26 दिसंबर, 2017

स्मिता सिन्हा की कविताएँ




स्मिता सिन्हा 




कविताएं 

नमक 
----------
मैंने देखे हैं 
उदासी से होने वाले 
बड़े बड़े खतरे 
इसीलिए डरती हूँ 
उदास होने से 
डरती हूँ जब गाती है 
वो नीली आँखों वाली चिड़िया 
सन्नाटे का गीत 
सारी सारी रात 
उस सूखे दरख्त पर बैठे हुए 
ताकते हुए आकाश 

उदास तो वो 
आले पर रखा हुआ दिया भी है 
जिसमें रोज़ जलती है 
उम्मीद की लौ 
उदास तो वो चूल्हा भी है 
जिसके पास बच जाती है  
बस थोड़ी सी ठंडी राख 
वो हरी कोमल दूब भी उदास होती है न 
जब लाख कोशिशों के बावजूद 
सम्भाल नहीं पाती 
ओस की एक अकेली बूंद 
वो नदी भी 
जिसमें होती है 
सागर जितनी प्यास 

मैंने देखा एक मन को उदास होते हुए 
देखी शिद्दत से सहेजी 
उसकी सारी नमी को बह बह जाते हुए 
होठों ने भी चखी उदासी 
और कहा 
नमक सी तासीर है इसकी 
बस उसी दिन से डरती हूँ मैं 
छिपा देती हूँ 
अपनी पीठ के पीछे 
नमक के बड़े बड़े पहाड़ 
हाँ डरती हूँ 
क्योंकि मैंने भी सुन रखा है 
नमक की क्रांति के बारे......




उदास समय 
----------------

यह इस उदास धरती का 
एक बेहद उदास समय है 
जब शब्दकोश खो रहे हैं लगातार 
अपने तमाम ताकतवर शब्दों को 
और तसल्ली भी विलुप्तप्राय है
बावजूद इसके 
हम खड़े होने की कोशिश में हैं 
अपने उदास सपनों के साथ 
इस बेहद उदास समय के खिलाफ 

हम शून्य आँखों से देखते हैं 
रोटी की लड़ाई लड़ता 
आग में झुलसता बचपन 
उस दारु के ठेके के पास से 
उठायी जा रही वो तीन लड़कियाँ 
और चारों तरफ़ फैलता 
कब्रों का बाज़ार 
हम प्रतिभागी हैं 
इन विडम्बनाओं के 

रात्रि की निस्तब्धता में फैलती
वो अदृश्य गंध 
और आकाश की 
वो गहन नीरवता 
बेचैन करती है हमें 
और भ्रमित भी 
हम फ़िर भी टिके रहते हैं 
अपने धारदार तर्कों के साथ 
अपने अपने पक्ष में 
कि कोई प्रतिपक्ष 
पैमाना हो भी नहीं सकता 
हमारी ईमानदार आश्वस्ति का 

हाँ , फिसलते वक़्त पर
सधकर चलना ही 
बस ज़रुरी है अब 
क्या तुमने कीचड़ में
धंसते हुए नहीं देखा
कभी किसी को.........





आत्म-प्रवंचना 
_____________

मुझे आश्चर्य होता है 
हमारी आत्म-प्रवंचना पर 
कि कैसे एक छोटे से झरोंखे से 
नापते हैं हम जीवन का विस्तार 

जबकि अनदेखी रह जाती हैं 
उन तलहटियों की गहराइयाँ 
जिनमें टूट कर बिखरे पड़े होते हैं 
कई कई पर्वतों के शिखर
जबकि अनदेखे रह जाते हैं 
दूर उगते कई कई क्षितिज
जिनके पार कुलबुलाती हैं 
तृष्णा-वितृष्णा की जीवित रेखायें

कि हम नहीं देख पाते 
सधे पाँव में कसती अमरबेल को 
कि हम नहीं देख पाते 
सच की पीठ पर उभरती 
झूठ की खरोंचें 
कि हम नहीं देख पाते 
कैसे छिपायें जा रहे हैं 
सूरज , चाँद और सितारे 
कोहरे के जंगल में 

हम बस अपनी जगह स्थिर बैठे 
उसी झरोंखे से निकालते हैं अपनी बाहें 
और धीरे धीरे अपनी व्याकुलताओं में 
तिरोहित होते जाते हैं  ..........



कि ज़रुरी है तुम्हारा हँसना हमारी हँसी के लिये 
______________________________


सबकुछ ख़त्म 
होने के बाद भी 
तुम बचा ले जाना 
थोड़ी सी हँसी 

बस उतनी ही भर 
जितनी ज़रुरी हो 
किसी बंजर पड़ी 
धरती की नमी के लिये 

बस उतनी ही भर 
जितनी ज़रुरी हो 
आँखों भर 
नीले सपनों के लिये 

बस उतनी ही भर 
कि हम खड़े रह पायें 
इस भयावह वक़्त के विरुद्ध 
बस उतनी ही भर 
कि खिलखिला उठे 
एक उदास नदी 
तुम्हारी हँसी में .........












