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मैंने देखे हैं
उदासी से होने वाले
बड़े बड़े खतरे
इसीलिए डरती हूँ
उदास होने से
डरती हूँ जब गाती है
वो नीली आँखों वाली चिड़िया
सन्नाटे का गीत
सारी सारी रात
उस सूखे दरख्त पर बैठे हुए
ताकते हुए आकाश
उदास तो वो
आले पर रखा हुआ दिया भी है
जिसमें रोज़ जलती है
उम्मीद की लौ
उदास तो वो चूल्हा भी है
जिसके पास बच जाती है
बस थोड़ी सी ठंडी राख
वो हरी कोमल दूब भी उदास होती है न
जब लाख कोशिशों के बावजूद
सम्भाल नहीं पाती
ओस की एक अकेली बूंद
वो नदी भी
जिसमें होती है
सागर जितनी प्यास
मैंने देखा एक मन को उदास होते हुए
देखी शिद्दत से सहेजी
उसकी सारी नमी को बह बह जाते हुए
होठों ने भी चखी उदासी
और कहा
नमक सी तासीर है इसकी
बस उसी दिन से डरती हूँ मैं
छिपा देती हूँ
अपनी पीठ के पीछे
नमक के बड़े बड़े पहाड़
हाँ डरती हूँ
क्योंकि मैंने भी सुन रखा है
नमक की क्रांति के बारे......
उदास समय
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यह इस उदास धरती का
एक बेहद उदास समय है
जब शब्दकोश खो रहे हैं लगातार
अपने तमाम ताकतवर शब्दों को
और तसल्ली भी विलुप्तप्राय है
बावजूद इसके
हम खड़े होने की कोशिश में हैं
अपने उदास सपनों के साथ
इस बेहद उदास समय के खिलाफ
हम शून्य आँखों से देखते हैं
रोटी की लड़ाई लड़ता
आग में झुलसता बचपन
उस दारु के ठेके के पास से
उठायी जा रही वो तीन लड़कियाँ
और चारों तरफ़ फैलता
कब्रों का बाज़ार
हम प्रतिभागी हैं
इन विडम्बनाओं के
रात्रि की निस्तब्धता में फैलती
वो अदृश्य गंध
और आकाश की
वो गहन नीरवता
बेचैन करती है हमें
और भ्रमित भी
हम फ़िर भी टिके रहते हैं
अपने धारदार तर्कों के साथ
अपने अपने पक्ष में
कि कोई प्रतिपक्ष
पैमाना हो भी नहीं सकता
हमारी ईमानदार आश्वस्ति का
हाँ , फिसलते वक़्त पर
सधकर चलना ही
बस ज़रुरी है अब
क्या तुमने कीचड़ में
धंसते हुए नहीं देखा
कभी किसी को.........
आत्म-प्रवंचना
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मुझे आश्चर्य होता है
हमारी आत्म-प्रवंचना पर
कि कैसे एक छोटे से झरोंखे से
नापते हैं हम जीवन का विस्तार
जबकि अनदेखी रह जाती हैं
उन तलहटियों की गहराइयाँ
जिनमें टूट कर बिखरे पड़े होते हैं
कई कई पर्वतों के शिखर
जबकि अनदेखे रह जाते हैं
दूर उगते कई कई क्षितिज
जिनके पार कुलबुलाती हैं
तृष्णा-वितृष्णा की जीवित रेखायें
कि हम नहीं देख पाते
सधे पाँव में कसती अमरबेल को
कि हम नहीं देख पाते
सच की पीठ पर उभरती
झूठ की खरोंचें
कि हम नहीं देख पाते
कैसे छिपायें जा रहे हैं
सूरज , चाँद और सितारे
कोहरे के जंगल में
हम बस अपनी जगह स्थिर बैठे
उसी झरोंखे से निकालते हैं अपनी बाहें
और धीरे धीरे अपनी व्याकुलताओं में
तिरोहित होते जाते हैं ..........
कि ज़रुरी है तुम्हारा हँसना हमारी हँसी के लिये
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सबकुछ ख़त्म
होने के बाद भी
तुम बचा ले जाना
थोड़ी सी हँसी
बस उतनी ही भर
जितनी ज़रुरी हो
किसी बंजर पड़ी
धरती की नमी के लिये
बस उतनी ही भर
जितनी ज़रुरी हो
आँखों भर
नीले सपनों के लिये
बस उतनी ही भर
कि हम खड़े रह पायें
इस भयावह वक़्त के विरुद्ध
बस उतनी ही भर
कि खिलखिला उठे
एक उदास नदी
तुम्हारी हँसी में .........
