.....!
किन्तु स्नेहिल.....हूँ
मनुज ही......और
हृदय में ले रहा
सागर हिलोरें
भावना का......चाहता है जो
कभी चादर हटाकर मौन की
ओढ़ना.......चुनर तुम्हारे
सतरँगी स्नेह की.....।।
००

दस

तुम्हारी मैं.......इन दरख़्तों सी !
ख़ामोशी से..इंतज़ार में खड़ी
शान्त स्थिर
बरसों तुम्हारे इंतज़ार में
रास्ता तकते....
बदलने वाले मौसम में भी
अविचल खड़ी.....
उम्मीद का स्वर्ण सारा
आस की तिजोरी में बन्द किये...।
मेरे तुम......दिनकर से
अभी-अभी आये से
सदियों बाद....
(हर रात युगों सी गुजरती है...तुम बिन)
लेकिन मुझे तुम्हारी शामों का इंतज़ार है
रातों की अभिलाषा नहीं..
प्रेम को मत देखना तुम कभी ,
घिसे-पिटे चश्में से...।
सुनो....सूर्य से तुम,
सम्बन्ध है ये आत्मिक
इसे जीने के लिए.....नहीं आवश्यक
कोई भी बाह्य आकर्षण...।
तुम्हें भान भी नहीं होता....कि
कब तुम्हारी ऊष्मा
सूर्य सी....मेरे कोमल मन के
हरित  पत्रों को....रंग जाती है
स्वर्ण रंग में....और देखो
स्नेह की आँच में
मुझमें आ गयी है
स्वर्ण सी शुद्धता...और
स्वर्ण सा तेज....।
सुनो.... कनु !!
सूर्य सा है तुम्हारा नेह....।।

००

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सत्यनारायण पटेल

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