अनामंत्रित 
--------------

सुख के सघन रेशों से छनकर 
बूँद बूँद इकट्ठा हुई स्मृतियों को 
धीमे से बहा आना 
उस तरलता में 
जो हमारा दुःख है 
उतना मुश्किल नहीं होता 
जितना मुश्किल होता है 
व्यवस्थित करना 
अपनी ऊसर चेतना और अशक्त धैर्य को 
उस क्षितिज और अाकाश के मध्य कहीं .........

मुश्किल होता है व्यवस्थित करना 
अपनी आस्थाओं को 
उन प्रार्थनाओं में 
उसी ईश्वर के सापेक्ष 
जो आज हमारे लिये 
एक तर्क का विषय है ..........

अपने दिन और रात को व्यवस्थित करना 
उतना मुश्किल नहीं होता 
जितना मुश्किल होता है 
अपनी आवाज़ और उदासी को 
व्यवस्थित करना ..............

व्यवस्थित करना अपनी नींद और सपनों को 
अपने चल चुके क़दमों को व्यवस्थित करना 
व्यवस्थित करना खुद को उस अज्ञात में 
जहाँ आज वह एक अनामंत्रित प्रवासी थी ............





 अट्टहास
------------
वह एक अट्टहास है 
उस भीड़ का 
जहाँ उसके लिये 
सिर्फ़ वितृष्णा होनी चाहिये 
वह गिद्धों की गरदन 
मरोड़कर बैठा है 
बेखौफ 
जबकि छिपकलियां 
छटपटा रही हैं 
उसकी मुट्ठीयों में 
उसने नोंचने शुरु कर दिये हैं 
सारसों के पर 
हाँ उनकी खरोंचें 
अभी तुमपर बाकी हैं 
तुम बस यूँ ही 
खींसे निपोरकर  
बैठे रहना  चुपचाप 

मुझे बड़ा ताज्जुब होता है तुमपर 
तुम्हारी नज़रों के सामने 
वह लगातार बोता जा रहा है 
झूठ पर झूठ 
और तुम बड़ी ही 
तल्लीनता से चढ़ाये जा रहे हो 
उसके  झूठों पर 
सच की कलई 
अभी जबकि 
तुम्हारा संघर्ष 
सिर्फ़ तुम्हारे हिस्से की 
अंधेरे के खिलाफ होना था 
तुम व्यस्त हो 
उसके दिये हुए 
तमाम अंधेरों को समेटने में 

मैं क्या जिरह करूँ तुमसे 
कि सबकुछ 
जानते समझते हुए भी 
तुम रोज़ गढ़ रहे हो 
उसके पक्ष में 
नये नये धारदार तर्कों को 
जबकि वो खुद ही 
अपने विरुद्ध 
एक सशक्त बयान है...........











विस्थापन 
__________

हम विस्थापित होते हैं हर रोज़ 
हम छोड़ देते हैं अपनी मिट्टी को 
और भागते है ज़िंदगी के पीछे बेतहाशा 
पर हमारी जड़ें दबी रह जाती हैं
वहीं कहीं उसी मिट्टी के नीचे...... 

हम विस्थापित होते हैं हर रोज़ 
अपने सपनों में ,अपनी स्मृतियों में ,
अपनी सांसों और सिलवटों में ,
भाषा ,शब्दों और विचारों में ,
हम विस्थापित होते हैं 
हर नये रिश्ते में ,
अपनी रुह तक में भी..........

हम खुद में ही खुद को छोड़कर 
बढ़ते जाते हैं आगे 
और पीछे छूटती जाती हैं 
जाने कितनी विस्थापित परछाइयां 
विस्थापन लगातार बेदखल करता जाता है 
हमारी तमाम पुरानी चाहनाओं को 
उस एक अप्राप्य की चाह में..........

विस्थापन किस्तों में ख़त्म करता है हमें 
और हमारे मिटते ही 
अवतरित होता है एक नया कालखंड 
अपने होने वाले विस्थापन के 
कई नई वजहों के साथ
विस्थापन ही रचता है 
चीखती ,चिल्लाती , झकझोरती सी 
उन आवाजों को 
जो सच सच कह जाती हैं 
कि हर विस्थापन का अंत 
वापसी तो बिल्कुल नहीं होता........