अनामंत्रित
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सुख के सघन रेशों से छनकर
बूँद बूँद इकट्ठा हुई स्मृतियों को
धीमे से बहा आना
उस तरलता में
जो हमारा दुःख है
उतना मुश्किल नहीं होता
जितना मुश्किल होता है
व्यवस्थित करना
अपनी ऊसर चेतना और अशक्त धैर्य को
उस क्षितिज और अाकाश के मध्य कहीं .........
मुश्किल होता है व्यवस्थित करना
अपनी आस्थाओं को
उन प्रार्थनाओं में
उसी ईश्वर के सापेक्ष
जो आज हमारे लिये
एक तर्क का विषय है ..........
अपने दिन और रात को व्यवस्थित करना
उतना मुश्किल नहीं होता
जितना मुश्किल होता है
अपनी आवाज़ और उदासी को
व्यवस्थित करना ..............
व्यवस्थित करना अपनी नींद और सपनों को
अपने चल चुके क़दमों को व्यवस्थित करना
व्यवस्थित करना खुद को उस अज्ञात में
जहाँ आज वह एक अनामंत्रित प्रवासी थी ............
अट्टहास
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वह एक अट्टहास है
उस भीड़ का
जहाँ उसके लिये
सिर्फ़ वितृष्णा होनी चाहिये
वह गिद्धों की गरदन
मरोड़कर बैठा है
बेखौफ
जबकि छिपकलियां
छटपटा रही हैं
उसकी मुट्ठीयों में
उसने नोंचने शुरु कर दिये हैं
सारसों के पर
हाँ उनकी खरोंचें
अभी तुमपर बाकी हैं
तुम बस यूँ ही
खींसे निपोरकर
बैठे रहना चुपचाप
मुझे बड़ा ताज्जुब होता है तुमपर
तुम्हारी नज़रों के सामने
वह लगातार बोता जा रहा है
झूठ पर झूठ
और तुम बड़ी ही
तल्लीनता से चढ़ाये जा रहे हो
उसके झूठों पर
सच की कलई
अभी जबकि
तुम्हारा संघर्ष
सिर्फ़ तुम्हारे हिस्से की
अंधेरे के खिलाफ होना था
तुम व्यस्त हो
उसके दिये हुए
तमाम अंधेरों को समेटने में
मैं क्या जिरह करूँ तुमसे
कि सबकुछ
जानते समझते हुए भी
तुम रोज़ गढ़ रहे हो
उसके पक्ष में
नये नये धारदार तर्कों को
जबकि वो खुद ही
अपने विरुद्ध
एक सशक्त बयान है...........
विस्थापन
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हम विस्थापित होते हैं हर रोज़
हम छोड़ देते हैं अपनी मिट्टी को
और भागते है ज़िंदगी के पीछे बेतहाशा
पर हमारी जड़ें दबी रह जाती हैं
वहीं कहीं उसी मिट्टी के नीचे......
हम विस्थापित होते हैं हर रोज़
अपने सपनों में ,अपनी स्मृतियों में ,
अपनी सांसों और सिलवटों में ,
भाषा ,शब्दों और विचारों में ,
हम विस्थापित होते हैं
हर नये रिश्ते में ,
अपनी रुह तक में भी..........
हम खुद में ही खुद को छोड़कर
बढ़ते जाते हैं आगे
और पीछे छूटती जाती हैं
जाने कितनी विस्थापित परछाइयां
विस्थापन लगातार बेदखल करता जाता है
हमारी तमाम पुरानी चाहनाओं को
उस एक अप्राप्य की चाह में..........
विस्थापन किस्तों में ख़त्म करता है हमें
और हमारे मिटते ही
अवतरित होता है एक नया कालखंड
अपने होने वाले विस्थापन के
कई नई वजहों के साथ
विस्थापन ही रचता है
चीखती ,चिल्लाती , झकझोरती सी
उन आवाजों को
जो सच सच कह जाती हैं
कि हर विस्थापन का अंत
वापसी तो बिल्कुल नहीं होता........
जूतों की चरमराहट
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वह ऊँची आवाज़ में
क्रांति की बात करता है
संघर्ष की बात करता है
और फ़िर निश्चेष्ट होकर बैठ जाता है
वह देखता है
हर रोज़ होती आत्महत्याओं को
रचे जा रहे प्रपंचों को
वह हर रोज़ गुजरता है
अपनी उफ़नती सोच की पीड़ा से
किंतु प्रमाणित नहीं कर पाता
अपने शब्दों को
वह हर रोज़ बढ़ाता है एक क़दम
उस अमानुषी पत्थर की ओर
फ़िर एक क़दम पीछे हो लेता है
वह अपने और ईश्वर के बीच
नफ़रत को बखूबी पहचानता है
और पहचानता है हवाओं में
देह व आत्माओं की मिली जुली गंध
वह देखता है
सभ्यता के चेहरे पर पड़े खरोंचों को
वह देखता है
सदी के नायकों को टूट कर
बिखरते बदलते भग्नावशेषों में
वह अकेला है , विखंडित
इतनी व्यापकता में भी
अभी जबकि
जल रहे हैं जंगल , गेहूँ की बालियां
टूट रहे हैं सारसों के पंख
कैनवास में अभी भी
सो रहा है एक अजन्मा बच्चा
और उसकी माँ की चीखें
कुंद होकर लौट रही हैं
बार बार उसी कैनवास में
अभी जबकि हो रहे हैं
हवा पानी भाषा के बंटवारे
और समुन्दर के फेन से
सुषुप्त हैं हमारे सपने
उसे थामना है इस थर्राई धरती को
और चस्पा करने हैं मुस्कान के वो टुकड़े
जिसमें बाकी हो कुछ चमकीला जीवन
अभी जबकि बाकी है उसके जूतों में चरमराहट
उसे लगातार दौड़नी है अपने हिस्से की दौड़........
चीखो , बस चीखो
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चीखो
कि हर कोई चीख रहा है
चीखो
कि मौन मर रहा है
चीखो
कि अब कोई और विकल्प नहीं
चीखो
कि अब चीख ही मुखरित है यहाँ
चीखो
कि सब बहरे हैं
चीखो
कि चीखना ही सही है
चीखो
बस चीखो
लेकिन कुछ ऐसे
कि तुम्हारी चीख ही
हो अंतिम
इतने शोर में.............
कोई अर्थ नहीं
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तो हर बात का कोई अर्थ हो
ज़रुरी तो नहीं
जैसे कोई अर्थ नहीं
बोगनवीलिया के उस वृक्ष पर
पसरे उजाड़ से सन्नाटे का
लहरों के बार - बार आकर
पत्थरों से टकराने का
कोई अर्थ नहीं
आज भोर के अंतिम पहर में
देखे गये मेरे उस स्वप्न का
हर रोज़ उतरती मेरी आँखों में
उस उदास सी शाम का...........
कोई अर्थ नहीं
बेतकल्लुफी वाली उस साझी हँसी का
जबकि हम हँस सकते हैं
एकाकी हँसी कई कई बार
हम ध्वस्त करते जाते हैं
एक दूसरे की मान्यताओं को ,
याचनाओं को , तर्कों को
जबकि हम खुद घिरे होते हैं
बौध्दिक शून्यता की परिधि के भीतर
और फ़िर ढूंढ़ते हैं
एक दूसरे के लिये अपने होने का अर्थ........
बस इसी तरह
कोई अर्थ नहीं था
हमारे पास होने का
दूर जाने का
तुमने जहाँ से शुरु की थी
बस वहीं ख़त्म होती थी मेरी यात्रा
हमारे बीच देह भर का फासला था.........
परिचय :
स्मिता सिन्हा
स्वतंत्र पत्रकार
फिलहाल रचनात्मक लेखन में सक्रिय
शिक्षा :
एम ए (एकनॉमिक्स ),पटना
पत्रकारिता (भारतीय जनसंचार संस्थान ),
विभिन्न मीडिया हाउस के साथ 15 से ज्यादा वर्षों का कार्यानुभव ,
एम बी ए फेकल्टी के तौर पर विश्वविद्यालय स्तर पर कार्यानुभव ।
नया ज्ञानोदय , 'कथादेश ', 'इन्द्रप्रस्थ भारती ', 'लोकोदय ' इत्यादि पत्रिकाओं में रचनायें प्रकाशित ।
कविता कोष पर भी रचनायें उपलब्ध ।
जानकीपुल ,शब्दांकन जैसे प्रतिष्ठित ब्लॉग पर भी कवितायें आ चुकी हैं ।
Mail id - smita_anup@yahoo.com
पता : V-704, Ajnara homes 121,Sec-121,Noida (UP)
ph no -9310652053
अत्यंत सशक्त कविताएँ !! साधुवाद !
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