13 दिसंबर, 2017

पड़ताल: ओम नागर की कविताएं

मीना पाण्डेय

रचनाकार का परिवेश,भिन्न जीवन दृष्टि, अनुभव जगत व काल प्रवृत्तियाँ रचनाकार को समृद्ध करती हैं।सपाट भाषा में कविता आन्तरिक व वाह्य जगत की निरन्तर खोज है।सबसे ज्यादा मिलते -जुलते आदमी की खोज।ऐसे में ओम नागर जैसे रचनाकार जब इस खोज में निकलते हैं तब अपने गाँव के खेत की मेड़ पर बुझी आँखें लिए बैठे हर खेतीहार में पाठक को  जमनालाल दिखाई पड़ता है। उन्हें पढ़ते हुए गीली मिट्टी,पसीने व आँसुओं के खारेपन की मिलीजुली महक नथुनों में प्रवेश कर जाती है। हां,ताजे गुड़ की मिठास नदारद है मगर वो मिठास अब बची कहाँ है गांवों में।जमीन की छीना झपटी है,विस्थापन के गहरे बादल हैं,भूख से दम तोड़ते बच्चे हैं और आत्महत्या को विवश अन्नदाता।उन सबके दुख को कवि अपना दुख बनालेता है और जमनालाल के बहाने खेतीहार जीवन की विभीषिका व उनके मटमैले कैनवास पर मंडराते अधिग्रहण के काले बादल व  धुंधले भविष्य पर वाजिफ प्रश्नचिन्ह लगाता नजर आया है।
 'और न जाने कितने गांवों के जमनालालों को/रह जाना है अभी /खेतों की मेड़ों पर दुहरा का दुहरा।'                                            
मीना पाण्डेय

कविताओं में लोकधर्मिता का निर्वाह जिस रूप में ओम् नागर करते हैं वो कविता की सार्थकता को लोक के संघर्ष से जोड़ने के प्रयास के  रूप मे रेखांकित किया जा सकता है। ग्रीष्मकालीन अवकाशों में या एक पर्यटक की आँख से गांव टटोलने या उसके श्रम,संघर्ष व परिस्थितियों को स्वयं पर भोगते हुए उसे सर्वग्राहय बना देना दोनों मे भिन्नता है और ये भिन्नता इन कविताओं में स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है।यहाँ कवि को मिट्टी की खुशबू अच्छी लगती है। वो किसान के जमीन से रिश्ते को पहचानता है, गांव के लिए संघर्ष शब्द के मायने समझता है और पाठक को समझाने के प्रयत्न में भी सफल होता है  'जमीन के व्याकरण में /अपने और राज के मुहावरे का अन्तर।'।                                                    
लोक में पहले से गढ़े मुहावरों ,नारों को स्मृति में लौटा लाने का अदभुत तरीका है कवि के पास।यथा-  ' बाप की और धरती राज की होती है '।                                          
स्मृतियों के अकाल के दिन ' कविता पढ़ते-पढ़ते एक तरह की आतमग्लानि से गुजरेंगे आप कि इतने बंजर व कलंकित  दिनों की गवाह रह चुकी है हमारी पीढ़ी और हम अब भी जी रहे हैं हाथ में हाथ धरे।समय की निरंकुशता  व आदमी द्वारा गढ़ लिए गए सुनहरे भ्रम पर कवि का  व्यंग्य मिश्रित स्वर सोचने पर विवश करता है - 'अभी -अभी टीवी की हाटसीट से उठा है एक एंकर/भारत -चीन युद्ध में विजय की मुद्रा में।'।            
 'स्मृतियों के अकाल के दिन ' मात्र विसंगतियों को कोसती कविता नहीं है।,। एक  विलाप है समय की विद्रूपता पर ।एक ऐसा विलाप  जहां छोडे गए व्यंग्य बाण स्वयं का ही सीना छलनी कर जाते हैं और मानों कहते -कहते रो देना चाहता है शब्द शिल्पी मगर विडम्बना देखिए 'अभी अभी सूखा है स्मृतियों की आँख का अंतिम जल' ।

पंकज दीक्षित

'कविता हमशक्ल समय के बारे में ' की बानगी देखिए कौन है भला- सा आदमी/किसी ठिठुरे हुए गणतंत्र से मिलती हैजिसकी शक्ल ' । इतिहास के पृष्ठों पर शासक व शोषित के मध्य की खाई को रेखांकित करती कविता 'अंतिम इच्छा ' नए सिरे से इतिहास टटोलने का उपक्रम है। अंतिम पंक्तियां पूरी कविता के मन्तवय को स्पष्ट देती हैं। तब भी कवि गांव की बात करता अधिक प्रभावी दिखाई दिया है। 'गाँव की चिट्ठी' श्रंखला की चारों कविताएं ग्राम्य जीवन का असल लेखा जोखा हैं। वहां चिन्ताएं हैं,आशंकाएं हैं, शिकायतें हैं और अनेक अनुत्तरित सवाल।लोक की ठसक बनाए रखते हुए कवि का क्रांतिकारी खुलासा पाठक को स्तब्ध कर देता है। 'राजपथ पर हल चलाने का मन है हमारा'। गांव के बेरोजगार युवाओं के  भ्रमजाल,औद्योगीकरण की मार से कुम्हार, बढ़ई जैसे हस्तशिल्पियों के हाथ लगी हताशा को स्वर देती कविता मार्मिक चित्र खींचती है।

ओम नागर की कविताएं मात्र लफ्फाजी से इतर संवेदनाओं के सेतू तलाशती हैं।इनके पास शब्द संस्कार ह,प्रतिक हैं,बिम्ब है और ग्रामीण जीवन का भोगा हुआ वर्तमान। इन सबसे लबरेज़ उनका संवेदनशील मन जब कविता कहता हूँ तब कविता अपनी कथात्मकता  के  साथ पाठक के सम्मुख से चलचित्र सी गुजरती है।
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ओम नागर की कविताएं

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1 टिप्पणी:

  1. ओम नागर की कविताओं की उत्सुकता जगाती सार्थक पड़ताल प्रभावपूर्ण लगी, धन्यवाद

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