 जूतों की चरमराहट 
________________

वह ऊँची आवाज़ में  
क्रांति की बात करता है 
संघर्ष की बात करता है 
और फ़िर निश्चेष्ट होकर बैठ जाता है 
वह देखता है 
हर रोज़ होती आत्महत्याओं को 
रचे जा रहे प्रपंचों को 
वह हर रोज़ गुजरता है 
अपनी उफ़नती सोच की पीड़ा से 
किंतु प्रमाणित नहीं कर पाता 
अपने शब्दों को 
वह हर रोज़ बढ़ाता है एक क़दम 
उस अमानुषी पत्थर की ओर 
फ़िर एक क़दम पीछे हो लेता है 
वह अपने और ईश्वर के बीच 
नफ़रत को बखूबी पहचानता है 
और पहचानता है हवाओं में 
देह व आत्माओं की मिली जुली गंध 
वह देखता है 
सभ्यता के चेहरे पर पड़े खरोंचों को 
वह देखता है 
सदी के नायकों को टूट कर 
बिखरते बदलते भग्नावशेषों में 

वह अकेला है , विखंडित 
इतनी व्यापकता में भी 
अभी जबकि 
जल रहे हैं जंगल , गेहूँ की बालियां 
टूट रहे हैं सारसों के पंख 
कैनवास में अभी भी 
सो रहा है एक अजन्मा बच्चा 
और उसकी माँ की चीखें 
कुंद होकर लौट रही हैं 
बार बार उसी कैनवास में 
अभी जबकि हो रहे हैं 
हवा पानी भाषा के बंटवारे 
और समुन्दर के फेन से 
सुषुप्त हैं हमारे सपने 
उसे थामना है इस थर्राई धरती को 
और चस्पा करने हैं मुस्कान के वो टुकड़े 
जिसमें बाकी हो कुछ चमकीला जीवन 
अभी जबकि बाकी है उसके जूतों में चरमराहट 
उसे लगातार दौड़नी है अपने हिस्से की दौड़........





चीखो , बस चीखो 
_______________

चीखो 
कि हर कोई चीख रहा है 
चीखो 
कि मौन मर रहा है 
चीखो 
कि अब कोई और विकल्प नहीं 
चीखो 
कि अब चीख ही मुखरित है यहाँ 
चीखो 
कि सब बहरे हैं 
चीखो 
कि चीखना ही सही है 
चीखो 
बस चीखो 
लेकिन कुछ ऐसे 
कि तुम्हारी चीख ही 
हो अंतिम 
इतने शोर में.............










कोई अर्थ नहीं 
____________

तो हर बात का कोई अर्थ हो 
ज़रुरी तो नहीं 
जैसे कोई अर्थ नहीं 
बोगनवीलिया के उस वृक्ष पर 
पसरे उजाड़ से सन्नाटे का 
लहरों के बार - बार आकर 
पत्थरों से टकराने का 
कोई अर्थ नहीं 
आज भोर के अंतिम पहर में 
देखे गये मेरे उस स्वप्न का 
हर रोज़ उतरती मेरी आँखों में 
उस उदास सी शाम का...........

कोई अर्थ नहीं 
बेतकल्लुफी वाली उस साझी हँसी का 
जबकि हम हँस सकते हैं 
एकाकी हँसी कई कई बार 
हम ध्वस्त करते जाते हैं 
एक दूसरे की मान्यताओं को ,
याचनाओं को , तर्कों को 
जबकि हम खुद घिरे होते हैं 
बौध्दिक शून्यता की परिधि के भीतर 
और फ़िर ढूंढ़ते हैं 
एक दूसरे के लिये अपने होने का अर्थ........

बस इसी तरह 
कोई अर्थ नहीं था 
हमारे पास होने का 
दूर जाने का 
तुमने जहाँ से शुरु की थी 
बस वहीं ख़त्म होती थी मेरी यात्रा 
हमारे बीच देह भर का फासला था.........




परिचय :

स्मिता सिन्हा 
स्वतंत्र पत्रकार 
फिलहाल रचनात्मक लेखन में सक्रिय 
शिक्षा :
एम ए (एकनॉमिक्स ),पटना 
पत्रकारिता (भारतीय जनसंचार संस्थान ),
विभिन्न मीडिया हाउस के साथ 15 से ज्यादा वर्षों का कार्यानुभव ,
एम बी ए फेकल्टी के तौर पर विश्वविद्यालय स्तर पर कार्यानुभव । 

नया ज्ञानोदय , 'कथादेश ', 'इन्द्रप्रस्थ भारती ', 'लोकोदय ' इत्यादि पत्रिकाओं में रचनायें प्रकाशित । 
कविता कोष पर भी रचनायें उपलब्ध । 
जानकीपुल ,शब्दांकन जैसे प्रतिष्ठित ब्लॉग पर भी कवितायें आ चुकी हैं ।
पता : V-704, Ajnara homes 121,Sec-121,Noida (UP)
ph no -9310652053





चित्र गूगल से साभार 

1 टिप्पणी: