07 नवंबर, 2017

अनामिका सिंह की कविताएं

अनामिका सिंह भागलपुर में रहती है। आप एक प्रखर व ओजपूर्ण कवियत्री हैं। सहज भाव  से उत्पन्न भावों को शब्दों के मोती में पिरोकर सुन्दर रचनाओं की माला रचती हैं। 
अनामिका सिंह
आप प्रकृति प्रेमी हैं और आपकी कविताओं में प्रेम प्रमुखता से प्रकट होता है। आप सुरेले कंठ की मलिका भी हैं।  आपने आकाशवाणी से कई बार गायन पाठ भी किया है ।



कविताएं


तहें

कई रिश्ते ऐसे सौंपती है ,ज़िन्दगी हमे
यू कहो कि उन रिश्तों का टिक पाना
या निभ सकना इतना सहज नहीं होता
यथार्थ की धरातल पर !! 

परत दर परत जब खुलते हैं
वक़्त की सहत पर
पहचान की तहें ... 
कुछ जाने समझे से... 
कुछ बिल्कुल अपहचाने से !!

मैं नेत्र बंद कर लेती हूँ 
त्यागने के लिए कुछ संकेतों को 
ताकि हेल जाऊँ
ज़िन्दगी के बिछाए , दलदली दरिया को 

कि मात दे सकूँ ज़िन्दगी को 
भँवर में घेरने की उसकी साजिश में  !!
००


कविता

कविता लिखना चाहती हूँ 
अमृता
तुम पर नहीं 
इमरोज़ की मुहब्बत पर

कोइ किस कदर प्रेम में होगा
कितना लीन रहा होगा अपनी मुहब्बत में
कि अपनी पीठ पर 
तुम्हारी उँगलियों के दंश को सहा होगा

प्रेम पीड़ा का पर्याय है
प्रेम ऐसा, कि एक ही साँस में
समंदर के खारे जल को पी जाना
जिह्वा को होंठों पर ऐसे फेरना 
कि मधुर सुधा का पान किया हो

प्रेम दोपहर में पान की पत्तियों को चबाने जैसा 
कुछ पत्तियाँ बेहद कड़वी होती हैं 
परन्तु सारी कड़वाहट 
होंठों पर लाली में घुलकर 
मुस्कुराहट बिखेर देती हैं 

प्रेम में पड़ा इंसान खुद के प्रति क्रूरता की चरम पर होता है 
शरीर  ... मन .... आत्मा कैसे भी आघात झेलने की ताकत में आ जाते हैं 
दर्द की चुभन
मीठी मालूम होती है 

शायद तभी प्रेमिल इमरोज ने
तुम्हारी उँगलियों के स्पर्श की चाह में
अपनी पीठ को लहूलुहान कराया होगा !!
००

अवधेश वाजपेई

 बेलिबास आत्माएँ 

रात्रि का अन्तिम पहर रहा होगा 
जब मेरे अवचेतन में आत्माएँ नृत्य की मुद्रा में दिखाई दे रही थीं
ये बेलिबास अात्माएँ ( शरीर के बिना ) जिन्दगी की थाप पर नृत्य करती दिख रहीं थीं
ये इतनी पारदर्शी हैं  कि हवा को इनसे होकर गुजरते देखा जा सकता है 

वहीं किसी खूँटी पर कई जिस़्म टँगे हैं 
जिसे इन आत्माओं ने उतार कर टाँग दिया था
जैसे शरीर की कैद में ये छटपटा रही हों अब तक
कितनी खूबसूरत दिख रही है ये ज़िस्म के बगैर
 
इनकी खूबसूरती मूँदें पलकों से नजर आती है 
आँख खुलते ही गहरा धुँध छा जाता है 
दर्शन पर जैसे धूल जमी हो
घने कोहरे में समाती चली जाती हैं ये तब

यह हैं साफ सुथरी 
दाग धब्बों से रहित
बेदाग...  उजली 
शरीर का आवरण चढ़ते ही मैली दिखाई पड़ती हैं 
ये ईश्वर के अस्तित्व का एहसास कराती है 
इन्हें ही आपने आने का उद्देश्य पता होता है 

इनका स्पर्श पाया था मैंने
उस सर्द रात को जब ठंड से ठिठुते बूढ़े व्यक्ति को अपनी दुसाला उढ़ाई थी
पहली बार अनुभव कर पायी थी इनकी गरमाहट को 

ज़िस्म के सारे उत्सव इनके साथ होने तक
इनसे बिछड़ते ही ज़िस्म नश्वर 
निरर्थक ... 

आत्मा ही आयोजित करती हैं शरीर के सारे प्रयोजन !!
००


हँसी


निश्चल स्त्री 
हँसी आते ही फक् से हँस पड़ती हैं 
कोई हँसी सूँघता है
कोई हँसी चुनता है
हँसी के आयाम तलाशता है 
हँसी के मायने निकालता है

हँसने का भी सलीका होता है 
हँसी का वजन होता है 
हँसी भारी हल्का होता है
कितना हँसना
कैसे हँसना
नाप तौलकर हँसना
इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना
ये गूढ मन कहाँ सीख पाता है 

उन लम्हों में 
वो सदियाँ गुज़ार देती है 
ज़िन्दगी की पतवार थामे 
दर्द की वैतरणी पार करती हैं 
सारा दर्द वाष्पित हो
बादल में घुल जाता है 
हँसते हँसते आँखों में पानी आ जाता है 
दर्द बहकर नमक के टीले सा जम जाता है !!
००

गूगल


महावर 

जीवन का हर लम्हा कविता कह जाता है
मुझे दिखती है कविता स्त्री के महावर रचे पाँव
पर

कविता रचना खाली समय का उपयोग नहीं
उसी तरह पाँव पर महावर लगाना  

महावर रचती स्त्रियाँ  
देह की सारी थकान उतार
ज़िन्दगी की सारी मुश्किलों को स्थगित कर
अपनी अल्पनाओं में
कल्पनाओं को रचती
बड़ी तल्लीनता से
पाँव पर मन की सारी सुन्दरता उढेल देती हैं

स्त्री के महावर रचे पाँव 
जीवन को रंगों से भरता
देहरी को रौशन करता है  !!
००

प्रेमी

तुम अतिवादी हो सकते हो
तभी प्रेमी ठहराए जा सकते 
बोलो क्या तुममें है क़ुव्वत  खुद को बेकाबू तरीके से नचाने की
इस कदर नचाने की
कि दिमाग अपनी दखलअंदाजी बन्द कर दे

प्रेम के नाम पर परोसे गए रिश्तों के आडम्बर
ये सामाजिक क्रीड़ाएँ
जरूरत और इच्छाओं का आदान प्रदान 
ये सारे लेन देन 
सब मिथ्या है 

वेदना चरम पर हुआ करती है जब
अकाशगंगाओं को उदासी उगलते देखती हूँ
प्रेम आत्माओं की उच्च स्वर के विलाप को सुनती हूँ
लेशमात्र भी सहानुभूति नहीं उगा पाती ऐसे पाखंड या ढ़ोग के प्रति

परकटी पंछी की छटपटाहट 
कि समेट लेना चाहता हो समूचा आकाश अपने परों में
इस विवशता को केवल वो जान सकता है
जिसने जुनून की सारी सीमाएँ लाँघी हो कभी 

व्योम पर पसरे बादलों की बस्ती से 
एक अगल बस्ती चुनते देखी 
सुन्दर सी कोई नज़्म बुनते देखी 
अपनी आत्मा के सारे आवरण उतारकर 
नग्न मिलते देखी हूँ
एक बेसुध दीवाने को

याचक प्रेमी नहीं हो सकता
प्रेम याचना से पोषित नहीं होता है

शांति और संयम से नौका खेया जाता है 
परम प्रकृति तक तीव्र भाव से ही  पहुँचना सम्भव !!
००
गूगल

तुझसे दूर कहाँ मैं जाऊँ 

तुझसे दूर कहाँ मैं जाऊँ 
खुद में तुझको मैं पाऊँ
रोम रोम समाहित तू मुझमें
तैरे तेरा रंग अंतस में

तेरा मानस मधुशाला 
अधर तेरा विचुंबित प्याला
साकी मेरे दो नैन तुम्हारे
तेरा विस्मय मधुमय हाला

मैं विस्तृत तू है अनंत
तुझमें मेरी सीमा का अंत
दमक उठे तारक छवि तेरी
जब जब मूँदू पलकें मेरी

प्रेयसी मैं तुम प्रियतम प्यारे
रात्रि और विहान तुम मेरे
तम में बनकर दीप जलूँ मैं
डगर काँटों भरी संग चलूँ मैं 

तुझसे दूर कहाँ मैं जाऊँ 
खुद में तुझको मैं पाऊँ  !!
००


सफ़र

ध्वनि माध्यम है भाव का
भाषा एक संकेत मात्र है
उन रहस्यों का

प्रार्थना सर्वदा पवित्र 
प्रेम का घुलना दुआओं में 
प्रेम हो जाना ही तो है 

निर्वाण के पथ पर
शून्य की यात्रा 
खुद को स्पर्श करने का क्षण

क्षण क्षण खुद में विलीन होने की पराकाष्ठा
यहीं पूरी होती है जीवन यात्रा
स्वयं से स्व का सफर  !!
००

गूगल


स्मृति

स्मृति से बेदखल कर दिया मैंने
उन सारे उगते ख़्यालों को
जो तेज कदमों से टहला करते थे
मन के किसीे गलियारे में तन्हाई की उँगली थामें

तन्हाई की पकड़ बहुत मजबूत हुआ करती है 
उसके खुरदुरे हाथ
निशान छोड़ जाया करते हैं
शाम की कोमल पीठ पर

कुछ निशान बड़े जिद्दी होते हैं 
त्याग नहीं पाते अपनी ऐतिहासिक घटनाओं को
हांलाकि जो घटनाएँ मिट चुकी हैं वर्तमान की धरातल से
जैसे बुझी सिगरेट की ऐश ट्रे में पड़ी हुई राख

अतीत की पकड़ से खुद को जुदा करना कभी आसान नहीं होता
लाख कोशिशों के बाबजूद भी
अतीत की सीलन मन की दीवारों को हमेशा नम रखा करती है 

ठीक उसी तरह जैसे किसी पुराने खण्डहर की दीवारों में दफ़न 
कितने ही सदियों की आहटें
सुनायी पड़ती हैं 
खामोशी से सरकती हुई 

प्रेम से निष्कासित हुए प्रेमी की पीठ पर उभरे नाखूनों की निशां में कैद
सिसकती  हुई रति की व्याकुलता को सहज ही समझा जा सकता है  !!!
००

तुम आ जाओ एक बार
चाहे साथ तेरा एकाकिनी बरसात 

पथ पखारे अश्रु  धार
विरह गाए मेघ मल्हार 
मुस्कुरा उठे आर्द्र नयन
धुल जाए पीड़ा ये खार

जीवन में छा जाए बसंत
कौतुक करता बसंत विहार
निखर उठे दिशा मनोहर
महक उठे मंजर झर झर

आहट तेरी गूँजे कण कण में
सिहरी धीमी स्पंदन में
तन के लघु कंपन में
इंद्रधनुष रंग जाए आकाश 

चहक उठे ये रूसा मन
प्रेमी को कर आलिंगन 
परिधि बन घेरे तुझे बाँहें
कसमसा उठे मन के तार

तुम आ जाओ एकबार
चाहे साथ तेरा एकाकिनी बरसात  !!
००




बिजूका के लिए रचनाएं भेजिए: 
सत्यनारायण पटेल

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